कभी तिब्बत के अधीन एक राज्य था चीन - संजय तिवारी


चीन एक समय तिब्बत के अधीन था। बात बहुत से लोगों को अजीब लगेगी। बहुत इसको कल्पना कह सकते हैं। बहुतों के लिए थोड़ी सी उत्सुकता भी होगी। इतिहास का यह ऐसा सच है जिसको देखने, लिखने और नई पीढ़ी को बताने की जरूरत समझी ही नही गयी। स्वाधीन भारत मे यदि सबसे घिनौना कोई कार्य हुआ तो वह है इतिहास के साथ अनैतिक मिलावट। जब मैं यह श्रृंखला लिख रहा हूँ तो इसकी तैयारी में प्राप्त हो रहे नए नए तथ्य मुझे भी झकझोर कर रख देते हैं। सोचने को विवश होना पड़ता है कि ऐसी गंभीर बेईमानियां क्यों की गई है।

नेपाल हो या तिब्बत, ये सभी सांस्कृतिक भारत के अभिन्न अंग हैं। आज भूगोल भले बदला है, संस्कृति और दर्शन वही हैं जो सृष्टि के साथ थे। श्रृंखला की इस कड़ी में बात तिब्बत की । कई लोगों ने तिब्बत को जानने की उत्सुकता जताई है। आइये, देखते है तिब्बत को त्रिपिटक से। बुद्ध शाक्यमुनि के दुनिया में आगमन से पांच सौ वर्ष पहले (1063 ईसा पूर्व) महान शेनराब मीवो नामक एक अर्ध पौराणिक व्यक्तित्व ने शेन जाति के आदि जीववाद में सुधार किया और तिब्बती बॉन धर्म की स्थापना की। नरेश न्यात्री सेनपो से पहले 18 शांगशुग राजाओं ने तिब्बत पर शासन किया था। तिवोर र्सगे झारगुचेन पहले शांगशुग नरेश थे।

शांगशुग सम्राज्य के पतन के बाद 127 ईसापूर्व मे नरेश न्यात्री त्सेनपो के समय यारलुंग और चोंगयास घाटी में बॉड नामक एक राजशाही अस्तित्व में आयी (जो तिब्बत का वर्तमान नाम है)। तिब्बती राजतंत्र का यह वंश एक हजार वर्ष से भी अधिक समय तक 41वें नरेश ठ्रि वूदुम सेन तक विद्यमान रहा, जिन्हें आमतौर पर लांग दार्मा के नाम से जाना जाता है।

सांगत्सेन गाम्पो, त्रिसांग देत्सेन और राल्पाचेन इस वंश के सबसे प्रमुख राजाओं में से थे। यह ”तीन महान नरेश” के नाम से प्रसिद्ध हैं।

त्रिसांग देत्सेन के शासन के दौरान ( 755- 797 ई ) तिब्बती सम्राज्य अपने चरम पर था और उनकी सेनाओं ने चीन और कई मध्य एशियाई देशो में चढ़ाई की। सन 763 में तिब्बतियों ने तत्कालीन चीन की राजधानी चांग-ऐन (वर्तमान जियान) का घेराव कर लिया। इसके कारण चीनी बादशाह भाग खड़ा हुआ और तिब्बतियों ने वहां एक नये शासक की नियुक्ति की। इस यादगार विजय को ल्हासा में झोल डोरिंग (पत्थर स्तंभ) में दर्शाया गया है ताकि भावी पीढ़ियां इसे याद रखे।

इसका एक हिस्सा इस प्रकार हैः

नरेश त्रिसांग देत्सेन एक पारंगत व्यक्ति थे, वह काफी गहन विचार-विमश करते थे ओर उन्होने अपने साम्राज्य के लिये जो कुछ किया वह पूरी तरह सफल था। उन्होने चीन के कई जिलो और किलों पर चढ़ाई की और उन पर अधिकार जमाया। चीनी शासक हेडु की वांग और उनके मंत्री भयभीत हो गये। नरेच्च ने प्रतिवर्ष रेशम की 50,000 गांठों के नियमित नजराने की मांग की और चीन नजराना देने को विवश हुआ।”

नरेश राल्पाछेन के शासन के दौरान ( 815 - 836) तिब्बती सेनाओं को कई बार विजय मिली और 821 - 22 में चीन के साथ एक शांति समझौता संपन्न हुआ। इस समझौते के समझौता संपन्न हुआ। इस समझौते के विवरण वाले शिलालेख तीन स्थानों पर पाये गये है -

