जुझारू भिंड के गुमनाम क्रांतिकारी



विभंडक ऋषि उपाख्य भिंडी ऋषि की तपस्थली भिंड के नौजवानों ने स्वतंत्र भारत के सीमा रक्षक के रूप में अपना पर्याप्त खून बहाया है, किन्तु इसे दुर्भाग्य नहीं तो क्या कहा जाए कि भिंड को जाना पहचाना जाता है, डाकुओं के कारण | जबकि सचाई यह है कि भिंड अंचल के डाकूओं में भी अधिकाँश वे लोग थे, जिन्होंने अन्याय और अत्याचार न सहने के कारण व्यवस्था से बगावत की | इसीलिए इस अंचल में उन दस्युओं को बाग़ी का संबोधन दिया जाता है | बाग़ी अर्थात बगावत करने वाले | कम ही लोग जानते हैं कि अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में भी भिंड के शूरमाओं की महती भूमिका रही है | भोपाल के वरिष्ठ पत्रकार श्री रामभुवन सिंह जी कुशवाह ने “स्वातंत्र समर में भिंड” शीर्षक से एक पुस्तक में भिंड के उन वीरों और शहीदों की स्मृतियों को सहेजने का काम किया है | तो आईये आज उसी पुस्तक में वर्णित भिंड के शौर्य पर एक नजर डालें – 

यूं तो मराठों के मालवा के बाद ग्वालियर अंचल में आने के बाद से ही स्थानीय राजाओं से उनका संघर्ष रहा, यहाँ तक कि १७६१ के पानीपत के युद्ध में जब मराठा पराजित हुए, तो उचित अवसर मानकर गोहद के जाट राजा लोकेन्द्र सिंह ने तो ग्वालियर किले पर ही अपना अधिकार जमा लिया | किन्तु शीघ्र ही प्रतापी महाद जी सिंधिया ने न केवल ग्वालियर उससे वापस छीन लिया वरन पूरे अंचल में अपना दबदबा कायम कर लिया | १७८० में एक बार फिर जाट राजा ने कोशिश की और अंग्रेजों से मिलकर गमरत में महादजी को पराजित भी किया, किन्तु चतुर सुजान महादजी ने अंग्रेजों से संधि कर ली | इसके बाद तो महादजी दिल्ली तक के बेताज बादशाह बन गए | यह कथानक हम पूर्व में वर्णित कर चुके हैं, जिसकी लिंक विडियो के अंत में दी गई है | 

महादजी के उत्तराधिकारी दौलत राव कमजोर साबित हुए, अंग्रेजों के साथ हुए संघर्ष में वे पराजित हुए और संधि करने को विवश हुए, जिसे सुर्जीअर्जन संधि के नाम से जाना जाता है | अब अंचल पर अंग्रेजों की हुकूमत शुरू हुई और साथ ही शुरू हुए अकथनीय अत्याचार | 

भिंड अलग अलग क्षत्रिय वंशियों के प्रभाव क्षेत्र के अनुसार घारों के नाम से पहचाना जाता है, जैसे के कछवाहों उपाख्य कुशवाहों का कछवाहघार, भदोरियाओं का भदावर घार, तोमरों का का तंवरघार आदि | तो इसी कछ्वाह घार में १८११ में ही सिंदौस के लालजू सिंह कुशवाह ने अपना नाम इतिहास के पन्नों में शहीद के रूप में अंकित करा लिया था | उस वर्ष प्राकृतिक आपदाओं के कारण किसानों की फसल बर्बाद हो गई थी, लेकिन अंग्रेज अधिकारियों को उससे क्या ? कलेक्टर हालहेड, अंग्रेज लेफ्टीनेंट मोनसेन के साथ जा पहुंचा सिंदौस और शुरू कर दिया अत्याचारों का सिलसिला | जबरन लगान बसूलने के लिए बेरहमी से गरीब किसानों पर उसका कहर बरसने लगा | वीर लालजू सिंह और उनके साथियों का खून खौल उठा और उन्होंने घात लगाकर लेफ्टीनेंट मोनसेन को मार गिराया और कूद गए बीहड़ों में | जब मौका मिलता, अंग्रेज सेना पर टूट पड़ते और उनको ख़ासा नुकसान पहुंचाकर गायब हो जाते | लम्बे समय तक छापामार युद्ध की इस व्यूह रचना ने अंग्रेजों को ख़ासा परेशान कर दिया और उन्होंने तंग आकर लालजू सिंह और उनके साथियों पर इनाम घोषित कर दिया | भारत भूमि पर जहाँ बहादुर और जांबाज पैदा हुए हैं, गद्दार और विश्वासघाती भी कम नहीं रहे | इनाम के लालच में एक नराधम ने लालजू सिंह को भी साथियों सहित पकड़वा दिया, जिन्हें बिना किसी सुनवाई के फांसी पर चढ़ा दिया गया | 

