१८५७ का स्वातंत्र्य समर (भाग - 2) - रक्तपात और भारतीय शौर्य



जनरल नील के अत्याचार और पेशवा नाना साहब का मराठी दांव 

अंग्रेज सत्ता के खिलाफ मेरठ में आये भूकंप के धक्कों से अलीगढ़, बुलंदशहर, नसीराबाद भी अतिशय प्रभावित हुए | एक स्वतंत्रता प्रेमी ग्रामीण ब्राह्मण बुलंदशहर की ९ वीं बटालियन के लश्कर में अलख जगाने पहुंचा, किन्तु जानकारी मिलते ही अंग्रेजों ने उसे पकड़कर सबके सामने फांसी पर चढ़ा दिया | उसे फांसी पर लटकता देखकर एक सैनिक उछलकर तख्ते पर चढ़ा और रुंधे कंठ से तलवार निकालकर बोला – अरे यार, यह शहीद रक्त में नहा रहा है | बारूद के ढेर पर मानो कोई चिंगारी पड़ गई हो, उस शूर सैनिक के मुंह से ये शब्द निकलते ही, हजारों सिपाहियों की तलवारें भी म्यान से बाहर निकल आईं और नाद गूँज उठा – फिरंगियों का नाश हो | अलीगढ़ में समाचार पहुंचा तो वहां अंग्रेजों के प्रति केवल इतनी उदारता बरती गई कि उन्हें कह दिया गया कि प्राण बचाने हैं तो अलीगढ़ से भाग जाओ | 

अलीगढ़ स्वतंत्र होने का समाचार २२ मई को मैनपुरी पहुंचा, उसी समय मेरठ के एक विद्रोही सैनिक राजनाथ सिंह के अपने गाँव जीवंती पहुँचने की खबर भी अंग्रेजों को लगी | अंग्रेज अधिकारियों ने उसे पकड़ने के लिए सिपाही भेजे | सिपाहियों ने उसे पकड़ा भी, लेकिन बजाय अंग्रेजों को सोंपने के सुरक्षित स्थान पर पहुंचा दिया और जाकर सूचना दे दी कि इस नाम का कोई व्यक्ति गाँव में नहीं मिला | यूं तो मैनपुरी के सिपाही निर्धारित तिथि के पूर्व विद्रोह नहीं करना चाहते थे, लेकिन जनता और विशेषकर खटीक और कसाई समाज तो मानो उतावला हुआ जा रहा था | अंततः २३ मई को यहाँ भी शस्त्रागार और खजाना लूट लिया गया और सैनिक दिल्ली की ओर रवाना हो गए और अंग्रेजों के सफाए में स्थानीय नागरिक जुट गए | २३ मई को ही इटावा में हर हर महादेव का निनाद गूंजा तो कलेक्टर एलन ओ ह्यूम महिला वेश धारण कर भाग निकले | आगे जाकर यह ह्यूम बाई ही भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की जन्मदाता बनी | नसीराबाद में भी २८ मई को अपने अंग्रेज अधिकारियों का खात्मा कर और खजाने के साथ साथ वहां का तोपखाना भी कब्जे में कर विद्रोही सैनिक दिल्ली की ओर कूच कर गए | 

रूहेलखंड के बरेली में युद्ध का प्रारंभ पूर्व निर्धारित ३१ मई को ही हुआ, अतः सुनियोजित हुआ | पहले से तय था कि कौन किस अंग्रेज अधिकारी को मारेगा | ब्रिगेडियर सिवाल्ड, कैप्टिन कर्बी, लेफ्टिनेंट फ्रेजर, सार्जेंट वाल्डन, कर्नल ट्रूप, कैप्टिन रावर्टसन, आदि जो भी अधिकारी विद्रोहियों के हाथ लगे, सब काट दिए गए | मात्र छः घंटों के अन्दर बरेली में अंग्रेज शासन का अंत हो गया | महज ३२ अधिकारी ही कत्ले आम से बचकर नैनीताल पहुँच पाए | तोपखाने के मुख्य सूबेदार बख्त खान ने खान बहादुर खान के नाम से स्वयं को दिल्ली के बादशाह का सूबेदार घोषित कर दिया और सत्ता सूत्र संभाल लिए | साथ ही सम्पूर्ण रूहेलखंड स्वतंत्र होने का समाचार दिल्ली भेजा | यह झूठ भी नहीं था, शाहजहाँ पुर, मुरादाबाद, बदायूं, सब जगह एक साथ ३१ मई को ही अंग्रेज सत्ता के खिलाफ अभियान शुरू हुआ और शाम होते होते हर जगह अंग्रेजों का सफाया भी हो गया | जो बचे वे केवल स्थानीय दयालू लोगों की पनाह में ही बचे | हर जगह युनियन जेक की जगह हरा परचम लहराने लगा | हिन्दू मुस्लिम सौहार्द्र का यह अनोखा आख्यान था, जिसमें दोनों समुदायों ने एकजुट होकर संघर्ष किया था | 