पहला चांग-ऐन में चीनी बादशाह के महल के दरवाजे पर, दूसरा ल्हासा में जोखांग मंदिर के मुख्य दरवाजे के पहले और तीसरा गुरु मेरू पर्वत पर स्थित तिब्बत -चीन सीमा पर।

842 ई० में तिब्बत में नरेश राल्पाछेन के भाई 41वें नरेश त्रि वुडुम त्सेन की हत्या के बाद युद्धरत राजकुमारों, लॉर्ड और जनरलों में भयानक सत्ता संघर्ष छिड़ गया और महान तिब्बती साम्राज्य कई छोटे-छोटे राज्यों में बंट गया। 842 से 1247 तक का समय तिब्बत के लिए अंधकार का युग रहा।

1073 में कॉनचोग ग्यालपो ने शाक्य मठ की स्थापना की। शाक्य लामा सत्ता में आए और 1254 से 1350 तक तिब्बत पर 20 शाक्य लामाओं द्वारा शासन किया गया। शाक्य पंडित के नाम से मशहूर साक्यापा कुंगा ग्यालत्सेन ने मंगोल राजकुमार गोदन (खान वंश) का धर्म परिवर्तन कर उसे बौद्ध बनाया और उसके राज्य पर चढ़ाई करने वाली अपनी सेनाओं को हटा लिया।

1358 में यू प्रांत (मध्य तिब्बत) पर नेदांग के राज्यपाल चांगचुब ग्यालत्सेन का अधिकार हो गया जोकागयुद सम्प्रदाय के फामो ड्रगपा शाखा के एक सन्यासी थे। इसके अगले 86 वर्षों तक तिब्बत पर फामों ड्रग्प्पा वंश के ग्यारह लामाओं का शासन रहा।

1434 में पांचवे फामों ड्रुप्पा शासक ड्रकपा गयालत्सेन की मृत्यु के बाद सत्ता रिनपुंग परिवार के हाथ में आ गयी, जिनका डुप्पा ग्यालत्सेन के साथ वैवाहिक संबंध था। 1436 से 1566 तक सत्ता रिनपुंग परिवार के प्रमुखों के हाथ में रही। तिब्बत के महानतम विद्वान जोंखपा लोसांग ड्रगपा ने 1409 में पहले गेलुपा मठ गाडेन की स्थापना की और गेलुग वंश की शुरुआत हुई।

1543 में जन्मे सोनम ग्यातसो एक महान अध्यात्मिक और लौकिक ज्ञान वाले विद्वान के रूप मे उभरे। उन्होंने अल्तान बान को बौद्ध धर्म में दीक्षित कराया और बाद में 1578 में उन्हें दलाई लामा नाम दिया गया जिसका मतलब होता है ”ज्ञान का महासागर”। सोनम ग्यात्सो अपने वंश के तीसरे शासक थे इसलिए उन्हें तीसरा दलाई लामा कहा गया। उनके दो पूर्व अवतारों को मरणोपरांत यह सम्मान दिया गया। तिब्बत और मंगोलिया के बीच एक गहरा आध्यात्मिक संबंध विकसित हुआ।

1642 में पांचवें दलाई लामा गवांग लोजांग ग्यात्सो ने तिब्बत पर आध्यात्मिक व लौकिक दोनों दृष्टियों से अधिकार कर लिया। उन्होंने तिब्बती सरकार की वर्तमान शासन प्रणाली की स्थापना की जिसे गांदेन फोड्रांग” कहा जाता है। समूचे तिब्बत के शासक बनने के बाद उन्होंने चीन की ओर रूख किया और चीन से मांग की कि वह उनकी संप्रभुता को मान्यता दे। मिंग बादशाह ने दलाई लामा को एक स्वतंत्र और बराबरी का शासक स्वीकार किया। इस बात के प्रमाण हैं कि वह दलाई लामा से मिलने के लिए अपनी राजधानी से बाहर आए और उन्होंने शहर को घेरने वाली दीवार के ऊपर से एक ढाल वाले मार्ग का निर्माण किया ताकि दलाई लामा बिना प्रवेश द्वार तक गये सीधे पीकिंग में प्रवेश कर सकें।

लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार है 
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें