"परम पावन दलाई लामा", शांति संघर्ष के 85 वर्ष - संजय तिवारी


उनको परम पावन कहा जाता है। दलाई लामा एक मंगोलियाई पदवी है जिसका मतलब होता है ज्ञान का महासागर । दलाई लामा के वंशज करूणा, अवलोकेतेश्वर के बुद्ध के गुणों के साक्षात रूप माने जाते हैं। बोधिसत्व ऐसे ज्ञानी लोग होते हैं जिन्होंने अपने निर्वाण को टाल दिया हो और मानवता की रक्षा के लिए पुनर्जन्म लेने का निर्णय लिया हो।

परम पावन से मेरी पहली सीधी मुलाकात वर्ष 1997 में गोरखपुर में हुई थी। गोरखपुर विश्वविद्यलय के संस्कृत विभाग में आचार्य करुणेश शुक्ल जी के आग्रह पर वे यहां एक व्याख्यान के लिए पधारे थे। मैं तब रिपोर्टर था। परम पावन के साक्षत्कार की कोशिश में था। सर्किट हाउस में मुलाकात हुई। समय भी मिला। मेरे पहुचते ही उन्होंने एक तरह से मेरा ही साक्षात्कार शुरू कर दिया। उनके सवाल थे - गोरखपुर किस धर्मक्षेत्र में है। यहां गोरखनाथ मंदिर में तंत्र की शिक्षा कैसी चल रही है? ये दोनों ही सवाल अभी उनके मुह से निकले ही थे कि इन प्रश्नों को सुनते हुए विश्वविद्यालय के तत्कालीन कुलपति प्रो रमेश कुमार मिश्र वहां पहुँच गए। मुझसे किये गए प्रश्नों का जवाब कुलपति जी ने ही दिया। बद्री केदार धर्मक्षेत्र में गोरखपुर । गोरखनाथ पीठ में तंत्र साधना की जानकारी।

अभी 6 जुलाई को परमपावन ने जीवन के 85 वर्ष पूरे किए हैं। उनकी स्मृति का यह आलेख विलंब से लिख पा रहा हूँ। लिखना जरूरी लगा क्योकि परम पावन भले ही बौद्ध आध्यात्मिक गुरु है, मुझे सनातन संस्कृति में रुचि उनसे मिलने के बाद ही ज्यादा हुई। सनातन , वैदिक संस्कृति के साथ ही नाथ सम्प्रदाय और गुरू गोरखनाथ के साथ ही इस पूरी परंपरा में रुचि और बढ़ती ही गयी। उनसे मिलने के बाद ही मैंने भगवान शंकराचार्य को समझना शुरू किया । वह अभी तक जारी है। भगवान शंकराचार्य को एक जन्म में समझ पाना संभव नही लगता। हम जैसे अल्पज्ञानियो के लिए बहुत कठिन यात्रा है यह।

यह सत्य है कि परमपावन दलाई लामा के बारे में नई पीढ़ी को बहुत कम ही जानकारी है। दलाई लामा की परंपरा, तिब्बत की महत्ता, भारत से संवेनात्मक संबंध, उनकी निर्वासित सरकार से लेकर अब एक आध्यात्मिक गुरु के रूप में उनकी जीवन यात्रा को समझना अत्यंत आवश्यक है।

आखिर हैं कौन परम पावन

परम पावन चौदहवें दलाई लामा तेनज़िन ग्यात्सो २९ मई २०११ तक तिब्बत के राजकीय प्रमुख रहे और उपरोक्त तिथि पर उन्होंने अपनी सारी राजनीतिक शक्तियाँ तथा उत्तरदायित्व प्रजातांत्रिक तरीके से चुने हुए तिब्बती नेतृत्व को हस्तांतरित किये। अब वे केवल तिब्बत के सर्वोच्च आध्यात्मिक गुरु हैं। उनका जन्म ६ जुलाई १९३५ को उत्तरी तिब्बत में आमदो के एक छोटे गाँव तकछेर में एक कृषक परिवार में हुआ था। दो वर्ष की आयु में ल्हामो दोंडुब नाम का वह बालक तेरहवें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो के अवतार के रूप में पहचाना गया। ऐसा विश्वास है कि दलाई लामा अवलोकितेश्वर या चेनेरेज़िग का रूप हैं जो कि करुणा के बोधिसत्त्व तथा तिब्बत के संरक्षक संत हैं। उन्हें सम्मान से परमपावन भी कहा जाता है। बोधिसत्त्व प्रबुद्ध सत्त्व हैं जिन्होंने अपना निर्वाण स्थगित कर मानवता की सेवा के लिए पुनः जन्म लेने का निश्चय लिया है।

तिब्बत में शिक्षा

परम पावन की मठीय शिक्षा छह वर्ष की आयु में प्रारंभ हुई। उनके पाठ्यक्रम में पाँच महाविद्या तथा पाँच लघु विद्या थे। महाविद्या थे प्रमाण विद्या, शिल्प विद्या, शब्द विद्या, चिकित्सा विद्या तथा आध्यात्मिक विद्या, जो अन्य पाँच वर्गों में विभक्त थाः प्रज्ञापारमिता, माध्यमिक, विनय, अभिधर्म और प्रमाण। पाँच लघु विद्या थे काव्य, नाटक, ज्योतिष, छन्द तथा अभिधान। सन् १९५९ में२३ वर्ष की आयु में वे ल्हासा के जोखंग मंदिर में मोनलम (प्रार्थना) उत्सव के समय अपनी अंतिम परीक्षा में बैठे। उन्होंने अपनी परीक्षा में बड़े ही सम्मान के साथ सफलता प्राप्त की और उन्हें गेशे ल्हारम्पा की उपाधि जो कि उच्चतम उपाधि है और बौद्ध दर्शन में डॉक्टर के समकक्ष है, से सम्मानित किया गया।

नेतृत्व का उत्तरदायित्व

चीन द्वारा १९४९ में तिब्बत पर आक्रमण के बाद १९५० में परम पावन से पूरी राजनैतिक सत्ता संभालने का आग्रह किया गया। १९५४ में वे माओ च़े तुंग तथा अन्य चीनी नेताओं जिनमें देंग ज़ियोपिंग और चाउ एन लाइ भी शामिल थे, के साथ शांति वार्ता के लिए बीजिंग गए। पर अंततः १९५९ में चीनी सेना द्वारा ल्हासा के तिब्बती राष्ट्रीय संघर्ष को बड़ी क्रूरता से कुचले जाने के कारण परम पावन को शरण लेने के लिए बाध्य होना पड़ा। तबसे वे उत्तरी भारत के धर्मशाला में निवास करते हैं जो कि निर्वासित तिब्बती राजनैतिक प्रशासन का केन्द्र है।
चीनी आक्रमण के बाद परम पावन ने तिब्बत के प्रश्न पर संयुक्त राष्ट्र संघ से अपील की है। संयुक्त राष्ट्र संघ ने तिब्बत पर १९५९, १९६१, और १९६५ में तीन प्रस्ताव पारित किए।

प्रजातंत्रीय प्रक्रिया

१९६३ में परम पावन ने तिब्बत के प्रजातंत्रीय संविधान का एक प्रारूप प्रस्तुत किया जिसके बाद हमारी प्रशासनिक व्यवस्था को प्रजातांत्रिक बनाने के लिए कई संशोधन हुए। इस सुधार के फलस्वरूप जो नया प्रजातंत्रीय संविधान घोषित हुआ वह शरणार्थी तिब्बतियों के संविधान के नाम से जाना जाता है। इस संविधान में अभिव्यक्ति, विश्वास, सभा तथा घूमने फिरने की स्वतंत्रता प्रतिष्ठापित है। इसमें जो शरणार्थी के रूप में रह रहे हैं उनके प्रति भी तिब्बती प्रशासन के प्रकार्यों के लिए दिशा निर्देश दिए गए हैं।

१९९२ में परम पावन ने भविष्य के स्वतंत्र तिब्बत के संविधान के दिशा निर्देश प्रकाशित किए। उन्होंने घोषणा की कि जब तिब्बत स्वतंत्र होगा तो तात्कालिक कार्य एक अंतरिम सरकार की स्थापना करना होगा जिसका पहला कार्य एक संवैधानिक सभा का चुनाव होगा जो तिब्बत की प्रजातंत्र संविधान की रूप रेखा बनाकर उसे स्वीकार करेगी। उस दिन परम पावन अपने सभी ऐतिहासिक तथा राजनैतिक सत्ता अंतरिम राष्ट्रपति को सौंप देंगे और एक साधारण नागरिक की तरह जीवन व्यतीत करेंगे। परम पावन ने यह भी कहा कि तिब्बत जो कि उच़ंग, आमदो और खम तीन पारम्परिक प्रदेशों से बना है वह संघीय तथा प्रजातान्त्रिक होगा।

