महारानी पद्मिनी के जौहर उपरांत का राजपूत संघर्ष – छत्रपति शिवाजी और महाराणा प्रताप के पूर्वज एक



सन १३०३ ईस्वी में अलाउद्दीन ने चित्तौड़ पर अधिकार किया और उसके बाद वहां अपने प्रतिनिधि के रूप में जालौर के मालदेव सोनगरे को सामंत नियुक्त कर वापस दिल्ली चला गया | उसके आक्रमण के सैकड़ों नगर मिट्टी में मिल गए थे | अनहिलवाड, प्राचीन धार, अवन्ती और देवगढ़ राज्यों में भी उसने भीषण अत्याचार किये थे | जैसलमेर, गागरोन, तथा बूंदी राज्य तो पूरी तरह उजाड़ कर दिए गए थे | चित्तौड़ में तो रानी पद्मिनी के महल को छोड़कर सभी महल, शिवालय और मंदिरों का विध्वंश कर दिया गया था | राणा भीमसिंह का लड़का अजयसिंह मेवाड़ के पश्चिम में अरावली पर्वत के ऊपर बसे नगर केलवाड़ा जाकर रहने लगा था | राणा भीमसिंह की इच्छा थी कि उनके बाद बड़े बेटे अरिसिंह का बेटा हमीर चित्तौड़ का शासन संभाले | हमीर के जन्म की कहानी भी अनोखी है | 

एक बार युवराज अरिसिंह शिकार के लिए जंगलों में गए तथा जब एक सूअर का पीछा कर रहे थे, तब वह ज्वार के एक घने खेत में छुप गया | युवराज और उनके साथ आये लोगों को समझ नहीं आ रहा था कि खेत में से सूअर को कैसे निकालें | वे शोर मचाकर उसे निकालने की कोशिश कर रहे थे, लेकिन सूअर निकलने का नाम नहीं ले रहा था | मचान पर बैठी एक युवती यह नजारा देख रही थी | उसने दस फुट ऊंचा ज्वार का एक पौधा उखाड़ा और उसके अगले भाग को चाकू से नुकीला बनाकर अपने धनुष पर तीर की तरह चढ़ाया और सूअर पर मारा | सूअर एक ही वार में मर गया, जिसे घसीट कर उस युवते ने अरिसिंह के सामने लाकर पटक दिया | युवराज युवती की वीरता पर रीझ गए और बाद में उस राजपूत वाला से उनका विवाह हुआ | हमीर उन दोनों का ही पुत्र था | चित्तौड़ विध्वंश के समय यह बारह वर्षीय बालक अपने ननिहाल में था | 

अजय सिंह जब केलवाड़ा में थे तभी वहां उनका मुंजा वलेचा नामक पहाडी सरदार से विवाद हुआ | उनके दोनों बेटे सुजान सिंह और अजीम सिंह तो कुछ मदद नहीं कर पाए, किन्तु समाचार पाकर हमीर ने मुंजा को मारकर अजय सिंह का सरदर्द मिटाया | कुछ तो पिता की इच्छा का स्मरण और कुछ हमीर की वीरता, अजयसिंह ने हमीर का मुख चूमकर उसी समय उसके ललाट पर राजतिलक कर दिया | यह दृश्य देखकर उनके बेटे सुजान सिंह का मन दुखी हो गया और वह दक्षिण को चला गया | यही सुजान सिंह थे छत्रपति शिवाजी महाराज के आदि पूर्वज | 

