कलियुग के भीष्म - मेवाड़ के युवराज चूंडा




प्रतिज्ञा

भगवती चरण वर्मा जी द्वारा लिखित "युवराज चूंडा" पर आधारित इस कथानक को कहानी के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है, अतः सन सम्बत का उल्लेख न करते हुए केवल घटनाओं पर ध्यान केन्द्रित किया गया है | यह उस दौर की कहानी है, जब मेवाड़ पर सिसोदिया कुल भूषण साठ वर्षीय राणा लाखा का शासन था | वीर प्रसवनी राजस्थानी धरा ने खनिज सम्पदा को भी जन्म दे दिया था, ताम्बे और चांदी की खदाने मिल गई थीं, फलस्वरूप प्रजा भी सुखी और समृद्ध हो रही थी | तभी वह घटना घटी, जिसने राणा लाखा के बड़े पुत्र युवराज चूंडा को सदा सर्वदा के लिए अमर कर दिया | हुआ कुछ यूं कि राणा लाखा का दरबारे ख़ास लगा हुआ था, दरबारे खास अर्थात जिसमें केवल चुनिन्दा सरदार ही उपस्थित रहते थे, आम व्यक्तियों को उसमें प्रवेश नहीं होता था | हास परिहास विनोद का दौर चल रहा था, भंग और कुसुमा का दौर चल रहा था, राणा पर भी थोडा सा विजया का प्रभाव था | उसी दौरान मारवाड़ के राठौड़ राव रणमल के भाई रतन देव दरबार में उपस्थित हुए | 

मुस्लिम आक्रमणकारियों के द्वारा कन्नौज में जयचंद के पराभव के बाद उनके वंशज आकर मार्बाड में बस गए थे और अपना साम्राज्य स्थापित कर मन्दौर या मंडावर को अपनी राजधानी बना लिया था | उन्हीं के वंशज राव रणमल ने अपनी पुत्री गुणवती का सम्बन्ध युवराज चूंडा के साथ करने का प्रस्ताव भेजा था और नारियल लेकर उनके भाई रतन देव चित्तौड़ पधारे थे | इन्हीं राव रणमल के बेटे जोधा ने बाद में जोधपुर शहर बसाया था | मेवाड़ और मार्बाड का सम्बन्ध होना, राजनैतिक रूप से भी बहुत महत्वपूर्ण था, तो स्वाभाविक ही दरबार में उपस्थित सभी सरदारों को इस समाचार से बहुत प्रसन्नता हुई | 

रतन देव ने राणा को प्रणाम करते हुए कहा कि मार्बाड ने अपनी राजकुमारी के विवाह हेतु चित्तौड़ नारियल भेजा है | कुछ तो हार्दिक प्रसन्नता और कुछ भंग की तरंग, अपनी सफ़ेद दाढी पर हाथ फेरते हुए राणा लाखा के मुंह से निकल गया – अब हम तो वान्यप्रस्थ की सोच रहे हैं, सो इस साठ वर्षीय वृद्ध विधुर के लिए तो यह नारियल आया नहीं होगा ? और अपने इस मजाक पर वह स्वयं ही ठठाकर हंस दिए | 

सब दरबारी और स्वयं रतन देव ने भी इसे मजाक के रूप में ही लिया और दरबार में हंसी ठहाके गूंजने लगे| लेकिन उसी समय दरबार में आते युवराज चूंडा ने इस वाक्य को गंभीरता से ले लिया और जब उनसे कहा गया कि मार्बाड की राजकुमारी के साथ आपके विवाह हेतु नारियल आया है, तो उन्होंने शांत स्वर में कहा – पिताजी अब तो आपके कथनानुसार ही यह नारियल तो आपके लिए हो चुका, राठौड़ राजकुमारी तो अब मेरी माँ समान हो गईं | 

सारे दरबार में सनाका छा गया | राणा लाखा का भी सारा नशा हिरन हो गया | चूंडा को समझाते हुए बोले – युवराज मैंने तो यह मजाक में कहा था | लेकिन युवराज ने जबाब दिया – महाराज सिसोदिया प्रमुख का वचन तो बज्र की तरह अकाट्य होता है | 

राणा क्रुद्ध हो गए और बोले युवराज नारियल तो मैं अपने लिए स्वीकार कर लूँगा, किन्तु इतना ध्यान रखना, कि अगर मार्बाड की राजकुमारी से कोई संतान उत्पन्न हुई, तो वही राज्य की उत्तराधिकारी होगी | आकाश की और हाथ उठाकर युवराज बोले – भगवान एकलिंग और अपने पूर्वजों को साक्षी करके कह रहा हूँ कि मार्बाड की राजकुमारी का पुत्र ही मेवाड़ का राणा होगा, मैं नहीं | 

