फिल्म बाहुबली के निर्माता निर्देशक राजामौली की नई फिल्म आर आर आर के नायकों का वास्तविक परिचय



अल्लूरी सीताराम राजू 

अभी पिछले दिनों बहुचर्चित फिल्म बाहुबली के निर्माता निर्देशक राजामौली की नई फिल्म आर आर आर का टीजर रिलीज हुआ | निर्देशक के अनुसार आर आर आर के तमिल तेलगू मलयालम हिन्दी अंग्रेजी में अलग अलग अर्थ हैं, जैसे भारतीय भाषाओं में लगभग कॉमन रौद्रम – रणं – रुधिरम अर्थात गुस्सा – युद्ध – रक्त, या अंग्रेजी में राईज – रोर - रिवोल्ट अर्थात उठो – गरजो – विद्रोह करो | चूंकि बॉक्स ऑफिस सुपर हिट “बाहुबली” के बाद यह राजामौली की पहली फिल्म है, अतः स्वाभाविक ही लोगों को बहुत जिज्ञासा है फिल्म को लेकर | बैसे भी फिल्म एक साथ तमिल तेलगू मलयालम हिन्दी अंग्रेजी में प्रसारित होने वाली है | 

यूं तो फिल्म की कहानी पूरी तरह काल्पनिक है, किन्तु इसमें पात्र वास्तविक लिए गए हैं, और वो भी भारत के महान स्वतंत्रता सेनानी, अल्लूरी सीताराम राजू और गोंड वनवासी नायक कोमाराम भीम, जिन्होंने क्रमशः ब्रिटिश राज और हैदराबाद के निजाम के खिलाफ लड़ाई लड़ी थी। मजे की बात देखिये इस फिल्मी दुनिया की, कि इन दोनों को समकालीन ही नहीं तो मित्र बताया गया है, जबकि अल्लूरी सीताराम राजू को तो गोली मारी गई ४ जुलाई १९२४ को और कोमाराम भीम का सक्रिय कार्यकाल रहा १९२८ से १९४० तक | इसके अतिरिक्त लिब्रांडूओं को संतुष्ट करने के लिए एक और घिनौनी हरकत की गई, जो फिल्म के टीजर में दिखाई दे रही है, गोंड जनजाति के कोमाराम भीम ने आजीवन संघर्ष किया निजाम हैदरावाद से, जबकि उन्हें मुस्लिम जालीदार टोपी पहने दिखाया गया है| 

तो हमने भी सोचा कि अपने मित्रों को इसी बहाने इन दोनों महानायकों के विषय में वास्तविक जानकारी तो दे ही दें, क्योंकि आंध्र और तेलंगाना के बाहर इन दोनों को कम ही जाना जाता है | तो शुरूआत करते हैं अल्लूरी सीताराम राजू से - 

१८५७ के असफल प्रयत्न के बाद भी अंग्रेजी उपनिवेश वाद के विरुद्ध देशभर में चिंगारी भड़कती रही, देशभक्ति के ज्वार उठते रहे | ऐसा ही एक प्रसंग है, मद्रास वन अधिनियम के विरुद्ध 1922 में हुआ राम्पा विद्रोह | अंग्रेजों ने इस काले क़ानून के द्वारा आंध्र प्रदेश के वनवासी समुदाय की वनों में पहुंच को ही प्रतिबंधित कर दिया था । भारत के राष्ट्रवादी क्षितिज के ज्वाजल्यमान नक्षत्र अल्लूरी सीतारमा राजू ने इस विद्रोह का नेतृत्व किया था | विचार कीजिए महज 27 वर्ष की उम्र में, सीमित संसाधनों वाले गरीब, अनपढ़ आदिवासियों द्वारा शक्तिशाली ब्रिटिश साम्राज्य के खिलाफ चलाये जाने वाले सशस्त्र विद्रोह का नेतृत्व करना क्या कोई आसान काम था । 