सन १३०१ में हमीर को मेवाड़ का भार सोंपा गया, हाथ में कुछ नहीं, चारों तरफ शत्रुओं का साम्राज्य, लेकिन इस चुनौती का जिस तरह हमीर ने सामना किया, उसके लिए हर देशभक्त भारतवासी को उनका नाम सदा स्मरण रखना चाहिए | साहसी और शूरवीर हमीर जानते थे कि जिस मालदेव को अलाउद्दीन चित्तौड़ सोंपकर गया है, उसके पास दिल्ली की सेना भी है, अतः उन्होंने पहले शक्ति संचय करना तय किया और सबसे पहले मुंजा वलेचा के राज्य पर ही कब्ज़ा किया और उसके पहाडी किले सालिओ पर अधिकार जमाया | छोटे छोटे स्थानों पर हमले कर थोड़ी बहुत शक्ति पाने के बाद उस नौजवान ने एक ऐसा साहसिक और चतुराई भरा निर्णय लिया, जिसे जानकर कोई चतुर सेनापति भी दांतों तले उंगली दबा लेगा | हमीर ने घोषणा करवा दी कि जो लोग उन्हें अपना राणा मानते हैं, वे सभी अरावली पर्वत के पश्चिमी भाग में आ जाएँ | जो नहीं आयेंगे, उन्हें शत्रु ही मानकर उनके साथ बैसा ही व्यवहार किया जाएगा | और कमाल ही हो गया, राज्य भर के आबाल वृद्ध नर नारी अरावली पहाड़ों की कठिनाईयों को झेलने घर द्वार छोड़कर, अपने खेत खलिहान उजाड़ कर अरावली की पहाड़ियों पर जा पहुंचे | इससे जहाँ एक ओर हमीर के पास विशाल सैन्य बल इकठ्ठा हो गया, बहीं दूसरी ओर कब्ज़ा जमाये बैठे मुस्लिम आक्रान्ताओं को खाने पीने के भी लाले पड़ने लगे, क्योंकि मेवाड़ के नगर और ग्राम उजड़ चुके थे | अब जो भी उस इलाके में दिखता, वह हमीर की सेना का निशाना बनता | अरावली पर्वत के शिखर पर बसा केलवाड़ा हमीर की नई राजधानी थी | वहां स्थित हमीर का तालाब आज भी उस संघर्ष की याद दिलाता है | 

शत्रु संहार की इस अनोखी नीति ने मालदेव को भी झुकने को विवश कर दिया और उसने अपनी पुत्री के साथ हमीर के विवाह का प्रस्ताव भेजा | सरदारों के विरोध को नजर अंदाज कर हमीर ने इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया | उन्होंने सरदारों से कहा कि हो सकता है आप लोगों का अनुमान सत्य हो व इसमें मालदेव का कोई षडयंत्र हो, लेकिन अगर इसके विपरीत हो तो विचार करो कि मेवाड़ के कितने हित में होगा | मैं अकेला ही केवल कुछ अंगरक्षकों को साथ लेकर विवाह हेतु जाऊँगा | अगर मेरा कुछ अनिष्ट हो तो आप लोग संघर्ष जारी रखना, अन्यथा तो मैं आऊंगा ही | सरदारों के रुंधे कंठों और अश्रुपूरित नेत्रों को नजरंदाज कर हमीर चित्तौड़ की ओर रवाना हुए | होश संभालने के बाद पहली बार अपनी जन्मभूमि की रज को अपने शीश पर चढाने को आतुर हमीर की दशा ऐसी थी, मानो कोई बछिया अपनी मां गाय की तरफ दौड़ लगा रही हो | 

चित्तौड़ के द्वार पर पांच सरदारों ने उनका स्वागत किया, लेकिन हमीर ने ना तो उनके स्वागत की तरफ ध्यान दिया, और ना ही इसे अपना अपमान माना | उन्होंने तो बस चित्तौड़ की पावन माटी को चन्दन की तरह अपने मस्तक पर चढ़ा लिया और जैसे कोई शेर अपनी गुफा में प्रवेश करता है, अपने सैनिकों के साथ निर्भीक भाव से आगे बढे | राजमहल के प्रवेश द्वार पर राजा मालदेव ने अपने पुत्र वनवीर के साथ हमीर का तिलक कर सत्कार किया | ना तो बाहर कहीं कोई विवाह या उत्सव जैसा माहौल था और ना ही राजमहल के अन्दर | बस एक मंडप में मालदेव ने अपनी बेटी का हाथ हमीर के हाथ में दे दिया और दोनों के वस्त्रों का गठबंधन कर दिया | प्रथा के अनुसार दोनों वर वधु को एकांत कक्ष में पहुंचा दिया गया | मालदेव की लड़की ने अपना सर हमीर के पैरों में रख दिया और आंसू बहाते हुए कहा – 