मई १९९० में परम पावन द्वारा जो सुधार सुझाए गए थे वह तिब्बती समुदाय के लिए एक सच्चे शरणार्थी प्रजातंत्रीय प्रशासन के रूप में साकार हुए। तिब्बती मंत्री परिषद् (कशाग) जिसकी नियुक्ति उस समय तक परम पावन किया करते थे, उसे शरणार्थी तिब्बती संसद के साथ भंग कर दिया गया। उसी वर्ष भारतीय उपमहाद्वीप और३३ से अधिक देशों के शरणार्थी तिब्बतियों ने विस्तृत ग्यारहवीं तिब्बती संसद के लिए एक व्यक्ति एक वोट के आधार पर ४६सदस्यों का चुनाव किया। संसद ने अपनी ओर से मंत्रिमंडल के नए सदस्यों का चुनाव किया। सितंबर २००१ में प्रजातंत्रीकरण की ओर एक बड़ा कदम उठाया गया, जब निर्वाचकों ने मंत्रिमंडल के सबसे वरिष्ठ कलोन ठिपा का सीधा चुनाव किया। इसके बाद कलोन ठिपा ने अपने मंत्रिमंडल की नियुक्ति की जिनके लिए तिब्बती संसद की स्वीकृति प्राप्त करना आवश्यक है। तिब्बत के लंबे इतिहास में, यह पहला अवसर था जब लोगों ने तिब्बत के राजनैतिक नेतृत्व को पहली बार चुना।

शांति पहल

तिब्बत की बिगड़ती परिस्थिति के शांति समाधान के लिए एक पहले कदम के रूप में सितंबर १९८७ में परम पावन ने पाँच बिंदु शांति प्रस्ताव रखा। उन्होंने कल्पना की कि तिब्बत एक आश्रय स्थल बनेगा; एशिया के केन्द्र में शांति का क्षेत्र, जहाँ सभी सत्त्व समन्वय की भावना के साथ रह सकेंगे और उस कोमल वातावरण को सुरक्षित रखा जा सकेगा। परम पावन द्वारा प्रस्तावित इन विभिन्न शांति प्रस्तावों पर एक सकारात्मक उत्तर देने में चीन अब तक असफल रहा है।

पाँच बिंदु शांति योजना

२१ सितम्बर १९८७ को वाशिंगटन डी सी में संयुक्त राज्य अमरीका के कांग्रेस को संबोधित करते हुए परम पावन ने निम्नलिखित शांति प्रस्ताव रखा:

1 सम्पूर्ण तिब्बत को एक शांति क्षेत्र में परिवर्तित किया जाए।

2 चीन की जनसंख्या स्थानातंरण की नीति जो तिब्बतियों के अस्तित्व के लिए ही एक खतरा है, को पूरी तरह से छोड़ दिया जाए।

3 तिब्बतियों के आधारभूत मानवीय अधिकार और प्रजातंत्रीय स्वतंत्रता के प्रति सम्मान की भावना।

4 तिब्बत के प्राकृतिक पर्यावरण की पुनर्स्थापना और संरक्षण तथा चीन द्वारा आणविक शस्त्रों के निर्माण और परमाणु कूड़ादान के रूप में तिब्बत को काम में लाए जाने को छोड़ना ।

5 तिब्बत के भविष्य की स्थिति और तिब्बतियों तथा चीनियों के आपसी संबंधों के विषय में गंभीर बातचीत की शुरुआत।

परम पावन दलाई लामा, पांच सूत्रीय शांति योजना पर यूरोपीय संसद को संबोधित करते हुए, स्ट्रॉसबर्ग, फ्रांस, १५ जून १९८८
परम पावन दलाई लामा, पांच सूत्रीय शांति योजना पर यूरोपीय संसद को संबोधित करते हुए, स्ट्रॉसबर्ग, फ्रांस, १५ जून १९८८

१५ जून,१९८८ को यूरोपियन संसद में परम पावन ने पाँच बिंदु शांति योजना के अंतिम बिंदु का विस्तार करते हुए एक और विस्तृत प्रस्ताव रखा। उन्होंने तिब्बत के तीनों प्रांतों में स्वशासित प्रजातंत्रीय राजनैतिक सत्ता के लिए चीनी और तिब्बतियों के बीच बातचीत का रास्ता सुझाया। यह सत्ता चीनी संघ के साथ होगी तथा चीन सरकार तिब्बत की विदेश नीति तथा सुरक्षा के लिए उत्तरदायी रहेगी।

