सह्याद्री के सिंह छत्रपति शिवाजी महाराज भाग 2


शाइस्ता खान की फजीहत 

पन्हाला से शिवाजी महाराज के सुरक्षित निकल जाने की इस घटना से बीजापुर में बड़ी साहिबा की समझ में आ गया कि युद्ध क्षेत्र में उनसे पार पाना असंभव है | नेताजी पालकर के नेतृत्व में मराठा सेना कई बार तो बीजापुर के बिलकुल नजदीक तक पहुँच जाती थी | ऐसे में उन्होंने संधि करने का ही निश्चय किया और फिर वह हुआ, जिसकी कभी किसी ने कल्पना भी नहीं की होगी | शाहजी को बीजापुर का दूत बनाकर शिवाजी महाराज के पास भेजा गया | पिता शत्रु के दूत बनकर बेटे के पास पहुंचे, क्या इतिहास में पहले कभी ऐसा हुआ होगा | जजूरी की छावनी में महाराज शिवाजी ने पिता का स्वागत किया, उनके साथ आई विमाता तुको बाई की चरण वंदना कर सौतेले भाई व्यंकोजी से भी स्नेह पूर्वक मिले | 

शाहजी ने महाराज शिवाजी को ह्रदय से लगाकर रुंधे कंठ से कहा, तुम सा पुत्र पाकर मैं धन्य हो गया | मैंने मानता मानी थी कि जिस दिन मेरा पुत्र छत्रपति होगा, मैं मां तुलजा भवानी पर स्वर्ण मूर्ति चढ़ाऊंगा, वह कार्य करने के बाद ही मैं यहाँ आया हूँ, आज से तू छत्रपति के नाम से प्रसिद्ध हो | ऐसा कहकर शाहजी स्वयं छत्र लेकर शिवाजी महाराज के पीछे खड़े हुए | 

उसके बाद शाहजी बोले – तुम्हारे हर उत्थान से मैं प्रसन्न हुआ, मैं तुमसे अलग रहा, तो उससे भी तुम्हें लाभ ही हुआ, शत्रु की हर गतिविधि पर मेरे कारण थोडा अकुश रहा | 

महाराज शिवाजी बोले – पिताजी आपने मेरा सब संकोच दूर कर दिया, अब आज्ञा कीजिए, मैं क्या करूं | 

पुत्र मैं आदिलशाह का दूत बनकर संधि प्रस्ताव लाया हूँ, अब तक तुमने जो इलाके और किले जीते हैं, उन पर तुम्हारा अधिकार मानकर तुम्हें स्वतंत्र राजा मान लिया है | अब जब तक मैं जीवित हूँ, आगे बीजापुर से संघर्ष न करो | उसे मित्र राज्य मानो | 

शिवाजी महाराज ने पिता श्री शाह जी की आज्ञा शिरोधार्य करते हुए, संधिपत्र पर हस्ताक्षर कर दिए | फिर कहा – एक निवेदन मेरा भी है – 

जिस घोरपडे ने आपको धोखे से बंदी बनाया था, मैंने उसे सपरिवार मार दिया था, उसकी सब जागीर और खजाना मैं आपके चरणों में समर्पित करता हूँ | 

शाहजी ने गदगद होकर एक बार फिर शिवाजी को अपने गले लगा लिया | इधर पिता वापस लौटे उधर औरंगजेब के मामा शाइस्ता खां ने २५ फरवरी १६६० को विशाल सेना के साथ अहमद नगर से प्रस्थान किया | शीघ्र ही उसने पूना पर अधिकार कर लिया | जिस लाल महल में शिवाजी का बचपन बीता था, उसमें अब शाइस्ता खां रहने लगा | चाकण के किले पर भी मुगलों का अधिकार हो गया | लेकिन जनवरी १६६१ को कोंकण पर आक्रमण के लिए करतलब खां के नेतृत्व में जाती मुग़ल सेना की उमर खिंड के जंगलों में मराठों ने भारी दुर्गति की | उस संकरे स्थान पर केवल वे ही सैनिक बच सके, जिन्होंने शस्त्र रखकर दया की भीख मांगी | लेकिन इस छोटी जीत से शिवाजी महाराज को संतोष नहीं था | उन्हें तो पूना वापस लेना था, जिसकी सुरक्षा के लिए मार्बाड नरेश महाराज जसबंत सिंह अपने दस हजार राठौड़ सवारों के साथ तैनात थे | इसके अतिरिक्त मुग़ल सेना तो नगर के चप्पे चप्पे पर तैनात थी ही | शाइस्ता खान जानता था कि वह शेर की म्यांद में रह रहा है, इसलिए अत्याधिक सतर्क था | 

परन्तु शिवाजी महाराज किससे कम थे, उन्होंने बहुत सोच विचार के बाद एक योजना बनाई | नेताजी पालकर और पेशवा मोरोपंत के नेतृत्व में एक एक हजार घुड़सवारों की दो टुकड़ियां मुग़ल पड़ाव से एक मील दूर जा डटी और चार सौ सैनिकों की एक टुकड़ी सेनापति चिमना जी बापूजी के नेतृत्व में पूना में प्रविष्ट हुई | पहरेदारों द्वारा पूछने पर इन लोगों ने स्वयं को शाही सेना का बताया और कहा कि वे उनको दी गई चौकियां संभालने जा रहे हैं | कोई संदेह न हो, इसलिए इन लोगों ने कुछ समय वहीँ विश्राम भी किया और फिर नगर की और कूच किया | ५ अप्रैल १६६३ का वह दिन इतिहास में अमर होने जा रहा था | सूर्यास्त के समय बाजे बजाते हुए एक बरात ने नगर में प्रवेश किया | बरातियों के पास नगर में प्रवेश का परवाना था, अर्थात बरात सचमुच की थी, बस हुआ इतना भर कि शिवाजीराजे स्वयं और उनके पंद्रह सोलह बफादार सेनानी मशालची और बाजे वाले बनकर बरात में शामिल हो गए थे | 

उन दिनों रमजान का महीना चल रहा था अतः रात को भरपेट खा पीकर सारे नौकर चाकर और सिपाही नींद का लुत्फ़ उठा रहे थे | ऐसे में शिवाजी महाराज चिमनाजी बापू को लेकर एक गुप्त द्वार से महल के आँगन में जा पहुंचे | आखिर उस लाल महल का चप्पा चप्पा उनका देखाभाला जो था | आँगन से बाहर का दरवाजा खोलते ही मराठा सैनिक भी अन्दर आ गए और वे लोग रसोई में घुसे | जो लोग सुबह सूर्योदय के पूर्व की भोजन व्यवस्था कर रहे थे, वे कुछ समझ पाते तब तक वे दूसरी दुनिया में पहुँच गए | उसके बाद महाराज शिवाजी चिमना जी के साथ शाइस्ता खां के अन्तःपुर में जा धमके | उनके पीछे थे नंगी तलवार लिए चार सौ मावले मराठे वीर | शयन कक्ष की औरतें भयभीत होकर चीखती पुकारती भागने लगीं | शाइस्ता खां नींद से हडबडा कर उठा और उसे कुछ नहीं सूझा तो दो मंजिल ऊपर से नीचे कूद गया | शिवाजी उसकी ओर झपटे और तलवार का वार किया, किन्तु शाइस्ता खान की किस्मत अच्छी थी, कि उसके उस हाथ की केवल तीन उंगलियाँ ही कटी, जिससे वह खिड़की को पकडे हुए था | इस बीच कुछ सैनिकों ने नौबत खाने में पहुंचकर नौबत और नगाड़े बजवाने शुरू कर दिए | लोगों की चीख पुकार और नगाड़ों का शोर, माहौल ऐसा खौफनाक बना कि क्या सैनिक क्या असैनिक सब प्राण बचाने के लिए भागने लगे | इस आपाधापी में महाराज शिवाजी वहां से नौ दो ग्यारह हो गए | किसी ने उनका पीछा भी नहीं किया | इस अभियान में कुल छः मराठा सैनिक मरे, चालीस घायल हुए | जबकि मुगलों में शाइस्ता खां का एक पुत्र, एक सेनापति, चालीस सैनिक और उसकी छः पत्नी व दासियाँ मारी गईं | शाइस्ता खां के आलावा उसके दो पुत्र और आठ स्त्रियाँ घायल हुईं | शाइस्ता खां इस घटना से इतना भयभीत हुआ कि वह सीधा दिल्ली भाग गया | शिवाजी महाराज की कीर्ति गाथा में एक अध्याय और जुड़ गया | मुसलमानी सैनिक यह मानने लगे कि शिवाजी हर जगह पहुँच सकते हैं, उनसे बचने की कोई जगह नहीं है | 

