मारवाड़ की कहानी भाग 2 - मोटे राजा उदय सिंह से लेकर अमर सिंह राठौड़ की मशहूर कटारी तक !

राठौड़ कीर्ति गाथा का खलनायक उदयसिंह 

जोधपुर के पराभव और मालदेव के स्वर्गवासी होने के बाद उनके छोटे बेटे चंद्रसेन जोधपुर के सिंहासन पर बैठे | मालदेव अपने जीवन काल में ही बड़े बेटे उदयसिंह के स्वार्थ पूर्ण स्वभाव से परिचित होने के कारण चंद्रसेन को ही अपना उत्तराधिकारी घोषित कर गए थे | उनका आंकलन तब सत्य सिद्ध हुआ, जब उदयसिंह ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली | इससे नाराज होकर तेजस्वी चंद्रसेन ने उन्हें अपना भाई मानना ही बंद कर दिया और सतत संघर्ष का मार्ग अपनाया और लगातार सत्रह वर्ष अकबर से संघर्ष करते हुए, मारवाड़ की स्वाधीनता की रक्षा की | अनेक पराक्रमी राठौड़ सरदारों ने उनका साथ दिया | किन्तु दो वर्ष ही वे जोधपुर रह पाए, उसके बाद पराजित होकर सिवाना जाकर अपना अभियान जारी रखने को विवश हुए | अंततः अकबर ने सिवाना पर भी आक्रमण किया और लगातार तीन वर्ष उससे जूझते हुए चंद्रसेन भी घर के भेदियों का शिकार हुए | उन्हें जहर देकर मार दिया गया | चन्द्रसेन को “मारवाड़ का प्रताप” और “इतिहास का भूला बिसरा राजा” कहा गया | 

कहने की आवश्यकता नहीं कि जोधपुर के पवित्र राजसिंहासन पर उदयसिंह आरूढ़ हुए और स्वाधीन राठौड़ कुल मुगलों का दास बना | मुगलों के प्रति भक्तिभाव दर्शाने में उन्होंने कोई कोर कसर नहीं छोडी | यहाँ तक कि अपनी बहिन जोधा का विवाह भी अकबर के साथ करा दिया | अकबर इसके बाद भी उसका कितना सम्मान करता था, यह उसके द्वारा उदयसिंह को दिए जाने वाले संबोधन से ही पता चलता है | अकबर हमेशा सरे आम भी उदयसिंह को “जंगली राजा” कहकर ही पुकारता था, जबकि आम लोग पीठ पीछे उसे “मोटा राजा” कहकर खिल्ली उड़ाते थे| उदय सिंह इतना मोटा था कि वह घोड़े पर भी नहीं बैठ पाता था, किसी तरह बैठ भी जाए तो उसका बजन झेलने की ताव घोड़े में नहीं होती थी | वीर सीहाजी के वंशधरों ने अमर कोट के अनंत रेतीले मैदान से लवण सरोवर सांभर तक, मरुस्थल से अरावली की उपत्यकाओं तक जो विजय पताका फहराई थी, उसके स्थान पर मुगलों की चाँद सितारे वाली बैजयंती गर्व से लहराने लगी | स्वाधीन राठौड़ मुसलमानों की आज्ञा से बंधे हुए दास हो गए | 

अगर उदय सिंह ने उस समय महाराणा प्रताप का साथ दिया होता, तो भारत का इतिहास कुछ और ही होता | किन्तु दुर्भाग्य कि ऐसा हुआ नहीं | अपने ही राठौड़ बांधवों से उनके अधिकार क्षेत्र के इलाके छीनकर उदयसिंह के चोंतीस बेटे मुगलों के नए जागीरदार बन गए | सचमुच राव सूजा राव चूंडा जैसे महान पराक्रमी पूर्वजों की आत्मा बहुत कलपी होगी | यह मोटा राजा उदयसिंह केवल कायर ही नहीं तो परम विलासी और दुश्चरित्र भी था | २७ रानियाँ होने के बाद भी उसकी हबस ख़त्म नहीं हुई | एक दिन जब वह बादशाह के दरबार से वापस अपने राज्य को लौट रहा था, उसने बीलाडा ग्राम के नजदीक एक परम सुन्दरी ब्राह्मण कन्या देखी, जिसके पिता काली पूजक तांत्रिक थे | राजा ने ब्राह्मण को बुलाकर उसकी बेटी से विवाह का दबाब बनाया | क्षुब्ध ब्राह्मण ने अपनी बेटी की मां काली की मूर्ती के सामने बलि दे दी और एक गड्ढा खोदकर उसमें ही बेटी की चिता बनाई और उस धधकते हुए अग्निकुंड में कूदकर स्वयं को भी भस्म कर लिया | 

