ग्वालियर का स्वर्णकाल – महाराज मानसिंह तोमर का शासन



एक झोंपड़ी में मजदूर और उसकी पत्नी की खटपट हो रही थी – अरे अभागन दिन भर का थका मांदा आया हूँ और तूने खाने को कुछ भी नहीं बनाया, बच्चे भी कैसे भूख से बिलबिला रहे हैं | 

पत्नी बोली – का करूं, ताप ने हाड तोड़ डाले, हिलने की भी ताकत नहीं है बदन में, आटा ख़तम है, चक्की से आटा पिसे तो रोटी बने, कैसे चलाऊँ चक्की | 

दोनों की बातें सुनकर बच्चों की भूख और बढ़ गई और उन्होंने रोना शुरू कर दिया | तभी टटिया के पास से किसी के खांसने की आवाज आई तो मजदूर ने चिल्लाकर पूछा कौन है रे ? 

बाहर से उत्तर मिला, भैया नेक टटिया खोल दो, परदेशी हूँ, ठण्ड से सिकुड़ रहा हूँ, गैल भूल गया हूँ, थोडा सा ताप के गैल पूछ्के चला जाऊँगा | 

मजदूर ने घुड़का – राजा के सदावृत पे काहे नहीं चले जाते, भां तो अलाव भी जल रहा होगा तापने के लिए | 

भैया कहा तो, बाहर का हूँ, बहां की गैल भी कहाँ मालुम है, और बहां पहुंचते तक तो गत खराब हो जायेगी, तनक खोल दो न टटिया, मैं भी मजूर आदमी हूँ | 

हे भगवान मैं अपनी विपदा से मर रहा हूँ, ये एक और आफत आ गई सर पे, कांखते कून्खते मजदूर ने टटिया खोली तो बाहर बाला भीतर आ गया | उसके लम्बे तगड़े शरीर और भारी भरकम साफे को देखकर उसकी सिट्टी पिट्टी गुम हो गई | गिडगिडाकर बोला – दाऊ, मैं गरीब आदमी हूँ, मेरी गाँठ में कुछ नहीं है, किसी बड़े घर को ताक लो | 

अरे कैसी बात कर रहे हो भैया, मैं तो राई गाँव से तुम्हारे शहर में नौकरी ढूँढने आया हूँ, लुटेरा नहीं हूँ | भूख से आंतें भी कुलबुला रही हैं, कुछ खाने को मिल जाए तो बड़ी कृपा हो | 

अरे दद्दू खाने को तो कछू नहीं है, हमही भूखे डरे हैं, जे बीमार डली है, मैं थका मांदा पीस नहीं पाऊंगा | 

आगंतुक ने हैरत से पूछा – अभी मुझसे सदावृत की कह रहे थे, तुम खुद क्यों नहीं ले आये बहीं से | 

अरे हट्ट स्त्री के कंठ से निकला, आदमी भी बोला – हम क्या भिखमंगे हैं, सदावृत तो अपाहिज, साधू या अनाथों के लिए है, हम तो मजूर हैं | 

आगंतुक ने धीरे से कहा तो ठीक है, मैं ही पीस देता हूँ नाज, कमसेकम भूख तो मिटेगी | मजूर बोला ठीक है पीस लो अपन दोऊ जने बना खा लेंगे मिलके | 

आगंतुक ने दिए की मद्धिम रोशनी में चक्की चलाना शुरू किया | दोनों पति पत्नी को समझते देर नहीं लगी कि इससे पहले इस आदमी ने कभी चक्की नहीं चलाई है, वह बार बार चक्की की डांडी पर हाथ बदल रहा था | चक्की पीसने में उसका भारी भरकम मुंडासा भी बाधा पहुंचा रहा था, उसे सर से हटाकर उसने जल्दी जल्दी चक्की चलाई तो लम्बी दाढी एक और से खिसक कर ठोडी के नीचे लटक आई, एक तरफ से संभाली तो दूसरी तरफ से निकल गई | 

मजदूर कलपते हुए उसके पैरों में गिर पड़ा – मेरे महाराज, मेरे महाराज, अरी उठ अपने महाराज पधारे हैं झोंपड़ी में, धन्न भाग हमारे | 