सार्वभौमिक पहचान

परम पावन दलाई लामा शांति प्रिय व्यक्ति हैं। १९८९ में तिब्बत को स्वतंत्र कराने में उनके अहिंसात्मक संघर्ष के लिए उन्हें नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अत्यधिक आक्रात्मक स्थितियो में भी वे निरंतर अहिंसात्मक नीतियों का समर्थन करते रहे हैं। वे पहले नोबेल विजेता हुए हैं जिन्होंने वैश्विक पर्यावरण की समस्याओं के प्रति अपनी चिंता जताई।

परम पावन ६ महाद्वीपों के ६२ से भी अधिक देशों की यात्रा कर चुके हैं। वे बड़े देशों के राष्ट्रपतियों, प्रधानमंत्रियों और राजकीय शासकों से मिले हैं। वे विभिन्न धर्मों के प्रमुखों और जाने माने वैज्ञानिकों से भी संवाद कर चुके हैं। उनके शांति, अहिंसा, अंतर्धर्मीय समझ, सार्वभौमिक उत्तरदायित्व तथा करुणा के संदेश को देखते हुए १९५९ से परम पावन जी को ८४ से भी अधिक सम्मान, सम्माननीय डॉक्टरेट, पुरस्कार इत्यादि मिल चुके हैं। परम पावन ने ७२ से भी अधिक पुस्तकें लिखी है। परम पावन स्वयं को एक साधारण बौद्ध भिक्षु कहकर संबोधित करते हैं।

राजनीति सेवानिवृत्ति

१४ मार्च २०१० को परम पावन ने तिब्बती जनप्रतिनिधि सभा (निर्वासन में तिब्बती संसद) के संसद को पत्र लिख कर तिब्बतियों के निर्वासन के चार्टर के अनुसार अपने तात्कालिक अधिकार से उन्हें मुक्त करने का अनुरोध किया, क्योंकि तकनीकी रूप से वे अभी भी राज्य प्रमुख थे। उन्होंने घोषणा की कि वह उन परम्पराओं को समाप्त कर रहे थे जिसके अनुसार दलाई लामा ने तिब्बत में आध्यात्मिक और राजनैतिक अधिकार का प्रयोग किया था। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनका उद्देश्य था कि वे मात्र आध्यात्मिक विषयों से संबंध रखते हुए पहले चार दलाई लामा की स्थिति को पुनः प्रारंभ करें। उन्होंने पुष्टि की कि लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित नेतृत्व तिब्बती राजनीतिक मामलों के प्रति सम्पूर्ण औपचारिक उत्तरदायित्व ग्रहण करेगा। अब से गदेन फोडंग, दलाई लामा का आधिकारिक कार्यालय और आवास, उस कार्य को पूरा करेगा।

२९ मई २०१० को, परम पावन ने औपचारिक रूप से दस्तावेज़ पर हस्ताक्षर किए तथा अपना राजनैतिक उत्तरदायित्व लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए नेता को सौंपा। ऐसा करते हुए उन्होंने दलाई लामा की ३६८ वर्षीय परम्परा, जो तिब्बत के आध्यात्मिक और राजनौतिक प्रमुख दोनों के रूप में कार्य कर रही थी, को औपचारिक रूप से समाप्त किया।

भविष्य

१९६९ में ही परम पावन ने स्पष्ट किया था कि दलाई लामा के पुनर्जन्म को मान्यता दी जाए अथवा नहीं वह तिब्बती, मंगोलियाई और हिमालयी क्षेत्रों के लोगों के निर्णय पर निर्भर था। परन्तु स्पष्ट दिशा निर्देशों के अभाव में, एक स्पष्ट खतरा था कि यदि संबद्धित जनता भावी दलाई लामा को पहचानने के लिए तीव्र इच्छा प्रकट करे तो निहित स्वार्थ राजनीतिक स्थिति का लाभ उठा लेंगे। अतः सितंबर २४, २०११ को अगले दलाई लामा की मान्यता के लिए स्पष्ट दिशा-निर्देश प्रकाशित किए गए जिससे किसी तरह के संदेह अथवा धोखे के लिए कोई स्थान न रह जाए।