उन्होंने 1882 में अंग्रेजों द्वारा लागू किये गए मद्रास फॉरेस्ट एक्ट के खिलाफ बहुचर्चित रामपा विद्रोह का नेतृत्व किया | इस एक्ट के तहत स्थानीय आदिवासी समुदाय, विशेष रूप से कोया जनजाति का वन प्रवेश प्रतिबंधित कर दिया गया था, जो जंगलों में पहुंचकर अपनी पारंपरिक पोडू कृषि प्रणाली से खेतीबाडी करते थे, जिसमें दलदल जैसे बृक्ष रहित क्षेत्र का या पहाड़ की तलहटी में छोटे झाडझंकाड़ जलाकर उस भूमि का उपयोग किया जाता था | यह खेती किसी एक निश्चित स्थान पर नहीं होती थी, वनवासी जहाँ जलाने योग्य अनुपयोगी झाड़ देखते, उन्हें जलाते और उसकी राख में ही खेती करते | इससे जंगल भी सुरक्षित रहता था और उनकी आजीविका भी चलती रहती थी | लेकिन अंग्रेजों को तो जंगल का दोहन करना था, जंगल काटकर उसकी लकड़ी से फर्नीचर बनाने थे, अतः जब वनवासियों का जंगल प्रवेश ही रोक दिया गया तो भला जंगल पुत्र वनवासी कैसे सहन करते ? उन्होंने पुलिस स्टेशनों पर छापे मारे, उनके हथियार और गोला-बारूद लूटे और फिर शुरू की मियाँ की जूती मियाँ के सर बाली नीति, ब्रिटिश पुलिस अधिकारियों को शिकार बनाना रोज की बात हो गई | देखते ही देखते सीताराम “मान्यम वीरुडू” अर्थात जंगल के नायक के नाम से विख्यात हो गए । 

हालांकि राजू के शुरुआती जीवन के विषय में कुछ अधिक ज्ञात नहीं होता, लेकिन अधिकाँशतः आम सहमति है कि उनका जन्म आंध्र प्रदेश के वर्तमान विशाखापत्तनम जिले के पांडरंगी गांव में 4 जुलाई 1897 को हुआ था। उनके पिता वेंकटरामा राजू और माता सूर्यनारायणम्मा, मूल रूप से पश्चिम गोदावरी जिले के मोगल्लू के रहने वाले थे। उनकी एक बहन सीताम्मा और एक भाई सत्यनारायण राजू भी थे। जब राजू सिर्फ 6 साल के थे, तभी उनके पिता का स्वर्गवास हो गया, उनके चाचा रामकृष्ण राजू ने ही परिवार की देखरेख की। उनकी पढ़ने लिखने में ज्यादा रूचि नहीं थी, और 18 वर्ष की आयु में ही उन्होंने सांसारिक मोह माया को छोड़कर संन्यास ले लिया । 

उस समय आज की तरह पूर्वी और पश्चिमी गोदावरी जिले नहीं थे, उस संयुक्त गोदावरी क्षेत्र के जंगलों और पहाड़ियों में ही वे अक्सर साधना करते दिखाई देते | स्थानीय वनवासी समुदाय के बीच उनकी साधना और तपस्या के कारण प्राप्त चमत्कारिक सिद्धियों की चर्चा होती व भक्तिभाव बढ़ता जाता | जब वह अपमानजनक मद्रास फॉरेस्ट एक्ट लागू हुआ, तो यह संत भी अपने लोगों के लिए अंग्रेजों से संघर्ष को तत्पर हो गया | वनवासी अपने उदरपोषण के लिए सरकारी ठेकेदारों के गुलामवत मजदूर बनने को विवश हो गए, जहाँ उनको बाजिब मजदूरी तो मिलती ही नहीं थी, उनके साथ गुलामों की तरह व्यवहार होता, निर्दयता से मारपीट और महिलाओं का यौन उत्पीड़न आम बात थी । यह सब देखकर राजू का सन्यासी मन क्रोध से भर गया । और जल्द ही इस आन्दोलन के नेतृत्व का भार भी उनके ही कन्धों पर आ गया । 