नाराज बादशाह ने शाइस्ता खां से कह दिया कि वह उसका मुंह नहीं देखना चाहता, और उसकी नियुक्ति बंगाल कर दी, जहाँ की आबोहवा मुस्लिम सैनिकों को राश नहीं आती थी, जिसे दण्डित करना होता था, उसे ही बंगाल भेजा जाता था | उसकी जगह शहजादा मुअज्जम दक्षिण का सूबेदार नियुक्त हुआ | इस अफरातफरी के माहौल में शिवाजी महाराज के तो ठाठ ही ठाठ थे, उन्होंने मौके का लाभ उठाकर ६ जनवरी १६६४ को सूरत पर धावा बोल दिया, जोकि मुग़ल साम्राज्य का सबसे धनी शहर था | नगर कोतवाल इनायत खान डर कर किले में जा छुपा | किलेदार ने रिश्वत लेकर धनी मानी लोगों को किले में शरण दी, लेकिन कितने, गिने चुने | मराठों ने तीन दिन तक शहर को जी भर कर लूटा | उस समय के सबसे धनी आदमी माने जाने वाले बहर जी बोहरे के आलीशान महल को लूटने के बाद आग के हवाले कर दिया गया | 

सूरत की लूट के बाद एक अप्रिय समाचार शिवाजी राजे को मिला – उनके पिता शाहजी स्वर्गवासी हुए | कर्नाटक में बसवापट्टन के पास शिकार खेलते समय घोड़े से गिरकर उनकी मृत्यु हुई | भले ही वे मां जीजाबाई से प्रथक रह रहे थे, इसके बाद भी उन्होंने सती होने का मन बनाया, उन्हें समझा बुझा कर रोकने हेतु शिवाजी को बहुत कोशिश करनी पडी | 

उन्हीं दिनों शाहजहाँ की मृत्यु हुई और औरंगजेब ने गद्दी संभालते ही जयपुर के मिर्जा राजा जयसिंह को शिवाजी से निबटने की जिम्मेदारी सोंप कर दक्षिण भेजा | कुशल सेनापति और व्यवहार कुशल जयसिंह ने सबसे पहले तो शिवाजीराजे के शत्रुओं को अपने साथ मिलाया | यहाँ तक कि जिस बीजापुर के साथ शिवाजी महाराज की संधि थी, उसे भी साध लिया और उसके बाद ३१ मार्च १६६५ को चालीस हजार मुग़ल सैनिकों ने पुरंदर किले को घेर लिया | मुस्लिम सेना नायक दिलेर खां ने संकल्प लिया कि पुरंदर जीतकर ही पगड़ी पहनेगा, तो पुरंदर की रक्षा को तैनात थे, वे ही मुरार बाजी, जो जावली की लड़ाई में शिवाजी के विरुद्ध लडे थे और जिनके पराक्रम से प्रभावित होकर शिवाजी महाराज ने जीत के बाद अपनी हिन्दवी स्वराज्य की कल्पना समझाकर उन्हें अपने साथ मिला लिया था | पुँरंदर अजेय माना जाता था, उसके दो भाग हैं, नीचे का भाग आसपास की जमीन से छः सौ फीट ऊंचा है, तो अन्दर का दूसरा हिस्सा पहले भाग से भी सौ फीट ऊंचा है | इसके अतिरिक्त किले के साथ एक अन्य किला भी है बज्रगढ़, मानो पुरंदर का छोटा भाई हो | बज्रगढ़ को जीते बिना पुँरंदर नहीं जीता जा सकता, यह समझकर मुगलों द्वारा नजदीक की पहाडी पर तोपें चढाकर उसे अपनी मारक सीमा में लाया गया और उसके बाद तोप के गोलों की मार से बज्रगढ़ अधिक नहीं टिक पाया | किले के अन्दर मौजूद सात सौ सैनिकों में से प्रतिदिन सौ पचास मरते रहे, अंततः बचे हुओं ने १४ अप्रैल १६६५ को पराजय स्वीकार कर ली | इसी बीच एक और दुर्घटना घटी और पुरंदर के बारूद भण्डार में विस्फोट होने से किले की एक दीवार ढह गई | मुग़ल सैनिक किले में प्रविष्ट हो गए, और मुरार बाजी ने समझ लिया कि अब पराजय निश्चित है, अतः वे अपने कुछ सौ सिपाहियों के साथ टूट पड़े मुगलों पर | इन मुट्ठी भर रणबांकुरों ने मुग़ल सेना में तहलका मचा दिया | वे जिस निश्चय और आवेश से लड़ रहे थे, उससे शत्रुदल में हाहाकार मच गया | वीरता पूर्वक अपरिमित शौर्य का प्रदर्शन कर मुरार बाजी वीरगति को प्राप्त हुए | उनके साथी उनका शरीर लेकर ऊपर वाले किले में चले गए | 

औरंगजेब की कैद से मुक्ति 

वीरवर मुरार बाजीप्रभु के बलिदान से प्रेरित होकर पुरंदर किले में शेष बचे मराठा सैनिकों ने तय किया कि जीते जी पुरंदर नहीं देंगे | महाराज शिवाजी अतिशय चिंतित थे, क्योंकि प्रश्न अकेले पुरंदर में फंसे सैनिकों का नहीं था, उससे भी बढ़कर किले में आश्रय लिए हुए जीवित या हुतात्मा अनेक सैनिकों के परिवारों का भी था | पुरंदर के पतन का अर्थ था, उन सभी का मुगलों के हाथों में पड़ना और उसके बाद अपमानित होना | वे यह भी समझ चुके थे कि न केवल पुरंदर, बल्कि उनके अधिपत्य के शेष किले भी एक एक कर मुगलों के हाथों में पड़ सकते हैं | संस्कृत की एक पुरानी उक्ति है – सर्वनाशे समुत्पन्ने अर्धं त्यजति पण्डिताः | जब सब कुछ जाता दिखे तो आधे को बचाने में ही विद्वत्ता है | विवश शिवाजीराजे ने मिर्जा राजा जयसिंह के पास संधि प्रस्ताव भेजा | जून १६६५ में इन दोनों की भेंट हुई | पुरंदर की तलहटी में शिवाजी राजे अकेले जयसिंह की छावनी में निशस्त्र गए और तीन दिन वहीँ रहे | उसके बाद उनके आदेश पर पुरंदर मिर्जा राजा को सोंप दिया गया, सारे मराठा सैनिक व उनके परिवार सकुशल किले से बाहर निकल आये | उन लोगों ने बहुत कष्ट सहे थे | विगत दो माह से उन मुट्ठी भर लोगों ने तोपों की मार सहते हुए, चालीस हजार मुग़ल सैनिकों से लोहा लिया था | 

महाराज सिवाजी और जयसिंह की भेंट के बाद संधि की शर्तें निश्चित हुईं, जिनके अंतर्गत तेईस बड़े किले और उनसे लगा हुआ इलाका मुगलों को सोंपना पड़ा, शिवाजी महाराज के पास रह गए केवल बारह दुर्ग | उसके अतिरिक्त बीजापुर जीतने में भी शिवाजी सहयोग करेंगे ऐसा आश्वासन संधि पत्र में दिया गया | शिवाजी के आठ वर्षीय पुत्र शम्भाजी को बादशाह की ओर से पांच हजार घुड़सवारों की मनसब मिलेगी और वे दक्षिण के मुग़ल सूबेदार की सेवा में रहेंगे | फिर उनको बच्चा मानकर उनके स्थान पर नेताजी पालकर का सूबेदार के पास रहना तय हुआ | 