आजमगढ़ में ३ जून को विद्रोह का स्वर गूंजा, लेकिन यहाँ लेफ्टिनेंट हचिन्सन, क्वार्टर सार्जेंट लुई साहब जैसे केवल कुछ चुनिन्दा अंग्रेज अधिकारी मारे गए, शेष सबको, महिलाओं और बच्चों के साथ बनारस की ओर रवाना कर दिया गया | विजय रंग में रंगे सैनिक अपना हरा निशान लहराते हुए फैजाबाद की तरफ बढ़ गए | आजमगढ़ का समाचार ४ जून को बनारस पहुंचा, तो अंग्रेज अधिकारियों ने नेटिव सिपाहियों को निशस्त्र करने की योजना बनाई और जनरल परेड का आर्डर दिया | किन्तु सजग सिपाहियों ने परेड में पहुँचने के स्थान पर शस्त्रागार पर हमला बोल दिया | वहां जो राजनिष्ठ सिक्ख सैनिक मौजूद थे, उन्होंने विद्रोही सैनिकों का प्रबल प्रतिकार किया | किन्तु तभी वहां पहुंची अंग्रेज यूनिट ने तोपों से सिक्खों सहित सब पर गोलीबारी शुरू कर दी | मजबूरी में ही सही, लेकिन १८५७ में यह पहला अवसर आया जब हिन्दू मुस्लिम सिक्ख सबने मिलकर अंग्रेजों का मुकाबला किया | लेकिन शहर में तो सिक्ख अभी भी अंग्रेजों के मददगार ही बने रहे | सिक्ख सरदार सूरत सिंह के ही कारण विद्रोही बनारस का खजाना नहीं लूट पाए और अंग्रेजी तोपों से बचने के लिए विद्रोही सैनिक बनारस छोड़कर जौनपुर पहुँच गए | स्थानीय सिपाहियों ने उनका स्वागत किया और सारा जौनपुर शहर विद्रोह की ज्वाला में जलने लगा | ज्वाईंट मजिस्ट्रेट क्यूपेज और लेफ्टिनेंट मारा को मारकर खजाने पर कब्जा कर लिया गया | विद्रोहियों ने यूरोपियनों के हथियार छीनकर जौनपुर से भागने की अनुमति दी, किन्तु जब वे नौकाओं द्वारा बनारस की ओर रवाना हुए, तो मार्ग में मल्लाहों ने ही उन्हें लूटकर किनारे पर छोड़ दिया | 

एक ख़ास बात यह है कि इस क्षेत्र में कत्ले आम नहीं हुआ, केवल कुछ चुनिन्दा अंग्रेज अधिकारी ही मारे गए, शेष को सुरक्षित जाने दिया गया | किसी अंग्रेज महिला या बच्चे को क्षति नहीं पहुंचाई गई | लेकिन बनारस आये जनरल नील ने जो किया, उसे जानकर रोंगटे खड़े हो जाते हैं | तथाकथित सुसभ्य अंग्रेजों के इस बहादुर सेनापति ने बनारस के लोगों के साथ जो व्यवहार किया, वह प्रकाशित सामग्री है, अतः उसे कोई नहीं नकार सकता | आसपास के छोटे छोटे गाँवों में अंग्रेज और सिक्ख सिपाहियों की टोलियाँ जातीं और जो सामने पड़ता, उसे काट दिया जाता या फांसी पर चढ़ा दिया जाता | फांसी पर चढाने के लिए इतने खम्भे वहां कहाँ आते, तो पेड़ों की अलग अलग डालियों पर ही इन्हें झुला दिया जाता | इस बेदर्दी में भी मनोरंजन ढूँढने के इन सभ्य जानवरों के कृत्यों से मानवता लज्जित ही हुई होगी | पेड़ पर सीधे लटकाकर फांसी देने के स्थान पर किसी के हाथ पैर बांधकर पहले अंग्रेजी के आठ या नौ अक्षर का रूप दिया जाता और फिर उसे लटकाया जाता | अलग अलग आकृति बनाकर टाँगे गए इन शवों को देखकर उन्हें पैशाचिक कलात्मकता का बोध होता | अब आखिर फांसी पर भी कितनों को लटकाया जाए, मारने को तो असंख्य हिन्दुस्तानी हैं, तो उसका भी उपाय ढूंढा गया, जिसका वर्णन एक अंग्रेज ने ही कुछ इस प्रकार किया है – 

व्ही सेंट फायर टू ए लार्ज विलेज, विच वाज फुल ऑफ़ देम, व्ही सराउंडेड देम, एंड एज दे केम रशिंग आउट ऑफ़ द फ्लेम्स, शूट देम | 

गाँव के गांव इस प्रकार घेरकर जलाए गए, जो बचने को बाहर निकलता उसे गोली मार दी जाती | असंख्य स्त्री बच्चे बूढ़े भी इस खूनी खेल का शिकार बने | यह किसी एक गाँव की कहानी नहीं है, एक नायक ने दूसरे नायक को लिखा – यू विल हाऊएवर बी ग्रेटीफाईड टू लर्न, देट ट्वंटी विलेजेज आर रेज्ड टू ग्राउंड | आपको यह जानकर तसल्ली होगी कि आज हमने बीस गाँव राख कर दिए | 

और अंग्रेज इतिहासकारों ने इस भीषण कृत्य को नजर अंदाज ही कर दिया, इसका कोई उल्लेख करना भी जरूरी नहीं समझा | ५ जून को इलाहाबाद में सिपाहियों के साथ पूरा शहर ही विद्रोह कर उठा | लेकिन किले पर तैनात सिक्ख जवानों ने द्वार बंद कर किला बचा लिया | किले में जो अंग्रेज थे, वे तो सुरक्षित रहे, किन्तु जो बाहर थे, उनमें से कोई जिन्दा नहीं बचा | इलाहाबाद की कोतबाली पर भी हरा झंडा लहरा दिया गया | सावरकर जी पर साम्प्रदायिक होने का ठप्पा लगाने वाले जरा उनके शब्दों पर ध्यान दें | वे लिखते हैं – 

सन १८५७ जैसी प्रचंड राज्य क्रान्ति हिन्दुस्थान के इतिहास में अभूतपूर्व बात थी, जब हिन्दू और मुसलमान ने अपने भाई भाई होने का रिश्ता पहचानकर एक साथ मिलकर लड़ाई लड़ी | यह द्रश्य बहुत ही अपूर्व और आश्चर्यकारी था | 

स्वतंत्र इलाहाबाद में मौलवी लियाकत अली को सूबेदार नियुक्त किया गया, जिसने खुसरो बाग़ में अपना मुख्यालय बनाया | लेकिन ग्यारह जून को जनरल नील अपनी सहयोगी सिक्ख रेजीमेंट के साथ इलाहाबाद आ धमका, किला चूंकि पहले से ही सिक्ख अपने कब्जे में लिए हुए थे, अतः उसने आते ही किले को अपना केंद्र बनाया | बनारस की तर्ज पर ही इलाहाबाद में भी खूनी खेल शुरू हुए | एक ब्रिटिश अधिकारी ने लिखा – 