1920 में शुरूआत तो असहयोग जैसे गांधीवादी तरीकों से हुई, उन पर गांधीजी के विचारों का प्रभाव पड़ा और उन्होंने आदिवासियों को मद्यपान छोड़ने तथा अपने विवाद पंचायतो को हल करने की सलाह दी |किन्तु 1922 आते आते जनजातीय समुदाय को यह समझ में आ गया कि अहिंसा के रास्ते पर चलकर धूर्त अंग्रेजों से मुक्ति संभव नहीं है और यह आन्दोलन उग्र हो गया । राजू के नेतृत्व में गामा बंधु गैंटम डोरा और मल्लू डोरा, कांकिपति पडालु, अगीराजू उनके कुछ भरोसेमंद ‘लेफ्टिनेंट’ थे । क्षेत्र के गांवों में बसे स्थानीय लोगों की सहानुभूति पूरी तरह आन्दोलन के साथ थी | औपनिवेशिक पुलिसकर्मियों पर घात लगाकर हमला करना आसान था, क्योंकि वे लोग क्षेत्र से अनजान थे | 22 अगस्त 1922 को विशाखापत्तनम एजेंसी क्षेत्र में चिंतपल्ली पुलिस स्टेशन पर इसी तरह हमला किया गया, जिसमें राजू के नेतृत्व में 300 से अधिक क्रांतिकारी शामिल हुए। वहाँ मौजूद अभिलेखों को फाड़ दिया, और हथियारों और गोला-बारूद को वहाँ से हटा दिया। 11 बंदूकें, 5 तलवारें, 1390 कारतूस वहाँ से निकाल लिए गए थे। इसके बाद, कृष्णादेवी पेटा और राजा ओमांगी पुलिस स्टेशनों पर भी इसी तरह के हमले किए गए। इन हमलों में शस्त्रागार पर कब्जा कर बड़े पैमाने पर हथियार लूट लिए गये । पुलिस को हर बार उनकी संगठित शक्ति के सामने पराजित होकर भागना पड़ा | स्थिति यह हो गई कि सरकार ने थानों में हथियार रखना ही बंद कर दिया | 

ब्रिटिश अधिकारियों के नेतृत्व में विशाखापत्तनम, राजामुंदरी, पार्वतीपुरम और कोरापुट से रिजर्व पुलिस कर्मियों की एक बड़ी टुकड़ी इन क्षेत्रों में पहुंची, किन्तु 24 सितंबर, 1922 को क्रांतिकारियों के साथ लड़ाई में दो अधिकारी कैबार्ड और हैटर मारे गए और कई अन्य घायल हो गए। इस जीत के बाद आन्दोलनकारियों का मनोबल और बढ़ गया तथा आमजन भी पूरी तरह से राजू और उनकी टीम के समर्थन में आ गई । रामपचोड़वरम पुलिस स्टेशन पर 19 अक्टूबर को हुए हमले के बाद तो अल्लूरी सीताराम राजू एक लोक नायक बन गए थे। उन्हें पकड़ने के लिए बड़े सैन्य बल के साथ सांडर्स को कमान सौंपी गई लेकिन सांडर्स को भी मुँह की खानी पड़ी। 

अंत में मान्यम क्षेत्र में स्पेशल कमिश्नर रदरफोर्ड को राजू को पकड़ने के लिए नियुक्त किया गया। उसने राजू के सबसे बहादुर लेफ्टिनेंट में से एक अगीराजू को भीषण मुठभेड़ के बाद पकड़ लिया गया और अंडमान में भेज दिया गया। रदरफोर्ड ने एक आदेश भेजा, कि यदि राजू ने एक हफ्ते में आत्मसमर्पण नहीं किया, तो मान्यम क्षेत्र के लोगों को सामूहिक रूप से मार दिया जाएगा। राजू दहल गए । वह नहीं चाहते थे कि आदिवासी उसकी खातिर पीड़ित हों और उन्होंने सरकार के सामने आत्मसमर्पण करने का फैसला किया। और 7 मई 1924 को उन्होंने सरकार को स्वयं सूचना भेज दी कि वह कोइयूर में हैं । उसी दिन उन्हें पकड़ कर एक वरिष्ठ ब्रिटिश अधिकारी गुडाल ने गोली मारकर उनकी हत्या कर दी। उनको कोयुरी गाँव में पहले एक पेड़ से बाँध दिया गया और उनपर गोलियाँ चलाकर मौत के घाट उतार दिया । 

