लोकमान्य तिलक की 100वी पुण्य तिथि पर गृहमंत्री का उद्बोधन, कृतित्व ऐसा हो कि मरण स्मरण के रूप में स्थापना पाए : अमित शाह




संजय तिवारी

कृतित्व ऐसा हो कि मरण भी स्मरण के रूप में स्थापना पा सके। इन दोनों शब्दो मे केवल आधा स अक्षर का अंतर है लेकिन लोक के स्मरण में बने रहने के लिए सारा जीवन खपा देना पड़ता है। जीवन के कार्य ऐसे होने चाहिए जिससे व्यक्ति का भौतिक शरीर न रहने पर भी सदियों तक वह पीढ़ियों के स्मरण में रहे।

ये उद्गार हैं केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह जी के , जो उन्होंने आज लोकमान्य तिलक जी की 100वी पुण्यतिथि तिथि पर आयोजित एक अंतरराष्ट्रीय वेबिनार में व्यक्त किये। इस वेबिनार में एक प्रतिभागी के रूप में मुझे भी शामिल होने का अवसर प्राप्त हुआ। अपने अत्यंत सारगर्भित विद्वत्ता पूर्ण उद्बोधन में गृह मंत्री अमित शाह जी ने कहा कि नई पीढ़ी को लोकमान्य तिलक जी के जीवन को अवश्य पढना चाहिए। एक ऐसे व्यक्तित्व जो वीर सावरकर जी, महात्मा गांधी जी, महामना मदनमोहन मालवीय जी सहित भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के सभी योद्धाओ के लिए प्रेरणा स्रोत थे, उनको पढ़े बिना भारत को समझ नही सकते। शिवाजी के स्वराज को भारत की आजादी की लड़ाई का आधार बनाने वाले तिलक जी है । क्रांति, आंदोलन, संघर्ष और भारतीय सनातन चिंतन को आगे ले जाने में तत्पर तिलक जी के बारे में दिनकर जी ने लिखा कि यदि तिलक जी ने गीता रहस्य न दिया होता तो आज गीता के कर्मयोग पर किसी का ध्यान नही जाता। उन्होंने कहा कि आधुनिक भारत मे सनातन के प्रथम गुरु लोकमान्य बालगंगाधर तिलक को कहने में कोई संकोच नही होना चाहिए। तिलक जी शिक्षक थे। अधिवक्ता थे। क्रांतिकारी थे। स्वाधीनता संग्राम के सेनानी थे। नेता थे। प्रखर वक्ता थे। चिंतक थे। दार्शनिक थे। पत्रकार थे । सफल संपादक थे । ब्रिटिश पराधीन भारत मे सनातन संस्कृति के ध्वजवाहक थे। लेखक थे। आध्यात्मिक गुरु थे। राजनैतिक गुरु थे। अद्भुत बहुमुखी प्रतिभा के परम विद्वान थे। एक तरफ भारत के स्वाधीनता के लिए उनका संघर्ष था, एक तरफ गोरक्षा आंदोलन में उनका नेतृत्व था, एक तरफ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की राजनीति थी, एक तरफ भारतीय सनातन संस्कृति की नवीन स्थापना का संघर्ष था। ऐसी विलक्षण प्रतिभा और ऐसा व्यापक व्यक्तिव । वे सच मे आधुनिक भारत मे सनातन के पहले गुरु के रूप में ही दिखते है।

लोकमान्य बालगंगाधर तिलक के कुछ स्वरूपों से तो सामान्यतया सभी परिचित हैं। लाल, बाल , पाल यानी लाल की तिकड़ी सामान्य रूप से सभी के संज्ञान में है लेकिन यह बहुत कम लोगो को मालूम है कि महात्मा गांधी के गुरु के रूप में भले ही गोपाल कृष्ण जी गोखले को लिखा जाता है , वास्तव में सनातन संस्कृति की अपार शक्ति और भारतीय जनमानस को समझने के गुर गांधी जी को लोकमान्य तिलक से ही प्राप्त हुए। वह तिलक की चिंतन शैली ही रही जिसने महात्मा गांधी को लोक का महात्मा बना दिया।


बाल गंगाधर तिलक को सम्पूर्ण समझना और उन पर बात करना इतना आसान नही है। वह तिलक की ही ऊर्जा है जिसने भारतीय स्वाधीनता संग्राम में एक बड़े समूह को भारतीय सनातन चिंतन से जोड़ा और तब गांधी जी को स्वदेशी का मंत्र मिला तो दूसरी तरफ महामना मदन मोहन मालवीय काशी हिंदू विश्वविद्यालय के निर्माण में जुटे, सेठ जयदयाल गोयन्दका जी ने गीताप्रेस स्थापित किया, भाई जी हनुमान प्रसाद पोद्दार सनातन के संरक्षण में जुटे और कल्याण का प्रकाशन शुरू हुआ। महाराष्ट्र में गणपति उत्सव के माध्यम से लोक को सनातन की शक्ति से जोड़ने के कार्य आंदोलन की शक्ल लेकर आगे बढ़े। देश मे राजनीतिक आंदोलन एक तरफ था और सांस्कृतिक आंदोलन से देश नई ऊर्जा प्राप्त कर रहा था। इन दोनों ही आंदोलनों के केंद्र में लोकमान्य तिलक एक सशक्त स्तंभ के रूप में स्थापित हो चुके थे।

लोकमान्य को ठीक से यदि भारत की नई पीढ़ी समझ सके तो भारत की तस्वीर बदलते देर नही लगेगी। इसके लिए आवश्यक है कि हम लोकमान्य के जीवन को ठीक से पढ़ें और जानने की कोशिश करें। तिलक जी भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के पहले लोकप्रिय नेता हुए जिन्हें ब्रिटिश औपनिवेशिक प्राधिकारी उन्हें "भारतीय अशान्ति के पिता" कहते थे। उन्हें, "लोकमान्य" का आदरणीय शीर्षक भी प्राप्त हुआ, जिसका अर्थ हैं लोगों द्वारा स्वीकृत । लोकमान्य तिलक जी ब्रिटिश राज के दौरान स्वराज के सबसे पहले और मजबूत अधिवक्ताओं में से एक थे, तथा भारतीय अन्तःकरण में एक प्रबल आमूल परिवर्तनवादी थे। उनका मराठी भाषा में दिया गया नारा "स्वराज्य हा माझा जन्मसिद्ध हक्क आहे आणि तो मी मिळवणारच" (स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है और मैं इसे लेकर ही रहूँगा) बहुत प्रसिद्ध हुआ। उन्होंने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के कई नेताओं से एक क़रीबी सन्धि बनाई, जिनमें बिपिन चन्द्र पाल, लाला लाजपत राय, अरविन्द घोष और वी० ओ० चिदम्बरम पिल्लै शामिल थे।

लोकमान्य तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को ब्रिटिश भारत में वर्तमान महाराष्ट्र स्थित रत्नागिरी जिले के एक गाँव चिखली में हुआ था। ये आधुनिक कालेज शिक्षा पाने वाली पहली भारतीय पीढ़ी में से थे। तिलक का जन्म एक सुसंस्कृत, मध्यमवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पिता का नाम 'श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक' था। श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक पहले रत्नागिरि में सहायक अध्यापक थे और फिर पूना तथा उसके बाद 'ठाणे' में सहायक उपशैक्षिक निरीक्षक हो गए थे। वे अपने समय के अत्यंत लोकप्रिय शिक्षक थे। उन्होंने 'त्रिकोणमिति' और 'व्याकरण' पर पुस्तकें लिखीं जो प्रकाशित हुईं। तथापि, वह अपने पुत्र की शिक्षा-दीक्षा पूरी करने के लिए अधिक समय तक जीवित नहीं रहे। लोकमान्य तिलक के पिता 'श्री गंगाधर रामचंद्र तिलक' का सन् 1872 ई. में निधन हो गया।

इन्होंने कुछ समय तक स्कूल और कालेजों में गणित पढ़ाया। अंग्रेजी शिक्षा के ये घोर आलोचक थे और मानते थे कि यह भारतीय सभ्यता के प्रति अनादर सिखाती है। इन्होंने दक्कन शिक्षा सोसायटी की स्थापना की ताकि भारत में शिक्षा का स्तर सुधरे।