क्षणिक रूप से देखा जाये तो उस समय शिवाजी महाराज का स्वतंत्रता का स्वप्न चकनाचूर होता दिखाई पड़ता है, लेकिन दूरदर्शी महाराज शिवाजी जानते थे कि उनका महाराष्ट्र में रहना ही पर्याप्त है, उन्हें अन्य मांडलिकों की तरह अपने प्रदेश से दूर नहीं भेजा गया था, अतः अवसर तो मिलेगा ही मिलेगा | औरंगजेब ने जब दक्षिण में मिर्जा राजा जयसिंह को भेजा था, तो उनके साथ दिलेर खां को भी भेजा था, क्योंकि उसे डर था कि कहीं शिवाजी महाराज का प्रभाव मिर्जा राजा पर न पड़ जाए और वे भी हिन्दू पद पादशाही के रंग में रंग जाएँ | दिलेर खान को तो जयसिंह ही पसंद न थे, शिवाजी राजे तो उसे फूटी आँखों नहीं सुहा रहे थे | अतः उसने बीजापुर पर हमले की योजना बनाई | उद्देश्य एक ही था – असफलता का ठीकरा काफिरों पर फोड़ना | उसे अपनी योजना में सफलता मिली | कैसे ? उसकी भी अजब दास्तान है | शिवाजी महाराज को पन्हाला किला जीतने की जिम्मेदारी दी गई और वे उस अभियान हेतु रवाना हुए | जाते समय वे अपने सर नौबत नेताजी पालकर को बाद में आने हेतु निर्देशित कर गए | लेकिन कुटिल दिलेर खान ने नेताजी को इतना व्यस्त कर दिया कि वे शिवाजी महाराज की मदद को पन्हाला समय पर नहीं पहुँच पाए और शिवाजी का अभियान असफल हो गया | कुछ इतिहासकारों का मानना है कि नेताजी जानबूझकर नहीं गए, क्योंकि उन्हें मुगलों की तुलना में बीजापुर ज्यादा अपना लग रहा था | जो भी हो शिवाजी महाराज ने इसे नेताजी की लापरवाही मानकर उन्हें पद से हटा दिया | बड़े से बड़े व्यक्ति से भी अगर अनुशासन हीनता हुई है, तो उसे भी नजर अंदाज न करना, यही थी शिवाजी महाराज की नीति | दुखी नेताजी के घावों पर मरहम लगाते हुए, चतुर जयसिंह ने उन्हें मुग़ल सेना में पांच हजारी मनसबदार बना दिया | उस समय नेताजी को कहाँ मालूम था कि उनका दुर्भाग्य उनकी कैसी दुर्गति करवाने वाला है | 

पुरंदर की संधि में एक शर्त यह भी थी कि शिवाजी राजे, औरंगजेब के दरबार में हाजिर होकर उन्हें सलाम बजायेंगे और इस प्रकार उनकी अधीनता स्वीकार करेंगे | औरंगजेब ने उसी के अनुसार १२ मई १६६६ को अपने जन्मदिवस समारोह में उन्हें उपस्थित होने का फरमान भेजा | शिवाजी महाराज को औरंगजेब पर रत्ती भर भी भरोसा नहीं था | लेकिन विवशता थी | और फिर मिर्जा राजा जयसिंह ने भी उन्हें आश्वस्त किया कि उनसे कोई बदसलूकी नहीं होगी | अगर उन्हें कोई हानि पहुंचाने का प्रयास हुआ तो राजपूत सेनानी अपनी जान पर खेल जायेंगे | उस वृद्ध राजा की जुबान पर भरोसा होते हुए भी शिवाजी महाराज ने पूरी सतर्कता और सावधानी बरतते हुए तीन सौ मराठों के साथ तानाजी मौलसरे को गोपनीय ढंग से आगरा पहले भेज दिया | उसके बाद अन्ताजी, आबाजी, स्वर्णदेव और मोरेश्वर आदि पर अपने राज्य का भार सोंपकर अपने पुत्र शम्भाजी, तीन मंत्री और एक हजार घुड़सवारों के साथ ५ मार्च १६६६ को आगरा के लिए रवाना हुए | 

लेकिन प्रथमे ग्रास मच्छिकापाते | आगरा पहुँचने पर केवल मिर्जा राजा जयसिंह के बेटे राम सिंह ने महाराज शिवाजी की अगवानी की, और मुग़ल दरबार में भी उनके साथ किसी मामूली जागीरदार की तरह ही व्यवहार हुआ | दीवाने ख़ास के बीचों बीच तख्ते ताउस पर बादशाह बैठा था, उसके दायें बाएं शहजादे खड़े थे और पीछे बहुत से गुलाम | तख़्त के नीचे चांदी का जंगला लगा हुआ था, जिसमें अमीर, उमरा, राजे और उनके प्रतिनिधि हाथ बांधे खड़े थे | सबकी निगाहें नीची थीं | एक एक कर लोग सलाम बजाते, मुजरा करते हुए, अपनी भेटे बादशाह को नजर कर रहे थे | युवराज शम्भाजी ने भी बादशाह को नजराना पेश किया, औरंगजेब ने बिना कोई प्रतिक्रिया दिए, उसे स्वीकार किया | लेकिन जब शिवाजी महाराज को पांच हजारी मनसबदारों के साथ खड़ा होने को कहा गया, तो उनके सब्र का बाँध टूट गया | और वे बिना कुछ बोले दरबार से बाहर हो गए | बादशाह की तरफ पीठकर इस प्रकार उन्हें जाते देखकर दरबार में सनाका छा गया | रामसिंह जल्दी से दौड़कर उनके पास आया और उन्हें समझाकर वापस चलने का आग्रह किया | लेकिन शिवाजी महाराज टस से मस नहीं हुए | बोले मेरा सर काटकर ले जा सकते हो, लेकिन मैं अब बादशाह के सामने नहीं जाने वाला | मुझे जोधपुर के जसवंतसिंह और मेरे ही कर्मचारी रहे नेताजी पालकर के साथ खड़ा कर दिया गया | उसके बाद शिवाजी महाराज अपने डेरे पर लौट गए | औरंगजेब को समझ में आ गया कि अब अगर शिवाजी राजे को वापस जाने दिया गया, तो वे बेहद खतरनाक साबित होंगे | लेकिन उसके सामने सवाल यह था कि शिवाजी को वापस जाने से रोका कैसे जाए ? मिर्जा राजा जयसिंह के बेटे रामसिंह के सिपाही शिवाजी महाराज के अंगरक्षक बनकर ढाल की तरह खड़े हुए थे | उनके होते ना तो शिवाजी महाराज को मारा जा सकता था और ना ही गिरफ्तार किया जा सकता था | लेकिन उसके बाद भी औरंगजेब ने दो तरह से चाल चली | एक तो रामसिंह को ही इस बात की जिम्मेदारी सोंपी कि वह शिवाजी राजे को पलायन नहीं करने देगा और दूसरी तरफ शहर कोतवाल फौलाद खान को नियुक्त किया कि वह रामसिंह के सैनिकों के घेरे के बाहर भी एक और घेरा शाही फौजों का बना दे | इस तरह अब शिवाजी महाराज तीन घेरों में थे | एक तो उनके खुद के सैनिक, दुसरे घेरे में रामसिंह के राजस्थानी सैनिक और तीसरे घेरे में शाही सैनिक | यह स्थिति न औरंगजेब को रास आ रही थी और ना ही शिवाजी महाराज को | उन्होंने अपने सैनिकों को तो धीरे धीरे वापस भेजना शुरू कर दिया, केवल दो लोग उनके अपने शेष बचे | उसके बाद रामसिंह को भी समझाया कि वह क्यों उनकी खातिर अपनी जान में सांसत में डाल रहे हैं | वे उन्हें उनके हाल पर छोड़ दें | मजे की बात यह कि रामसिंह से यही आग्रह औरंगजेब भी कर रहा था | उन दिनों कुछ डच व्यापारी आगरा के ग्रामीण अंचलों से नील खरीदकर अपने मुल्क भेजते थे | उनके कारिंदे के भेष में तानाजी मौलसरे ने शिवाजी महाराज से भेंट करने में सफलता पा ली, और फिर एक कार्य विधि तय हुई, रण नीति बनी | शिवाजी महाराज गंभीर बीमार हो गए | उनका खाना पीना, चलना फिरना सब बंद हो गया | उनके डेरे से फल और अन्य खाद्य पदार्थों की टोकरियाँ भर भर कर दान के रूप में तीर्थ स्थलों और मंदिरों में भेजी जाने लगीं | मंदिरों में उनके स्वास्थलाभ के लिए भजन कीर्तन होने लगे | यह क्रम लगातार कई दिनों तक चलता रहा | शुरूआत में तो इन टोकरियों की जांच पड़ताल की जाती रही, लेकिन फिर शिथिलता आने लगी | तब तक रामसिंह ने भी अपने सैनिक हटा लिए | शिवाजी महाराज के उपचार हेतु अनेक वैद्य हकीमों का डेरे में आना जाना लगा रहता था, तो एक दिन हकीम के वेश में तानाजी एक बार फिर शिवाजी महाराज से मिलने पहुँच गए और फिर हो गया अंतिम प्रहार | 