सारे दरबारी एक स्वर में बोले नहीं नहीं, यह नहीं हो सकता, बड़ा पुत्र ही राज्य का उत्तराधिकारी होता आया है, लेकिन चूंडा का संकल्प अडिग था | अंततः राजकुमारी गुणवती का विवाह वृद्ध राजा कुम्भा के साथ ही हुआ | कुछ इतिहासकारों ने राजकुमारी का नाम हंसा माना है, जो भी हो, विचारणीय तो घटनाएँ है | विवाह के बाद राणा कुम्भा का ध्यान राजकाज से कम होता गया और एक प्रकार से युवराज चूंडा ही सब काम देखने लगे | अपने व्यवहार से वे सबका दिल जीतते जा रहे थे | इस बीच नई रानी ने एक पुत्र को जन्म दिया, उनका नामकरण हुआ मुकुल, कुछ इतिहासकारों ने उन्हें मोकल कहकर पुकारा | राजा का मोह अब रानी के प्रति और बढ़ गया, अब या तो वे दरबार में आते ही नहीं थे और आते भी थे तो महज आमोद प्रमोद की खातिर | ऐसे ही एक दिन जब दरबार होली की रंगीनियों में खोया हुआ, तभी प्रतिहारी ने आकर सूचना दी कि गया तीर्थ से कुछ पण्डे भेंट की खातिर आये हैं | राणा को उनका आगमन अपने आमोद प्रमोद में व्यवधान प्रतीत हुआ और उन्होंने पंडों को अतिथिशाला में ठहराने को कहा | 

किन्तु युवराज चूंडा ने पिता को प्रणाम कर निवेदन किया – महाराज ये लोग तीन सौ, साढ़े तीन सौ मील दूर से आये हैं, इनकी पीड़ा तो तत्काल सुनी जाने योग्य है | हो सकता है धर्मक्षेत्र पर कोई विपत्ति आई हो, आप अनुमति दें तो मैं जाकर सुन लूं | 

अब राणा को भी अपने कर्तव्य का बोध हुआ और उन्होंने कहा, नहीं नहीं युवराज, तुमने समय पर मुझे आगाह कर दिया, मैं ही सुनूंगा उनकी बात, उन लोगों को तत्काल दरबार में बुलाया जाए | 

सच में ही तीर्थराज गया के वे पण्डे यवनों के हाथों हुए गया के विध्वंस का ही समाचार लाये थे | जिस गया को पितरों की भूमि मानकर पूरे भारत के लोग अपने पूर्वजों के तर्पण हेतु पहुंचते हैं, वह भगवान विष्णु के चरण कमलों के चिन्ह से युक्त धर्म भूमि यवनों के अधिकार में पहुँच चुकी है, यह जानकर युवराज चूंडा का मुख मंडल सात्विक क्रोध से लाल हो गया और उन्होंने तुरंत गया के लिए प्रस्थान की अनुमति राणा जी से मांगी | 

लेकिन अब तो वृद्ध राणा का क्षत्रियत्व भी जाग चूका था | राणा कुम्भा ने अपनी नजर चारों और घुमाई, नर्तकियों का समूह, मदिरा के पात्र, विलासिता का वातावरण और उस सभा में खड़े गया के पण्डे | राणा का मन ग्लानी से भर गया | वे सभासदों से बोले – सुन रहे हो आप लोग युवराज चूंडा की बात | इस विशाल हिन्दुभूमि पर कुछ मुट्ठीभर मुसलमान अधिपत्य जमाये बैठे हैं, तो उसके मूल में हम क्षत्रियों की विलासिता से उत्पन्न कायरता और फूट ही है | अब मुझे ही लो, इस परिपक्व अवस्था में, जब मुझे पूरी तरह धर्म के लिए समर्पित हो जाना चाहिए, मैं भी राग रंग में डूबा हुआ हूँ | युवराज चूंडा अब तुम नहीं, स्वयं मैं, राणा लाखा ही अपनी सेना के साथ पितरों की भूमि गया को मुक्त कराने जाऊँगा | तुम मेवाड़ को सुदृढ़ बनाओ, समूचे राजस्थान को एकता के सूत्र में बांधों और प्रयत्न करो कि कोई विधर्मी इस भूमि की तरफ टेढ़ी आँख से देखने का साहस न कर सके | 

