सम्राट हर्षवर्धन



आज एक ऐसे राजा की कहानी, जिसके काल में भारत पर कोई विदेशी आक्रमण नहीं हुआ, या यूं कहें कि उसकी शक्ति इतनी अधिक थी कि किसी का साहस ही नहीं हुआ | भारत जो उसके पूर्व छोटे छोटे राज्यों में विभक्त था, एकता के सूत्र में आबद्ध हो गया | शांतिकाल होने के कारण कला, साहित्य तथा ज्ञान विज्ञान के क्षेत्र में सर्वतोमुखी प्रगति हुई | चीनी यात्री व्हेनसोंग ने जिसका वर्णन भारतीय इतिहास के स्वर्णकाल के रूप में किया है, आईये सम्राट हर्षवर्धन के जीवन पर एक द्रष्टि डालें – 

आज भले ही थानेसर हरियाणा में कुरुक्षेत्र जिले की मात्र एक तहसील है, किन्तु छठी शताब्दी के अन्त में यह पुष्यभूति वंश की राजधानी था जिसके प्रतापी शासक प्रभाकरनवर्धन के विशाल साम्राज्य में मालवा, उत्तर-पश्चिम पंजाब और राजपूताना का भी कुछ भाग सम्मिलित था । इतिहासकारों ने वर्धन शब्द का तात्पर्य वैश्य से लिया है, उसी की पुष्टि चीनी यात्री व्हेनसोंग ने भी की है | महाकवि वाणभट्ट ने बड़े ही रोचक और अलंकारिक भाषा में प्रभाकर वर्धन की प्रशंसा की है, जिसे सुनकर ही आनंद आता है – 

हूण हरिण केसरी अर्थात हूण रूपी हिरण के लिए सिंह, सिन्धु राजज्वरो, अर्थात जिसे देखकर सिन्धुराज को बुखार चढ़ आता है, गुर्जर प्रजागरः अर्थात गुर्जरों की नींद ख़तम करने वाले, गान्धाराधिप गंधद्वीप कूट हस्ति ज्वरो अर्थात गांधार नरेश रूपी हाथी के लिए अंकुश के समान, लाट पाटव पाटच्चरो, अर्थात गुजरात के लाटों की कुशलता समाप्त करने वाले, मालव लता लक्ष्मी परशु अर्थात मालव देश की लता रूपी लक्ष्मी के लिए फरसे के समान | निश्चित ही यह उनके पराक्रम का बखान था | और इन राजाओं को उन्होंने हराया था | इस प्रकार उत्तरी भारत के लगभग सम्पूर्ण क्षेत्र पर प्रभाकर वर्धन का आधिपत्य था | 

लम्बे समय तक प्रभाकर वर्धन को संतान प्राप्ति नहीं हुई, तब भगवान सूर्य की आराधना से उनका मनोरथ पूर्ण हुआ और तीन संतानें उत्पन्न हुईं, जिनमें सबसे बड़े राज्यवर्धन, दूसरे हर्ष वर्धन तथा तीसरी कन्या राज्यश्री प्राप्त हुई | दोनों राजकुमारों तथा राजकुमारी राज्यश्री को यथायोग्य शिक्षा प्रदान की गई | वाण लिखते हैं कि कठोर शस्त्राभ्यास से राजकुमारों के हाथ श्याम हो गए थे | उन्होंने अपने शरीर को पर्याप्त बलिष्ठ बना लिया था | वे कुशल धनुर्धारी तथा हर प्रकार के अस्त्र शस्त्रों के प्रयोग में भी दक्ष हो गए | 