वर्तमान में विशाखापत्तनम जिले के कृष्णा देवी पेटा गाँव में आज भी उनकी समाधि स्थित है। पूर्वांचल में स्वतंत्रता संग्राम के इस प्रसिद्ध नायक के जन्मदिन को वार्षिक राज्योत्सव के रूप में मनाया जाता है, और उनके जीवन पर एक लोकप्रिय तेलुगु फिल्म भी बनाई गई है । 

स्वातंत्र्य साप्ताहिक पत्रिका, कृष्ण पत्रिका व सत्याग्रही ने अल्लूरी सीताराम राजू को ‘एक और शिवाजी’, राणा प्रताप, ‘एक और जॉर्ज वाशिंगटन’ कहा । यहाँ तक कि नेता जी सुभाष चन्द्र बोस ने राजू को श्रद्धांजलि देते हुए कहा था – “मैं राष्ट्रीय आंदोलन के लिए अल्लूरी सीताराम राजू की सेवाओं की प्रशंसा करना अपना सौभाग्य मानता हूँ। भारत के युवाओं को उन्हें एक प्रेरणा के रूप में देखना चाहिए।” 

अंग्रेज लेखकों ने भी राजू को एक दुर्जेय गुरिल्ला रणनीतिकार बताते हुए, उनकी प्रशंसा की। रामपा विद्रोह को दबाने के लिए उस जमाने में भी सरकार को 40 लाख रुपये से अधिक खर्च करने पड़े थे, जो अपने आप में रामपा विद्रोह की सफलता की निशानी है । 

लेकिन दुर्भाग्य तो देखिये कि आजाद भारत में आंध्र से बाहर के कितने लोग उनके बारे में जानते हैं ? क्या हम हिंदीभाषियों को इन जैसे महानायकों के बारे में नहीं जानना चाहिए ? 

गोंड नायक कोमाराम भीम 

हमारे जिन कई नायकों को इतिहासकारों ने गुमनामी के अंधेरों में ढकेल दिया, उनमें से ही एक हैं, देश के महान आदिवासी नायक कोमाराम भीम, जिन्होंने न केवल हैदरावाद के निजाम के खिलाफ वनों पर वनवासी अधिकारों के लिए संघर्ष किया, बल्कि आज जिस “जल जंगल ज़मीन” का उल्लेख बहुतायत से नेतागण अपने भाषणों में करते हैं, उस शब्द का पहली बार उपयोग भी कोमाराम भीम द्वारा ही किया गया था। उनकी मांग थी कि वनवासियों को जंगल के सभी संसाधनों पर पूरा अधिकार दिया जाना चाहिए। 

गोंडों के कोइतुर समुदाय के कोमाराम भीम का जन्म सन १९०० में महाराष्ट्र के सीमावर्ती आज के तेलंगाना में आदिलाबाद जिले के संकपल्ली में हुआ था। पूर्वकाल में यह क्षेत्र चंदा (चंद्रपुर) और बल्लपुर के गोंड साम्राज्य की संप्रभुता के अधीन था। भीम ने बचपन में न तो बाहरी दुनिया देखी और ना ही कोई औपचारिक शिक्षा प्राप्त की, देखी तो अपने लोगों की दुर्दशा, सुनीं तो जंगलात पुलिस, व्यापारी और ज़मींदारों द्वारा किये जाने वाले शोषण की कहानियाँ और उसके खुद के माता पिता भी जीवित रहने के लिए इधर से उधर भागते रहे । पोडू खेती के बाद पैदा होने वाली फसलें निजाम के जंगलात अधिकारियों द्वारा यह कहकर छीन ली जाती कि यह जमीन उनकी नहीं है। वे अवैध रूप से पेड़ों को काटने के आरोप में आदिवासी बच्चों की उंगलियों को काट देते । बलपूर्वक मनामने कर बसूले जाते, झूठे मुकदमे लादे जाते । सब कुछ गंवाकर खेती से महरूम लोग अपने गाँवों को छोड़कर पलायन करने को विवश होते । इन शोषित पीड़ित आदिवासियों के अधिकारों के लिए आवाज उठाने के कारण उनके पिता को वन अधिकारियों द्वारा मार दिया गया । व्यथित भीम और उसका परिवार पिता की मृत्यु के बाद संकपल्ली से सरदापुर चला गया। ” 