चूंडा ने हाथ जोड़कर कहा, महाराज धर्म की रक्षा करने का दायित्व प्रथमतः हम युवाओं का है | राणा बात काटकर गरजे – क्षत्रिय मृत्यु पर्यंत बूढा नहीं होता चूंडा जू | मेरी मोहनिद्रा टूट चुकी है, जीवन की अंतिम बेला में धर्म रक्षा का पुण्य मुझे अर्जित करने दो | जाओ सैनिकों को युद्ध के लिए तैयार होने का आदेश दो | एकलिंग भगवान की जय | और इसके साथ ही राणा लाखा दरबार से उठकर चले गए | 

चार दिन में लगभग पांच हजार सैनिक चित्तौड़ में एकत्रित हो गए | प्रस्थान के पूर्व आयोजित दरबार में राणा लाखा बोले – मैं सिसौदिया कुल में उत्पन्न मेवाड़ का अधिपति, पितरों की भूमि गया को यवनों के अत्याचार से मुक्त कराने हेतु युद्ध अभियान पर जा रहा हूँ, अतः मुझे अंतिम विदाई दें | यदि गया धाम में मुझे वीरगति प्राप्त हुई तो मेरा परम सौभाग्य होगा, और अगर विधर्मियों से तीर्थ स्थल को मुक्त करा सका और मेरी विजय हुई, तो भी मैं अब चित्तौड़ वापस नहीं आऊंगा | वहां से ही तीर्थयात्रा पर निकल जाऊँगा और शेष जीवन सन्यासी के रूप में बिताऊंगा | इसलिए जाने के पूर्व मैं आज से ही युवराज चूंडा को मेवाड़ नरेश नियुक्त करता हूँ | 

चूंडा यह सुनते ही उनके चरणों में झुक गए और रुंधे कंठ से बोले – राणा जी की जय हो, लेकिन मेवाड़ की राजगद्दी तो आपके बाद मुकुल जी की है | इस विषय का निर्णय सात वर्ष पूर्व ही इसी दरबार में हो चुका है | मैंने भगवान एकलिंग और पितरों की साक्षी देकर वचन दिया था, कि भावी शासक मैं नहीं, मार्बाड की राजकुमारी से उत्पन्न पुत्र ही होंगे | 

यह कहने के साथ ही चूंडा आगे बढे और रानी गुणवती की गोद में बैठे पांच वर्षीय कुंवर मुकुल जी को उठाकर राणा के सामने खड़ा कर दिया और कहा – महाराज अपने उत्तराधिकारी का राजतिलक स्वयं करें | 

डबडबाई आँखों और करुण स्वर में राणा ने कहा – यह अभी अबोध बालक है, मेवाड़ के शासन का भार कैसे उठाएगा ? चूंडा का गंभीर स्वर गूंजा – राणा मुकुल जी की सेवा में यह चूंडा जो है | आप निश्चिन्त रहें | जब तक ये शासन संभालने योग्य नहीं होते, इनकी पूरी जिम्मेदारी मेरी है, उसके बाद सबकुछ इन्हें सोंपकर मैं अलग हो जाऊँगा | 

राणा बोले - फिर भी चूंडा तुम मेवाड़ के सामंत तो रहोगे ही, यह तो तुम्हें बताना ही पड़ेगा कि कौन सा इलाका तुम्हारे लिए और कौन सा तुम्हारे छोटे भाई रघुदेव के लिए निर्धारित किया जाए | 

चूंडा बोले – इलाका रघुदेव के लिए निर्धारित कर दें, मैं अपने लिए मेवाड़ से दूर का कोई इलाका अपने भुजबल से स्वयं प्राप्त कर लूंगा | सारी सभा इस धर्मनिष्ठ वीर, धीर और गंभीर युवराज की जयजयकार कर उठी | राणा ने रघुदेव को कैलबाड़ा का इलाका दिया 

और उसके बाद अपने पांच हजार सैनिकों के साथ राणा लाखा गया अभियान पर निकले | जहाँ से भी वे निकले, धर्म प्राण युवा उनकी सेना में सम्मिलित होते गए | और स्थिति यह बनी कि जब राणा गया पहुंचे तो उनके साथ पचास हजार का सैन्य दल था | इसके आगे की कहानी अगले अंक में | 