मैं आपसे कोई बात छुपाना नहीं चाहती, वस्तुतः मैं वाल विधवा हूँ | मेरे होश संभालने के पूर्व ही मेरा कब विवाह हुआ और कब मैं विधवा हो गई, मैं नहीं जानती | मैंने अपने पति का कभी मुंह भी नहीं देखा | अब यह आप पर है कि मुझे अपने चरणों में स्थान दो या ठुकरा दो | 

हमीर को एक क्षण को तो अनुभव हुआ कि राजा मालदेव ने अपनी विधवा बेटी के साथ उनका विवाह करके उनका अपमान किया है, किन्तु जब उनका ध्यान नव परिणीता के आंसुओं की तरफ गया, तो उनका मन करुणा से भर गया | हमीर ने उससे कहा कि तुम अब मेरी पत्नी हो, किसी प्रकार की चिंता मत करो, मेरा लक्ष्य बस चित्तौड़ की स्वतंत्रता है | नव वधू का मुखमंडल प्रसन्नता से खिल उठा, उसने कहा – मैं प्राणपण से आपका साथ दूंगी, मेरा आग्रह है कि विदा के समय दहेज में आप मेरे पिता के जलधर नामक सरदार को मांग लें, वही उनकी वास्तविक शक्ति है | 

राणा हमीर ने ऐसा ही किया और अपनी पत्नी के साथ वापस केलवाड़ा लौटे | कुछ समय बाद रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, जिनका नाम रखा गया क्षेत्र सिंह | जब क्षेत्रसिंह एक वर्ष के हुए, तो नाना मालदेव ने अपनी बेटी और नाती को चित्तौड़ बुलाया | लेकिन तभी उन्हें मादेरिया के मीर लोगों से निबटने जाना पड़ा | पीछे से रानी ने चित्तौड़ में रुके मालदेव के सरदारों से चर्चा की और उन्हें मुस्लिम गुलामी से मुक्ति हेतु प्रेरित किया | और अनुकूल परिस्थिति जानकर अपने पति हमीर को सूचना भेज दी | हमीर अपने सैन्यबल के साथ चित्तौड़ आये तो उनका नाम मात्र को ही विरोध हुआ, चित्तौड़ पर एक बार फिर से राणा वंश की विजय पताका फहराने लगी | मालदेव ने लौटकर संघर्ष का प्रयास भी किया, किन्तु पराजित होकर दिल्ली की ओर रवाना हुआ | दिल्ली पर उस समय अलाउद्दीन के बाद मुहम्मद खिलजी सत्तारूढ़ था | मालदेव के साथ मुहम्मद खिलजी ने चित्तौड़ पर धावा बोला | भीषण संग्राम के बाद मालदेव का लड़का हरीसिंह मारा गया और मुहम्मद खिलजी को गिरफ्तार कर लिया गया | तीन महीने तक वह चित्तौड़ की कैद में रहा और अंत में अजमेर, रणथम्भोर, नागौर, शुआ और शिवपुर के इलाकों के साथ एक सौ हाथी और पचास लाख रुपये देकर उसने मुक्ति पाई | मालदेव के बड़े बेटे वनवीर ने राणा हमीर की अधीनता को स्वीकार कर लिया | हमीर ने भी उदारता के साथ उन्हें नीमच, जीरण, रतनपुर और केवारा के इलाके देकर अपना सामंत बना लिया | वनवीर ने भी मेवाड़ के प्रति अपनी भक्ति दर्शाते हुए, भिनसौर जीतकर मेवाड़ राज्य में मिला दिया | समूचे राजपूताने में राणा हमीर की जयजयकार गूंजने लगी | चितौड़ को उसका खोया गौरव पुनः प्राप्त हो चुका था | यवनों द्वारा नष्ट किये गए समूचे राजपूताने का पुनर्निर्माण उन्होंने करवाया | सन १३६५ में उनके स्वर्गवास के बाद क्षेत्रसिंह ने राणा पद का गौरव अक्षुण रखा | दिल्ली के तुगलक बादशाह ने एक बार फिर चित्तौड़ कब्जाने का प्रयास किया, किन्तु क्षेत्रसिंह ने बकरौल नामक स्थान पर उस विशाल यवन सेना को परास्त किया | क्षेत्रसिंह के बाद सन १३८३ में राणा लाखा ने गद्दी संभाली, उनके बाद के इतिहास पर तो विडियो श्रंखला हम पूर्व में ही बना चुके हैं |
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