परम पावन ने घोषणा की कि जब वह नब्बे साल के होंगे तो वे वह तिब्बत बौद्ध परम्परा के शीर्ष लामा, तिब्बती जनता और तिब्बती बौद्ध धर्म में रुचि रखने वाले अन्य संबंधित लोगों के साथ परामर्श करेंगे और यह मूल्यांकन करेंगे कि दलाई लामा की संस्था उनके बाद जारी रहे अथवा नहीं। उनके कथन में इस पर भी चिन्तन किया गया कि किन विभिन्न तरीकों से उनके उत्तराधिकारी की पहचान हो सकेगी। यदि ऐसा निर्णय लिया गया कि एक पन्द्रहवें दलाई लामा को मान्यता दी जानी चाहिए तो ऐसा करने का उत्तरदायित्व प्रमुख रूप से दलाई लामा के गदेन फोडंग ट्रस्ट के संबंधित अधिकारियों पर होगा। उन्हें तिब्बती बौद्ध परम्पराओं के विभिन्न प्रमुख और विश्वसनीय वचन-बद्ध धर्म संरक्षक से परामर्श करना चाहिए, जो दलाई लामा की वंशावली से अविभाज्य रूप से जुड़े हुए हैं। उन्हें इन संबंधित दलों से सलाह और दिशा-निर्देश प्राप्त करना चाहिए और उनके निर्देशानुसार खोज और मान्यता की प्रक्रियाओं को पूरा करना चाहिए। परम पावन ने कहा है कि वह इस बारे में स्पष्ट लिखित निर्देश छोड़ जाएँगे। उन्होंने आगे चेतावनी दी कि ऐसे वैध उपायों द्वारा मान्यता प्राप्त पुनर्जन्म के अतिरिक्त, पीपुल्स रिपब्लिक ऑफ चाइना के एजेंटों सहित राजनैतिक उद्देश्य के लिए किसी के भी द्वारा निर्वाचित किसी उम्मीदवार को कोई मान्यता या स्वीकृति नहीं दी जानी चाहिए।

अबकी परमपावन के जन्मदिन पर

इस बार विश्वभर में दलाई लामा का 85वां जन्मदिन मनाए जाने के साथ ही अमेरिका ने तिब्बती धर्मगुरु को 1959 से शरण देने के लिए भारत को धन्यवाद दिया है। अमेरिकी विदेश विभाग के दक्षिण और मध्य एशियाई ब्यूरो ने सोमवार को ट्वीट किया, “परम पावन दलाई लामा को 85वें जन्मदिन की शुभकामनाएं। आपने तिब्बती लोगों और उनकी धरोहर के प्रतीक के रूप में दुनिया को शांति और दयालुता से प्रेरणा दी है। 1959 से परम पावन और तिब्बती लोगों को शरण देने के लिए हम भारत को धन्यवाद देते हैं। अमेरिकी संसद की प्रतिनिधि सभा की अध्यक्ष नैंसी पेलोसी ने भी तिब्बती धर्मगुरु को उनके जन्मदिन पर शुभकामनाएं दीं। उन्होंने ट्वीट किया, “दलाई लामा आशा के दूत हैं। दया, धार्मिक सद्भाव, मानवाधिकार, तिब्बती लोगों की संस्कृति और भाषा की रक्षा करने में उनके आध्यात्मिक मार्गदर्शन की अहम भूमिका है।” पेलोसी ने कहा कि यह दुखद है कि परम पावन और तिब्बती लोगों की इच्छाएं पूरी नहीं हो सकी हैं क्योंकि दमनकारी चीन की सरकार ने लोगों को प्रताड़ित करने का अपना अभियान चालू रखा है । उन्होंने कहा कि बीजिंग द्वारा जिनका उत्पीड़न किया जा रहा है, उनके बचाव में अमेरिकी संसद ने हमेशा एक स्वर से आवाज उठाई है और हमेशा उठाते रहेंगे। जनवरी में प्रतिनिधि सभा के डेमोक्रेट सदस्यों ने तिब्बती लोगों के अधिकारों के समर्थन में तिब्बत नीति और समर्थन कानून का पक्ष लिया था। इस कानून के तहत अमेरिका का पक्ष स्पष्ट है कि अगर 14वें दलाई लामा के चुनाव में बीजिंग की ओर से हस्तक्षेप किया जाता है तो यह तिब्बती लोगों की धार्मिक स्वतंत्रता का उल्लंघन होगा । पेलोसी ने कहा, “सीनेट को इस कानून को अवश्य पारित करना चाहिए और अमेरिका, दलाई लामा और तिब्बती लोगों के बीच दोस्ती के रिश्ते का समर्थन करना चाहिए।

जरूर कुछ बड़ा और नया होगा।

नमन परम पावन

(लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक एवं वरिष्ठ पत्रकार है)
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