१७ अगस्त १६६६ को सायंकाल मिठाई की दो टोकरियों में शिवाजी और शम्भाजी बैठ गए और टोकरियाँ निश्चित स्थान पर पहुँच गईं | हवा से बातें करने वाले घोड़े वहां पहले से ही तैयार थे | उधर डेरे में शिवाजी के पलंग पर हीरोजी फरजंद सर ढककर लेटे हुए थे और मदारी मेहतर उनके पैर दबा रहे थे | बीच बीच में पहरेदार उनके कराहने की आवाज भी सुन रहे थे | लगभग अर्ध रात्री को जब लगा कि अब तो महाराज सुरक्षित पहुँच ही गए होंगे, पलंग पर तकियों को चादर से ढककर ये दोनों भी डेरे से निकल गए, पहरेदारों को यह बताते हुए कि महाराज गहरी नींद में हैं, कोई आवाज न हो उनकी नींद न टूटे | सुबह कहीं जाकर यह मालूम पड़ा कि शिवाजी राजे चकमा देकर आगरा से जा चुके हैं | शिवाजी के लिए तलाशियां हुई, ढूँढना शुरू हुआ, लेकिन क्या तूफ़ान को बांधा जा सकता है ? जब राजगढ़ पहुंचे एक गेरुआ वस्त्रधारी साधू ने मां जीजाबाई के पैर पकड़ लिए, तो सारे महाराष्ट्र में खुशी की लहर दौड़ गई | राजगढ़, रायगढ़, प्रतापगढ़ सभी किलों से तोपें गरजने लगीं, सबको ज्ञात हो गया कि सह्याद्री का सिंह सकुशल वापस आ गया है | 

सिंहगढ़ विजय 

शिवाजी महाराज के आगरा से सकुशल निकल जाने से औरंगजेब आग बबूला हो उठा | बेचारे निरपराध रामसिंह पर गाज गिरी, उनकी मंसब रद्द कर दी गई | सबसे ज्यादा दुर्गति हुई, नेताजी पालकर की, जो उस समय मुगलों की ही सेवा में थे, पांच हजारी मनसबदार थे, किन्तु उनके सामने दो विकल्प रखे गए, या तो मुसलमान हो जाओ, या फिर आजन्म कारावास में रहो | जिसे लोग दूसरा शिवाजी मानने लगे थे, वह शिवाजी महाराज का सर नौबत विवश होकर मुसलमान हो गया | शिवाजी महाराज सितम्बर १६६६ में आगरा की कैद से छूटकर दक्षिण पहुंचे और उसके चार महीने बीतते न बीतते मिर्जा राजा जयसिंह को भी वापस दिल्ली बुला लिया गया | महाराज जयसिंह दक्षिण की सूबेदारी शहजादे मुअज्जम को सोंपकर दुखी मन से दिल्ली के लिए रवाना हुए | इस तिरस्कार ने वृद्ध महाराज जयसिंह को अन्दर से तोड़ दिया और मार्ग में ही २८ अगस्त १६६७ को बुरहानपुर में उनकी जीवन यात्रा समाप्त हो गई | 

आलसी विलासी और शक्तिहीन मुअज्जम से शिवाजी महाराज को कोई भय नहीं था | उसके सहयोगी बनकर आये जोधपुर नरेश महाराज जसवंत सिंह तो अन्दर ही अन्दर उनके प्रशंसक ही थे, क्योंकि वे उन्हें हिंदुत्व के गौरव का रक्षक मानते थे | रह गया रूहेला सेनापति दिलेर खान, जो उनके लिए परेशानी खडी कर सकता था, किन्तु उसकी और शहजादे मुअज्जम की अनबन ने उसे किसी लायक नहीं छोड़ा | इस तरह शिवाजी महाराज के खिलाफ कोई प्रभावी मुग़ल अभियान संभव ही नहीं हो रहा था | चतुर शिवाजी महाराज भी शक्ति संचय के लिए समय चाहते थे, अतः उन्होंने औरंगजेब को एक पत्र भेजकर संधि का प्रस्ताव रखा | अब चूंकि दोनों ही पक्ष युद्ध के प्रति अनमने थे, अतः १६६८ के आरम्भ में संधि हो भी गई, जिसके अनुसार औरंगजेब ने शिवाजी महाराज को राजा संबोधन स्वीकार लिया और चाकण का किला उन्हें लौटा दिया | संधि के अनुसार एक मराठा सेना की टुकड़ी वीराजी रावजी के नेतृत्व में औरन्गावाद भेज दी गई | 

लेकिन यह युद्ध विराम क्षणिक ही था | शीघ्र ही वह दौर भी आया जब औरंगजेब ने काशी विश्वनाथ मंदिर का विध्वंश कर हिन्दुओं पर जजिया कर लगा दिया | या तो मुसलमान बनो और अगर हिन्दू बनकर जीना चाहते हो तो उसके लिए हर्जाना दो | बलात धर्म परिवर्तन तो सतत चल ही रहे थे | दिल्ली में तो इन्तहा ही हुई | जब औरंगजेब हाथी पर सवार होकर जुमे की नमाज पढ़ने जा रहा था, उस समय हिन्दू जजिया के विरुद्ध अपनी फ़रियाद लेकर उसके सामने पहुंचे, लेकिन वह उन लोगों को हाथी के पैरो तले रोंदता हुआ बढ़ गया | साथ के सिपाहियों के घोड़ों ने भी कईयों को रोंदा और तलवार के घाट उतारा | इन समाचारों से व्यथित शिवाजी महाराज ने इस जजिया कर के विरुद्ध एक पत्र औरंगजेब को पत्र लिखा | लेकिन उस पर कहाँ कोई असर होने वाला था | 

शिवाजी राजे लगातार स्थिति पर नजर रख रहे थे | अतः जैसे ही शहजादे मुअज्जम और दिलेर खान की तल्खी इतनी बढी कि औरंगजेब को विवश होकर दिलेर खान को काठियाबाड का सूबेदार बनाकर दक्षिण से हटाना पड़ा, शिवाजी महाराज के बीस हजार घुडसवार और इतने ही पैदल सैनिकों ने १६७० में एक बार फिर सूरत को लूट लिया | औरंगजेब की धर्मांध नीति के प्रति यह आक्रोश की प्रथम हुंकार थी | राजमाता जीजाबाई को भी धर्म स्थानों के ध्वस्त होने के इन समाचारों से पीड़ा होने लगी थी | एक दिन अकस्मात इसकी अभिव्यक्ति भी हो गई | प्रतिदिन सुबह जब माँ जीजा बाई सूर्य को अर्ध्य देने हेतु गढ़ की प्राचीर पर जाती, तो उन्हें सामने ही सिंहगढ़ पर फहराता हुआ मुग़ल सल्तनत का हरा चाँद तारों वाला झन्डा कचोटता | एक दिन अकस्मात उन्होंने तय कर लिया कि वे अन्न जल तब ही ग्रहण करेंगी, जब उस सिंहगढ़ दुर्ग पर भगवा फहराता देख लेंगी | अब माँ की इच्छा का सम्मान महाराज कैसे न करते ? उन्होंने तत्क्षण सिंहगढ़ पर चढ़ाई का निर्णय ले लिया और उस अभियान का स्वयं नेतृत्व करने हेतु तत्पर हुए | जिस समय शिवाजी महाराज योद्धा वेश में रणभूमि की ओर प्रस्थान करने को उद्यत थे, उसी समय उनके बालसखा तानाजी मौलसरे अपने बेटे रायबा की शादी का निमंत्रण पत्र देने वहां पहुंचे | महाराज को योद्धा वेश में देखकर वे अचंभित हो गए | महाराज युद्ध हेतु कहीं जा रहे हैं, और मुझे ज्ञात भी नहीं है | और फिर जब उन्हें मां जीजाबाई के संकल्प की जानकारी मिली तो उनका दुःख और भी बढ़ गया | ताना जी भूल गए बेटे की शादी, उन्हें याद रही तो केवल मां जीजा बाई की प्रतिज्ञा | उन्होंने हठ ठान लिया कि शिवाजी के स्थान पर वे ही इस अभियान पर जायेंगे | हठ भी इतना प्रबल कि शिवाजी जैसे लौह पुरुष को भी झुकना पड़ा | घर में शादी का माहौल था, अतः सब रिश्तेदार भी आये हुए थे | शेलर मामा, भाई येशाजी आदि वीरों के साथ, मावलों – मराठों की एक छोटी सी सैन्य टुकड़ी सिंह गढ़ विजय के संकल्प के साथ निकल पडी | अर्द्ध रात्रि में घेर लिया गया सिंह गढ़ को, जिसका दुर्गपाल मुगलों का ताबेदार एक हिन्दू उदय भानु ही था | तानाजी ने अपनी घोर्बाद यशवंत नामक कमंद गढ़ के परकोटे पर फेंकी जो दो बार के प्रयत्नों के बाद कंगूरे पर अटकी | उस कमंद के सहारे अभी पचास सैनिक ही ऊपर पहुंचे थे कि तभी रस्सी टूट गई और शेष सेना नीचे ही रह गई | लेकिन उन पचास सैनिकों ने ही कल्याण द्वार के रक्षकों को मारकर दुर्ग का दरबाजा खोल दिया और शेष सेना भी भीतर आने में सफल हो गई | उसके बाद जो युद्ध हुआ उसका बड़ा लोमहर्षक वर्णन स्व. डॉ. बृजेन्द्र अवस्थी ने अपने खंड काव्य सिंह गढ़ विजय में किया है | 