चित्तौड़ से निष्कासन 

यह वह दौर था जब तैमूरलंग के कत्लेआम से पूरा भारत थर्रा गया था | तैमूर, मोहम्मद साहब के वंशज सैयद खिज्र खां को भारत में अपना प्रतिनिधि नियुक्त कर के गया था | इसी खिज्र खां और उसके वंशजों ने सैयद वंश के नाम पर दिल्ली का शासन सम्भाला और तैमूर के काम को आगे बढाया अर्थात हिन्दू तीर्थों को लूटना और मूर्तियों व मूर्ति पूजकों का विनाश करना, जो उनकी नजर में काफिर थे | यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि मुग़ल आक्रान्ता बाबर भी इसी क्रूर तैमूर का पडपोता था | तो इसी स्थिति का मुकाबला करने की जिम्मेदारी उठाई थी तत्कालीन हिन्दू समाज ने | मेवाड़ के नेतृत्व में अभूतपूर्व सामाजिक चेतना जागृत हुई, क्या नगरवासी, क्या वनवासी, जो शस्त्र अस्त्र मिला, उसे लेकर निकल पड़े थे प्रतिकार करने | गया में भीषण युद्ध हुआ और महत्वपूर्ण बात यह कि इस युद्ध में हिन्दू विजई हुए | आक्रमणकारियों से गया को मुक्त करा लिया गया | किन्तु भीड़ और प्रशिक्षित सेना में अंतर होता है | एक वनवासी द्वारा शत्रुओं पर चलाया गया तीर ही हाथी पर सवार राणा लाखा को जा लगा और उस पवित्र तीर्थ स्थली गया में ही उनका प्राणांत हुआ | इस युद्ध में विजय भले मिल गई हो, किन्तु मेवाड़ के जो पांच हजार धर्म रक्षक सेनानी आये थे, उनमें से भी चार हजार युद्ध भूमि में वीरगति को प्राप्त हुए | राणा लाखा व अपने अन्य साथियों का अंतिम संस्कार कर, बचे हुए एक हजार सैनिक ही वापस मेवाड़ पहुंचे | 

राणा की मृत्यु का समाचार पाकर रानी गुणवती ने सती होने की इच्छा व्यक्त की, कुछ पंडितों और सामंतों ने भी इससे सहमति दर्शाई, किन्तु चूंडा जी ने उनके पैर छूकर आग्रह किया कि मुकुल अभी छोटे हैं, अतः राजमाता के रूप में कर्तव्य पालन ही अब आपका धर्म है, और बैसे भी पिताश्री जाते समय सन्यासी बनकर गए थे, अतः उनके सारे सांसारिक सम्बन्ध तो उसी समय समाप्त हो गए थे | उनके मत का सबने समर्थन किया और तेरह दिन के राजकीय शोक के बाद हुए दरबार में रानी के पिता राव रणमल भी मार्बाड से मेवाड़ आकर शामिल हुए | मार्बाड के मरुप्रदेश की असुविधाओं को जन्म से झेलते आ रहे रणमल की निगाहें संपन्न मेवाड़ पर जम चुकी थीं | किन्तु उनके रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा थे चूंडा | अतः जैसे ही उस प्रथम सभा में युवराज चूंडा ने घोषणा की कि मैं तबतक ही मेवाड़ की व्यवस्था संभालूँगा, जब तक राजमाता चाहेंगी, रणमल ने अपनी भावी कार्य योजना बना ली | उन्होंने सबसे पहले तो अपनी पुत्री को अपने पक्ष में करने का प्रयास किया, किन्तु यह इतना आसान नहीं था | राजमाता चूंडा के त्याग और समर्पण से अत्याधिक प्रभावित थी | अतः वे मौके का इंतजार करते हुए, अपने पुत्र जोधा के हाथों में मारवाड़ की व्यवस्था सोंपकर मेवाड़ में ही टिक गए | 

उन्हें मौक़ा भी जल्द ही मिल गया | गया के संग्राम में चित्तौड़ के अनेक सेनानी वीरगति को प्राप्त हुए थे, अतः सेना का पुनर्गठन आवश्यक था, साथ ही आर्थिक व्यवस्था के लिए अरावली पर्वत माला से नए खनिज खोजना भी जरूरी था | इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए चूंडा का अधिकाँश समय चित्तौड़ से बाहर बीतने लगा | मौके का लाभ उठाकर रणमल ने अपने कुछ विश्वस्त सामंतों को सपरिवार चित्तौड़ बुलाकर बसा दिया | सिसौदियाओं के हाथों से चित्तौड़ छीनकर, राठौड़ों का कब्ज़ा कैसे हो, वे रातदिन इसी उधेड़बुन में लगे हुए थे | उधर चूंडा को अपने अभियान में सफलता मिली और उन्होंने अरावली के भीलों को संगठित कर, पश्चिम में एक नया राज्य स्थापित कर एक भील सरदार को वहां का सामंत नियुक्त कर दिया | उनका उद्देश्य भील योद्धाओं के माध्यम से मेवाड़ की सैन्य शक्ति बढ़ाना था और यह भला रणमल कैसे सहन करता ? 