फसल कटाई के समय एक दिन 10 लोगों के साथ पटवारी लक्ष्मण राव और निजाम का पट्टेदार सिद्दीकी आए और करों का भुगतान करने के लिए गोंडों को गाली देना और परेशान करना शुरू कर दिया। गोंडों ने विरोध किया और इस झगड़े में कोमाराम भीम के हाथों सिद्दीकी मारा गया । इस घटना के बाद कोमाराम अपने दोस्त कोंडल के साथ सरतापुर से चंदा वर्तमान चंद्रपुर पैदल चलकर पहुँच गए । विटोबा नाम के एक सज्जन उन दिनों एक प्रिंटिंग प्रेस चलाते थे, जहाँ से प्रकाशित होने वाली पत्रिका में अंग्रजों और निजाम की खिलाफत होती थी | बिटोबा ने कोमाराम की मदद की और भीम ने उस दौरान अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू सीखी। लेकिन कुछ दिन बाद ही विटोबा को पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया और प्रेस को बंद कर दिया गया। भीम को वहां से भी भागना पड़ा और उसके बाद उन्होंने साढ़े चार साल तक आसाम के चाय बागानों में काम किया | लेकिन स्वभाव वहां भी नहीं बदला और उन्होंने चाय बागान में श्रमिकों के अधिकारों की आवाज उठाई | आन्दोलन के दौरान चार दिन जेल में बंद रहने के बाद जब छूटे तो एक मालगाड़ी में सवार होकर बल्लारशाह पहुंच गए । लौटने के बाद उन्होंने आदिवासियों को संगठित कर शोषण और अत्याचारों के खिलाफ संघर्ष की योजना बनाना शुरू किया। और फिर शुरू हुआ निज़ाम शाही के खिलाफ व्यापक आंदोलन | जोड़े घाट को अपनी गतिविधियों का केंद्र बनाकर भीम के नेतृत्व में 1928 से 1940 तक गुरिल्ला युद्ध चला । 

वापसी के बाद, वह अपनी माँ और भाई सोमू के साथ काकनघाट पहुंचे, जहाँ देवदम गाँव के प्रमुख लच्छू पटेल ने न केवल इन्हें काम दिया, बल्कि सोम बाई के साथ भीम की शादी भी करवाई। भीम ने भी आसिफ़ाबाद अमीनसाब के साथ चल रहे भूमि विवाद को निपटाने में लच्छू की मदद की। कुछ समय बाद भीम अपने परिवार के सदस्यों के साथ भाबेझरी चले गए और खेती के लिए जमीन साफ़ की। लेकिन कटाई के समय एक बार फिर पटवारी और जंगलात के चौकीदार आ धमके और जगह छोड़ने के लिए धमकी दी। भीम ने समझ लिया कि शासन के खिलाफ क्रांति ही उनकी समस्याओं का समाधान है। उन्होंने बारह गोंड कोलम गुड़ेम्स - जोदेघाट, पाटनपुर, भभेझरी, तोकेनवाडा, छलबेड़ी, शिवगुडा, भीमगुंडी, कलमुगाँव, अंकुसापुर, नरसापुर, कोषागुडा, लिनेपेटर के आदिवासी युवाओं और आम लोगों को संगठित किया और भूमि अधिकारों के लिए संघर्ष करने हेतु एक छापामार सेना का गठन किया। उन्होंने ही नए दौर में पहली बार एक स्वतंत्र गोंड साम्राज्य की आवाज बुलंद की । 