उस दिन के बाद उदयसिंह जैसा पामर भी हिल गया, उसका दिन का चैन और रातों की नींद हराम हो गई और कुछ समय बाद वह यह दुनिया छोड़ गया | जिन ब्राह्मणों को उसके पुर्वज देवता के समान पूजते आये थे, उनके साथ उसका यह व्यवहार जानकर समाज ने भी मरने के पूर्व उदय सिंह को कितना धिक्कारा होगा, इसकी सहज कल्पना की जा सकती है | बीलाडा के उस आईपंथी ब्राह्मण के ब्रह्म राक्षस बन जाने की लोकोक्ति ने भय से ही सही, अनेक विलासी और इन्द्रिय लोलुप राजवंशियों को सदाचारी बने रहने को विवश किया | वहम से भी कई बार समाज का कुछ हित हो जाता है | 

उदयसिंह के मरने के बाद उसका बड़ा बेटा शूरसिंह सिंहासन पर बैठा | पिता की मौत के समय वह मुगलों की और से लाहौर के सीमावर्ती क्षेत्रों की पहरेदारी कर रहा था | आगे भी उसने मुगलों की चाकरी जारी रखी और अपनी शूर वीरता से उनके लिए न केवल सिरोही के स्वाभिमानी राजा राव सुरतान को पराजित कर अकबर का दरबारी बनने को विवश किया, वरन गुजरात के मुस्लिम शासक मुजफ्फर को भी हराकर यश पाया | उसकी वीरता से प्रसन्न होकर अकबर ने उसे सवाई का खिताब और अनेक पुरष्कार देकर सम्मानित किया | शूरसिंह का अधिकार क्षेत्र अब मालवा के धार तक पहुँच गया था | उसके कार्यकाल में जोधपुर की श्रीसम्पन्नता भी लगातार बढ़ती जा रही थी | जोधपुर में उनके नाम का बनवाया गया शूर सरोवर आज भी विद्यमान है | अकबर के बाद जहाँगीर के सत्तारूढ़ होने पर तो शूरसिंह और उसके बेटे गजसिंह का प्रभाव और अधिक बढ़ गया | सन १६२० में शूरसिंह ने जिस समय प्राण त्यागे, उसकी वीरता के चलते उदयसिंह के कलंक को काफी हद तक जन मानस भुला चुका था | शूरसिंह के बेटे गजसिंह पर तो बादशाह जहाँगीर इतना प्रसन्न था कि उसे दक्षिण का सूबेदार ही नियुक्त कर दिया | गोलकुंडा, परनाला कंचन गढ़, आसेर, सतारा आदि स्थान मराठों से छीनकर गज सिंह और उसके बेटे अमर सिंह ने मुग़ल राज्य में मिला दिए थे | 

कितने हैरत की बात है कि राजपूत एक ओर तो अपने पराक्रम से मुगलों का राज्य विस्तार कर रहे थे, दूसरी ओर अपनी बहिन बेटियों का विवाह मुगलों से करने में गौरव का अनुभव भी कर रहे थे | इन वैवाहिक संबंधों के क्या परिणाम हुए, वह जानकर तो शायद किसी का भी मन दुखेगा | आमेर के राजा मानसिंह की भुआ हीरा कुंवर को अकबर ने मरियन उज्मानी के नाम से अपने हरम में रखा, तो इन दोनों के बेटे सलीम का विवाह मानसिंह की बहिन मानबाई के साथ हुआ | जबकि हिन्दू पद्धति से विचार करें तो मानबाई और सलीम ममेरे फुफेरे भाई बहिन हुए | इतना ही नहीं तो एक दिन शराब के नशे में सलीम ने मानबाई को कोड़ों से इतना मारा कि उस बेचारी की जान ही निकल गई | अकबर ने इसके बदले बस इतना भर किया कि मानसिंह को पांच हजार की जगह सात हजारी मंसबदार बना दिया और मानबाई के बेटे खुसरो को उनके संरक्षण में दे दिया | बस मानसिंह खुश और बदले में उन्होंने एकदम निष्ठावान स्वामीभक्त सेवक की तरह ५ अक्टूबर १६०५ को अकबर के इंतकाल के बाद सलीम को राजगद्दी पर बैठाने में पूरी मदद की | आखिर भुआ का बेटा भाई और बहिन का पति बहनोई जो था, हत्यारा था तो क्या हुआ | और सलीम ने क्या किया, जहाँगीर के नाम से सिंहासन पर बैठते ही १० नवम्बर १६०५ को मानसिंह को बंगाल भेज दिया लड़ने और पीछे से अपने ही बेटे खुसरो की आँखें फोड़कर उसे ग्वालियर के किले में बंद करवा दिया | खुसरो को बाद में सौतेले भाई खुर्रम ने बेदर्दी से क़त्ल करवा दिया | और मजा देखिये कि हमारे इतिहासकारों ने जहाँगीर को महान न्यायी शासक बताकर उसकी शान में कसीदे पढ़े | इतने पर ही बस नहीं हुआ | जहाँगीर नाराज है यह अनुमान लगते ही मानसिंह ने अपनी पोती का विवाह भी उससे करवा दिया | एक रिश्ते से भाई, दूसरे रिश्ते से बहनोई और अब तीसरे रिश्ते से बेटे जगतसिंह का दामाद | सचमुच यह काल भारत के माथे पर कलंक का काल था | 