रणमल ने मुकुल के समवयस्क अपने पौत्र सिंहा को भी चित्तौड़ बुला लिया, गुणवती को यह कहकर संतुष्ट कर दिया कि उसके बिना उनका मन नहीं लग रहा था, और इस बहाने राणा मुकुल को भी खेलने के लिए एक साथी मिल जाएगा | लेकिन विलासी रणमल का असली उद्देश्य था उसकी देखभाल के बहाने अपनी रखैल दासी अमिया को भी बुलाना, जो उनकी सेवा के साथ, महल में रहकर गुणवती के मन में चूंडा जी के प्रति जहर घोलने का काम भी करती रहे | अब तक यह काम वह अकेले कर रहा था, अब उसे अमिया के रूप में एक अच्छा सहयोगी भी मिल गया | दोनों ने नादान राजमाता को समझाया कि चूंडा अपनी शक्ति बढाते जा रहे हैं और अपने आप को राज्य का स्वामी ही समझने लगे हैं | अब तुम ही बताओ कोई नया सामंत नियुक्त करने का अधिकार राणा मुकुल का है, अथवा उनका | उन्होंने किस अधिकार से उस भील को सामंत नियुक्त किया ? अपने पुत्र के भविष्य की चिंता में राजमाता गुणवती इस बार रणमल के बहकावे में आ गईं और उनके मन में शंका का बीज पैदा हो गया | 

चूंडा अपने अभियान में सफल होकर आये थे, चांदी की नई खदान भी मिल गई थी, अतः उनका भव्य स्वागत हुआ, उसके बाद आयोजित दरबार में उन्होंने घोषणा कर दी कि जितने भी सैनिकों ने गया युद्ध में जान गंवाई है, उनके परिवारों को एक एक सहस्त्र चांदी के सिक्के प्रदान किये जायेंगे | सारे मेवाड़ में युवराज चूंडा की जयजयकार गूंजने लगी | इस बीच एक घटना और घटी | रणमल ने अपनी शक्ति और बढाने के लिए कुछ राठौड़ सामंतो को सौ सैनिकों के साथ चित्तौड़ बुलाया, किन्तु जैसे ही सजग चूंडा को मालूम पड़ा, उन्होंने उन लोगों को चित्तौड़ में प्रवेश ही नहीं करने दिया और दरबाजे से ही वापस कर दिया | रणमल की हालत उस सांप जैसी हो गई, जिसकी पूंछ कुचल दी गई हो | उसने गुणवती के फिर कान भरे – देख लो सब लोग चूंडा की ही जयजयकार कर रहे हैं, मुकुल को कौन पूछ रहा है ? मैंने सुरक्षा की द्रष्टि से कुछ राठौड़ सरदार बुलाये थे, उन्हें तुमसे पूछे बिना ही अपमानित कर दरबाजे से ही भगा दिया गया | राज्य के सब सामंत और सरदार चूंडा के कहने में हैं, तुम्हारी हैसियत ही क्या है ? मेरा क्या है, मैं तो कल ही मारवाड़ को निकल जाऊँगा | 

शक के बादल गहराए तो गुणवती ने चूंडा से पूछ ही लिया कि उन्होंने किस अधिकार से नया सामंत नियुक्त किया, उनके मायके वालों को दरवाजे से क्यों वापस किया ? चूंडा के लिए तो उनका सवाल किसी बज्रपात जैसा ही था | उन्होंने कहा – राजमाता जी मैंने आपसे पहले ही कहा था कि मुझे सत्ता का कोई मोह नहीं है, मैं यहाँ केवल कर्तव्य बुद्धि से हूँ | आपके मन में अविश्वास जाग गया है, अतः एक पखवारे में चित्तौड़ से विदा ले लूँगा | जब भी आप बुलाएंगी अविलम्ब आपकी सेवा में उपस्थित हो जाऊँगा, लेकिन अब चित्तौड़ में प्रवेश तभी करूंगा, जब आप बुलाएंगी | 