भीम के भाषणों ने वनवासियों को भूमि, भोजन और स्वतंत्रता के संघर्ष में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित किया और लोगों ने अपने भविष्य की रक्षा के लिए अपनी आखिरी सांस तक लड़ने का फैसला किया । उस दौरान ही भीम ने नारा दिया था - "जल जंगल ज़मीन"। 

इस गोंड विद्रोह की शुरूआत हुई बबेझरी और जोदेघाट के जमींदारों पर हमले से। जैसे ही विद्रोह की जानकारी मिली, भयभीत निज़ाम ने कोमाराम भीम के साथ बातचीत करने के लिए आसिफ़ाबाद कलेक्टर को भेजा और आश्वासन दिया कि उन्हें भूमि के पट्टे दिए जायेंगे और कोमाराम भीम को अतिरिक्त जमीन भी शासन मुहैया कराएगा । लेकिन भीम ने उनके प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया और कहा कि उनका संघर्ष न्याय के लिए है | पहले निज़ाम उन लोगों को रिहा करें, जिन्हें झूठे आरोपों में गिरफ्तार किया गया है, और साथ ही उनके गोंड क्षेत्रों को खाली करें, वहां अब गोंडों का अपना शासन रहेगा । 

निज़ाम सरकार ने भीम की यह मांगें स्वीकार नहीं की और भीम को मारने के प्रयत्न शुरू कर दिए | कैप्टन अलीराज ब्रांड्स को 300 , सेना के जवानों के साथ बाबेजहेड़ी और जोदेघाट पहाड़ियों पर भेजा। निज़ाम सरकार और उसकी सेना तो इन क्रांतिवीरों का कुछ बिगाड़ नहीं पाई, किन्तु गोंड समुदाय का ही कुर्दू पटेल लालच में आ गया और निज़ामशाही का मुखबिर बन गया । 

नतीजा यह हुआ कि 1 सितंबर, 1940 को जोदेघाट पर मुट्ठी भर योद्धाओं के साथ डेरा डाले हुए भीम को सशस्त्र पुलिस बल ने घेर लिया | अधिकांश विद्रोहियों के पास केवल कुल्हाडी, दरांती और लाठियां भर थीं । लेकिन उसके बाद भी भीम ने आत्मसमर्पण करने से इनकार कर दिया और सिपाहियों की बंदूकें आग बरसाने लगीं । भीम और उनके अनुयायियों ने धनुष, तीर और भाले से बंदूकों का सामना किया और बहादुरी से लड़ते लड़ते युद्ध के मैदान में वीरगति पाई। 

भीम से निजाम के सिपाही अत्यंत भयभीत थे, उनका मानना था कि वह परम्परागत मंत्र जानता है, और दुबारा जीवित हो सकता है। इसलिए वे उस पर तब तक गोली बरसाते रहे, जब तक कि उसका शरीर पूरी तरह क्षत विक्षत न हो गया । उसके बाद भी उन्होंने उसके शरीर को तत्काल जला भी दिया | तब कहीं जाकर उनको भरोसा हुआ कि अब भीम इस दुनिया में नहीं है । पूर्णिमा की उस रात यह गोंड सितारा अस्त हो गया। जोधेघाट की जिन पहाड़ियों में तुडुम की आवाजें गूंजती थीं, वहां दुखभरा सन्नाटा पसर गया । सभी गोंड ग्रामवासियों की आँखों में आंसू थे । पूरा जंगल मानो चीखचीखकर कह रहा था - कोमाराम भीम अमर रहे, भीम दादा अमर रहे । 

जब कभी आरआरआर रिलीज हो और आप उसे देखने जाएँ तो फिल्म और वास्तविकता के अंतर को आप समझ सकें यही इन दोनों कथानकों को आपके सामने वर्णित करने का उद्देश्य है |
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