हम लोग जहाजों पर सवार होकर नदी में आगे बढे | दायें बाएं तटों पर जो भी दिखाई देता, वह हमारी गोलियों का निशाना बनता, जहाँ कोई गाँव दिखता, हम लोग नीचे उतरते और उसे आग के हवाले करते, जब ज्वालायें आसमान चूमतीं, हमारा मन आनंद से भर जाता, हम भरपूर प्रतिशोध ले रहे थे | 

पूरे हिन्दुस्तान में जितने अंग्रेज थे, उससे कहीं ज्यादा निरपराध लोगों को अकेले नील ने अकेले इलाहाबाद में मौत के घाट उतारा | जरा विचार कीजिए कि न जाने कितने नील उस समय पूरे हिन्दुस्तान में कहर ढा रहे होंगे | अगर यह कहा जाए कि एक एक अंग्रेज के बदले एक एक गाँव के लोगों को ज़िंदा जलाया गया तो गलत न होगा | स्वयं नील ने बाद में लिखा – 

मैं जानता हूँ कि मैंने कुछ अधिक क्रूरता प्रदर्शित की है | किंतु मैंने जो कुछ किया, अपने देश के लिए, उसके कल्याण के लिए, अपनी साम्राज्य सत्ता का दबदबा कायम करने और उसे स्थिरता प्रदान करने के लिए किया, परमेश्वर मुझे क्षमा करें | 

अंग्रेज इतिहासकार नील के इस कबूलनामे की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं, लेकिन बाद में जब नाना साहब पेशवा के सिपाहियों द्वारा बदला लिया गया तो उसे अनुचित और नारकीय बताते हैं | है न विचित्र ? नील ने बनारस और इलाहाबाद में क्रूरता के जो बीज बोये, उसकी फसल कानपुर में लहलहा उठी, आईये अब उधर का रुख करें | 

मेरठ में हुए विप्लव का समाचार १८ मई को कानपुर पहुंचा | उस समय बहां लगभग तीन हजार नेटिव सेना तथा लगभग साठ अंग्रेज अधिकारी और सौ सवा सौ अंग्रेज सिपाही भर थे | सेना के कमांडर सर हो व्हीलर ने सावधानी बतौर किले में रसद आदि की व्यवस्था करवाई और तोपखाने को तैनात करवा दिया | और मजा देखिये कि उसने कानपुर की रक्षा के लिए ब्रह्मावर्त से बुलवाया पेशवा नाना साहब को | यह थी उस क्रांतियुद्ध की गोपनीयता की पराकाष्ठा | अंग्रेजों को रत्ती भर भी ज्ञात नहीं था कि समूचे देश में धधकी इस ज्वाला का मुख्य नेता कौन है, यह आग किसने भड़काई है | नाना ने २२ मई को दो तोपों, तीन सौ सिपाही और घुड़सवारों के साथ कानपुर में प्रवेश किया और अंग्रेजों की बस्ती में ही अपना शिविर लगा लिया | कलेक्टर हिल बर्डन ने उन्हें धन्यवाद दिया और नाना ने भी सदाशयता दिखाते हुए कहा कि अंग्रेज महिलायें और बच्चे अगर चाहें तो ब्रह्मावर्त के राजमहल में जाकर रह सकते हैं | और इस मराठी दांव की इन्तहा तो तब हुई जब अंग्रेजों ने अपना खजाना और बारूदी भण्डार भी उनकी सुरक्षा में सोंप दिया | इतिहासकार “के” कहता है कि नाना साहब ने सचमुच शिवाजी के चरित्र का गहन अध्ययन किया था | 

कानपुर में विद्रोहियों का नेतृत्व सूबेदार टीका सिंह और सिपाही शमसुद्दीन खान कर रहे थे | १ जून को गंगा की धार में तैरती नौका पर नाना साहब, उनके बजीर अजीमुल्ला खान और टीका सिंह के बीच दो तीन घंटे तक गहन मंत्रणा हुई, भावी रणनीति बनी | कानपुर की वैश्या अजीजन सिपाहियों के बीच खासी लोकप्रिय थी, उसने भी इस महा संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निबाही | किन्तु यह सब चर्चा अब अगले अंक में | 

हर जगह गूंजा मारो फिरंगी को 

आसपास से मिल रहे समाचारों के कारण कानपुर के अंग्रेज बहुत घबराये हुए थे | किन्तु जब २४ मई को ईद सकुशल निकल गई और नबाब गंज के खजाने की सुरक्षा में नाना के सैनिक तैनात हो गए, तब सर व्हीलर ने राहत की सांस ली | मई के आखीर में एक युवा अंग्रेज सिपाही ने एक देशी सिपाही पर गोली चला दी | हमेशा की तरह अंग्रेज सोल्जर को निरपराध मानकर छोड़ दिया गया, कहा गया कि शराब के नशे में गलती से गोली चल गई | इसके बाद तो सिपाही जब भी आपस में मिलते अभिवादन के साथ साथ कहते – अपनी बन्दूक गलती से कब चलेगी ? 