जब अपने शिक्षक से भिड़ गए बाल गंगाधर तिलक

ये बात जब की है जब बाल गंगाधर तिलक स्कूल में पढ़ते थे एक बार उनकी क्लास के विद्यार्थियों ने मूंगफली खा कर पूरी क्लास को गंदा कर दिया जब टीचर ने क्लास की हालत देखीं तो उन्होंने सभी विद्यार्थियों को दंडित करना शुरू कर दिया। जब टीचर बाल गंगाधर तिलक के पास पहुंचे तो उन्होंने तिलक को हाथ आगे कर के दंड देने के लिए कहा परन्तु बाल गंगाधर तिलक ने दंड लेने से मना कर दिया। उन्होंने कहा जब मैंने कुछ किया ही नहीं है तो किस बात का दंड। बाल गंगाधर तिलक इस उदंडता के लिए टीचर ने उनके पिता को भी स्कूल बुलाया। सारी बातें सुने के बाद बाल गंगाधर तिलक के पिता ने अपने बेटे का साथ देते हुए कहा कि जब उसने क्लास को गंदा ही नहीं किया तो वो किस बात का दंड सहेगा। मैंने अपने बेटे को न तो कोई पैसे दिए और न ही वो बाहर की चीजें खाता है इतना ही नहीं, मेरा बेटा कभी झूठ भी नहीं बोलता। ये सब सुने के बाद टीचर को अपनी गलती का अहसास हुआ।

बाल गंगाधर तिलक अपने पिता की मृत्यु के बाद 16 वर्ष की उम्र में अनाथ हो गए। उन्होंने तब भी बिना किसी व्यवधान के अपनी शिक्षा जारी रखी और अपने पिता की मृत्यु के चार महीने के अंदर मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली। वे 'डेक्कन कॉलेज' में भर्ती हो गए फिर उन्होंने सन् 1876 ई. में बी.ए. आनर्स की परीक्षा वहीं से पास की सन् 1879 ई. में उन्होंने बंबई विश्वविद्यालय से एल.एल.बी. की परीक्षा पास की और क़ानून की पढ़ाई करते समय उन्होंने 'आगरकर' से दोस्ती कर ली जो बाद में 'फ़र्ग्युसन कॉलेज' के प्रिंसिपल हो गए। दोनों दोस्तों ने इस बात पर विचार करते हुए अनेक रातें गुजारीं कि वे देशवासियों की सेवा की कौन-सी सर्वोत्तम योजना बना सकते हैं। एल्फिंस्टोन कॉलेज, मुंबई अंत में उन्होंने संकल्प किया कि वे कभी सरकारी नौकरी स्वीकार नहीं करेंगे तथा नई पीढ़ी को सस्ती और अच्छी शिक्षा प्रदान करने के लिए एक प्राइवेट हाईस्कूल और कॉलेज चलाएँगे। उनके साथी छात्र इन आदर्शवादी बातों पर उनकी हँसी उड़ाते थे। लेकिन इन उपहासों या बाहरी कठिनाइयों का कोई असर उन दोनों उत्साही युवकों पर नहीं हुआ।

तिलक जी ने स्कूल के भार से स्वयं को मुक्त करने के बाद अपना अधिकांश समय सार्वजनिक सेवा में लगाने का निश्चय किया। अब उन्हें थोड़ी फुरसत मिली थी। इसी समय लड़कियों के विवाह के लिए सहमति की आयु बढ़ाने का विधेयक वाइसराय की परिषद के सामने लाया जा रहा था। तिलक पूरे उत्साह से इस विवाद में कूद पड़े, इसलिए नहीं कि वे समाज-सुधार के सिद्धांतों के विरोधी थे, बल्कि इसलिए कि वे इस क्षेत्र में ज़ोर-जबरदस्ती करने के विरुद्ध थे। सहमति की आयु का विधेयक, चाहे इसके उद्देश्य कितने ही प्रशंसनीय क्यों न रहे हों, वास्तव में हिन्दू समाज में सरकारी हस्तक्षेप से सुधार लाने का प्रयास था। अत: समाज-सुधार के कुछ कट्टर समर्थक इसके विरुद्ध थे। इस विषय में तिलक के दृष्टिकोण से पूना का समाज दो भागों, कट्टरपंथी और सुधारवादियों में बँट गया। दोनों के बीच की खाई नए मतभेदों एवं नए झगड़ों के कारण बढ़ती गई। विद्यालय की स्थापना उसी समय इन्हीं विचारों के एक बुजुर्ग व्यक्ति 'विष्णु कृष्ण चिपलूनकर' उनसे मिले- जो 'विष्णु शास्त्री' के नाम से जाने जाते थे। उन्होंने उन्हीं दिनों सरकारी नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया था, क्योंकि अपने अफ़सरों से उनकी नहीं बनती थी। वे इस निश्चय के साथ पूना आए थे कि वहाँ एक प्राइवेट हाईस्कूल चलाएँगे। वे मराठी के सर्वोत्तम गद्य-लेखक के रूप में प्रसिद्ध हो चुके थे। तिलक और आगरकर ने उनकी योजना को जानने के बाद उनके साथ विचार-विमर्श किया। बाद में इन तीनों के साथ एक और व्यक्ति शामिल हो गया- 'एम.बी. नामजोशी', जो असाधारण बुद्धि और ऊर्जा से परिपूर्ण थे। चिपलूनकर और तिलक ने नामजोशी की सहायता से 2 जनवरी, सन् 1880 ई. को पूना में 'न्यू इंग्लिश स्कूल' शुरू किया। 'वी.एस. आप्टे' ने जून में और आगरकर वर्ष के अंत में एम.ए. करने के बाद उस स्कूल में शामिल हो गए। इन पाँच आदमियों ने अपनी गतिविधियों को स्कूल तक ही सीमित नहीं रखा।

लोकमान्य तिलक ने इंग्लिश मे मराठा दर्पण व मराठी में केसरी नाम से दो दैनिक समाचार पत्र शुरू किये जो जनता में बहुत लोकप्रिय हुए। लोकमान्य तिलक ने अंग्रेजी शासन की क्रूरता और भारतीय संस्कृति के प्रति हीन भावना की बहुत आलोचना की। उन्होंने माँग की कि ब्रिटिश सरकार तुरन्त भारतीयों को पूर्ण स्वराज दे। केसरी में छपने वाले उनके लेखों की वजह से उन्हें कई बार जेल भेजा गया।


लोकमान्य तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हुए लेकिन जल्द ही वे कांग्रेस के नरमपंथी रवैये के विरुद्ध बोलने लगे। 1907 में कांग्रेस गरम दल और नरम दल में विभाजित हो गयी। गरम दल में लोकमान्य तिलक के साथ लाला लाजपत राय और श्री बिपिन चन्द्र पाल शामिल थे। इन तीनों को लाल-बाल-पाल के नाम से जाना जाने लगा। 1908 में लोकमान्य तिलक ने क्रान्तिकारी प्रफुल्ल चाकी और क्रान्तिकारी खुदीराम बोस के बम हमले का समर्थन किया जिसकी वजह से उन्हें बर्मा (अब म्यांमार) स्थित मांडले की जेल भेज दिया गया। जेल से छूटकर वे फिर कांग्रेस में शामिल हो गये और 1916 में एनी बेसेंट जी और मुहम्मद अली जिन्ना के साथ अखिल भारतीय होम रूल लीग की स्थापना की।

लोकमान्य तिलक भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से 1890 में जुड़े। हालांकि, उसकी मध्य अभिवृत्ति, खासकर जो स्वराज्य हेतु लड़ाई के प्रति थी, वे उसके ख़िलाफ़ थे। वे अपने समय के सबसे प्रख्यात आमूल परिवर्तनवादियों में से एक थे।

अल्पायु में विवाह करने के व्यक्तिगत रूप से विरोधी होने के बावजूद, लोकमान्य तिलक 1891 एज ऑफ़ कंसेन्ट विधेयक के खिलाफ थे, क्योंकि वे उसे हिन्दू धर्म में अतिक्रमण और एक खतरनाक उदाहरण के रूप में देख रहे थे। इस अधिनियम ने लड़की के विवाह करने की न्यूनतम आयु को 10 से बढ़ाकर 12 वर्ष कर दिया था।