आईये अब मूल कहानी पर लौटते हैं | बाद में जब जहाँगीर के दो बेटों में सत्ता संघर्ष शुरू हुआ तो राठौड़ गजसिंह ने परवेज का पक्ष लिया | किन्तु खुर्रम की क्रोधाग्नि में परवेज मारा गया और इतना ही नहीं तो वह सेना लेकर अपने पिता बादशाह जहाँगीर पर भी चढ़ दौड़ा | जहाँगीर ने अपने सभी सरदारों को परवाने भेजे, सरदार लोग अपनी अपनी सेना लेकर पहुंचे भी | उस समय एक अद्भुत वाकया हुआ | जहाँगीर के सबसे विश्वस्त सरदार थे गजसिंह, किन्तु उन्होंने खुर्रम के खिलाफ युद्ध की कमान सोंपी तत्कालीन आमेर नरेश भीमसिंह को | गजसिंह को बुरा लगा और उन्होंने अपनी छावनी अलग लगा ली और तय किया कि युद्ध में भाग नहीं लेंगे | उस दौरान आमेर नरेश ने एक पत्र उन्हें भेजा, जो आज की परिस्थिति में भी समझने योग्य है, उन्होंने लिखा था – 

युद्धक्षेत्र में आकर आप संग्राम से दूर नहीं रह सकते | यदि किसी भी कारण से आप बादशाह की सहायता नहीं कर सकते, तो आपको खुलकर शहजादा खुर्रम के पक्ष में चले जाना चाहिए | आपको किसी एक का साथ तो देना ही पड़ेगा | जीवन के ऐसे कठिन समय में जो तटस्थ रहता है, वह कायर होता है | 

आज भी देश में यही तो हो रहा है, तटस्थ और सुशुप्त समाज जाने अनजाने राष्ट्र विघातक शक्तियों को सबल बना रहा है | खैर उस समय तो भीमसिंह ने गजसिंह राठौड़ की चेतना को झकझोर दिया और उन्होंने खुर्रम के खिलाफ सीधे मोर्चा संभाल लिया | खुर्रम पराजित होकर पलायन कर गया | लेकिन इस युद्ध में आमेर नरेश भीमसिंह भी मारे गए और फलस्वरूप गजसिंह के सर ही जीत का सेहरा बंधा | 

अमरसिंह की कटारी 

१६३८ में गजसिंह के देहावसान के बाद उनकी वसीयत के मुताबिक़ छोटे बेटे यशवंत सिंह को गद्दी मिली | गजसिंह जानते थे कि अमरसिंह वीर तो हैं, लेकिन नीतिज्ञ नहीं | जबकि राज्य चलाने के लिए अड़ियलपन से काम नहीं चलता, कूटनीति से भी काम लेना पड़ता है | आगे चलकर अमर सिंह और यशवंतसिंह दोनों ही अलग अलग कारणों से इतिहास में प्रसिद्ध हुए | उस समय तो बड़े बेटे अमर सिंह दुखी ह्रदय से विरोध स्वरुप काले कपडे पहिनकर और काले घोड़े पर सवार होकर मुग़ल दरबार की सेवा हेतु रवाना हो गए | लेकिन अमरसिंह को चाहने वाले भी कम न थे, उनके साथ अनेक सरदार भी गए | आहत और अपमानित अमर सिंह शाहजहाँ के दरबार में पहुँच तो गये, लेकिन उनका क्रोध शांत न हुआ | और उस क्रोध ने ही उन्हें इतिहास में अमर कर दिया | 

