ऋषि ने और गुफा पाल से उपजा नेपाल - संजय तिवारी


हमारे हिमालयी पड़ोसी के वर्तमान गृहस्वामी को अपने ही इतिहास के बारे में कुछ नही मालूम। उन्हें न तो नेपाल का ने पता है और न ही पाल। नेपाल' शब्द की व्युत्पत्ति के संबंध में विद्वानों की विभिन्न धारणाएँ हैं। "नेपाल" शब्द की उत्त्पत्ति के बारे में ठोस प्रमाण कुछ नहीं है, लेकिन एक प्रसिद्ध विश्वास अनुसार यह शब्द 'ने' ऋषि तथा पाल (गुफा) मिलकर बना है। 

माना जाता है कि एक समय नेपाल की राजधानी काठमांडू 'ने' ऋषि का तपस्या स्थल था। 'ने' मुनि द्वारा पालित होने के कारण इस भूखंड का नाम नेपाल पड़ा, ऐसा कहा जाता है। तिब्बती भाषा में 'ने' का अर्थ 'मध्य' और 'पा' का अर्थ 'देश' होता है। तिब्बती लोग 'नेपाल' को 'नेपा' ही कहते हैं। 'नेपाल' और 'नेवार' शब्द की समानता के आधार पर डॉ॰ ग्रियर्सन और यंग ने एक ही मूल शब्द से दोनों की व्युत्पत्ति होने का अनुमान किया है। टर्नर ने नेपाल, नेवार, अथवा नेवार, नेपाल दोनों स्थिति को स्वीकार किया है। 'नेपाल' शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में किया है। उस काल में बिहार में जो मागधी भाषा प्रचलित थी उसमें 'र' का उच्चारण नहीं होता था। सम्राट् अशोक के शिलालेखों में 'राजा' के स्थान पर 'लाजा' शब्द व्यवहार हुआ है। अत: नेपार, नेबार, नेवार इस प्रकार विकास हुआ होगा। 

इतिहासकार बताते हैं कि सम्भवतः तिब्बती-बर्माई मूल के लोग नेपाल में २,५०० वर्ष पहले आ चुके थे।५५०० ईसा पुर्व महाभारत काल मे जब कुंती पुत्र पाॅच पाडंव स्वर्ग की ओर प्रस्थान कर रहे थे तभी पांडु पुत्र भीम ने भगवान महादेव को दर्शन देने हेतु स्तुति की। भगवान शिव ने उन्हे दर्शन एक लिंग के रुप मे दिये जो आज "पशुपतिनाथ ज्योतिर्लिंग " के नाम से जाना जाता है । 

इतिहासकार बताते हैं कि करीब १००० ईसा पूर्व में छोटे-छोटे राज्य और राज्यसंगठन बनें। सिद्धार्थ गौतम (ईसापूर्व ५६३–४८३) शाक्य वंश के राजकुमार थे, जिन्होंने अपना राजकाज त्याग कर तपस्वी का जीवन निर्वाह किया और वह बुद्ध बन गए। 

नेपाल का प्राचीन काल सभ्यता, संस्कृति और र्शार्य की दृष्टि से बड़ा गौरवपूर्ण रहा है। प्राचीन काल में नेपाल राज्य की बागडोर क्रमश: गुप्तवंश किरात वंशी, सोमवंशी, लिच्छवि, सूर्यवंशी राजाओं के हाथों में रही है। किरातवंशी राजा स्थुंको, सोमवंशी लिच्छवी, राजा मानदेव, राजा अंशुवर्मा के राज्यकाल बड़े गौरवपूर्ण रहे हैं। कला, शिक्षा, वैभव और राजनीति के दृष्टिकोण से लिच्छवि काल 'स्वर्णयुग' रहा है। जन साधारण संस्कृत भाषा में लिखपढ़ और बोल सकते थे। राजा स्वयं विद्वान्‌ और संस्कृत भाषा के मर्मज्ञ होते थे। 'पैगोडा' शैली की वास्तुकला बड़ी उन्नत दशा में थी और यह कला सुदूर महाचीन तक फैली हुई थी। मूर्तिकला भी समृद्ध अवस्था में थी। धार्मिक सहिष्णुता के कारण् हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म समान रूप से विकसित हो रहे थे। काफी वजनदार स्वर्णमुद्राएँ व्यवहार में प्रचलित थीं। विदेशों से व्यापार करने के लिए व्यापारियों का अपना संगठन था। वैदेशिक संबंध की सुदृढ़ता वैवाहिक संबंध के आधार पर कायम थी। 

क्रमशः

लेखक भारत संस्कृति न्यास के संस्थापक और वरिष्ठ पत्रकार है 

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