लोकमान्य तिलक ने अपने पत्र केसरी में "देश का दुर्भाग्य" नामक शीर्षक से लेख लिखा जिसमें ब्रिटिश सरकार की नीतियों का विरोध किया। उनको भारतीय दंड संहिता की धारा 124-ए के अन्तर्गत राजद्रोह के अभियोग में 27 जुलाई 1897 को गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें 6 वर्ष के कठोर कारावास के अंतर्गत माण्डले (बर्मा) जेल में बन्द कर दिया गया।

भारतीय दंड संहिता में धारा 124-ए ब्रिटिश सरकार ने 1870 में जोड़ा था जिसके अंतर्गत "भारत में विधि द्वारा स्थापित ब्रिटिश सरकार के प्रति विरोध की भावना भड़काने वाले व्यक्ति को 3 साल की कैद से लेकर आजीवन देश निकाला तक की सजा दिए जाने का प्रावधान था।" 1898 में ब्रिटिश सरकार ने धारा 124-ए में संशोधन किया और दंड संहिता में नई धारा 153-ए जोड़ी जिसके अंतर्गत "अगर कोई व्यक्ति सरकार की मानहानि करता है यह विभिन्न वर्गों में नफरत फैलाता है या अंग्रेजों के विरुद्ध घृणा का प्रचार करता है तो यह भी अपराध होगा।"

ब्रिटिश सरकार ने लोकमान्य तिलक को 6 वर्ष के कारावास की सजा सुनाई, इस दौरान कारावास में लोकमान्य तिलक ने कुछ किताबो की मांग की लेकिन ब्रिटिश सरकार ने उन्हे ऐसे किसी पत्र को लिखने पर रोक लगायी थी जिसमे राजनैतिक गतिविधियां हो। लोकमान्य तिलक ने कारावास में एक किताब भी लिखी, कारावास की पूर्ण होने के कुछ समय पूर्व ही बाल गंगाधर तिलक की पत्नी का स्वर्गवास हो गया, इस ढुखद खबर की जानकारी उन्हे जेल में एक ख़त से प्राप्त हुई। और लोकमान्य तिलक को इस बात का बेहद अफसोस था की वे अपनी पत्नी के अंतिम दर्शन भी नहीं कर सकते।


बाल गंगाधर तिलक ने एनी बेसेंट जी की मदद से होम रुल लीग की स्थापना की । होम रूल आन्दोलन के दौरान बाल गंगाधर तिलक को काफी ख्याति मिली, जिस कारण उन्हें “लोकमान्य” की उपाधि मिली थी। अप्रैल 1916 में उन्होंने होम रूल लीग की स्थापना की थी। इस आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य भारत में स्वराज स्थापित करना था। । यह कोई सत्याग्रह आन्दोलन जैसा नहीं था। इसमें चार या पांच लोगों की टुकड़ियां बनाई जाती थी जो पूरे भारत में बड़े-बड़े राजनेताओं और वकीलों से मिलकर होम रूल लीग का मतलब समझाया करते थे। एनी बेसेंट जी जो कि आयरलैंड से भारत आई हुई थीं। उन्होंने वहां पर होमरूल लीग जैसा प्रयोग देखा था, उसी तरह का प्रयोग उन्होंने भारत में करने का सोचा।

उन्होंने सबसे पहले ब्रिटिश राज के दौरान पूर्ण स्वराज की मांग उठाई। लोकमान्य तिलक ने जनजागृति का कार्यक्रम पूरा करने के लिए महाराष्ट्र में गणेश उत्सव तथा शिवाजी उत्सव सप्ताह भर मनाना प्रारंभ किया। इन त्योहारों के माध्यम से जनता में देशप्रेम और अंग्रेजों के अन्यायों के विरुद्ध संघर्ष का साहस भरा गया।

आज लोकमान्य के जीवन के कुछ ऐसे पन्नो को पढ़ने का मन हो रहा है जिनके बारे में भारत मे ही अब कोई चर्चा नही होती। ये वे पन्ने हैं जिनमे सनातन संस्कृति और भारतीयता के अप्रतिम योद्धा के दर्शन होते हैं। एक ऐसे युगपुरुष जिनका ऋण हम कभी चुका नही सकते।

तिलक सन् 1894 ई. में एक महत्त्वपूर्ण मामले में व्यस्त हो गए। इस मामले के साथ उनके एक मित्र और 'बड़ौदा रियासत', दोनों के व्यापक हित जुड़े थे। यह प्रसिद्ध ‘बापट केस’ था। 'राव साहब डब्ल्यू. एस. बापट', जो बंदोबस्त विभाग के अध्यक्ष थे, पर भ्रष्टाचार के अनेक आरोपों पर मुक़दमा चलाने के लिए विशेष आयोग नियुक्त किया गया था। यह केस बंदोबस्त विभाग के विरुद्ध एक षड्यंत्र का नतीजा था। यह षड्यंत्र वास्तव में 'ब्रिटिश ‘पॉलिटिकल’ विभाग का कारनामा था। श्री बापट के मु्क़दमे की कुछ विशेषताएँ थीं। यह मुक़दमा महाराज के पीठ-पीछे चलाया जा रहा था। वे यूरोप के दौरे पर थे। महाराजा के शत्रुओं को आशा थी कि मु्क़दमे के दौरान कुछ ऐसी बातें प्रकट की जाएँगी जिनसे महाराज की प्रशासन क्षमता पर चोट पहुँचेगी। लोग केवल बंदोबस्त विभाग से ही नाराज़ नहीं थे, बल्कि वे कई उच्च अधिकारियों से भी नाराज़ थे। यह स्पष्ट था कि श्री बापट को बलि का बकरा बनाया जा रहा था। उन्हें न केवल अपने अपराधों की, बल्कि दूसरों के अपराधों की भी सज़ा दी जानी थी। अभियोजन पक्ष की ओर से माननीय 'पी.एम. मेहता' और बाद में बैरिस्टर 'श्री ब्रेन्सन' और बचाव पक्ष के लिए 'श्री एम.सी. आप्टे' और 'श्री डी.ए. खरे' वक़ील थे। लेकिन बचाव का अधिकांश भार तिलक पर था। अभियोजन पक्ष के गवाहों से की गई जिरह और बचाव पक्ष के लिए दिए गए उनके अकाट्य तर्क उनकी मेहनत और योग्यता के जीते-जागते प्रमाण हैं।

तिलक की गतिविधियाँ समकालीन राजनीति में थमी नहीं। अब वे 'राष्ट्रीय कांग्रेस की डेक्कन स्थायी समिति' के सचिव नहीं रहे थे, लेकिन 'बंबई प्रांतीय सम्मेलन' के सचिव के रूप में उन्होंने उसके पाँच अधिवेशन आयोजित किए। पाँचवाँ अधिवेशन 'श्री पी.एम. मेहता' की अध्यक्षता में सन् 1892 ई. में आयोजित किया गया और पूरी तरह सफल रहा।

तिलक ने संकट की घड़ी में जनता को भाग्य के भरोसे छोड़ देने के लिए पूना के नेताओं की आलोचना की। तिलक की गतिविधियों ने जल्दी ही उन्हें ब्रिटिश सरकार के साथ टकराव की स्थिति में ला खड़ा किया। लेकिन उनकी सार्वजनिक सेवाऐं उन्हें मुक़दमे और उत्पीड़न से नहीं बचा सकीं। सन् 1897 ई. में उन पर पहली बार राजद्रोह का मुक़दमा चलाया गया। सरकार ने उन पर राजद्रोह का आरोप लगाकर उन्हें जेल भेज दिया इस मुक़दमे और सज़ा के कारण उन्हें लोकमान्य की उपाधि मिली। भारत के वाइसरॉय लॉर्ड कर्ज़न ने जब सन् 1905 ई. में बंगाल का विभाजन किया, तो तिलक ने बंगालियों द्वारा इस विभाजन को रद्द करने की मांग का ज़ोरदार समर्थन किया और ब्रिटिश वस्तुओं के बहिष्कार की वक़ालत की, जो जल्दी ही एक देशव्यापी आंदोलन बन गया। अगले वर्ष उन्होंने सत्याग्रह के कार्यक्रम की रूपरेखा बनाई, जिसे नए दल का सिद्धांत कहा जाता था। उन्हें उम्मीद थी कि इससे ब्रिटिश शासन का सम्मोहनकारी प्रभाव ख़त्म होगा और लोग स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु बलिदान के लिए तैयार होंगे। तिलक द्वारा शुरू की गई राजनीतिक गतिविधियों, विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार और सत्याग्रह को बाद में मोहनदास करमचंद गाँधी ने अंग्रेज़ों के साथ अहिंसक असहयोग आंदोलन में अपनाया।