ताना थे रण में झूम झूम क्रोधित हो अरिदल काट रहे 

लाशों पर लाशें गेर रहे रणथल में पाट ललाट रहे 

सिद्दी हलाल झपटा आगे, उसका भूलुंठित मुंड हुआ 

चन्द्रावली झपटा ताना पर चिंघाड़ गिरा निःशुण्ड हुआ 

पर त्यों ही झपटा उदयभानु कर छल से उन पर वार दिया 

कट गिरा दाहिना हाथ तीव्र तेगा पीछे से मार दिया 

जब तक संभले ताना तब तक उसके वारों पर वार हुए 

कुछ तो मस्तक के पार हुए कुछ वक्षस्थल के पार हुए 

गिर पडा मराठों का नायक महाराज शिवा का बालसखा 

बन गया मृत्युवर मृत्युंजय, रणगति पाकर वह कालसखा 

यहाँ हमें मराठाओं की वह विशेषता दिखाई देती है, जिसमें सेना नायक के वीरगति पाने के बाद भी सेना हतोत्साहित नहीं होती, कोई नया नायक उसका स्थान ले लेता है – 

शेलर गरजे राठौर बचो अब रक्षित अपना माथ करो 

मेरे इन बूढ़े हाथों से आगे बढ़ दो दो हाथ करो 

इतना कहते असि बज्रतुल्य गिर पडी चीरती शत्रु ढाल 

उछाला शोणित का फव्वारा हो गया देह से भिन्न भाल 

उसके गिरते गिरते रिपु की सेना में हाहाकार मचा, 

भागो भागो तौबा तौबा यूं कातर शोर अपार मचा 

सब अस्त्र शस्त्र तज तज अपने रिपु प्राण लिए भागने लगे 

कुछ हाथ जोड़ रणरोष छोड़ अब शरणदान माँगने लगे 

फिर गढ़ के कंगूरे पर भगवा ध्वज लहरा वार वार 

ऊषा ने उसकी आभा की झांकी ली नयनों में उतार 

अब सावधान यह जय जय का किस ओर निनाद सुनाता है 

खटपट खटपट खटपट खटपट किसका दल बढ़ता आता है 

आगे आगे प्रतिभाशाली दैदीप्यमान अधिनायक है 

जिसका मुखमंडल शांत प्रखर सुख दायक है, भयदायक है 

वह लौह पुरुष गढ़ ओर बढ़ा, कर पार प्रथम कल्याण द्वार 

गढ़ के प्रांगण में गूँज उठी जय शिवा जय शिवा की पुकार 

जब दुर्ग विजित सैनिक विमूक क्यूं घूम रहे कर शोक आज 

घोड़े से उतर स्वयं पैदल चल पड़े सोचते महाराज 

देखा गढ़ के कंगूरे पर भगवा ध्वज लहराता फर फर 

देखा शोणित से रंगा हुआ, शव मंडित धरती का अंतर 

देखे रिपु के सैनिक बंदी, पर अपना वन्धु नहीं देखा 

सब ओर नयन घूमे गढ़ में, पर ताना को न कहीं देखा 

फिर पूछ उठे शेलर मामा मुझ से क्यूं भेद छिपाते हो 

है कहाँ छिपा मेरा ताना सत्वर क्यूं नहीं बताते हो 

यह सुन येषा ने आगे बढ़ जब साहस उर में धार लिया 

ताना के शव पर ढका हुआ केसरिया वस्त्र उतार दिया 

शेलर सूर्या सैनिक समस्त यह द्रश्य देख डीडकार उठे 

मर्माहत होकर महाराज हा ताना वन्धु पुकार उठे 

उनके नयनों में माता का वह मूर्तिमान हो प्रण आया 

उनके नयनों में ताना का रणहठ का पावन क्षण आया 

फिर स्वर गूंजे कुछ कानों में अपने सैनिक का बल देखें 

माँ से भी नम्र निवेदन है वे मेरा रण कौशल देखें 

जो ज्योति स्तम्भ है संस्कृति का उस पर न आंच आने दूंगा 

हिन्दू स्वराज्य संस्थापक को रण में न आज जाने दूंगा 

इस गढ़ की जय का समाचार ज्यूं ही माता सुन पायेगी 

त्यों ही भाई ताना तुझको वह अपने पास बुलायेगी 

वात्सल्य मूर्ती माँ के सम्मुख तब किसे भेज सत्वर दूंगा 

राय बा तुझे जब पूछेगा तब उसको क्या उत्तर दूंगा 

यदि ऐसा होता ज्ञात मुझे तो तुझे नहीं आने देता 

यूं माँ के आज्ञा पालन का तुझको न श्रेय पाने देता 

इस महादुर्ग को लेने में है पडा चुकाना मूल्य नया 

उनके मुख से निकले यह स्वर गढ़ तो आया पर सिंह गया || “गढ़ आला पण सिंह गेला” || 

राज्याभिषेक 

सिंहगढ़ की दुखदाई विजय के कुछ समय बाद ही शिवाजी महाराज को एक और पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, जिन्हें इतिहास ने राजाराम महाराज के रूप में स्मरण रखा | शिवाजी महाराज की मृत्यु और छत्रपति संभाजी राजे की नृशंस हत्या के बाद की राजाराम महाराज की यश गाथा हम पूर्व में ही वर्णित कर चुके हैं, विडियो के अंत में लिंक एक बार फिर दी जा रही है | अस्तु अब आगे बढ़ते हैं | 

सिंहगढ़ विजय के बाद तो मानो मराठा सेना में कोई दैवीय शक्ति प्रवेश कर गई, उन्होंने एक के बाद एक पुरंदर, वज्रगढ़, चाकण, रोहिडा, कर्नाला, लोहगढ़, राजमाची और माहुली जैसे अनेक छोटे बड़े किले जीत लिए | पुणे, सूपा, इन्द्रापुर, चादवड, कल्याण, भिवंडी और उनके आसपास का समूचा क्षेत्र अब उनके अधिकार में आ गया | मुग़ल अधिपत्य के जुन्नर, परिंडा, अहमदनगर और बरार को लूट लिया गया | १६७० में एक बार फिर सूरत लूटा गया | इस बीच वहां अंग्रेज व्यापारी भी आ चुके थे, वे भी नजराना देने को विवश ही हुए | सूरत लूटकर लौट रहे मराठों को तीन मुग़ल सरदारों, दाउद खान, बाक़ी खां और इखलाक खां ने दिंडोरी के पास रोकने की कोशिश की, किन्तु घमासान युद्ध के बाद पराजित हुए | तीन हजार मुग़ल सैनिक मारे गए और चार हजार घोड़े भी मराठाओं के हाथ लगे | 

क्रुद्ध औरंगजेब ने शिवाजी महाराज का मुकाबला करने को विशाल सेना के साथ महाबत खां, दिलावर खां, और बहादुर खां को भेजा | दो एक छोटे किले लेने के बाद इस सेना ने साल्हेर पर घेरा डाला, जो कई महीनों तक चलता रहा | अन्दर फंसे सैनिकों को बचाने, शिवाजी महाराज के आदेश पर पेशवा मोरोपंत और सरनौबत प्रताप राव ने चालीस हजार के सैन्य दल के साथ १६७२ में बाहर से मुग़ल सेना पर हमला कर दिया | यह पहला अवसर था जब मराठा सेना ने छापामार शैली छोडकर मुग़ल सेना से सीधी टक्कर ली और मुग़ल सेना को करारी शिकस्त दी | इखलाक खां और तीस अन्य बड़े मुगल सरदार बंदी हुए और हजारों मुग़ल सैनिक मारे गए | हजारों घोड़े, ऊँट, हाथी और सैन्य सामग्री मराठों के हाथ लगी | औरंगजेब इस पराजय से इतना दुखी हुआ कि तीन दिन दरबार में नहीं गया | 

निराश औरंगजेब ने अब अपने सरदारों को आदेश दिया कि बीजापुर और गोलकुंडा के मुस्लिम शासकों को साथ लेकर शिवाजी राजे का मुकाबला करो | लेकिन उसकी यह नीति भी कोई काम नहीं आई | शिवाजी महाराज की ताकत के सामने यह संयुक्त दल भी कहीं ठहर नहीं पाया | यहाँ तक कि सरनौबत प्रताप राव गुर्जर ने १६७३ में पन्हाला, पारली, चन्दनवंदन किले जीतने के बाद, अप्रैल १६७३ में बीजापुर से ५४ मील दूर उमरणी में बीजापुर के सरदार बहलोल खां को घेर लिया | भूख प्यास से तड़पती बीजापुरी सेना ने दया की भीख मांगी, बहलोल खां ने कसम खाई कि फिर कभी मराठों पर शस्त्र नहीं उठाऊंगा | प्रताप राव को दया आ गई और उन्होंने बहलोल की प्रार्थना स्वीकार कर छोड़ दिया | 

जब शिवाजी महाराज को ज्ञात हुआ, तो वे बहुत नाराज हुए, सारी सेना छोड़ दी, यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन बहलोल को क्यों छोड़ा ? उसे बंदी क्यों नहीं बनाया ? किसकी आज्ञा से ऐसी संधि की ? उन्होंने सरनौबत प्रताप राव से जबाब तलब किया और साथ ही कह दिया कि अगर बहलोल का वादा झूठा निकला, तो उससे निबटे बिना फिर मुझे सूरत न दिखाना | जैसा शिवाजी महाराज का अनुमान था, बहलोल ने तैयारी कर मराठों पर दोबारा हमला कर दिया | मर्माहत प्रताप राव को २४ फरवरी १६७४ को जब एक पहाडी दर्रे में बहलोल के होने की सूचना मिली, तो उन्होंने आव देखा न ताव और बिना आगा पीछा सोचे अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया | बदले की भावना ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था | उनका साहस देखकर बीजापुरी सेना भी चकित थी, लेकिन इतनी बड़ी सेना के सामने ये थोड़े से सैनिक कितनी देर ठहरते ? छत्रपति ने सरनौबत से कहा था, बहलोल खां का झंझट दूर किये बिना मुंह न दिखाना और अपने स्वामी की इच्छा का पालन करने में उन्होंने अपने प्राणों की बलि दे दी | मराठा सेना को जब अपने सेनापति के आत्म बलिदान का समाचार मिला, तो वे व्याकुल हो गए बदला लेने के लिए | प्रताप राव की जगह संभाली आनंद राव ने और टूट पड़े बहलोल की जागीर पर, उसे तो जमकर लूटा ही, २३ मार्च १६७४ को खुद बहलोल भी बंकापुर के पास हुई मुठभेड़ में जान बचाकर भागा | 

नाभिषेको ना संस्कारो सिंहस्य क्रियते वने, 

बिक्रमार्जित सत्वस्व स्वयमेव मृगेन्द्रता | 

जंगल में शेर का कोई राज तिलक नहीं करता, वह अपने शौर्य और पराक्रम से ही स्वयं ही जंगल का राजा होता है | यह ठीक हो सकता है, लेकिन पराजित और आत्म विश्वास शून्य हिन्दू समाज में आत्माभिमान और साहस का संचार करना भी जरूरी था | आम धारणा बन चुकी थी कि अब तो केवल मुसलमान ही राजा हैं, हिन्दू तो महज उनकी सेवा करके ही जीवित रह सकते हैं | इस धारणा को खंडित करने के लिए तय हुआ – छत्रपति शिवाजी महाराज का राज्याभिषेक और हिन्दू पद पादशाही की स्थापना | लेकिन दुर्भाग्य तो देखिये हिन्दू समाज का – विरोध के स्वर उठे – शिवाजी क्षत्रिय नहीं है, उनका यज्ञोपवीत नहीं हुआ है, भले ही लगभग पूरे महाराष्ट्र पर उनकी विजय पताका फहरा रही हो, वे राजा नहीं बन सकते | पर इसका निराकरण किया काशी के महान पंडित गागा भट्ट ने | काशी विश्वनाथ मंदिर जब मुस्लिम आक्रान्ताओं ने पहली बार तोडा था, तब इन्हीं गागा भट्ट के परदादा नारायण भट्ट ने उसे पुनः बनवाकर पुनः प्राण प्रतिष्ठा की थी | अब यह मंदिर एक बार फिर औरंगजेब ने तोडा था, इस अपमान का अगर कोई बदला ले सकता है, तो वह केवल और केवल छत्रपति शिवाजी महाराज ही ले सकते हैं, यह गागा भट्ट भली प्रकार समझ चुके थे | समकालीन कवि भूषण तो गा ही रहे थे | 

पीरा पैगम्बरा, दिगम्बरा दिखाई देत, 

सिद्ध की सिधाई गई, रही बात रब की। 

कासी हूँ की कला गई, मथुरा मसीत भई 

शिवाजी न होते तो, सुनति होती सबकी॥ 

कुम्करण असुर, अवतारी औरंगजेब, 

काशी प्रयाग में दुहाई फेरी, रब की। 

तोड़ डाले देवी देव, शहर मुहल्लों के, 

लाखो मुसलमाँ किये, माला तोड़ी सब की॥ 

भूषण भणत भाग्यो काशीपति विश्वनाथ, 

और कौन गिनती में, भुई गीत भव की। 

काशी कर्बला होती, मथुरा मदीना होती 

शिवाजी न होते तो, सुन्नत होती सब की ॥ 

तत्कालीन महाराष्ट्र की आध्यात्मिक चेतना के प्रमुख स्वर समर्थ स्वामी रामदास का आशीर्वाद भी शिवाजी महाराज के साथ था, अतः विरोध के स्वर मंद हो गए और फिर ज्योतिषियों ने राज्याभिषेक की तिथि निश्चित की शनिवार ज्येष्ठ शुक्ल द्वादशी शक सम्बत १५६९ अर्थात ५ जून १६७४ | 

शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक के समाचार से जनता और सेना ख़ुशी से बावली हो उठी | आखिर एक के प्रेम और दूसरे के शौर्य से ही तो यह दिन आया था | राजधानी नियत हुई रायगढ़, विशाल राजसभा का निर्माण हुआ, जगदीश्वर के मंदिर का निर्माण हुआ, आलीशान अट्टालिकाएं निर्मित हुईं | २१ मई को शिवाजी का यज्ञोपवीत हुआ, स्वयं गागा भट्ट ने उपनयन संस्कार कराया | उनकी रानियों के साथ उनका वैदिक पद्धति से पुनर्विवाह कराया गया, तुलादान हुआ, सोना चांदी वस्त्र आभूषण आदि दान किये गए | शिवाजी और महारानी सोयरा बाई हाथी दांत से बने सिहासन पर बैठे, जिस पर सोने के पत्तर चढ़े हुए थे | युवराज संभाजी सिंहासन की सीढी पर बैठे | सिंहासन के चारों और चार खम्भों पर सिंह की आकृति बनी हुई थी और इन खम्भों के सहारे बहुमूल्य जरी का चंदवा तना हुआ था | 