अंग्रेज इतने निश्चिन्त हो चुके थे कि ३ जून को सर हो व्हीलर ने लार्ड केनिंग को लिखा – डर की कोई बात नहीं है, कानपुर सुरक्षित है, जल्द ही मैं यहाँ से लखनऊ को भी मदद भेजे देता हूँ | और उसके बाद इलाहबाद से कानपुर को रवाना हुई अंग्रेज फ़ौज लखनऊ चली गई | यह थी नाना साहब की गोपनीयता | जिस षडयंत्र में कानपुर के तीन हजार सिपाही, आम आदमी से लेकर वैश्या अजीजन तक सम्मिलित थीं, उसकी जानकारी अंग्रेजों को रत्ती भर भी नहीं थी | 

४ जून की रात को अँधेरे में कुछ गोलियां चलीं और साथ ही टीका सिंह ने अपने घोड़े को एड लगाई | घोडा हिनहिनाया और फिर तो चारों ओर से घोड़ों की टापों की आवाज गूंजने लगी | पैदल और घुड़सवार सबसे पहले बारूदखाने की तरफ बढे, जहाँ केवल नाना के सैनिक थे, जिन्होंने इन लोगों को हंसते हंसते गले लगा लिया | ५ जून की सुबह सर व्हीलर को केवल एक संतोष था कि विद्रोह हो गया, कोई बात नहीं, कमसेकम कोई अंग्रेज तो नहीं मरा | उसे आशा थी कि अन्य स्थानों के समान अब यहाँ भी विद्रोही दिल्ली की तरफ रवाना हो जायेंगे और तब तक तोपखाने की आड़ में अंग्रेज सुरक्षित रहेंगे | लेकिन उसे नहीं पता था कि यहाँ नाना साहब, अजीमुल्ला और तात्या जैसे रणनीतिकार हैं, जो दिल्ली नहीं जाने वाले | अगर कानपुर के ही समान अन्य स्थानों पर भी योग्य नेता होते तो दिल्ली कूच के स्थान पर अपने अपने स्थान को मजबूत करते और अंग्रेज फ़ौज भी दिल्ली में एकत्रित होने के स्थान पर तितर बितर रहने को विवश होती | 

कानपुर ने नाना साहब को अपना राजा चुना | टीकासिंह जनरल, जमादार दलगंजन सिंह ५३ वीं बटालियन के कर्नल और सूबेदार गंगादीन ५६ वीं रेजीमेंट के कर्नल नियुक्त हुए, होलासिंह को मुख्य मजिस्ट्रेट बनाया गया | एक हजार अंग्रेज, तोपखाने के साथ किले में सुरक्षित महसूस कर रहे थे, लेकिन तोपें तो अब विद्रोहियों के पास भी थीं | दोनों तरफ से तोपें चलने लगीं | ७ जून को विद्रोहियों की तोपों की मार से चहारदीवारी के अन्दर के भवन धडाधड गिरने लगे, तो अंग्रेज महिलायें और बच्चे चीखते पुकारते इधर उधर भागने लगे | किले में पानी की भी किल्लत हो गई | किले के अन्दर फंसे अंग्रेजों की दुर्दशा और बाहर से आक्रमण कर रहे स्वतंत्रता योद्धाओं के शौर्य का विषद वर्णन सावरकर जी ने किया है | दबाओं के अभाव, तोप के गोलों से लगातार मरते अंग्रेज अधिकारी, सैनिक, स्त्री बच्चे, बाहरी मदद के कोई आसार नहीं, इन सब परिस्थितियों के चलते, अंत में २५ जून को अंग्रेजों ने संधि के लिए सफ़ेद झंडा लगा दिया | उसके साथ ही युद्ध रोक दिया गया | अंग्रेज गोला बारूद व शस्त्र सोंपकर निहत्थे इलाहाबाद सुरक्षित पहुंचाए जायेंगे यह संधि हुई | सती चौरा घात पर चालीस नौकाएं अनाज आदि से भरकर गंगा में तैयार खडी थीं, जिनसे २७ जून को अंग्रेजों को रवाना होना था | यह समाचार आसपास भी फ़ैल गया और बड़ी संख्या में वे लोग भी कानपुर आ पहुंचे जो अंग्रेजों के अत्याचार से प्रताड़ित हुए थे | नील ने जिनके स्त्री बच्चों को जिन्दा जलाया था, जिनके परिजन आठ या नौ अंक बनाकर पेड़ों पर फांसी चढ़ाए गए थे | ऐसे लोग कहाँ किसका संधिपत्र मानने वाले थे ? 

जैसे ही पालकियों में सवार सर व्हीलर, अंग्रेज महिलायें और पैदल चलते अन्य अंग्रेज घाट पर पहुंचे, एक बिगुल बजा, उसके साथ ही बंदूकें, तलवारें, कटारें चलना शुरू हो गईं | सब एक ही स्वर बोल रहे थे – मारो फिरंगी को | नाना साहब ने सन्देश भेजा भी कि स्त्री बच्चों को न मारा जाए, किन्तु उस खूनी माहौल में कौन सुनने वाला था | किन्तु फिर भी सैनिकों ने उस आदेश का मान रखते हुए तीन पुरुष और लगभग सवा सौ अंग्रेज महिलाओं और बच्चों को सुरक्षित निकालने में सफलता पाई, जिन्हें सबदा कोठी में कैद किया गया | 

आइये अब झांसी के हालातों पर नजर डालें | जिन परिस्थितियों का सामना नाना साहब ने किया, वही उनकी बहिन छबीली के सामने भी आई | सन १८५३ में उनके पति गंगाधर राव अकस्मात स्वर्ग सिधार गए और उनके दत्तक प्रिय पुत्र दामोदर राव को मान्यता न देते हुए अंग्रेजों ने झांसी के अधिग्रहण का फरमान जारी कर दिया | परन्तु झांसी क्या ऐसे फरमानों से कब्जे में आ सकती थी भला | झांसी के जमीन आसमान में वह इतिहास प्रसिद्ध स्वर गूँज उठा, मानो बिजली कडकडाई हो – अपनी झांसी मैं नहीं दूँगी, जिसमें हिम्मत हो वह लेकर दिखाए | जिस दिन कानपुर में विद्रोह हुआ, उसी दिन अर्थात ४ जून को झांसी भी गरज उठी | कैप्टिन डनलप और एनसाईन टेलर तो पहले ही हमले में मारे गए | किले में घुसकर तोपों की दम पर अंग्रेजों ने स्वयं को बचाने की भरसक कोशिश की, किन्तु किले में मौजूद अन्य नेटिव लोगों के कारण लम्बे समय तक नहीं जूझ पाए और आखिर में कमिश्नर गार्डन और लेफ्टिनेंट पावस के मारे जाने के बाद, रिसालदार काले खान और झांसी के तहसीलदार अहमद हुसैन की बहादुरी के सामने पस्त होकर, ८ जून को शेष लोगों ने आत्म समर्पण कर दिया, किन्तु बचे इसके बाद भी नहीं, सब काट दिए गए | झांसी के स्वातंत्र्य सिंहासन पर रानी लक्ष्मीबाई विराजमान हो गईं | 