श्री रेंड और लेफ्टिनेंट आयर्स्ट की हत्या कुछ अज्ञात लोगों द्वारा 22 जून को कर दी गई। इससे बंबई और पूना में, विशेष रूप से 'एंग्लो इंडियन समुदाय' में जबरदस्त उत्तेजना फ़ैली। 26 जुलाई को बंबई सरकार ने तिलक पर मुक़दमा चलाने की मंजूरी प्रदान की और 27 जुलाई को पूर्वी भाषाओं के अनुवादक श्री बेग ने बंबई के 'चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट' श्री जे. सेंडर्स स्लेटर के सामने सूचना रखी। 27 जुलाई की रात में तिलक को बंबई में गिरफ़्तार कर लिया गया और दूसरे दिन उन्हें मजिस्ट्रेट के सामने पेश किया गया। इसके फौरन बाद मजिस्ट्रेट के सामने ज़मानत की अर्जी दाख़िल की गई। सरकार ने दृढ़ता और सफलता के साथ इसका विरोध किया। 29 तारीख को इसी तरह की एक अर्जी उच्च न्यायालय में दाख़िल की गई, जिसे फिर से आवेदन करने की अनुमति के साथ अस्वीकार कर दिया गया। 2 अगस्त को यह केस हाई कोर्ट सेशन के सुपर्द कर दिया गया और अध्यक्ष न्यायाधीश, न्यायमूर्ति बदरुद्दीन तैयबजी के सामने जमानत की अर्जी फिर दाख़िल की थी। ज़मानत की अर्जी का प्रबल विरोध एडवोकेट जनरल ने किया लेकिन न्यायाधीश ने तिलक को ज़मानत दे दी। मुक़दमे की सुनवाई बाल गंगाधर तिलक का मुक़दमा, बॉम्बे उच्च न्यायालय (1897) यह मुक़दमा उचित समय पर, 8 सितंबर को सुनवाई के लिए आया। सुनवाई एक सप्ताह तक चली। कलकत्ता बार के श्री प्यू और उनकी सहायता के लिए श्री गार्थ बचाव पक्ष में तिलक की ओर से और एडवोकेट जनरल श्री बेसिल लाग अभियोजन पक्ष की ओर से थे। न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने मुक़दमें की सुनवाई की। जूरी के सदस्य थे पाँच यूरोपीय ईसाई, एक यूरोपीय यहूदी, दो हिन्दू और एक पारसी। जूरी के छह यूरोपीय सदस्यों ने आरोपी को दोषी ठहराया, जबकि तीन देशी सदस्यों ने उन्हें निर्दोष माना। न्यायाधीश ने बहुमत के निर्णय को स्वीकार कर लिया और तिलक को अठारह महीने की कड़ी क़ैदी की सज़ा सुनाई। जब जूरी के सदस्य अपने निर्णय पर विचार करने के लिए चले गए थे, अभियुक्त की ओर से न्यायाधीश को आवेदन दिया गया कि क़ानून के कुछ प्रश्न पूरी बैंच के विचारार्थ सुरक्षित कर दिए जाएँ। इस आवेदन को स्वीकार नहीं किया गया। बाद में 'एडवोकेट जनरल' को दिया गया इसी तरह का एक प्रार्थनापत्र नामंजूर कर दिया गया। 17 सितंबर, सन् 1897 ई. को उच्च न्यायालय से यह प्रमाणपत्र जारी करने का अनुरोध किया गया कि यह केस 'प्रिवी काउंसिल' में अपील करने योग्य है इस आवेदन की सुनवाई मुख्य न्यायाधीश सर चार्ल्स फैरन, न्यायमूर्ति कैंडी और न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने की और उसे अस्वीकार कर दिया। न्याय की अपील प्रिवी काउंसिल में न्याय की अपील की गई। माननीय श्री एसक्विथ ने, जो बाद में इंग्लैंड के प्रधानमंत्री हुए, 19 नवंबर, 1897 को तिलक की अपील पर बहस की। लॉर्ड हेल्सबरी, लॉर्ड चांसलर जो उस समय इंग्लैंड के कैबिनेट मंत्री थे, लीक से हटकर काउंसिल की बैठक की अध्यक्षता करने गए। सभी को पता था कि कैबिनेट के एक अन्य मंत्री ने इस मुक़दमें को चलाने की मंजूरी दी थी। श्री एसक्विथ ने अपनी बहस में इस बात पर बहुत ज़ोर दिया कि न्यायमूर्ति स्ट्रैची ने जूरी को ग़लत निर्देश दिए थे। लेकिन प्रिवी काउंसिल ने समूची गवाही के सार और विवरण पर विचार करने के बाद फ़ैसले में परिवर्तन करने लायक़ कोई बात नहीं पाई। परिणामस्वरूप अपील करने की अनुमति देने का प्रार्थनापत्र नामंजूर कर दिया गया। इस प्रकार तिलक के लिए न्याय पाने के सभी रास्ते बंद को गए। लेकिन इन घटनाओं का गहरा असर ब्रिटेन की जनता पर पड़ा। प्रो0 मैक्समुलर और सर विलियम हंटर ने महारानी को एक प्रतिवेदन भेजने का आयोजन किया। इस पर महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे। इस प्रतिवेदन में अनुरोध किया गया था कि तिलक के प्रति इस आधार पर दया प्रदर्शित की जाएँ कि वे एक विद्वान् हैं और उनकी रिहाई के पक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है। अन्य बातों के साथ इस प्रार्थनापत्र का असर हुआ और बातचीत के बाद तिलक कुछ औपचारिक शर्तें मानने के लिए तैयार हो गए और उन्हें मंगलवार 6 सितंबर, 1898 को 'बंबई के महामहिम गर्वनर' के आदेशों पर छोड़ दिया गया

रिहाई के बाद तिलक कारावास में अत्यधिक दुर्बल हो गए थे। अपना स्वास्थ्य सुधारने के लिए उन्होंने पहले कुछ दिन 'सिंहगढ़ सेनीटोरियम' में बिताए, दिसंबर में मद्रास में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल होने के बाद उन्होंने श्रीलंका का दौरा किया। अपने आंदोलन को जहाँ छोड़ा था, वहीं से उसे फिर शुरू करने और आगे बढ़ाने में अगले दो वर्ष उन्होंने लगाए। उनके बहुत से काम उनके जेल जाने के कारण रुक गए थे। रायगढ़ क़िले में सन् 1900 ई. में एक विशाल ‘शिवाजी महोत्सव’ आयोजित किया गया। शिवाजी की स्मृति को स्थायी बनाने के लिए एक स्मारक बनाने की दिशा में भी कुछ काम आगे बढ़ा।

जब तिलक की नई पुस्तक जनता के लिए जारी हुई, तब 'बंबई सरकार' के सुझाव पर वे एक और मुक़दमे ताई महाराज केस में फँसे हुए थे। इस केस ने सन् 1901 ई. से तिलक का सारा समय ले लिया था। इसके कारण उन्हें न केवल यंत्रणादायक शरीरिक कष्ट, बल्कि मानसिक उत्पीड़न भी भोगना पड़ा और हज़ारों रुपये की हानि भी उठानी पड़ी।