दसवे दिन एक विशेष दरवार का आयोजन हुआ, जिसमें सभी सामंतों और सरदारों को बुलाया गया था, उसमें चूंडा ने स्पष्ट घोषणा की – स्वर्गीय पिताजी को मैंने कहा था कि मैं अपने भुजबल से नया राज्य गठित करूंगा | मैंने भीलों का नया राज्य राध्रा स्थापित भी कर लिया है, अब उसे विकसित करना चाहता हूँ, अतः अब मैं वहां के लिए प्रस्थान कर रहा हूँ, मेरे पीछे से आप लोग राणा मुकुल जी को पूर्ण सहयोग दें | स्पष्ट ही चूंडा अपने दुःख को छुपाकर सहज भाव में चित्तौड़ से विदा ले गए | प्रगट में तो राजमाता गुणवती शासन करने लगीं, किन्तु स्थाई रूप से चित्तौड़ में बस गए रणमल के हाथों में एक प्रकार से सारे अधिकार आ गए | और उसने अपने उन सरदारों को भी चित्तौड़ बुला लिया, जिन्हें चूंडा ने चित्तौड़ के दरबाजे से ही विदा कर दिया था | गुणवती को यह कहकर संतुष्ट कर दिया कि यह कार्य उसने राज्य की सुरक्षा व्यवस्था की खातिर किया है | अब एक प्रकार से गढ़ रक्षा, खजाने सहित सभी महत्वपूर्ण स्थानों की जिम्मेदारी राठौड़ सिसौदियाओं के स्थान पर सेनानियों के हाथों में पहुँच गई | इतना ही नहीं तो मेवाड़ के राजसिंहासन पर राजमाता गुणवती तो अपनी गोद में राणा मुकुल को लेकर बैठतीं और उनके साथ रणमल भी बैठकर राज सभा की कार्यवाहियों का सञ्चालन करते | स्वाभाविक ही राज्य के विश्वस्त और बफादार सरदारों को यह पसंद तो नहीं आ रहा था, किन्तु रणमल चूंकि राजमाता का पिता थे, अतः वे खून का घूँट पीकर शांत बने रहे | 

इतना सब होने के बाद भी रणमल को चूंडा जी का भय सताता रहा | वह जानता था कि चूंडा जी के रहते उसका स्वप्न स्वप्न ही रहेगा, उसके मंसूबे कभी पूरे नहीं होंगे | इसलिए उसने पहले तो चूंडा की ह्त्या का षडयंत्र रचा, लेकिन जिन हत्यारों को उसने मारने भेजा, वे ही मारे गए | इस घटना के बाद चूंडा जी भी सतर्क हो गए और उन्हें राणा मुकुल और राजमाता की सुरक्षा की चिंता सताने लगी | अतः उन्होंने चित्तौड़ में अपने विश्वस्त सरदारों को सचेत भी कर दिया और वहां से पल पल की खबर उन तक पहुँचने लगी | अपने भाई रघुदेव को कैलबाड़ा सन्देश भिजवा दिया कि हर पल सजग रहे | प्रत्यक्ष युद्ध में वीरता दिखाने के लिए प्रसिद्ध सिसौदिया रणबांकुरों को अब कूटनीति के दांव पेंच का युद्ध पहली बार लड़ना पड़ रहा था |  

संघर्ष और विजय 

युवराज चूंडा गुर्जर प्रदेश की सीमा पर अपने द्वारा निर्मित भील राज्य राध्रा में जा बसे और उसे विकसित करने पर ध्यान केन्द्रित किया, ताम्बे और चांदी की खदानें समृद्धि उगलने लगीं | चित्तौड़ में रणमल और उसकी रखैल अमिया लगातार राजमाता गुणवती के मन में जहर घोलते रहे, देख लो सबसे समृद्ध इलाके पर काबिज होकर बैठ गए हैं चूंडा जू | और साथ ही रणमल के विश्वस्त सरदार बीजा ने अपने विश्वस्त जैसलमेर के भट्टी सैनिकों की संख्या मेवाड़ की सेना में बढ़ाना और महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां देना शुरू कर दिया | आहत मेवाड़ी जनता ने चित्तौड़ छोड़कर चूंडा जी के पास राध्रा जाकर बसना शुरू कर दिया | उन लोगों के पलायन से राजमाता के मन में और अधिक जहर भरने का मौका रणमल को मिल गया | 