अवध में भी सर हैनरी लोरेन्स अकेला लखनऊ रेजीडेंसी में किला लड़ा रहा था, शेष लखनऊ शहर पर नबाब बाजिद अली शाह के नाम पर उनकी बेगम हुकूमत कर रही थीं | फैजाबाद के मौलवी अहमद शाह ने इस क्रान्तियुद्ध में अपना नाम सदा सर्वदा के लिए अमर कर लिया | जब से अंग्रेजों ने अवध का राज्य अधिग्रहित किया, उसने अपना सर्वस्व स्वदेश पर न्यौछावर कर दिया और पूरे हिन्दुस्तान में अलख जगाता घूमता रहा | अवध प्रदेश के जनपदों में उसके प्रति अगाध श्रद्धा उत्पन्न हो गई थी | यह जानकर अंग्रेजों ने उसे पकड़ने का उपक्रम किया, लखनऊ की पुलिस जब उसे नहीं पकड़ पाई, तब सेना भेजकर पकड़ा गया और फांसी देने के लिए कारावास में रखा गया | उन्हें कारावास में फांसी के लिए रखने का निर्णय ऐसा था मानो ब्रिटिश सत्ता ने स्वयं के लिए फांसी की सजा मुक़र्रर की हो | क्रांति की बारूद से ठसाठस भरी क्रांति की सुरंग फूट पड़ी और सूबेदार दिलीप सिंह के नेतृत्व में काराग्रह का फाटक कडकड़ाकर टूट गया और साथ ही न केवल फैजाबाद, बल्कि महोबा, सुल्तानपुर सहित समूचा अवध अंग्रेज रहित हो गया | कुछ की जान बची तो गोपालपुर के राजा और दो अन्य राजा मानसिंह और हनुमंत सिंह की बदौलत, जिन्होंने शरणागत का मान रखते हुए उन्हें बचाया, हालांकि स्वयं युद्ध में भाग लेते रहे | 

५ जुलाई को नसीराबाद और नीमच की रेजीमेंटों ने आगरा पर हमला किया | करौली और भरतपुर रियासतों ने अंग्रेजों की मदद को अपनी सेना भेजी | लेकिन यह क्या, सैनिक पहुंचे जरूर लेकिन अंग्रेजों से साफ़ कह दिया – हमने अपने राजा का मान रखते हुए, विद्रोह नहीं किया, यह बहुत है, हम अपने देश बंधुओं पर हथियार नहीं उठाने बाले | अंग्रेजी सेना ने ब्रिगेडियर पालवल के नेतृत्व में बिद्रोहियों का मुकाबला किया भी, लेकिन विद्रोहियों की मार के आगे टिक नहीं पाए, वापस आगरा को भागे, लेकिन बहां भी कहाँ सुरक्षा थी | ६ जुलाई की सुबह समूचा आगरा विद्रोह कर उठा | पुलिस और नागरिकों ने मिलकर बही किया, जो पूरे देश में हो रहा था | चिंताग्रस्त सर कोलविन आगरा के किले में दुबक कर बैठ गया और अंग्रेजों को दुखी कर ९ सितम्बर १८५७ को मर गया | यही कहानी इंदौर की भी है | बहां एक मुस्लिम सेना नायक सादत खान के नेतृत्व में ९ जुलाई को विद्रोह हुआ | लेकिन अंतर बस इतना ही कि यहाँ मार काट नहीं हुई | अंग्रेज अपना बोरिया बिस्तर बाँध कर सुरक्षित भाग गए | 

उधर १२ जून को अंग्रेज सेना ने कमांडर बर्नार्ड के नेतृत्व में दिल्ली को घेर लिया | उनका आत्म विश्वास बढ़ा हुआ था, क्योंकि पंजाब की रियासतों की सेना भी उनके साथ थी | लेकिन क्रांतिकारियों ने गोरिल्ला युद्ध पद्धति का सहारा लिया | वे गुपचुप शहर से निकलते और दायें बाए या पीछे से हमला करते और नुक्सान पहुंचाकर चम्पत हो जाते | जुलाई मध्य तक अंग्रेज कुछ नहीं कर पाए, उनके अनेक प्रमुख योद्धा मारे गए | ५ जुलाई को उनका सेनापति बर्नार्ड भी हैजे से मर गया और १४ जुलाई को उनका शूरवीर चेंबरलेन भी एक सिपाही की गोली खाकर चिर निद्रा में सो गया | 

अंग्रेजों के लिए इधर दिल्ली तो उधर कानपुर नाना साहब के कब्जे से वापस लेना प्रतिष्ठा का प्रश्न बना हुआ था | १२ जुलाई को जब कानपूर यह समाचार पहुंचा कि रीड के नेत्रत्व में एक अंग्रेज टुकड़ी हमला करने बढ़ रही है, तो उसका आगे बढ़कर मुकाबला करने विद्रोही सेना भी ज्वाला प्रसाद, टीका सिंह और इलाहाबाद के मौलवी के नेतृत्व में फतेहपुर के पास पहुँच गई | लेकिन तभी हेवलोक की अंग्रेज सेना भी रीड के साथ आ मिली और उनकी ताकत बहुत बढ़ गई | क्रान्ति सेना को कदम पीछे खींचने पड़े | उनका तोपखाना भी अंग्रेजों के हाथ आ गया | विजई अंग्रेज सेना ने उनका पीछा करने के स्थान पर फतहपुर जलाना ज्यादा जरूरी समझा | जलते हुए फतहपुर की ज्वालाओं ने गरमी कानपुर को भी दी | जिन्दा जलाए गए लोगों का समाचार नाना साहब के दरबार में आते ही, बहां क्रोध और आवेश की लहरें उठने लगीं | तभी कुछ दगाबाज जासूस भी पकड़कर सामने लाये गए, जिनके हाथों नाना साहब की कैद में रह रही अंग्रेज महिलाओं ने इलाहाबाद के अंग्रेज अधिकारियों को गोपनीय पत्र पहुंचाए थे | बीबीगढ़ में जो महिलायें कैद थीं, उनमें से अधिकाँश अनेक वर्षों से कानपुर में ही रह रही थीं, अतः दरबार का यह मत बना कि अगर पराजय हुई तो ये औरतें हमारे सभी सहयोगियों के नाम भी बता देंगी, और वे निरीह लोग भी द्वेष की बलि चढ़ेंगे | अतः इन्हें जीवित न छोड़ा जाए | और उसके बाद वह कुख्यात बीबीगढ़ काण्ड हुआ | उन डेढ़ सौ औरतों को मारने को कोई सिपाही तैयार नहीं हुआ, तो कानपुर के खटीक मोहल्ले से आदमी बुलाये गए और मृत शरीरों को पास के कुँए में डाल दिया गया | अभी तक जिस कुए का पानी लोग पीते थे, आज वह कुआ मानव रक्त पी रहा था | 

तात्या टोपे का शौर्य और मौलवी अहमद शाह का बलिदान ! 

१२ जून से २५ सितम्बर तक दिल्ली का संग्राम चला, उसके अंतिम चरण में विद्रोही सेना नायक बख्तर खान ने बादशाह को कहा कि हमें शत्रु की शरण में जाने के स्थान पर लड़ाई करते हुए बाहर निकल जाना चाहिए | आप भी हमारे साथ चलें और अपने झंडे के नीचे हमारा नेतृत्व करते रहें | लेकिन बृद्ध और भयभीत बादशाह ने उनकी बात नहीं मानी और अंतिम दिन तो वह इलाही बख्श मिर्जा के उपदेश अनुसार हुमायूं की कब्र में छुपकर बैठ गया | बख्तर खान विद्रोह का झन्डा उठाये दिल्ली से कूच कर गया | गद्दार इलाही बख्श ने तुरंत अंग्रेजों को सूचना दी और बादशाह गिरफ्तार कर लिया गया और तीनों शहजादों को निर्ममता पूर्वक हडसन ने गोली मारकर लाश गिद्ध, चील, कौओं को खाने के लिए कोतवाली के सामने फेंक दिया | जब लाशें सड गईं तब उन्हें नदी में फेंक दिया | दिल्ली में भी वही हुआ, जो जीतने के बाद हर जगह अंग्रेजों ने किया था | लार्ड एनफिन्स्टन ने जॉन लोरेन्स को लिखा – दिल्ली का घेरा समाप्त हो जाने के बाद हमारी सेना ने दिल्ली का जो हाल किया है, वह ह्रदय द्रावक है | शत्रु और मित्र का भेद न करते हुए, सरेआम बदला लिया जा रहा है | लूट में तो हमने नादिरशाह को भी मात कर दिया है | जनरल आऊट्रम कहता है – जला दो दिल्ली को | 

हैवलोक ने कानपुर में पेशवा नाना साहब को पराजित किया और जमकर विध्वंश मचाने के बाद वह जैसे ही लखनऊ को रवाना हुआ, नाना ने फिर कानपुर पर अपना जरी पटका लहरा दिया | जैसे ही वह लौटा, नाना ने कानपुर छोड़कर ब्रह्मावर्त हथिया लिया, अंग्रेज सेना उधर आई तो नाना पहले कालपी और फिर लखनऊ के नजदीक फतेहपुर में जाकर जम गए | अंग्रेज अधिकारियों ने इस चूहा बिल्ली के खेल को हेवलोक की असफलता मानकर नेतृत्व जेम्स आऊट्रम को सोंप दिया | लेकिन दोनों अधिकारियों के मन में इसके बाद भी कोई खटास नहीं आई और वे मिलकर विद्रोहियों से जूझते रहे | तभी सर कॉलिन के नेतृत्व में दिल्ली से आई अंग्रेज सेना भी इनके साथ आ मिली| कानपुर जनरल विंडहम के जिम्मे छोड़कर यह सैन्य दल लखनऊ की और बढ़ गया | 

इस बीच पृथक से अंग्रेजों की नाक में दम करते तात्या भी फतेहपुर पहुँच गए | फतहपुर में नाना और तात्या की योजना बनी कि अब तक ग्वालियर अछूता है, अतः तात्या वहां मोर्चा संभाले | तात्या गोपनीय रूप से अकेले ग्वालियर पहुंचे, उन्हें सेना की कहाँ आवश्यकता, वे तो जहाँ जाते, वहां सेना खडी कर लेते | १८५७ की भूमिका को लेकर ग्वालियर कुख्यात है, लेकिन ग्वालियर, इंदौर, राजपूताना, भरतपुर आदि रियासतें भले ही यह सोचती रहीं कि हम तो बचे हैं, दूसरों के फटे में टांग क्यों अड़ाएं, लेकिन सचाई यह है कि लोकमन में क्रांति की समर चेतना बहां भी जागृत हुई थी | भले ही सिंधिया की जीभ न हिली हो, वह अंग्रेजों से युद्ध न चाहते हों, किन्तु एक हाथ में जलती मशाल और दूसरे में तलवार थामे पैदल सिपाही सन्नद्ध हुए, तो तोपखाने ने भी विद्रोह कर दिया | शहर तो शहर सिंधिया के किले और महल में भी कोई गोरा नहीं बचा | महिलाओं को नहीं मारा गया, उन्हें आगरा भेज दिया गया | सिंधिया को एक बेजान गुडिया बनाकर तबियत से अंग्रेजों को काटा गया | कैसे हुआ यह सब ? आखिर तात्या टोपे आया था बहां ब्यूह रचना की खातिर | इस विद्रोही सेना को लेकर तात्या ९ नवम्बर को कालपी पहुंचे | कालपी कानपुर से महज ४६ मील दूर है, लेकिन तात्या ने सीधे कानपुर पर चढ़ाई नहीं की, उन्होंने पहले जालौन में अपना खजाना रखकर उसकी सुरक्षा के लिए तीन हजार सैनिक व बीस तोपें छोड़कर, शिवराजपुर कब्जे में किया और १९ तारीख आते आते अंग्रेजी रसद के रास्ते रोक दिए | 