इस मुक़दमे की संक्षिप्त कहानी इस प्रकार है - पूना के एक प्रथम श्रेणी के सरदार श्री बाबा महाराज ने तिलक को अपने एस्टेट के चार ट्रस्टियों में से मुख्य ट्रस्टी बना रखा था। राजद्रोह के मुक़दमे में उच्च न्यायालय द्वारा तिलक को ज़मानत पर छोड़े जाने के कुछ दिन बाद, 7 अगस्त सन् 1897 ई. को बाबा महाराज का स्वर्गवास हो गया। दुर्भाग्य कभी अकेले नहीं आता। विचित्र संयोग यह हुआ कि जिस दिन अपनी रिहाई के बाद तिलक बंबई से लौटे, मृत्यु शैय्या पर लेटे महाराज ने उन्हें बुलवाया और इस बात पर ज़ोर दिया कि वे उनकी वसीयत के निष्पादक बनें। तिलक इस भारी ज़िम्मेदारी को लेने के लिए तैयार हो गए। उन्हें आशा थी कि उनके ऐसा करने से महाराज के परिवार को ऋणमुक्त किया जा सकेगा और ऋणमुक्त एस्टेट उत्तराधिकारी को सोंपा जा सकेगा। उसके बाद तिलक ने यह काम हाथ में लेने पर पाया कि दो मामलों की ओर तत्काल ध्यान देना आवश्यक है। पहला था ऋणों की समाप्ति और खर्च में कमी तथा दूसरा था ताई महाराज के लिए गोद लेने की व्यवस्था। क्योंकि उस समय फ़ैल रहे प्लेग के कारण शाहर में मानव जीवन खतरे में था, और 'ताई महाराज' एकमात्र ऐसी महिला थीं जो अपने पति के लिए लड़का गोद ले सकती थीं। ऋणों की समाप्ति का अर्थ था खर्चों में कमी और बचत। ताई महाराज को यह पसंद न था। विधवा युवती तिलक के नेक इरादों से परिचित थीं। उन्होंने शुरू में ‘एस्टेट’ के नाममात्र के प्रतिनिधि के रूप में अपनी स्थिति को सहर्ष स्वीकार किया। इस्टेट का वास्तविक और प्रभावी स्वामित्व तो उनके पति द्वारा वसीयत में नियुक्त ट्रस्टियों के पास था। लेकिन ताई महाराज शीघ्र ही अपने प्रिय प्रभारी के प्रभाव में आ गईं। उसने उन्हें सिखाया कि वे ‘एस्टेट’ की न्यायपूर्ण अधिकारी हैं और एक बालक को गोद लेकर उन्हें उनके अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। कुछ लुटेरे भी वहाँ थे, जो उक्त विधवा को मधुर बातों से बरगलाकर उनके अत्यंत प्रिय हो गए थे। वे भविष्य में एक पेंशनर और एस्टेट पर आश्रित के रूप में उनकी भावी हालत के कमज़ोर पहलुओं का बढ़ा-चढ़ा कर वर्णन करते थे। उनका यह भी कहना था कि अगर वे दृढ़ इच्छाशक्ति दिखाऐं तो हमेशा के लिए आज़ाद हो सकती हैं, उस लड़के के साथ ऐसी व्यवस्था कर सकती हैं कि वह हमेशा आज्ञाकारी बालक की तरह आचरण करे और ज़ायदाद का प्रबंध इस प्रकार से करे कि भविष्य में उनका और उनके प्रिय एवं सक्रिय सलाहाकारों का कल्याण होता रहें ग़रीबी में जी रहे अनेक लड़के इस हालत में भी ऐसी ज़ायदाद के लिए गोद लिये जाने लिए तैयार हो जाएँगे। उनके भाई इस तरह की स्थिति में अत्यधिक प्रसन्न होंगे क्योंकि उनके पूर्वजों की संपत्ति का कम से कम एक वारिस कम हो जाएगा। इस अभागी महिला के मामले में भी ऐसा ही हुआ। खर्च में कमी से वह चिंतित हुईं, और नागपुरकर और कोल्हापुर के पंडित महाराज के नेतृत्व में सिद्वांतहीन (बेईमान) पार्टी के षड़यंत्र का शिकार बन गईं। इन लोगों ने यह सांठ-गांठ रची कि ताई महाराज पंडित के भाई बाला महाराज को गोद ले लें। लेकिन न तो ताई महाराज को और न नागपुरकर को यह हिम्मत थी कि वे खुलकर ट्रस्टियों को विरोध करें। ताई महाराज को इस बात का पक्का विश्वास था कि ट्रस्टी कोई ऐसा काम नहीं करेंगे जिससे उनको निजी लाभ होगा और या उनके पति द्वारा चलाए गए भलाई के कार्यों में बाधा पहुँचे। इतना स्पष्ट है कि 18 जून, सन् 1901 ई. तक उनके बीच कोई मतभेद नहीं था। इसी दिन ये सब लोग औरंगाबाद के लिए रवाना हुए, जहाँ अंतत: महाराज परिवार की बबरे शाखा के एक लड़के को ताई महाराज ने गोद लिया। औरंगाबाद से लौटने के बाद ताई महाराज बुरे सलाहकारों के प्रभाव में आ गईं। इन लोगों ने उन्हें इस बात के लिए तैयार कर लिया कि वे अपने पति की वसीयत के प्रमाणपत्र को ख़ारिज करवा दें यह इस आशा में किया गया कि वे स्वतंत्र और अपनी मनमर्जी की मालकिन हो जाएँगी। यह आवेदन पूना ज़िला के जज श्री एस्टन को 29 जुलाई, सन् 1901 ई. को दिया गया। इस आवेदन पर कार्रवाई उस तारीख से 3 अप्रैल, 1902 तक चली। इस अवधि में अदालत की कुछ 344 बैठकें हुई इनमें से 14 में तिलक से जिरह की गई। यह कार्य श्री एस्टन और ताई महाराज के वक़ीलों ने मिलकर किया। इस कार्रवाई में देखने योग्य मुख्य बात यह है कि यद्यपि इसमें औरंगाबाद में दत्तक-ग्रहण कोइ मुद्दा नहीं था, श्री एस्टन ने उसे निर्णय करने के लिए मुख्य मुद्दा बना दिया। तिलक द्वारा चुनौती दिए जाने और विरोध प्रकट किए जाने के बावज़ूद श्री एस्टन ने गवाही संबंधी क़ानून और प्रासंगिकता के आधार पर ताई महाराज की ओर से ढेरों दस्तावेज़ी और मौखिक गवाही बाद में शामिल कर दीं। वास्तव में केवल यह मुद्दा उठाया गया था कि क्या तिलक और अन्य लोगों को जारी किया गया वसीयत का प्रमाणपत्र बेकार और निष्प्रभावी हो गया है। क्या वसीयत को कार्यान्वित करने वाले लोग ट्रस्ट में रहने के अयोग्य हो गए है, जिसके कारण ट्रस्ट में नए लोगों की नियुक्ति आवश्यक हो गई है। श्री एस्टन ने इन प्रश्नों का उत्तर हाँ में दिया। वह इस नतीजे पर पहुँचे कि औरंगाबाद का दत्तक ग्रहण सिद्ध नहीं हुआ है। उन्होंने वसीयत का प्रमाणपत्र रद्द कर दिया और यह आदेश दिया कि मुक़दमे का खर्च तिलक और श्री खापर्डे को उठाना पड़ेगा। फ़ैसला लम्बा था। इसके 90 प्रतिशत भाग में औरंगाबाद का दत्तक-ग्रहण और पूना में ताई महाराज के साथ कथित दुर्व्यवहार आदि नितांत अप्रासंगिक तथ्यों की चर्चा है। यह बात ध्यान देने योग्य है कि तिलक ने इन्हें ‘अप्रासंगिक’ कह कर इनका विरोध किया था और उन्होंने इनसे संबंधित काग़ज़ का एक टुकड़ा तक गवाही के लिए पेश नहीं किया सिवाय उन उत्तरों के जो उन्हें मजबूरी में देने पड़े। इस बारे में उन्होंने अपने वक़ील को निर्देश दिया था कि वह इस विषय में उनके साथ कठोरता से प्रश्न पूछे। एस्टन की वक़ालत यह स्पष्ट