है प्रसिद्ध शिवराय की, घाटदार तलवार, 

भृगुपति कठिन कुठार से, परिचित सब संसार | 

पृथ्वीराज चौहान के, वे जहरीले बाण, 

अमर सिंह राठौड़ की, बांकी कठिन कृपाण | 

इस अमर कटारी का चर्चा, चहुँ दिश सुनने में आता है, 

आगरे किले का अमर द्वार, प्रत्यक्ष प्रमाण बताता है | 

कैसा था अमर कटारी में, बस जौहर यही बताना है, 

वीरों को आज वीर रस की, गंगा में स्नान कराना है | 

शहर आगरे में किला, है इक आलीशान, 

करता था शासन जहाँ, शाहजहाँ सुलतान | 

इक शख्श सलावत खां नामी, शाह का मुसाहिब आला था, 

रिश्ते में भाई बेगम का, और बादशाह का साला था | 

ये अमर सिंह से किसी सबब, रखता बेतरह अदावत था, 

इसलिए शाह से मनमानी, करता हर वख्त शिकायत था | 

इक दिन दरवार अमर आये, मूछों पर पेचो ताव दिए, 

बैठे संभाल जगह अपनी, सुलतां को बिन आदाब किये | 

देखा जिस वक्त अमर सिंह को, बेतरह सलावत झल्लाया, 

नीचा दिखलाऊंगा इसको, यह ठान शाह को भड़काया | 

सुलतान, आपका अमरसिंह, कुछ खौफ न दिल में खाता है, 

किस तरह आपके आगे यह, सीने को ताने आता है | 

बोला सुलतान सलामत से, फरमाना बजा तुम्हारा है, 

बाकई गुस्ताख अमर सिंह यह, करता ना अदब हमारा है | 

शाह को नाराज देख, बोला यूं सलावत खान, 

मगरूरी के नशे में हुआ तू चूर है, 

सीना तान तान क्या दिखलाता है झूठी शान, 

ऐसा क्या जहान में, निराला तू ही शूर है | 

बोले अमर सिंह, कर न बकबक, 

मैं भी जानता हूँ, दरवार में, रुतबा तेरा आला है, 

मुझे मालूम है मियाँ, भाई बेगम का ओ शहंशाह का तू साला है | 

पर कर ले याद सलावत खान, 

मैंने कई बार तेरा ऐंठपन निकाला है, 

चाहे अपनी खैर तो खामोश रह कहा मान, 

वरना इस कटारी का निबाला होने वाला है | 

सलावत बोला – 

जवां को ले थाम, वरना करूंगा तमाम काम, 

तेरे खून प्यासी मेरी तेग आबदार है, 

हुआ ऐसा मगरूर, मौत तेरे सर सवार, 

छोटी सी कटार पे गरूर बेशुमार है | 

मारेगा मुझे क्या, खैर खुद की मना महज, 

मुंह का लबार, नमकख्वार, निहायत ही गंवार है | 

सुन ऐसे कटु बैन, फिर कहाँ चित्त को चैन, 

हुए रक्त वर्ण नैन, मानो तीर मारा है, 

बढ़ते अंगार, क्रोध का न आरपार, 

डर से दरवार, थरथर काँप उठा सारा है | 

उत गग्गा मुख ते कही, इत कर लई कटार, 

वार कहन पायो नहीं, भई कटारी पार | 

बस जैसे मार शिकारी को, बेतरह बिगड़ता शेर बबर, 

कर क़त्ल सलाबत को ऐसे, आपे से बाहर हुए अमर | 

मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार, 

मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार, 

कूद पड़ा लेकर कटार, कस कमर अमर सरदार, 

मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार, 

जितने भी दरबार में थे, मुंशी मीर अहलकार, 

थानेदार, सूबेदार, फौजदार, चौबदार, 

एकला अमर सिंह, ये तादाद में थे बेशुमार, 

गिरने लगे एक एक बार ही में, चार चार | 

रुंड मुंड कटने लगे, बहने लगी रक्त धार, 

लाशों का अम्बार लगा, ऐसी चलाई कटार | 

कहने लगे कैसी बला आई, हे परवरदिगार, 

रोये जार बेजार, 

मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार, 

मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार, 

छिपते फिरते थे कौनों में, बड़े बड़े पहलवान, 

कितने लेटे लाशों में,दम खींच मुर्दों के समान, 

बैठे थे सीना फुलाए, दाढ़ी मूंछ तान, 

मियाँ मीर मुंशी उमराव खान पठान, 

छक्के छूट गए, भूल गए झूठी शेखी शान, 

भागे लेके जान, छोड़ तेग तीर कमान, 

ऐसा क्या खौफनाक नजारा था, कैसे करें बयान. 

तख़्त छोड़कर शाहजहाँ सुलतान, 

महलों हुए फरार, 

मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार, 

मचल गया जैसे शेर शिकारी को मार |
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें