"संबंध क्यों टूटते हैं?" –कमलेश कमल

 

"आप अपना परिवार और परिवार के सदस्यों को चुनते नहीं हैं। वे आपको ईश्वर द्वारा प्रदत्त उपहार हैं।" 
-डेसमंड टूटू 

परिवार को 'लघु-संसार' कहा गया है, क्योंकि परिवार से समाज और समाज से संसार बनाता है। व्यक्ति अच्छा, तो परिवार अच्छा। परिवार अच्छा, तो समाज अच्छा। समाज अच्छा, तो संसार अच्छा। ऐसे में, व्यक्ति के अंदर अगर प्रेम का बीज नहीं होगा, तो परिवार में भी उसे प्रेम नहीं मिलेगा और न ही परिवार के बाहर के संसार में मिल सकेगा। 

अनुभवजन्य सत्य है कि परिवार के सदस्य हमारे लिए उपहार-सदृश होते हैं, जो हमें भरपूर प्रेम देना चाहते हैं। बुरे-से-बुरा व्यक्ति भी अपने परिवार के सदस्यों को प्रेम ही देना चाहता है, दे सके या न दे सके, यह अलग बात है। ऐसे में आख़िर क्यों हम इन उपहारों से भी, अपने परिवार के सदस्यों से भी दुःखी हो जाते हैं? हम क्यों क्षुब्ध हो जाते हैं कि किसी का व्यवहार जैसा होना था, वैसा क्यों नहीं है? वस्तुतः, जब ये रिश्तेदार हमें छोड़कर इस दुनिया से चले जाते हैं, या गम्भीर रूप से बीमार पड़ते हैं, तब हमें समझ में आता है कि ये हमारे लिए कितने महत्त्वपूर्ण थे या हैं। शायद सामान्य दिनों में, हम इनसे इतनी अधिक अपेक्षा रखते हैं कि इनकी उपस्थिति-मात्र हमें सुख नहीं देती, हम इनसे सेवा या कार्य में मदद आदि चाहते रहते हैं। दूसरे शब्दों में कहें, तो हम रिश्तों को उपयोगिता की कसौटी पर कसने लगते हैं। इससे रिश्तों का प्राणतत्त्व खो जाता है।

व्यावहारिक रूप में देखें, तो किसी भी संबंध में दो पक्ष होते हैं, जिसमें एक पक्ष किसी-न-किसी स्तर पर सबल होता है। ऐसा देखा जाता है कि दुर्बल पक्ष को सबल पक्ष से उम्मीद रहती ही है। 

अगर संबंध में कोई अपेक्षा न हो, किसी को किसी से कोई उम्मीद न हो, तो दुःख नहीं मिलता। पर क्या आम ज़िंदगी में ऐसा हो पाता है? अपेक्षा तो रहती ही है। यही अपेक्षा जब पूरी नहीं होती, तो दुःख होता है। उम्मीद जहाँ अधिक रहती है, वहाँ दुःख भी अधिक होता है। जिनसे उम्मीद नहीं, उनसे दुःख भी कहाँ होता है?

देखा जाता है कि निन्यानबे प्रतिशत संबंधों में निर्भरता का कोई-न-कोई आधार होता ही है- भावनात्मक, मानसिक, वैचारिक, आर्थिक या प्रतिष्ठा-प्रदर्शन (जिसमें एक पक्ष दूसरे से संपृक्त रहकर अपनी प्रतिष्ठा को परिवर्द्धित हुआ मानता है)। अब, निर्भरता कोई भी हो, संबंध टूटने का प्रमुख कारण सदा एक ही होता है- किसी भी कारण से निर्बल पक्ष के पाने की लालसा जब टूटती है, तो शिकायतें जन्मने लगती हैं। सबल पक्ष अगर लालसा को परितुष्ट कर दे; तो तात्कालिक रूप से सब कुछ पटरी पर लौट आता है। इसके विपरीत, अगर वह उदासीन रहकर उपेक्षा कर देता है, तो प्रेम की गर्माहट कम हो जाती है। इस परिस्थिति में, संबंध कहने के लिए जीवित रहता है, पर इससे चिंगारी उतनी नहीं निकलती, धुँआ ही ज़्यादा रहता है। एक और संभावना है- जब सबल पक्ष की प्रतिक्रिया न सन्तुष्ट करने की रही, न उदासीन रहने की हुई, बस कठोर हुई या झिड़क देने की हुई। ऐसे मेम, प्रेम नष्ट ही हो जाता है, अथवा इतना दूषित कि इससे नष्ट ही हो जाना अच्छा।

यहाँ यह भी विचारणीय है कि रिश्ते कैसे दुर्बल हो जाते हैं? मनोवैज्ञानिक रूप से देखें, तो रिश्तों में पहली दरार तब आती है जब हम आलोचना करते हैं, लेबल लगा देते हैं। दूसरी दरार तब आती है जब कोई पक्ष बचाव की मुद्रा में आ जाता है। परवर्ती समय में तीसरी दरार तब आती है जब संवादहीनता की स्थिति उत्पन्न होती है और बीच में एक दीवार खड़ी हो जाती है। चौथी और सबसे दर्दनाक दरार तब आती है जब हम निंदा करने लगते हैं। यहाँ सोचने वाली बात यह है कि साथी या सहचारिणी हम चुनते हैं और जब हम ही उसकी निंदा कर रहे होते हैं, तो हम प्रकारान्तर से स्वयं को ही विगर्हित(निंदित) कर रिश्ते को राख कर रहे होते हैं।

संबंधों के टूटने का एक प्रमुख कारण है-अहं का टकराव। सामान्यतः विशिष्ट और कुछ हटकर होने और पाने की ज़िद को अहं कहा जा सकता है। संबंध में नैकट्य जितना अधिक होगा, आकांक्षा और ज़िद उतनी ज़्यादा होगी। अगर संबंध ख़ूब नज़दीकी है, ख़ास है, तो किसी आकांक्षा के बदले अल्प समय के लिए भी अगर नज़रअंदाज किया जाए, या झिड़क कर एक वाक्य कह दिया जाए, तो यह रूखा व्यवहार अंदर बैठे अहंकार रूपी सर्प को फन उठाने के लिए उकसा देता है।

उपर्युक्त स्थिति में व्यक्ति की अंतर्भूत सहज विनम्रता और उसके अहं की लड़ाई होती है। अगर व्यक्ति पहले से ही इतना विचारवान् न हो कि यह सोचे कि वह अपने अहं को हरा देगा, पराभूत कर देगा या इसके प्रति सावधान रहेगा, तो दस में से नौ मामलों में अहं जीत जाता है और वह भी पलट कर कड़वाहट भरा व्यवहार दिखा देता है। कहने की आवश्यकता नहीं कि इस क्षणिक क्रिया-प्रतिक्रिया में ही आपसी संबंध में दुःख का दारुण प्रवेश हो जाता है।

संबंधों में टकराव और दुःख से बचने के लिए आवश्यक है कि व्यक्ति अहं के प्रति तो सजग रहे ही, प्रेम की ढाल से अहं के वार को रोके भी। अगर तब भी लगे कि अहं जीत रहा है, सामने वाले को भी बुरा-भला कहकर दुःखी करने का मन कर रहा है, तो ऐसे में जुड़े रहने की वज़ह की तलाश कर अहं को नियंत्रित करने का प्रयास करना चाहिए। दूसरे जब कहते हैं कि वे आपको या किसी को बख़ूबी जानते हैं, तब इसमें एक शर्त जुड़ा होता है- 'उनके अपने दृष्टिकोण(perspective) से।' यह ध्यान रखना चाहिए कि यह दृष्टिकोण एक मिनट में बदल सकता है। यह ध्यान रखते हुए आवश्यक यह भी है कि जब तक मन शांत-निशांत न हो जाए, मुँह पर ताला लगाकर रखना चाहिए। इसके साथ ही, मन-ही-मन रहीम का यह दोहा याद कर लेना चाहिए-

"रहिमन धागा प्रेम का, मत तोड़ों चटकाय।
टूटै पर फ़िर ना जुड़े, जुड़े गाँठ पड़ि जाय।।"

यह भी स्मरण रखना चाहिए कि संबंध बने रहें, इस हेतु समानुभूति और क्षमाशीलता का अविरत अभ्यास होता रहे। क्षमा करने और आगे बढ़ने के लिए बहुत शक्ति की आवश्यकता होती है, क्योंकि गुस्से और दुःख का जडत्व और प्रतिरोध बहुत अधिक होता है। ऐसे, यह भी सम्भव है कि हमें पता ही न हो कि क्षमा कैसे करें। क्षमा स्वयं को करना ही सर्वोत्तम है। ऐसी स्थिति में यह बोध रहता है कि क्रोध या परिताप से सामनेवाले का कुछ बिगड़े या न बिगड़े, स्वयं का बिगड़ जाता है और इसके बोझ से व्यक्ति स्वयं को ही तोड़ता रहता है।

देखा जाता है कि अहं-युक्त मन क्षमाशील नहीं होता, पर यह भी विचार करना चाहिए कि जिन्हें हम प्यार करते हैं, क्या हम उन्हें उदास और उन्मथित देख सकते हैं? साथ ही, यह भी सोचना चाहिए कि जिसे हम बुराई समझ रहे हैं, वह सामने वाले की अक्षमता या सीमा भी हो सकती है; क्योंकि बुरे या कलुषित कार्य का कर्ता कोई नहीं होना चाहता।

कोई जानबूझकर अप्रिय कर्म या बुरा व्यवहार नहीं करना चाहता, हाँ उसका तरीक़ा ग़लत हो सकता है। वैसे भी, मनोवैज्ञानिक मानते हैं कि निकट संबंधों में ज़्यादातर दुःखों का कारण छोटी-मोटी बातें होती हैं। अगर हम यह समझें कि सामने वाले ने अपनी बुद्धि से या अपने सामर्थ्य से और अपनी परिस्थितियों के अनुसार ठीक ही किया होगा, तो हम दुःख से मुक्ति की ओर क़दम बढ़ा देते हैं। हम यह मान सकते हैं- "मैं जैसा चाहता था, तुम्हें वैसा न होने के लिए माफ़ किया, तुम जैसा चाहते थे, मुझे वैसा न होने के लिए माफ़ करो...हम दोनों एक-दूसरे की अलग और स्वतंत्र सत्ता का सम्मान करें!"

तात्त्विक रूप से देखें, तो जब अहंकार के बिना कोई कर्म या व्यवहार किया जाता है, तब यह सफल या निष्फल कर्म तो हो सकता है, पर कुकर्म या तिरस्करणीय कर्म नहीं हो सकता। आत्मीय संबंधों में अगर सामने वाले को इतनी छूट दे दें, कि उसने अपने सामर्थ्य और अपनी बुध्दि के अनुसार ठीक ही किया होगा, तो टूटता रिश्ता भी जुड़ जाए। श्रीरामकृष्ण परमहंस ने कहा भी है,"लोग अतार्किक और असंगत होते ही हैं। उन्हें इसके लिए माफ़ कर दें!"

यह भी देखा जाता है कि साथ रहते-रहते लोग एक दूसरे को हल्के में लेने लगते हैं और उन्हें अपने सुख-भोग का एक उपकरण समझने लगते हैं। दूसरे को अपने से कमतर-क्षुद्रतर समझना और अपने प्रयोजन के लिए समझना ही अहंकार है। अहंकार का अर्थ ही है, स्वयं को दूसरे से श्रेष्ठ समझना और दूसरे को अपने निमित्त समझना, अपने अनुसार चलाना। इसके ठीक विपरीत है समदर्शी होना। इसका अर्थ है अहंकार का विलोपन और सबको समान जानना; सबकी स्वतंत्र सत्ता है–ऐसा मानना और जानना। लेकिन, ऐसा हो नहीं पाता। कहते हैं कि ईश्वर सबको जन्म देते समय उसके कान में यह कह देते हैं कि तुम सबसे विलक्षण हो, सबसे बेहतर हो! यही श्रेष्ठताबोध अहंजन्य दुःख का कारण है; क्योंकि दूसरा भी कहीं किसी से स्वयं को कम नहीं मानता।