गागा भट्ट और अन्य ब्राह्मणों ने वैदिक ऋचाओं के पाठ के साथ पवित्र नदियों के जल से शिवाजी का अभिषेक किया, उसके बाद समुद्र के जल से व फिर गरम पानी से उन्हें नहलाया गया | उसके बाद शुरू हुई शोभा यात्रा, भाव विभोर नागरिकों ने उन पर सोने चांदी के फूल बरसाए | हाथी पर बैठे महाराज जगदीश्वर के मंदिर दर्शन को गए | उसके बाद दरबार शुरू हुआ, तोपों ने गरज कर अपने राजा को सलामी दी, शिवाजी महाराज की उपाधि हुई, क्षत्रिय कुलावतंस श्री राजा शिव छत्रपति सिंहासनाधीश्वर | 

शिवाजी ने पहला काम किया समर्थ स्वामी रामदास के पास जाकर उनके श्रीचरणों में समूर्ण राज्य का समर्पण | समर्थ स्वामी ने उसे स्वीकार किया और अपने प्रतिनिधि के रूप में राजकाज करने हेतु आदेशित किया | राजदंड पर धर्म दंड का अंकुश, यह वैदिक आदर्श छत्रपति शिवाजी महाराज प्रणीत हिन्दू पद पादशाही के रूप में स्थापित हुआ | दिग दिगंत में गूँज उठा – 

धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो ! 

पूर्णाहुति 

राज्याभिषेक के कुछ समय बाद ही १७ जून १६७४ को मां जीजाबाई का स्वर्गवास हो गया | महाराज शिवाजी के लिए यह बज्राघात था, किन्तु कर्तव्य परायण महाराज और भी अधिक लक्ष्य के प्रति सचेत हो गए | औरंगजेब ने जिस मुग़ल सूबेदार बहादुर खां को मुकाबले के लिए भेजा था, जुलाई १६७४ में मराठाओं ने उसे जबरदस्त सबक सिखाया | इस सूबेदार ने पुणे से लगभग ८० मील दूर पेड़गाँव में एक गढ़ी बनाई थी, नाम रखा था बहादुर गढ़ | मराठा सेना ने योजना पूर्वक गढ़ी पर हमला किया | दो हजार सैनिकों की छोटी सी टुकड़ी को सबक सिखाने मुग़ल सेना गढ़ी से निकली तो मराठा सेना पीछे हटने लगी | इस टुकड़ी को खदेड़ते हुए मुग़ल आगे बढ़ते बढ़ते गढ़ी से काफी आगे निकल गए | तब मराठों की दूसरी बड़ी टुकड़ी ने अचानक बहादुर गढ़ पर हमला कर दिया | चूंकि लगभग सारी मुग़ल सेना उस पहली छोटी टुकड़ी के पीछे गई हुई थी, गढ़ी लगभग अरक्षित थी, थोड़े से सैनिक ही वहां थे, वे बेचारे मराठाओं का मुकाबला क्या कर पाते ? मराठों ने गढ़ी लूट ली, लगभग एक करोड़ का मालमत्ता उनके हाथ लगा | 

इसके बाद शिवाजी महाराज ने एक दूसरी कारस्तानी की, उन्होंने उस घटना के बाद एक प्रस्ताव बहादुर खां के पास भेजा कि वे मुगलों से संधि चाहते हैं, वे सत्रह किले उन्हें सोंप देंगे और शम्भाजी पहले की तरह अपनी टुकड़ियों के साथ सूबेदार के साथ रहेंगे | बिना लडे शिवाजी राजे काबू में आ रहे हैं, बहादुर खां के लिए यह बहुत बड़ा प्रलोभन था | उसने बिना ज्यादा सर खपाए यह प्रस्ताव औरंगजेब के पास भेज दिया और शान्ति से रंगरेलियों में मशगूल हो गया | अतः जनवरी १६७५ में जब मराठा सेना ने बीजापुर की ऐसी तैसी करनी शुरू की तब भी बहादुर खां चुप्पी साधे रहा | कोल्हापुर, कारवार, अंकोला शिवेश्वर आदि के आसपास का प्रदेश मराठों ने जीत लिया, जंजीरा के पास एक नया समुद्री दुर्ग पद्मदुर्ग बना लिया, उसके बाद मुंबई, गोवा और जंजीरा के अतिरिक्त सारा कोंकण समुद्र तट उनके कब्जे में आ गया | यह अभियान पूरा कर जब शिवाजी महाराज रायगढ़ वापस आये तो मुग़ल सूबेदार का सन्देश उनका इंतज़ार कर रहा था – बादशाह ने आपके ऊपर कृपा की है, आपके अपराधों को माफ़ कर, आपका संधि प्रस्ताव मान लिया है | 

हंसते हुए शिवाजी ने जबाब लिखवाया – ऐसा कौनसा पराक्रम आपने या आपके बादशाह ने किया है, जो अपने आधिपत्य के किले मैं सोंप दूं | बहादुर खां ने अपने सर के बाल ही नोंचे होंगे यह जबाब पाकर | औरंगजेब को भी जब यह पता चला कि कैसे उसे उल्लू बनाकर बीजापुर को ठोका गया है, तो उसने कांटे से काँटा निकालने मुहम्मद कुली खां बन चुके नेताजी पालकर को दिलेर खां के साथ शिवाजी राजे से निबटने को भेजा | लेकिन यहाँ भी उलटे बांस बरेली को लद गए | महाराष्ट्र पहुंचते ही एक सुबह मुहम्मद कुली खां छावनी से गायब मिले | सरपट घोडा दौडाते वे जा पहुंचे थे अपने महाराज के पास और उनके चरणों को अपने आंसुओं की गंगा जमुना से भिगो रहे थे | नौ वर्ष मुसलमान रहकर उन्होंने मुगलों की सेवा में समय बिताया था, उस समय की धारणा के अनुसार कोई हिन्दू मुसलमान बनने के बाद, दुबारा हिन्दू नहीं बन सकता था | भले ही वह कितनी ही विवशता में क्यूं न बना हो | लेकिन शिवाजी तो दूसरी ही मिट्टी के बने हुए थे | वे यह अन्याय कैसे बर्दास्त करते | अगर कोई हिन्दू बल पूर्वक मुसलमान बनाया जा सकता है, तो वह स्वेच्छा से पुनः हिन्दू क्यूं नहीं बन सकता ? उन्होंने यह सामाजिक प्रश्न बहुत ही कुशलता से सुलझाया और इतिहास में पहली बार कोई हिन्दू मुसलमान बनने के बाद शुद्धीकरण द्वारा पुनः हिन्दू बना | १९ जून १६७६ को नेताजी पालकर पुनः हिन्दू घोषित हो गए | मन तो सदा से ही उनका हिन्दू था ही | इतना ही नहीं तो शिवाजी महाराज ने उन्हें सामाजिक मान्यता दिलवाने के लिए अपने कुल की ही एक कन्या से उनका विवाह भी करवाया | कांटे से काँटा निकालने की औरंगजेबी योजना ओंधे मुंह धराशाई हुई | 