जब राजकुमारी राज्यश्री विवाह योग्य हुई तब उनके लिए सुयोग्य वर की तलाश भी शुरू हुई और विचार विमर्श उपरांत कन्नौज के मौखरी राज गृहवर्मा के साथ धूमधाम से उनका विवाह संपन्न हुआ | ६०४ ईसवी के आसपास राज्य की उत्तर पश्चिमी सीमा पर हूणों ने आतंक मचाना शुरू किया तो वृद्ध राजा प्रभाकर वर्धन ने बड़े पुत्र राज्य वर्धन को एक विशाल सेना के साथ हूणों के दमन हेतु भेजा | हूणों पर विजय पाकर जब राज्यवर्धन लौटे तब तक राजा स्वयं स्वर्ग सिधार चुके थे | दुर्भाग्य इतने पर ही शांत नहीं हुआ, एक और बुरा समाचार शीघ्र ही उन्हें प्राप्त हुआ | राजा प्रभाकर वर्धन की मौत का समाचार पाकर व राजकुमारों की कम आयु को देखते हुए राज्य के शत्रुओं को उपयुक्त अवसर प्रतीत हुआ और मालवा के अधिपति शशांक ने उनके जामाता अर्थात राज्यश्री के पति कन्नौज के शासक गृहवर्मा को मारकर रानी राज्यश्री को कारागार में डाल दिया | समाचार पाते ही राज्य वर्धन दस हजार सैनिकों के साथ शशांक को सबक सिखाने हेतु कन्नौज की ओर निकल पड़े | राज्य वर्धन ने आसानी से विजय प्राप्त कर ली, किन्तु फिर मालव नरेश शशांक ने उन्हें आदर के साथ मीठी मीठी बातें कर राजमहल में आमंत्रित किया और वहां उस विश्वासघाती ने राज्यवर्धन की हत्या कर दी | 

अब पराक्रम दिखाने की बारी हर्ष वर्धन की थी | वे अपने ममेरे भाई व बालसखा भांडी के साथ बदला लेने को रवाना हुए, किन्तु मार्ग में ही समाचार प्राप्त हुआ की बहिन राजश्री बंधन मुक्त हो कर वन को प्रस्थान कर गईं हैं | हर्ष ने आक्रमण की बागडोर भांडी को सोंपी और स्वयं बहिन की खोज में निकल पड़े | उन्होंने राजश्री को उस समय पाया, जब वह चिता सजाकर स्वयं को दग्ध करने जा रही थी | इधर हर्ष वर्धन उसे किसी प्रकार समझाबुझाकर वापस लाये, उधर भांडी शत्रु पर विजय पा चुके थे | मालव राज उनके भय से युद्ध के पूर्व ही कन्नौज छोड़कर अपने राज्य की ओर भाग गया था | 

जब हर्ष वर्धन अपनी बहिन के साथ उसके राज्य कन्नौज पहुंचे तो, वहां की मंत्रीपरिषद ने उन्हें ही राज्य की बागडोर संभालने को कहा, क्योंकि राजा की तो मृत्यु हो चुकी थी और रानी राजश्री किसी कीमत पर राज्यभार उठाने को सहमत नहीं थी | हर्ष वर्धन धर्म संकट में थे, अपने राज्य को संभालें या इस नए उत्तरदायित्व को ? अंत में यह तय हुआ कि वे राज्य राजश्री के नाम से चलेगा तथा हर्षवर्धन उसका संरक्षण करेंगे | अब इस प्रकार सोलह वर्षीय हर्षवर्धन ही अपने राज्य थानेश्वर और कन्नौज की राज सत्ता संभालने लगे तथा राजधानी कन्नौज हो गई | 

उसके बाद तो एक के बाद एक अनेक राज्यों पर हर्ष ने अपनी विजय पताका फहराई, लेकिन खास बात यह है, उन पराजित राजाओं का राज्य अपने राज्य में मिलाने के स्थान पर उन्हें स्वाधीन रखा और अपना मित्र बनाया | समय के साथ हर्ष कूटनीति में भी पारंगत हो गए | उनके राज्य की बाईं सीमा के वलभी राजा ध्रुवसेन शत्रुभाव रखते थे, अतः हर्ष का उनसे युद्ध हुआ और उन्होंने भागकर गुर्जर नरेश दद्द के पास शरण ले ली | हर्ष ने मामले को तूल न देते हुए स्वाभिमानी वलभी राजा के साथ अपनी पुत्री का विवाह कर उन्हें अपना मित्र बना लिया | दक्षिण में अवश्य उन्हें चालुक्य नरेश पुलकेशी के सम्मुख पराजित होना पड़ा, किन्तु पूरब से पश्चिम तक उत्तर भारत का सम्पूर्ण प्रदेश उनके राज्य के दौरान शांति और समृद्धि के नवयुग में प्रवेश कर गया | एक बार दिग्विजय करने के बाद हर्ष ने लगभग ३० वर्ष शांतिपूर्वक शासन किया | चीनी यात्री व्हेनसोंग ने भी लिखा कि – अपने भाई की हत्या का बदला लेकर उसने अपने आप को भारत का अधिपति बनाया | उसकी ख्याति सब ओर फ़ैल गई, प्रजा के लोग उसके गुणों का आदर करते थे | वह प्रति पांच वर्ष में एक महामोक्ष परिषद् का आयोजन करते थे, जिसमें अपना कोष दान रूप में वितरित कर देते थे | 

हर्ष का कार्यकाल वह था, जब बौद्ध और वैदिक मान्यताओं के बीच संघर्ष चरम पर था | ऐसे में हर्ष की कार्यपद्धति का बहुत सुन्दर वर्णन व्हेनसोंग ने किया है | वह लिखता है – 

प्रयाग में गंगा यमुना के संगम पर दान का महात्म्य सबसे अधिक समझा जाता है, अतः पुरातन काल से राजा गण दान देने यहाँ आया करते थे | इस लिए इसका नाम ही दान क्षेत्र पड़ गया था | हर्ष के दानोत्सव में बौद्ध श्रमण, निर्धन ब्राह्मण तथा अनाथ सभी सम्मिलित हुए | हजार फुट लम्बा और हजार फुट चौड़ा एक वर्गाकार अहाता बनाया गया, जिनमें घांस फूस के बहुत से झोंपड़े बने हुए थे और इन झोंपड़ों में सोना चांदी, इंद्रनील, महानील जैसे सुन्दर मोती आदि बहुमूल्य रत्न से लेकर रेशमी और सूती वस्त्र, सोने चांदी के सिक्के भरे हुए थे | 

एक लाख लोगों के विश्राम और भोजन की भी प्रथक व्यवस्था थी | उत्सव के प्रारंभ में बुद्ध, आदित्य और शिव की मूर्तियाँ स्थापित की गईं, तदनंतर शुरू के चार दिन तो पूर्व से ही चयनित दस हजार बौद्ध, ब्राह्मण व अन्य धर्मों के धर्माचार्यों को सौ सौ स्वर्ण मुद्राएँ, सुंदर मोती व उम्दा सूती वस्त्र दान किये गए | अगले बीस दिनों में सामान्य ब्राह्मण, बौद्ध व अन्य लोगों को व उसके बाद दस दिन तक जो भी आया उसे दान दिया गया | 

इस दान महोत्सव में न केवल खजाना खाली हो गया, बल्कि राजा ने अपने शरीर पर पहिने हुए हीरे जवाहरात व आभूषणों को भी दान कर दिया | दान वितरण के उपरांत इस पुण्यात्मा राजा ने कहा – ईश्वर करे कि मैं आगामी जन्म जन्मान्तरों में भी इसी प्रकार अपने धन भण्डार को मानव जाति की पीड़ा मिटाने हेतु दान करता रहूँ | 

६४१ से ६४६ ईसवी के बीच उनकी जीवन लीला कब समाप्त हुई, यह ठीक ठीक ज्ञात नहीं है, लेकिन दुर्भाग्य देखिये कि यह राजवंश उत्तराधिकारी विहीन था, राज्यवर्धन और हर्ष वर्धन दोनों ही निसंतान स्वर्गवासी हुए | स्वाभाविक ही हर्ष के बाद यह साम्राज्य छिन्न भिन्न होकर नष्ट हो गया, लेकिन हर्ष अपने सद्गुणों के कारण इतिहास में अमर हो गए |
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