रणमल के पुत्र राव जोधा ने उनकी अनुपस्थिति में अपने पराक्रम से मारवाड़ की सीमाएं काफी बढ़ा ली थीं, उन्होंने अपनी काबलियत बाद में जोधपुर बसाकर और अधिक प्रमाणित की | उनकी इच्छा थी कि पिता रणमल मन्दौर वापस लौट आयें, किन्तु रणमल तो मारवाड़ और मेवाड़ दोनों को अपने कब्जे में देखना चाहते थे, वे नहीं गए | लेकिन क्या यह इतना आसान था | जब रणमल ने मेवाड़ के सिंहासन पर अपने पोते सिंहा को गोद में लेकर बैठना शुरू कर दिया तो सरदारों की त्योरियां चढ़ गईं और उन्होंने राजमाता गुणवती से इस पर आपत्ति जताई | गुणवती को भी संदेह हुआ कि कहीं पिता उनके बेटे मुकुल के अधिकार को खतरा तो नहीं बन रहे हैं | उसने अपने पिता से इस विषय में चर्चा भी की, किन्तु पिता तो अब अधिकार संपन्न बन चुके थे, वे भला उनकी बात कहाँ सुनने वाले थे | रणमल ने जबाब दिया कि राणा मुकुल के लिए वास्तविक खतरा तो मेवाड़ी सरदार ही हैं, जो आज भी चूंडा जू के प्रति भक्तिभाव रखते हैं | इन लोगों के फिजूल शिकवे शिकायतों से बचने के लिए तुम कुछ दिनों के लिए चूंडा जू के भाई रघुदेव के पास केलवाड़ा चली जाओ | गुणवती को भी यह सुझाव पसंद आया और वह बाल राणा मुकुल के साथ केलवाड़ा पहुँच गईं | उनकी अनुपस्थिति में रणमल और भी खुलकर खेलने लगे | जिन सरदारों ने उनके अधिकार पर आपत्ति जताई थी, उनका महत्व कम किया जाने लगा, किन्तु चूंडा जी के निर्देश थे कि किसी भी स्थिति में चित्तौड़ को अरक्षित नहीं छोड़ना, अतः वे जहर का घूँट पीकर रह गए | 

रणमल के दिमाग में तो फितूर सवार था, मेवाड़ की गद्दी पर अपने पोते सिंहा को बैठाने का, अतः उसने एक और योजना बनाई | धनतेरस के दिन जिस समय गुणवती केलवाड़ा से राणा मुकुल के साथ वापस चित्तौड़ लौट रही थीं, उस समय रणमल के लोगों ने इन दोनों के अपहरण का प्रयास किया | रणमल की योजना थी कि इसका दोष चूंडा जी पर डालकर मेवाड़ पर पूरी तरह कब्ज़ा जमा लिया जाये | लेकिन जाको राखे साईयाँ, मार सके न कोय | रघुदेव ने अकस्मात वहां पहुंचकर योजना असफल कर दी और अपहरणकर्ता भागने को विवश हुए | 

उधर प्रयत्न असफल होने के कारण रणमल का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया | गुस्से ने उसके सोचने समझने की ताकत ही छीन ली | उसने गुणवती को सुझाव दिया कि रघुदेव ने चूंकि तुम्हारी प्राण रक्षा की है, अतः उन्हें पुरष्कृत किया जाना चाहिए | राज्य की और से दीपावली पर उन्हें परिधान और अलंकार भेजे जाने चाहिए | स्वाभाविक ही इससे राजमाता को भला क्या आपत्ति होती | रणमल ने यह सामान लेकर अपने विश्वस्त सरदार बीजा को ही पचास घुड़सवारों के साथ केलवाड़ा भेजा | लेकिन स्वार्थान्ध विश्वासघात की पराकाष्ठा देखिये कि दीपावली के पवित्र अवसर पर, जब असावधान रघुदेव इस पुरष्कार को ग्रहण कर रहे थे, उसी समय बीजा ने अकस्मात कटार भोंककर उनकी हत्या कर दी | जब तक उपस्थित लोग कुछ समझ पाते, हत्यारे घोड़ों पर बैठकर चित्तौड़ की ओर दौड़ लिए | 

कुटिलता की अति तब हो गई, जब रणमल ने गुणवती के सामने उल्टा रघुदेव पर ही बदसलूकी का आरोप लगाया और कहा कि उन्होंने तुम्हें व मुझे अपशब्द कहे, जो बीजा सहन नहीं कर पाया और रोकने पर हुए द्वन्द युद्ध में रघुदेव मारे गए | लेकिन गुणवती को उनके कथन पर भरोसा नहीं हुआ | उन्होंने चीखकर कहा, यह असंभव है, मेरा आदेश है कि बीजा को तुरंत गिरफ्तार किया जाए | 