है कि इस तरह श्री एस्टन के सामने इन मामलों का केवल एक तरफा विवरण था तथापि, उन्हें निर्णय लेने में कोई हिचकिचाहट नहीं हुई और उन्होंने ऐसी आलोचना की मानो उनके सामने तिलक के पक्ष की भी सभी गवाही थी। मध्य युग में स्पेन में धार्मिक अपराधों के लिए दण्ड देने वाले न्यायालय की तरह श्री एस्टन काम कर रहे थे और स्वयं तिलक के विरुद्ध शैतान के वक़ील की तरह आचरण कर रहे थे। अपनी जाँच के परिणामस्वरूप श्री एस्टन ने पाया कि न केवल तिलक को जारी वसीयत का प्रमाणपत्र रद्द किया जाना चाहिए, बल्कि उनके द्वारा किए गए अनेक अपराधों के लिए उन पर मुक़दमा भी चलाया जाना चाहिए। श्री एस्टन ने अपनी अदालत की अनुचित, गैरक़ानूनी और कष्टदायी कार्रवाई की चरम परिणति में तिलक को सिटी मजिस्ट्रेट के सुपुर्द कर दिया। सात आपराधिक आरोप तिलक के विरुद्ध तैयार सात आपराधिक आरोप इस प्रकार थे- नागपुरकर के विरुद्ध 'अमानत में खयानत' की झूठी शिकायत करना।औरंगाबाद यात्रा के हिसाब-किताब में घटा-बढ़ा करके झूठी गवाही तैयार करना। उपर्युक्त के संबंध में जालसाज़ी ऐसी गवाही जिसके बारे में पता है कि वह झूठी या जाली है दत्तक-ग्रेहण पर ताई महाराज के पृष्ठांकन को सत्यापित करने के लिए सच्ची बताकर इस्तेमाल करना या उसे भ्रष्ट तरीक़े से इस्तेमाल करना। उक्त दत्तक-ग्रहणपत्र को बेईमानी में सच्चा और सही मानना। ताई महाराज के दस्तख़तों के उपरांत दत्तक पुत्र संबंध दस्तावेज़ का इस्तेमाल कपटपूर्वक सही दस्तावेज़ के रूप में करना। जानबूझ कर दस वाक्यों में झूठी गवाही देना, जिन्हें तीन उप-शीर्षकों के अंतर्गत विभक्त किया गया था। औरंगाबाद में दत्तक-ग्रहण की घटना। पूना की हवेली में ताई महाराज को बंद रखना। उसी हवेली में बाबा महाराज के विरुद्ध बलप्रयोग। इन आरोपों पर तिलक को अदालत के सुपुर्द करने से श्री एस्टन संतुष्ट नहीं हुए। उन्होंने सरकार को सुझाव दिया कि इस मामले से उत्पन्न कुछ अन्य सहायक आरोपों जैसे की पुलिस को ग़लत सूचना देना, धोखाधड़ी करना, गैरक़ानूनी सभा करना आदि की जाँच कराई जाएँ। उच्च न्यायालय में अपील बाल गंगाधर तिलक उच्च न्यायालय में बार-बार अपील की गई। अगर उच्च न्यायालय समय पर एक समस्या का न्यायपूर्ण समाधान कर देता तो उसे बाद में मुक़दमों से नहीं निपटना पड़ता, लेकिन उच्च न्यायालय ने वसीयत के प्रमाणपत्र को निरस्त करने के श्री एस्टन के निर्णय को पलट दिया मगर तिलक के विरुद्ध आपराधिक कार्यवाहियों को जारी रहने दिया। जहाँ तक झूठी शिकायत का आरोप था, श्री बीमैन ने तिलक के विरुद्ध मुक़दमे की मंज़ूरी को अनुचित पाया। लेकिन एक लम्बे मुक़दमे के बाद स्पेशल मजिस्ट्रेट श्री क्लेमेंट ने तिलक को शपथ ले झूठी गवाही देने का दोषी पाया और उन्हें अठारह महीने की कठोर क़ैद की सज़ा सुनाई। तथापि, मजिस्ट्रेट ने यह स्वीकार किया कि तिलक स्वार्थी उद्देश्यों से प्रेरित नहीं थे, लेकिन उसकी नज़र में वे एक उन्मत्त व्यक्ति थे, और उनका दिमाग दुराग्रह और सत्ता के प्यार के क़ब्ज़े में था। लेकिन विपत्ति के बादल छंट गए। सेशन जज श्री लूकस ने शीघ्र ही एक अपील में सज़ा को घटा कर छह महीने कर दिया और तिलक के प्रयोजनों और इरादों को पूरी तौर पर उचित ठहराया। सज़ा के लिए श्री लूकस का निर्णय अस्थिर और समर्थन योग्य नहीं था और 4 मार्च, सन् 1904 ई. को उच्च न्यायालय ने उसे निरस्त कर दिया। शपथ लेकर गवाही देने का आरोप सिद्ध नहीं पाया गया, फलत: सरकार ने तिलक के विरुद्ध लगाए गए सभी आरोप वापस ले लिये। इस प्रकार तिलक इस अग्निपरीक्षा से कुंदन बन कर निकले। सर लॉलेंस जेनकिंस का निर्णय सभी व्यावहारिक प्रयोजनों के लिए गोद लेने के मुक़दमे पर निर्णय था। श्री एस्टन का सहारा लेकर ताई महाराज की पार्टी द्वारा तिलक के विरुद्ध जो मामले बनाए गए, वे ताश के क़िले की भाँति ढह गए। विवाद में बनाए गए तथ्यों के आधार पर तिलक के विरुद्ध शपथ ले कर झूठी गवाही देने का आरोप लगाया गया था। लेकिन जब मुक़दमा उच्च न्यायालय में आगे बढ़ा तो षड्यंत्रकारियों ने पाया कि तिलक के लिए बनाए गए गड्डे में वे स्वयं गिर गए हैं। इस केस ने 1901 से 1904 तक तिलक का पूरा समय लिया। इन कार्यवाहियों के लिए अदालत की 160 बैठकें हुईं। अदालत की बैठकों के दौरान अक्सर तिलक को व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होना पड़ा। मुक़दमे को संगीन बनाने वाली बात यह थी कि तिलक पर मुक़दमा चलाकर बंबई सरकार अप्रत्यक्ष रूप से उनके विरुद्ध अपनी शत्रुता पूरी कर रही थी। वे दत्तक-ग्रहण के आधार पर ताई महाराज की लड़ाई लड़ रहे थे। यह सरकारी शत्रुता और एक औरत के अपने निजी हित का अमंगलकारी संयोग था। हम यह नहीं जानते कि वास्तविकता क्या थी। क्या ताई महाराज सरकार के हाथों में कठपुतली थी या सरकार उसके हाथों में कठपुतली थी। संभावना यह है कि इनमें से प्रत्येक ने दूसरे का कठपुतली की तरह इस्तेमाल किया और एक सीमा तक अपना भी कठपुतली की तरह इस्तेमाल होने दिया। इस प्रसंग में दु:ख की बात यह है कि सरकार अपनी गरिमा को भूल गई और उसने स्वयं को एक अशिक्षित, स्वार्थी और विवेकरहित औरत के स्तर पर खड़ा कर दिया। इस सबके परिणामस्वरूप इस मुक़दमे में जनता की दिलचस्पी बहुत अधिक बढ़ गई थी, यद्यपि दिलचस्पी का मुख्य केंद्र तिलक बने रहें। इस पूरे दौर में तिलक अपना मानसिक संतुलन बनाए रख कर बिना किसी बाधा आदि के वे किस प्रकार अपना सामान्य काम-काज कर सके। उन्होंने कैसे प्रसन्नता का भाव बनाए रखा और अपने क़ानूनी सलाहकारों के लिए बौद्धिक प्रेरणा के स्रोत बने। गहरी चिंताओं, जिसे उनके ज्येष्ठ पुत्र की मौत ने और उग्र कर दिया था। किस प्रकार वे अपने मस्तिष्क को मुक्त और अलग-थलग रख सकें ताकि अपने प्रिय साहित्यिक अध्ययन के कार्य को जारी रख सकें तथा अपनी पुस्तक ‘दि आर्कटिक होम इन वेदाज’ को प्रकाशित कर सके- ये सभी शोध के विषय हैं।

लोकमान्य तिलक ने यूँ तो अनेक पुस्तकें लिखीं किन्तु श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या को लेकर मांडले जेल में लिखी गयी गीता-रहस्य सर्वोत्कृष्ट है जिसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ है। लोकमान्य तिलक के गीता रहस्य के आधार पर इसी के संदर्भ से गीता प्रेस ने गीता तत्वांक के नाम से कल्याण का विशेष अंक भी प्रकाशित किया। इसमे गीता पर अन्य विद्वानों और आचार्यो की टीकाओं को भी रेखांकित किया गया। उनकी समस्त पुस्तकें मराठी अँग्रेजी और हिन्दी में लोकमान्य तिलक मन्दिर, नारायण पैठ, पुणे से सर्वप्रथम प्रकाशित हुईं। बाद में उन्हें अन्य प्रकाशकों ने भी छापा।


तिलक अपना सारा समय हलके-फुलके लेखन में लगाने वाले व्यक्ति नहीं थे। उन्होंने अब अपने ख़ाली समय का उपयोग किसी अच्छे कार्य में लगाने का संकल्प लेकर उसे अपनी प्रिय पुस्तकों भगवद्गीता और ऋग्वेद के पठन-पाठन में लगाया। वेदों के काल-निर्धारण से संबंधित अपने अनुसंधान के परिणामस्वरूप उन्होंने वेदों की प्राचीनता पर एक निबंध लिखा। जो गणित-ज्योतिषीय अवलोकन के प्रमाणों पर आधारित था। उन्होंने इस निबंध का सारांश इंटरनेशनल कांग्रेस ऑफ ओरिएंटलिस्ट के पास भेजा जो सन् 1892 ई. में लंदन में हुई। अगले वर्ष उन्होंने इस पूरे निबंध को पुस्तकाकार में दि ओरिऑन या दि रिसर्च इनटु द एंटिक्विटी ऑफ द वेदाज शीर्षक के अंतर्गत प्रकाशित किया। उन्होंने इस पुस्तक में ओरिऑन की ग्रीक परंपरा और 'लक्षत्रपुंज' के संस्कृत अर्थ 'अग्रायण या अग्रहायण' के बीच संबंध को ढूंढा है। क्योंकि अग्रहायण शब्द का अर्थ वर्ष का प्रारंभ है, वे इस नतीजे पर पहुँचते हैं कि ऋग्वेद के सभी स्रोत जिनमें इस शब्द का संदर्भ है या इसके साथ जो भी विभिन्न परंपराएँ जुड़ी थीं, की रचना ग्रीक लोगों के हिंदुओं से पृथक् होने से पूर्व की गई होगी। पुस्तक 'द आर्कटिक होम इन द वेदास' यह वह समय रहा होगा, जब वर्ष का प्रारंभ सूर्य के ओरिऑन या मृगशिरा नक्षत्र पुंज में रहते समय अर्थात् ईसा से 4000 वर्ष पहले हुआ होगा। इस पुस्तक की प्रशंसा यूरोप और अमेरिकी विद्वानों ने की। अब यह कहा जा सकता है कि तिलक के निष्कर्षों को लगभग सभी ने स्वीकार कर लिया है। अनेक प्राच्यविदों, जैसेकि - मैक्समुलर, वेबर, जेकोबी, और विटने ने लेखक की विद्वता और मौलिकता को स्वीकार किया है। पुस्तक के प्रकाशन के बाद तिलक ने कुछ समय तक प्रोफेसर मैक्समुलर और वेबर के साथ पुस्तक में उठाए गए कुछ भाषा-विज्ञानीय प्रश्नों पर दोस्ताना पत्र व्यवहार किया। इसके परिणामस्वरूप दोनों पक्ष इस बात पर सहमत हुए कि इस विषय के पक्ष और विपक्ष में बहुत कुछ कहा जा सकता है।

तिलक की पुस्तक की प्रशंसा अमेरिका के प्रो. विटने ने सन् 1894 ई. में अपनी मृत्यु से कुछ पहले ‘जर्नल ऑफ दि अमरीकन ओरिएंटल सोसाइटी’ में एक लेख लिख कर तिलक के सिद्धांतों की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। इसी तरह 'जॉन हॉपकिंस यूनिवर्सिटी' के 'डा. ब्लूमफील्ड' ने एक वार्षिकोत्सव में भाषण करते हुए तिलक की पुस्तक की प्रशंसा इन शब्दों में की थी-

‘‘पिछले दो-तीन महीने के दौरान अत्यधिक महत्त्व की एक साहित्यिक घटना हुई है- एक ऐसी घटना, जो निश्चय ही आनंददायक स्मृतियों से अधिक विज्ञान और संस्कृति की दुनिया में उथल-पुथल मचा देगी। लगभग दस सप्ताह पहले मुझे भारत से एक छोटे आकार की पुस्तक मिली। उसकी साज-सज्जा भद्दी थी और स्थानीय प्रेस में छपाई के कारण उसमें अनेक ग़लतियाँ थीं। यह पुस्तक मुझे लेखक ने, जिससे मेरा कोई परिचय नहीं था, शुभकामनाओं के साथ भेजी थी। मैंने लेखक का नाम कभी भी नहीं सुना था। बाल गंगाधर तिलक, बी.ए. एल.एल.बी, लॉ के लेक्चरर और वक़ील, पूना। इस पुस्तक का प्रकाशन श्रीमती राधाबाई आत्माराम सैगून, पुस्तक-विक्रेता और प्रकाशक, बंबई ने किया है। पुस्तक का शीर्षक है ‘ओरिऑन या रिसर्चेज इनटु द एंटिक्विटी ऑफ वेदाज़’। मेरे पास यह पुस्तक मुझे इसके पक्ष में करने के लिए नहीं भेजी गई थी। मैंने इसे एक ऐसी जगह पर रख दिया, जहाँ से मैं इसे रात्रि-भोज के बाद आसानी से उठा सकूँ और कुछ पृष्ठ पढ़ने के बाद अलग रख सकूँ। डाक के जरिए इस तरह की बहुत-सी-सामग्री मेरे पास पहुँचती रहती है। बाल गंगाधर तिलक इसकी भूमिका बहुत उत्साहवर्धक नहीं थी। लेखक नम्रता के साथ सूचित करता है कि ऋग्वेद का रचनाकाल ईसा के जन्म से चार हज़ार वर्ष पहले से कम नहीं हो सकता और हिन्दू परंपरा के साथ इसका काल ईसा के 6000 वर्ष पूर्व होना चाहिए। हिंदुओं को प्रचुर कल्पना-शक्ति, के बारे में कुछ भी स्वीकार करने की प्रवृत्ति को ध्यान में रख कर मैंने सोचा कि मैं पुस्तक के कुछ पन्ने उलट कर उसे मुस्कुराहट के साथ अलग रख दूँगा। लेकिन कुछ ही समय बाद मेरी मुस्कुराहट गायब हो गई और मुझे लगा कि कोई असाधारण घटना हो गई है। सबसे पहले मैं लेखक की इस बात से प्रभावित हुआ कि उन्होंने वैदिक साहित्य और इस विषय से संबंधित पाश्चात्य साहित्य का गंभीर अध्ययन किया है। शीघ्र ही मेरा सतही अध्ययन गंभीर अध्ययन में बदल गया। उपहास की भावना के स्थान पर मैं लेखक की बातों का कायल होने लगा। निस्संदेह यह पुस्तक साहित्य के क्षेत्र में सनसनी पैदा करने वाली है। तिलक की खोज के परिणामों को समझने में काफ़ी समय लगेगा।" अगर तिलक तत्काल उसी दिशा में आगे बढ़ते रहते और उन अनेक प्रश्नों का समाधान खोज़ते, जो उनकी पुस्तक में अनुत्तरित रह गए थे तो अच्छा होता, लेकिन लॉ लेक्चरर और पत्रकारिता व्यवसाय के कारण उनको भाषाशास्त्र और इतिहास से संबंधित प्रश्नों पर ध्यान देने के लिए पर्याप्त समय नहीं मिल पाता था।