विंडहम एक चतुर अधिकारी था, उसने तात्या के आक्रमण का इंतज़ार करने के स्थान पर आगे बढ़कर मुकाबला करने की ठानी | २६ नवम्बर को प्रातःकाल युद्ध शुरू हुआ और विद्रोहियों की तीन तोपें अंग्रेजों के कब्जे में आ गईं | वे इसे अपनी विजय समझ रहे थे, तब तक तीन तरफ से तात्या ने ऐसा घेरा कि उनके सामने केवल पीछे हटने का मार्ग ही शेष रहा | पीछे भी योजना पूर्वक नहीं हटे, दुम दबाकर भागे | हजारों तम्बू, छोलदारियां, रसद विद्रोहियों के हाथ आई | इस पराजय की गूँज लखनऊ तक गई, जो २३ नवम्बर को अंग्रेजों के अधिकार में आ चुका था और २४ नवम्बर को कर्तव्यनिष्ठ सेना नायक हेवलोक दुनिया से विदा ले चुके थे | अभी लखनऊ के जीत का जश्न मना भी नहीं था कि तब तक यह समाचार आ गया कि कानपुर में तात्या टोपे की तोपें गरज रही हैं | अंग्रेजों की सेना वहां पहुचती, तब तक दो दिन के सीधे युद्ध में कैप्टिन माक्री, मेजर स्टर्लिन, लेफ्टिनेंट केन, लेफ्टिनेंट रिबन मारे जा चुके थे | लखनऊ से आई सेना गंगा पार न कर पाए, इसलिए पुल तोडा जा चुका था, तोपखाना भी सन्नद्ध था | 

लेकिन अंग्रेजों सेना ने भी अपनी तोपों की मार की छाया में ३० नवम्बर को गंगा पार कर ही ली | सेनापति तात्या टोपे, नाना साहब और ग्वालियर की सेना सहित विद्रोहियों के पास कुल नौ दस हजार सैनिक थे | जबकि चार्ल्स वाल के अनुसार कमांडर इन चीफ कोलिन के साथ पिचहत्तर हजार सिक्ख व अंग्रेज सैनिक व पैंतीस तोपें थीं | अंग्रेजों की इच्छा तात्या को ससैन्य समर्पण के लिए विवश करने की थी, इसलिए उन्होंने चारों तरफ से घेरा बनाया | लेकिन मेंसफील्ड को धमकाते जाल तोड़कर यह हिन्दुस्तानी शेर निकल ही गया | उसके बाद कॉलिन ने ब्रह्मावर्त पहुंचकर वहां का राजमहल जलाया, जहाँ भारतभूमि के दैदीप्यमान रत्न नाना, तात्या, बाला साहेब और झांसी की छबीली रानी लक्ष्मीबाई शिशु से युवा हुए थे | 

लखनऊ कानपुर हार गए हों, लेकिन विद्रोही हिम्मत नहीं हारे | १८५७ बीत गया १८५८ शुरू हो गया | बेगम हजरत महल, मौलवी अहमद शाह, तात्या की छापामार युद्ध शैली ने अंग्रेजों की नींद हराम कर रखी थी | विद्रोह को कुचलने १५ अप्रैल को वालपोल एक बड़ी सेना के साथ लखनऊ से ५१ मील दूर स्थित रुइया के किले तक पहुंचा | छोटा सा किला, छोटा सा जमींदार नरपत सिंह, किले में महज सौ डेढ़ सौ लोग, लेकिन बिना जूझे किला नहीं देने की जिद्द | युद्ध हुआ और होप जैसा अजेय अंग्रेज योद्धा मारा गया | किले के कमजोर भाग से घुसने की कोशिश करते ग्रूव को विद्रोहियों ने गोली बारी में मरने के लिए बाँध कर पटक दिया | अपनी जूझने की शर्त पूरी कर, अंग्रेजों का मान मर्दन कर वह नर नाहर नरपत सिंह, अपने सहयोगियों के साथ किले से कब निकल गया, अंग्रेजों को पता ही नहीं चला | वे तो अपने सैकड़ों मृत साथियों का गम ही मनाते रहे | 