जब हर कोई स्वयं के लिए सोचता है, तब यदि कोई यह देखता है कि दूसरा उसे मान-सम्मान नहीं देकर उसका उपयोग करना चाहता है, तब उसका अहं आहत होता है। वह उससे चिढ़ता, सुलगता रहता है। वह यह मान लेता है कि सामने वाला अब प्रेम के उत्तुंग शिखर पर नहीं है, बल्कि उसका पतन हो गया है, या उसका स्वभाव बदल गया है। वैसे, यह कैसा पतन होता है और क्यों? सच्छास्त्रों की अवगाहना से हम पाते हैं कि मनुष्य के पतन के दो कारण होते हैं- भोगों की इच्छा और संग्रह की इच्छा। जब इन दो बलवती एषाओं में से किसी की भी पूर्ति में विघ्न पड़ता है, तो व्यक्ति अनुचित आचरण और बिगड़ा व्यवहार करने लगता है। होता यह है कि जब हम यह स्पष्ट देख लेते हैं कि कोई हमें अपनी इन दो इच्छाओं की पूर्ति का माध्यम बना रहा है, तो हम उनसे भावनात्मक रूप से दूर हो जाते हैं या संबंध तोड़ लेते हैं। 

उचित ही आश्वस्ति है कि कोई भी रिश्ता तभी टिक सकता है, या इसमें प्रेम तभी जीवित रह सकता है, जब हम इससे कुछ पाने की कामना को नियंत्रित रख सकें और साथ ही छोटी-छोटी बातों को नज़रअंदाज कर सकें। महान् विचारक पेरिक्लीज ने इसे सूत्रात्मक रूप में अभिशब्दित किया-"हम छोटी-छोटी बातों पर देर तक बैठे रहते हैं, जिससे दुःख मिलता है।" ध्यान दें, तो रिश्तों से मिलने वाले दुःख से बचने का यह एक स्वर्णिम-सूत्र भी है।

रिश्ते कैसे सुधरते हैं? सामान्य तौर पर जब हम सामने वाले पर ध्यान देते हैं और उसे ठीक से सुनने लगते हैं, तब रिश्ते मज़बूत होने लगते हैं। जब हम किसी पर अपना ध्यान देते हैं, तो उसे कुछ देते हैं, ऊर्जा देते हैं। जब हम ठीक से सुनने लगते हैं और उस पर सकारात्मक प्रतिक्रिया देने लगते हैं, तब हम रिश्तों को सुधारने की अगली अवस्था में पहुँच जाते हैं। इसके पश्चात् सकारात्मक बने रहना और प्रशंसा करना दो ऐसे उपाय हैं, जिनसे रिश्ते प्रगाढ़ होते हैं।

मनोवैज्ञानिक रोजनबर्ग ने रिश्तों को सुधारने के लिए चार चरण बताए : 1. कहिए कि आपने क्या देखा 2. कहिए कि आप कैसा महसूस कर रहे हैं 3.कहिए कि आपकी आवश्यकता क्या है 4 सही तरह से अपना अनुरोध कीजिए। इन चारों चरणों में आप क्या कहते हैं से अधिक महत्त्वपूर्ण होता है कि आप कैसे कहते हैं।

अन्त में सबसे महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है कि आपके सभी रिश्तों में एक चीज़ विद्यमान् है- स्वयं आप। तकनीकी रूप से देखें, तो आप 50 प्रतिशत हैं। आप बदल जाएँगे, तो आपके रिश्ते 50 प्रतिशत बदल ही जाएँगे और 50 प्रतिशत का यह व्यतिक्रम वह ज़रूरी खाद-पानी दे जाए जो शीघ्र ही शेष 50 प्रतिशत को भी परिवर्तित कर दे।

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