शिवाजी महाराज ने अब तक भले ही सफलता के झंडे गाढे हों, राज्याभिषेक हो गया हो, लेकिन उनकी सीमाएं कम ही थीं, महज तीन सौ मील के व्यास में सिमटी हुईं | अतः उन्होंने अब ध्यान सीमा विस्तार पर दिया, इसमें उनके सहयोगी हुए गोलकुंडा के बजीर मदन पन्त उपाख्य मादन्ना और उनके पिता शाह जी के पुराने दीवान नारों हनुमंते के सुपुत्र रघुनाथ पन्त | रघुनाथ पन्त के एक भाई जनार्दन पन्त पहले से ही उनके साथ थे और रघुनाथ पन्त उनके सौतेले भाई एकोजी उपाख्य व्यंकोजी के साथ थे | एकोजी लगातार बीजापुर सुलतान के ही बफादार थे और कई बार उसका साथ देते हुए, शिवाजी महाराज के खिलाफ भी लड़ चुके थे | रघुनाथ पन्त की किसी बात पर एकोजी से खटपट हो गई और वे नाराज होकर शिवाजी के पास पहुँच गए | उनकी सलाह पर शिवाजी ने दक्षिण भारत में अपने साम्राज्य विस्तार का विचार किया | मादन्ना ने इस कार्य में गोलकुंडा और शिवाजी महाराज के सहयोग की पृष्ठभूमि तैयार की | और फिर लगभग पच्चीस हजार की सेना के साथ दक्षिण भारत विजय अभियान शुरू हुआ कोपवल के किले से | यहाँ का किलेदार पठान अब्दुल रहीम खां मियाना और उसका भाई हुसैन खां जनता पर बहुत अत्याचार करता था | हम्बीर राव मोहिते और धनाजी जाधव के नेतृत्व में मराठा सेना ने घमासान लड़ाई के बाद कोपवल पर अधिकार कर लिया | रहीम खां मारा गया और हुसैन खां बंदी बना लिया गया | गोलकुंडा पहुंचे शिवाजी का भव्य स्वागत हुआ | स्वयं बजीर मादन्ना ने भावनगर में आगे आकर उनका स्वागत किया | सदियों बाद किसी हिन्दू राजा की शोभा यात्रा वहां निकली, अपार जनसमूह ने उनपर पुष्प वर्षा की | गोलकुंडा के दरबार में सुलतान अबुल हसन ने गले मिलकर उन्हें अपने साथ सिंहासन पर बैठाया | शिवाजी महाराज एक महीना सुलतान के अतिथि रहे, इस दौरान संयुक्त रूप से दक्षिण अभियान की रूपरेखा बनी | संधि की शर्तें तय होने के बाद गोलकुंडा और मराठा सेनाओं ने साथ साथ दक्षिण विजय के लिए कूच किया | 

इसी दौरान जिन्जी का किला शिवाजी महाराज के हाथ आया, जिसे उन्होंने दक्षिण की अपनी राजधानी के रूप में विकसित किया | किले की मरम्मत करवाई, पेयजल की व्यवस्था की | महापुरुष भविष्य द्रष्टा होते हैं, आगे चलकर शिवाजी महाराज के स्वर्गारोहण के बाद यही जिन्जी राजाराम महाराज का आश्रय स्थल बना था | लम्बे संघर्ष के बाद तुंगभद्रा और कावेरी नदियों के बीच का बड़ा भू भाग बीजापुर के सुलतान से मराठा सेनाओं ने छीन लिया | लेकिन सबसे दुर्भाग्य पूर्ण रहा शिवाजी महाराज और उनके सौतेले भाई एकोजी का विवाद | एकोजी समझाने के बाद भी संघर्ष पर आमादा रहे, बीजापुर की अधीनता छोड़ने को तैयार नहीं हुए | जुलाई १६७७ में शिवाजी महाराज स्वयं तंजोर से १६ मील दूर तिरुमलवाडी के एक मंदिर में एकोजी से मिले और स्वराज्य की अपनी भाव भूमिका उन्हें समझाने का प्रयत्न किया | किन्तु एकोजी का रुख न बदलते देख व्यथित शिवाजी राजे, हम्बीर राव मोहिते के जिम्मे उनसे निबटने का काम सोंपकर वापस रायगढ़ पहुँच गए | शिवाजी के वापस लौटने के बाद हुए संघर्ष में एकोजी की करारी हार हुई | एकोजी की पत्नी दीपाबाई बड़ी विदुषी और समझदार महिला थीं | उनके और रघुनाथ पन्त के समझाने से अंततः एकोजी राह पर आये और दोनों भाईयों में सुलह हुईं | पर पराजय का प्रभाव एकोजी पर गंभीर हुआ, यह समाचार पाकर शिवाजी महाराज ने उन्हें एक पत्र लिखा – मेरे रहते आपको किस बात की चिंता है ? आप किसी तीर्थस्थान पर जाकर रहने की बात करते हैं, जबकि आपकी आयु कुछ कर दिखाने की है, समय बरबाद न कीजिए, अपने पराक्रम से कुछ ऐसा कीजिए कि मुझे भी समाधान हो कि मेरा छोटा भाई इतना वीर है | 

१६७८ में मुगलों ने एक बार फिर बीजापुर पर चढ़ाई कर दी, तो तत्कालीन शासक सिद्दी मसूद ने शिवाजी से सहायता मांगी | उदार ह्रदय से शिवाजी ने उसकी मदद की भी | इस प्रकार अब दक्षिण के दोनों मुस्लिम राज्य एक प्रकार से उनके संरक्षण में थे | अगर शिवाजी कुछ समय और जीवित रहते तो बहुत संभव था कि मुग़ल दक्षिण से पूरी तरह उखड जाते | लेकिन शिवाजी महाराज पारिवारिक उलझनों के कारण उत्पन्न मानसिक अशांति के चलते कुछ जल्द ही विदा ले गए | उनके बड़े पुत्र संभाजी की मां सई बाई का उनके बचपन में ही स्वर्गवास हो गया था | मातृविहीन संभाजी के स्वभाव में उद्दंडता आ गई थी | विमाता सोयरा बाई अपने पुत्र राजाराम को शिवाजी का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं | दादी का स्वर्गवास, पिता की व्यस्तता और विमाता का व्यवहार, परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि संभाजी पिता को भी अपने विरुद्ध समझने लगे | कुछ समय के लिए उनका विवेक नष्ट हो गया और वे मुगलों से जा मिले | मुग़ल सेनापति दिलेर खां की खुशी का ठिकाना नहीं रहा | उन्हें तुरंत सात हजारी मंसब प्रदान कर दी गई और उनके नेतृत्व में सतारा जिले के भूपालगढ़ पर हमला हुआ | किलेदार फिरंगोजी वरसाला बड़े धर्म संकट में फंसे | तोपें चलाते हैं तो युवराज की जान भी जा सकती है | नतीजा यह हुआ कि भूपालगढ़ पर भगवा के स्थान पर चाँद तारे वाला हरा निसान लहराने लगा | युवराज के सामने अनेक मराठा सैनिकों को मौत के घाट उतारा गया | शिवाजी महाराज को मालूम पड़ा तो वे फिरंगोजी पर बहुत नाराज हुए | ऐसे युवराज की क्या मुरब्बत जो दुश्मन से जा मिले | उधर अपनी आँखों के सामने अपने ही बांधवों को मरते देखकर संभाजी को भी पछतावा हुआ और वे एक दिन मुग़ल छावनी से निकल भागे | मराठा टुकड़ियां तो उनके इंतज़ार में ही थीं | युवराज सकुशल पन्हाला पहुँच गए | महाराज शिवाजी के सर से एक चिंता का भार उतर गया | मार्च १६८० के प्रथम सप्ताह में राजाराम का विवाह हुआ, किन्तु २३ मार्च को शिवाजी महाराज को ज्वर आ गया | बचपन और जवानी के बहुत से सखा, सहयोगी और अनुयाई स्वराज्य के इस अभियान के दौरान साथ छोड़कर परम धाम जा चुके थे | एक पन्द्रह वर्ष के बालक ने जो स्वप्न देखा था, वह पूर्ण हो चुका था | देश के कमसेकम एक भाग में ऐसा राज्य स्थापित हो चुका था, जहाँ हिन्दू सम्मान के साथ रह सकते थे | हिन्दू ही नहीं तो जहाँ सभी धर्मावलम्बी स्वतंत्रता से अपने धर्म का पालन कर सकते थे | इस राज्य को कायम रखना, बढ़ाना अब दूसरों का काम था | शिवाजी महाराज ने जीवन भर जिस धैर्य और शांति के साथ संकटों का सामना किया, अब वे मृत्यु का भी उसी निडरता से सामना करने को तत्पर थे | ३ अप्रैल १६८० चैत्र सुदी पूर्णिमा को मध्यान्ह में वे स्वर्ग सिधारे | 

बोलो तोल सकेगा कोई, क्या सागर का पानी, 

तपते हुए सूर्य को कैसे, देखे कोई अभिमानी, 

जलती आग हथेली पर क्या, रख सकता है मानव, 

कठिन जीतना वीर शिवा को, वह अजेय सेनानी !
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