बरेली पर अभी तक खान बहादुर खान का ही शासन चल रहा था, साथ ही सर कोलिन को पता चला कि नाना और मौलवी अहमद शाह सहित सारे विद्रोही नेता शाहजहाँपुर में इकट्ठे हैं | इन सब विद्रोहियों को एक साथ ख़तम करने के लिए उसने व्यूह रचना की | ३० अप्रैल को उसने शाहजहाँ पुर पर धावा बोला, लेकिन नाना और मौलवी उसके जाल में नहीं फंसे, साफ़ निकल गए | लेकिन जाने के पहले उन्होंने सारे सरकारी भवनों को जमींदोज कर दिया, ताकि कोई उनमें न रह सके | मजबूरन टेंट तम्बुओं में चार तोपें और अंग्रेजी सेना वहां छोड़कर उदास कोलिन बरेली की तरफ बढ़ा | बहां खान बहादुर खान और उनके गाजियों ने फिरंगी को तगड़ा झापड़ रसीद करना तय किया | छः मई को, दाढ़ी के बढे हुए बाल, सर पर हरे साफे, कसा हुआ कमरबंद, उंगली में चांदी की चपटी अंगूठी, उसमें खुदी कुरआन की आयतें, ऐसी भव्याकृति के वीर, एक हाथ में ढाल और दूसरे हाथ में तलवार थामे, दीन दीन की गर्जना के साथ शत्रु पर टूट पड़े | उन्होंने तेजी से फिरंगियों को काटना शुरू किया तो अंग्रेज दहशत में पीछे हटे, लेकिन इन गाजियों की टोली में से एक भी पीछे नहीं लौटा | मारते, छांटते, काटते, उनमें से हरेक लड़ते लड़ते ही खुद भी कटा | एक अवश्य काटे जाने के पूर्व ही रणभूमि में गिरा | क्यों ? जैसे ही युद्ध थमने के बाद निरीक्षण के लिए कमांडर इन चीफ पास आया, मरने का नाटक करता वह योद्धा उठ खड़ा हुआ, लेकिन इसके पहले कि वह कोलिन को खतम कर पाता, साथ चल रहे एक सिक्ख सिपाही ने तत्काल उसका सर काट दिया | ७ मई को खान बहादुर अपने साथियों के साथ मारकाट करते घेरा तोडकर बरेली से साफ़ निकल गए | कॉलिन की योजना एक बार यहाँ भी फ़ैल हुई | 

बरेली में अंग्रेज सेना प्रवेश कर रही थी तभी समाचार आया कि मौलवी ने शाहजहांपुर पर धावा बोल दिया है | मौलवी ने शहर छोड़ते समय भवन इसीलिए गिराए थे, ताकि सेना को कहीं आड़ न मिले | शाहजहाँ पुर की अंग्रेज टुकड़ी को मटियामेट कर वे बरेली का बदला लेना चाहते थे | अगर उन्होंने हमला रात को किया होता तो सफलता असंदिग्ध थी, किन्तु वे चार मील पूर्व सुबह के इंतज़ार में रुक गए, तब तक जासूसों ने सूचना अंग्रेजों को दे दी और वे सावधान होकर जेल की चाहरदीवारी के अंदर हो गए | मौलवी ने शहर पर कब्जा कर तोपों से जेल पर गोले दागना शुरू किये | कोलिन बेहद खुश था, उसे लगा कि आखिरकार मछली जाल में फंस ही गई | वह आननफानन में शाहजहाँपुर पुर पहुंचा और शहर को चारों और से घेर लिया | ११ मई से उस अकेले मौलवी और विशाल अंग्रेज सेना की भयंकर लड़ाई शुरू हो गई | यह समाचार सुनते ही उस लोकप्रिय मौलवी के समर्थन में दसों दिशाओं से झुण्ड के झुण्ड सेनानी वहां पहुँचने लगे | अवध की बेगम, मोहम्मदी का राजा मय्यन साहब, दिल्ली का मिर्जा फिरोजशाह, पेशवा नाना साहब आदि की सेनायें १४ मई तक मैदान में आ डटी | शिकारी खुद फंदे में फंस गया | अब वे आगे मौलवी को पकड़ने की कोशिश करते या पीछे से हो रहे प्रहारों को रोकते | नतीजा यह हुआ कि मौलवी एक बार फिर अपनी सेना के साथ जाल से निकल गए | अंग्रेजों ने अवध जीता तो मौलवी रूहेलखंड में हुकूमत चलाई, अंग्रेजों ने रूहेलखंड जीता तो मौलवी फिर अवध पहुँच गए | 

एक बार फिर विश्वासघाती के कारण हिन्दुस्तानी तलवार की धार भोंथरी हुई | अवध में घुसने के बाद मौलवी को ध्यान में आया कि अवध और रूहेलखंड के बीच एक रियासत है पोवेन | उसका राजा अगर अपने पक्ष में हो जाए, तो अंग्रेजों के विरुद्ध चल रहे संघर्ष को और बल मिलेगा | राजा को सन्देश भेजा गया तो उसने मौलवी को मिलने बुलाया | जब मौलवी शहर की दीवार के पास पहुंचे तो देखा दरबाजे बंद हैं और वह मोटा सुंडमुसुंड राजा जगन्नाथ सिंह अपने भाई के साथ दीवार पर सशस्त्र लोगों के बीच खड़ा है | उन्होंने दीवार के नीचे खड़े होकर ही उस राजा को समझाया | मनाने की भरसक कोशिश के बाद भी जब देखा कि वह नहीं मान रहा तब महावत को आदेश दिया कि दरबाजा तोड़ दिया जाए | लेकिन उसी समय राजा के भाई की बन्दूक से चली गोली ने उस मौलवी अहमद शाह को शहीद कर दिया, जिसने कसम खाई थी कि भले ही सर्वस्व राख हो जाए, अपनी तलवार नीचे नहीं रखूंगा | एक हिन्दुस्तानी कुलांगार ने ही यह पाप किया, इतने पर भी मन नहीं भरा तो वे दोनों भाई जल्दी से नीचे आये और मौलवी का सर काटकर एक रुमाल में बांधकर दौड़ते हुए तेरह मील दूर शाहजहाँपुर पहुंचे और कॉलिन की खिदमत में यह अमूल्य नजराना पेश किया | और उसके बाद उत्तर भारत में अंग्रेजों के इस महान शत्रु का सर कोतवाली पर टांग दिया गया और उस पातकी राजा को पचास हजार रुपये का ईनाम दिया गया | 

अंग्रेज इतिहासकार मेल्सन ने लिखा – मौलवी एक असाधारण व्यक्ति था | विद्रोह काल में उसके सैनिक नेतृत्व की योग्यता का परिचय कई प्रसंगों में मिलता है | सर कॉलिन केम्पवेल को दो बार युद्ध क्षेत्र में पराजित करने का करिश्मा करने वाला कोई दूसरा नहीं है | 

मौलवी अहमद शाह को सादर श्रद्धांजलि
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