कक्ष में रणमल का पैशाचिक अट्टहास गूँज उठा, बोला – देख लड़की मेवाड़ अब मेरी मुट्ठी में है | तुझमें तो अकल ही नहीं है, मुकुल का हित भी इसमें ही है कि वह मेरी सरपरस्ती में रहे | यह शब्द सुनते ही गुणवती ने कटार निकालकर अपने पिता पर हमला कर दिया | रणमल को उनके इस रौद्र रूप की जरा भी आशा नहीं थी | किन्तु योद्धा था तुरंत वह कटार छीन ली और कहने की आवश्यकता नहीं कि इसके बाद गुणवती को समझ में आ गया कि उनकी मूर्खता और अदूरदर्शिता के फलस्वरूप मेवाड़ का शासन राव रणमल के हाथों में पहुँच चुका है | वह थकीहारी पस्त होकर अपने शयनकक्ष में जाकर बिस्तर पर गिर गईं | अगले दिन सामंत सुमेर और सरदार झंवर के माध्यम से चूंडा जी के पास रघुदेव की मृत्यु का सन्देश अवश्य भिजवा दिया | वे अभी भी असमंजस में थीं, पिता को अपना और राणा मुकुल का दुश्मन मानें या न मानें | अतः उन्होंने अभी भी चूंडा जी को आने का सन्देश नहीं भेजा | झंवर ने राध्रा पहुंचकर चूंडा जी को विस्तार से सब कह सुनाया | कैसे धन तेरस के दिन राजमाता गुणवती और राणा मुकुल के अपहरण की कोशिश हुई और कैसे दीपावली के दिन रघुदेव की ह्त्या कर दी गई | सारे समाचार पाकर चूंडा बहुत उद्विग्न, दुखी व चिंतित हुए, लेकिन अपने संकल्प के कारण विवश थे कि जब तक स्वयं राजमाता न बुलाये तब तक चित्तौड़ नहीं जाना | उन्होंने झंवर के हाथों राजमाता को कहलवा दिया कि वे अब तेरहवीं तक केलवाड़ा ही रहेंगे | 

तुलसी दास जी कह गए हैं कि प्रभु जाकर दारुण दुःख देहीं, ताकर मति पहले हर लेहीं | एक दिन अफीम के नशे में रणमल ने अपनी विश्वस्त दासी अमिया की बेटी रधिया को ही अपनी हबस का शिकार बना लिया | अमिया एकदम टूट सी गई और उसने जाकर गुणवती को विस्तार से उनके पिता की सारी करतूतें बता दीं | अमिया तो संखिया खाकर परलोक सिधार गई, लेकिन गुणवती को अवश्य स्थिति की भयावहता समझ में आ गई और उन्होंने अविलम्ब चूंडा जी को आने का निवेदन पहुंचा दिया | सन्देश पाते ही चूंडा जी ने कार्य योजना निश्चित कर ली और चित्तौड़ में अपने विश्वस्त सरदारों तक भी सूचना पहुंचा दी | 

रणमल को अमिया की मौत से मानो कोई अंतर ही नहीं पड़ा था, उसकी जगह बेबश रधिया ने ले ली थी | और आखिरकार दीपावली की अंधियारी रात के बाद आई वह पूर्णिमा, जिस दिन चूंडा जी अपने मात्र सौ सैनिकों के साथ चित्तौड़ दुर्ग के फाटक पर पहुंचे | रणमल द्वारा नियुक्त भट्टी दुर्ग रक्षक कुछ समझ पाते, इसके पहले ही दुर्ग के अन्दर मौजूद मेवाड़ी रणबांकुरों ने मारकाट मचाते हुए दुर्ग के फाटक खोल दिए | चूंडा जी की उपस्थिति महसूस होते ही आबाल वृद्ध चित्तौड़ वासी रणांगण में कूद पड़े | इतना ही नहीं तो बदले की आग में जलती रधिया ने नशे में बेसुध रणमल को उसकी पगड़ी से ही पलंग से बाँध दिया | राठौड़ सरदारों का खात्मा करने के बाद चूंडा जी ने शयन कक्ष में प्रवेश किया और उसे उसकी करनी का फल दिया | 

गुस्से से पागल राजमाता जिस समय अपने भतीजे और रणमल के पौत्र सिंहा को मारने जा रही थीं – तू आया था मेवाड़ का राणा बनने, उसी समय चूंडा जी ने वहां पहुंचकर उन्हें रोका – नहीं राजमाता जी यह नहीं होगा | सिंहा और आत्मसमर्पण करने वाले मारवाड़ के सैनिकों को सकुशल मन्दौर पहुंचा दिया गया | 

चूंडा जी के वंशज आगे चलाकर मेवाड़ की सेना के हरावल दस्ते में रहे | उन चूंडावत सरदारों की वीरगाथायें, राजस्थान के कण कण में गूंजती आज भी सुनी जा सकती हैं |
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