किसी भी अन्य कार्य से अधिक महत्त्वपूर्ण उनका वेदों की प्राचीनता-संबंधी कार्य था। द आर्कटिक होम इन दि वेदाज़ ‘ओरिऑन’ पर पुस्तक के प्रकाशन के बाद उन्हें यह कार्य करने की ज़रूरत गहराई से महसूस हो रही थी। अपनी नई पुस्तक, द आर्कटिक होम इन दि वेदाज की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा कि पिछले दस वर्षों के दौरान मेरा काफ़ी समय उन प्रमाणों की खोज में लगा है, जो वेदों पर छाए कुहरे को उठा देंगे और तब उन पर गहरी दृष्टि डाली जा सकेगी। इसके बाद उन्होंने ‘ओरिऑन’ में व्यक्त विचारधारा को आगे बढ़ाते हुए काम शुरू किया। मनुष्य जाति के आदिकालीन इतिहास से संबंधित भूविज्ञान और पुरातत्त्व की नवीनतम खोज़ों के अध्ययन के बाद वह एक अलग तरह की खोज की ओर धीरे-धीरे बढ़े और अंतत: इस नतीजे पर पहुँचे कि वैदिक ऋषियों के पूर्वज हिमानी युग में उत्तर ध्रुवीय क्षेत्र में रहते थे। जेल में अपने जबरन अवकाश का उपयोग उन्होंने ऋग्वेद के संपूर्ण संस्करण जिसे उनके पास 'प्रोफेसर मैक्समूलर' ने भेजा था, की सहायता से अपने इन सिद्धान्तों को विकसित करने में किया। नई पुस्तक का प्रकाशन नई पुस्तक की पहली पांडुलिपि सिंहगढ़ में सन् 1898 ई. के अंत में लिखी गई, लेकिन तिलक ने जानबूझकर इसका प्रकाशन देर से किया। वे इस विषय में भारत के संस्कृत विद्वानों से विचार-विमर्श करना चाहते थे, क्योंकि खोज अनेक दिशाओं में मुड़ रही थी। पुस्तक मार्च, सन् 1903 ई. में प्रकाशित की गई। सर्वत्र इसका स्वागत हुआ। उसके बारे में केवल एक विद्वान् 'बोस्टन विश्वविद्यालय' के अध्यक्ष और ‘पेराडाइज फाउंड’ के लेखक 'डॉ. एफ. डब्ल्यू. वारेन' के विचारों को रेखांकित करना मुझे आवश्यक लग रहा है जो सितंबर सन् 1905 ई. की ओपन कोर्ट मैग़जीन, शिकागो में प्रकाशित हुए थे -

यहाँ केवल यह कहना पर्याप्त है कि वर्तमान लेखक ने अपनी राय के समर्थन में जो प्रमाण दिए हैं, वे इसके पहले किसी भारतीय या ईरानी विद्वान् द्वारा किसी परिकल्पना को सिद्ध करने के लिए दिए गए प्रमाणों से अधिक निर्णायक हैं। विषय की विवेचना करते हुए शुरू से लेकर आख़िर तक पूरी स्पष्टवादिता और ऐतिहासिक एवं वैज्ञानिक खोज के तौर-तरीक़ों का पूरा सम्मान किया गया है। शुरू में मैं यह सोचता था कि इसके सच होने की संभावना बहुत कम है लेकिन इसके पक्ष में जो प्रमाण एकत्र किए गए उनके कारण मुझे इसे स्वीकार करना पड़ा। बीस वर्ष पहले मानव जाति के मूल स्थान संबंधी शोध करते समय मैंने सभी वैदिक और अवेस्ता-संबंधी रचनाएँ उस समय तक उपलब्ध उनके अनुवाद पढ़े और मैं उसी नतीजे पर पहुँचा जिस पर तिलक पहुँचे हैं। मेरे तर्क में प्राचीन ईरानियों के पौराणिक भूगोल और ब्रह्मांड-वर्णन के कुछ बिंदुओं पर नई रोशनी डाली गई थी। मेरे इस कार्य को ईरानी विषयों के आचार्य प्रोफेसर स्पीगेल ने स्वीकार किया। मैंने ठहरे हुए जल और अन्य वैदिक मिथकों की भी नई व्याख्या की। अत: मेरे लिए यह विशेष रूप से प्रसन्नता का विषय था कि तिलक भी लगभग उन्हीं मुख्य निष्कर्षों पर और अनेक गौण निष्कर्षों पर पहुँचे, जिन पर मैं पहुँचा था।

उल्लेखनीय है कि तिलक अपनी खोज के लिए इन ग्रंथों के अनुवाद पर नहीं बल्कि उनके मूलपाठ पर निर्भर थे। इसीलिए विदेशी विद्वान को लिखना पड़ा कि सुदूर देश में रहने वाले इस व्यक्ति को मैं सार्वजनिक रूप से धन्यवाद देना चाहता हूँ, जिसने इस क्षेत्र में मेरे कार्य की सराहना करने की उदारता प्रदर्शित की। इस क्षेत्र में उनका काम ठोस, मोहक और अधिक आधिकारिक है। जो कोई भी मनोयोग के साथ इस पुस्तक को और जॉन ओ. नील की पुस्तक, दि नाइट आफ गाड्स को पढ़ेगा, वह कभी भी यह सवाल नहीं पूछेगा कि आर्यों का आदि देश कहाँ था।"

उनकी लिखी हुई सभी पुस्तकों का विवरण इस प्रकार है -

'द ओरिओन' (The Orion)
द आर्कटिक होम ऑफ द वेदाज (The Arctic Home in the Vedas, (1903))
श्रीमद्भगवद्गीता रहस्य (माण्डले जेल में)
The Hindu philosophy of life, ethics and religion (1887 में प्रकाशित)
Vedic Chronology & Vedang Jyotish (वेदों का काल और वेदांग ज्योतिष)
टिळक पंचांग पद्धती (इसका कुछ स्थानों पर उपयोग होता है, विशेषतः कोकण, पश्चिम महाराष्ट्र आदि)
श्यामजी कृष्ण वर्मा एवं अन्य को लिखे लोकमान्य तिलक के पत्र (एम. डी. विद्वांस यांनी संपादित)
Selected documents of Lokamanya Bal Gangadhar Tilak, 1880-1920, (रवीन्द्र कुमार द्वारा संपादित)

सन 1919 ई. में कांग्रेस की अमृतसर बैठक में हिस्सा लेने के लिये स्वदेश लौटने के समय तक लोकमान्य तिलक इतने नरम हो गये थे कि उन्होंने मॉन्टेग्यू-चेम्सफ़ोर्ड सुधारों के द्वारा स्थापित लेजिस्लेटिव कौंसिल (विधायी परिषद) के चुनाव के बहिष्कार की गान्धी जी की नीति का विरोध ही नहीं किया। इसके बजाय लोकमान्य तिलक ने क्षेत्रीय सरकारों में कुछ हद तक भारतीयों की भागीदारी की शुरुआत करने वाले सुधारों को लागू करने के लिये प्रतिनिधियों को यह सलाह अवश्य दी कि वे उनके प्रत्युत्तरपूर्ण सहयोग की नीति का पालन करें। लेकिन नये सुधारों को निर्णायक दिशा देने से पहले ही 1 अगस्त,1920 ई. को बम्बई में उनकी मृत्यु हो गयी। मरणोपरान्त श्रद्धाञ्जलि देते हुए गान्धी जी ने उन्हें आधुनिक भारत का निर्माता कहा और जवाहरलाल नेहरू ने भारतीय क्रान्ति का जनक बतलाया।

लोकनायक के निधन पर महामना पंडित मदन मोहन मालवीय जी बहुत रोये थे। मालवीयजी ने खुद ही लिखा है - तिलक जी का सनातन धर्म मे प्रेम और अपने देश के प्राचीन गौरव का सदभिमान और उनके रहन सहन की सादगी, स्वार्थ त्याग, उनका पवित्र चरित्र, उनका सुख में भी और दुख में भी और संकट में अपने जीवन का प्रति क्षण देश की उन्नति के कार्य और विचार में अर्पित करना, इन गुणों ने लाखों प्राणियों के हृदय में उनका बड़ा ऊंचा आसन बना दिया। गवर्नमेंट दल के उनके शत्रु सर वेलेंटाइन चिरोल ने उनके प्रभाव को तोड़ने के लिए एक भारी भरकम पुस्तक लिखी वह भी उनके महत्व को बढ़ाने वाली ही हुई।तिलक जी का पांडित्य गंभीर था। ओरायन और वेदों में आर्यो का आर्कटिक होम, इन ग्रन्थों से उनकी बड़ी ख्याति हुई थी , लेकिन छह वर्ष की सजा में उन्होंने जेल में रह कर ही जो गीता रहस्य लिख कर अपना असामान्य पांडित्य प्रकट किया उससे अपने देश वासियों को और समस्त जगत को सदा के लिए गीता के लोक हितकारी उपदेशो से अभ्युदय और निःश्रेयस साधन करने का उत्कृष्ट मार्ग दिखाया। उनका यह सबसे भारी कार्य उनके यश को अनंत समय तक जगत में जीवित रखेगा।

यकीनन बाल गंगाधर तिलक जी आधुनिक भारत के प्रथम सनातन गुरु ही हैं। ऐसे युग पुरुष को शत शत नमन।
जय हिंद
वंदे मातरम।

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