आगंतुक और कोई नहीं ग्वालियर के प्रतापी महाराज मानसिंह तोमर थे, रुंधे कंठ से बोले धिक्कार है मुझ पर, मैं भरे पेट सौउं और तुम भूखे मरो, मैं महलों में गद्दों पर आराम करूं और तुम बिना दरबाजे की इस झोंपड़ी में ठण्ड से ठिठरो | 

हमारा भाग्य है महाराज घूँघट की ओट से महिला ने कहा | बेकार की बात है, गर तुम्हारा भाग्य खराब रहा तो हमारा तो पहले खोटा हो चुका | मैं अभी आटा और दवाई भिजवाये देता हूँ, बुखार में पीसने की जरूरत नहीं है | और उसके बाद ग्वालियर में किसानों मजदूरों के लिए रहने योग्य घरों और जगह जगह औषधालय खुलवाने की राज्य की और से व्यवस्था हुई | 

शायद इसी जन मन रंजन का परिणाम था कि बहलोल लोदी, उसका उत्तराधिकारी सिकंदर लोदी, मांडू का गयासुद्दीन और उसे मारकर गद्दी पर बैठा उसका बेटा नसीरुद्दीन आदि बार बार आये और पराजित हुए | मानसिंह के कार्यकाल का सबसे गौरवपूर्ण आख्यान था, उनका दिल्ली के सुलतान सिकंदर पर विजय पाना | हुआ कुछ यूं कि सिकंदर से पराजित होकर संभल के सईद खां और पटियाली के चौहान राजा गणेश ने मानसिंह की शरण ली | नाराज सिकंदर ने ग्वालियर पर चढ़ाई से पूर्व धौलपुर पर कब्ज़ा करने का निश्चय किया | सन १५२४ में उसके निर्देश पर मेवात के हाकिम आलम खां, रापरी के हाकिम लोहानी खानखाना व बयाना के हाकिम खबास खां ने धौलपुर को घेर लिया, किन्तु मानसिंह के सामंत विनायकपाल देव ने बड़ी वीरता से उनका सामना किया | अफगानी सेना का प्रसिद्ध शूरवीर अमीर शेख बब्बन उनके हाथों मारा गया | अफगानी मोर्चा शिथिल हो गया और यह समाचार पाकर स्वयं सिकंदर ने मोर्चा संभाला | उसकी विशाल सेना से पार ना पा सकने के कारण विनायकपाल ग्वालियर पहुँच गए और सुलतान की सेना ने धौलपुर को बुरी तरह ध्वस्त किया | मकान तो मकान पेड़ पौधे भी उखाड़ फेंके गए | मंदिरों का तो नामोनिशान मिटा दिया गया | 

उसके बाद सिकंदर ने चम्बल पारकर ग्वालियर को घेरा | वह दो महीने तक पड़ाव डाले पड़ा रहा, लेकिन ग्वालियर किला जीतने के स्थान पर उसकी सेना में महामारी फ़ैल गई | सैनिक धडाधड मरने लगे, ऐसे में मानसिंह के सुपुत्र विक्रमादित्य और धौलपुर के विनायाकपाल देव ने उस पर धावा बोल दिया | सुलतान युद्ध करने की स्थिति में ही नहीं था, उसने विवश होकर संधि कर ली और धौलपुर वापस कर चुपचाप दिल्ली लौट गया | लेकिन उसके दिमाग से ग्वालियर निकला नहीं था | अपमानित और आहत सिकंदर लोदी ने अपनी राजधानी दिल्ली के स्थान पर आगरा बना ली, ताकि मौका देखते ही ग्वालियर पर कब्जा किया जा सके | किन्तु मानसिंह तोमर के शासनकाल में उसका यह सपना पूरा नहीं हो सका | 

ग्वालियर पर तोमरों के बाद मुस्लिम और फिर उनके बाद मराठों और अंग्रेजों का भी कब्ज़ा रहा, किन्तु मानसिंह की स्मृतियाँ आज भी उन भव्य भवनों व संगीत के ग्वालियर घराने के रूप में सुरक्षित और संरक्षित हैं, जो उनके कार्यकाल में परवान चढ़ीं | समीपवर्ती राई गाँव की पराक्रमी गुजरनी मृगनयनी के शौर्य से प्रभावित होकर विवाह किया, तो अन्य रानियों की डाह से उसे बचाने के लिए ग्वालियर किले में पटरानी के निवास स्थल चित्र महल से प्रथक मान मंदिर और गूजरी महल का निर्माण कराया जो स्थापत्य कला का बेजोड़ नमूना है | बैजू बावरा जैसे संगीतज्ञ को ससम्मान प्रश्रय देने वाले मानसिंह का काल खंड ग्वालियर का स्वर्णयुग था | मानसिंह स्वयं भी अच्छे संगीतकार थे | हो सकता है यह अतिशयोक्ति हो, किन्तु कतिपय इतिहासकार तो उन्हें बैजू का गुरू मानते हैं | उनके द्वारा लिखित संगीत ग्रन्थ मान कुतूहल में अनेक रागों का विषद वर्णन है | मृग नयनी भी बैजू की शिष्या थीं, बैजू द्वारा निर्मित गूजरी टोडी और मंगल गूजरी राग इसके ही परिचायक हैं | माना जाता है कि अपनी प्रिय गूजरी रानी के लिए उसके जन्मस्थान राई गाँव से पानी लाने के लिए मानसिंह ने नहर भी बनवाई | गूजरी महल अधिकाँश भूमि के नीचे है और उसकी प्रत्येक मंजिल में किले से बाहर के कुए का पानी भेजा जाता था | यही पानी बादलगढ़ के नीचे के महल में भी जाता था | बैजू के शिष्य अर्थात मृगनयनी के गुरूभाई तानसेन ने मृगनयनी के सौन्दर्य एवं स्वभाव का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है – 

ए री तू अंग अंग रंग राती, 

अति ही सयानी री तू, 

पिय मनमानी | 

सोलह कला समानी, 

बोलत अमृत बानी, 

तेरो मुख देखें, 

चंदजोत हू लजानी | 

तानसेन कहे 

प्रभु दौऊ, 

चिरंजीव रहो, 

तेरो नेह रहे जौ लों, 

गंग जमुन पानी | 

पूजन के लिए जाती रानी का वर्णन तानसेन ने कुछ इस प्रकार किया है – 

चन्द्र बदनी, मृगनयनी, 

हंसगमनी, 

चली है पूजन महादेव, 

कर लिए अग्रथार, 

पुष्पन के गुंथे हार, 

तानसेन कहै, 

धुपदीप पुष्प पत्र, नैवेद्य ले, 

ध्यान लगाय 

हर हर महादेव | 

मानसिंह का महत्व तब और बढ़ जाता है, जब हम तत्कालीन मुस्लिम शासकों के क्रियाकलापों पर नजर डालते हैं | मीराते सिकंदरी में गुजरात के महमूद बघर्रा का जो वर्णन लिखा है, उसे पढ़कर तो रामायण काल के राक्षसों की याद ताजा हो जाती है | वृन्दावन लाल वर्मा जी ने भी अपने उपन्यास मृगनयनी में बघर्रा के सुबह के नाश्ते का वर्णन करते हुए लिखा हैं कि डेढ़ सौ पके केले, सेर भर शहद और सेर भर मक्खन यह उसका रोज का कलेवा था | किसी दिन रात में जागने के कारण कुपच हो जाए तो केले केवल सौ | शहद और मक्खन की तौल में कोई कसर नहीं | 

मालवा के सुलतान नसीरुद्दीन ने तो अपने बाप को जहर देकर महज इसलिए मार डाला, क्योंकि वह स्वयं सुलतान बनकर वासनाओं को तृप्त करना चाहता था | उसके हरम में पंद्रह हजार बेगमें थीं | लगभग सौ वर्ष बाद जब मुग़ल बादशाह जहाँगीर मालवा की राजधानी मांडू पहुंचा और उसने नसीरुद्दीन की कारस्तानियों के विषय में सुना, तो उसका भी खून खौल उठा और उसने नसीरुद्दीन की कबर उखड़वा कर उसकी हड्डियों को जलवा दिया | 

एक तरफ वे लोग जो महज ऐशो आराम के लिए सत्तासीन थे, दूसरी तरफ मानसिंह जैसे प्रजाबत्सल राजा | सचमुच कला, साहित्य, संगीत, स्थापत्य हर द्रष्टि से मानसिंह का कालखंड ग्वालियर का स्वर्णकाल था |
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