इसी प्रकार १८५७ के पूर्व ही अर्थात १८४४ में, वीरवर चिमना जी के नेतृत्व में “कछवाह स्वराज मंडल” की स्थापना के साथ अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का शंखनाद हो गया | ख़ास बात यह कि नाम भले ही इसका कछवाह स्वराज मंडल हो, किन्तु इसमें चौहानघार के लोग भी शामिल थे | इन आन्दोलन कारियों का मकसद कोई राज्य लेना नहीं था, वे तो अलख जगाना चाहते थे | १८४४ का यह आन्दोलन केवल अंग्रेजों के खिलाफ ही नहीं तो उनके तत्कालीन सहयोगी सिंधिया के खिलाफ भी था | हरचंदसिंह जू देव उपाख्य चिमना जी कछवाहघार की बोहरा जागीर के राजा आधार सिंह की दूसरी रानी के पुत्र थे | सुन्दर आकृति, सुगठित देहयष्टि, उदार स्वभाव और युद्ध परायण चिमना जी स्वाभाविक ही अतिशय लोकप्रिय थे | बड़ी रानी के पुत्र प्रथ्वीसिंह को उनसे ईर्ष्या भी थी और शंका भी कि कहीं पिता चिमना जी को राज्य का उत्तराधिकारी न बना दें | किन्तु चिमना जी ने बिंदा डाकू से डुबका गढ़ी छीनकर स्वयं को वहां का राजा घोषित कर दिया और स्वेच्छा से बोहरा छोड़ दिया | 

उन जैसा पराक्रमी और स्वाभिमानी इंसान अंग्रेजों के अत्याचार को सहन नहीं कर पाया और १८४४ में उन्होंने चौहानघार के निरंजन सिंह जू देव, गोपालपुरा के रामचंद्र जू देव, अमायन के भगत सिंह और सुढार के मंगदराव कछवाह के साथ मिलकर “कछवाहघार स्वराज मंडल” की स्थापना की और अंग्रेजों को लगान देना बंद करवा दिया | स्वाभाविक ही अंग्रेजों के साथ संघर्ष बढ़ने लगा | अमायन गढ़ी में आयोजित सभा में तय किया कि मियाँ की जूती मियाँ के सर वाली नीति ही अपनाएंगे | सबसे पहले मंगदराव कछवाह के नेंत्रत्व में अंग्रेजों की उरई छावनी पर धावा बोलकर उनके हथियार छीनेंगे | लेकिन दुर्भाग्य से गुप्तचरों द्वारा अंग्रेजों को इस अभियान की सूचना मिल गई और उन्होंने बड़े तोपखाने के साथ सुढार गढ़ी पर धावा बोल दिया | १८४८ में हुए इस संघर्ष में सुढारगढ़ी के शेर मंगदराव ने अपने पुत्रों और साथियों के साथ वीरगति पाई | प्रतिशोध में पागल अंग्रेजों ने सुढारगढ़ी की एक एक ईंट तोपों की मार से नष्ट कर दी और आसपास की आम जनता पर भी अकथनीय अत्याचार किये | 

अंग्रेजों का अगला निशाना बनी चिमना जी की डुबका गढ़ी | अंग्रेजों और सिंधिया की संयुक्त सेना के साथ भयंकर युद्ध हुआ, दोनों ओर के सैकड़ों सेनानी मारे गए | एक अंग्रेज कमांडर नीम के पेड़ पर चढ़कर पत्तों में अपने को छुपाये अंग्रेज सैनिकों को निर्देशित कर रहा था, तभी चिमना जी की नजर उस पर पड़ गई और उसके साथ ही उनके धनुष से निकले तीर ने उस कमांडर की छाती बींधकर उसके निर्जीव शरीर को उस पेड़ की डाल से ही चिपका दिया | तीर डाल में भी घुस गया था | इसके बाद भी सिंधियाओं के सरदार अम्बाजी इंगले के नेत्रत्व में चिमना जी के विरुद्ध अभियान जारी रहा | धीरे धीरे गढ़ी में राशन पानी भी ख़तम होने लगा तो विवश होकर चिमना जी गढ़ी छोड़कर एक गुप्त मार्ग से निकल गए और गढ़ी पर सिंधिया और अंग्रेज सेना का कब्जा हो गया | विजई इंगले ग्वालियर लौटे तो अपने साथ नीम के पेड़ की वह डाल भी साथ ले गए, जिससे चिमना जी ने तीर से बींधकर अंग्रेज सेनानायक को चिपका दिया था | डुबका को छोड़कर चिमना जी ने बिलाव और सिकहटा के नजदीक बसली नदी के किनारे दुर्गम जंगल में अपना ठिकाना बना लिया और संघर्ष जारी रखा | इनको ढूँढता हुआ सिंधियाओं का सरदार मीर खां जब सिकहटा पहुंचा तो चिमना जी ने साथियों सहित उसे जहन्नुम रसीद कर दिया | इतिहास में भले ही चिमना जी का उल्लेख न हो, किन्तु लोक गायकों ने लिखा – 

ग्यारह वीर सवार लिए, गए कोपित ऊपरी को चढ़ि ताजी, 

निर्भर वीर मुकाम किये, पुनि सामुहे वीर भिरयो रन गाजी, 

कूर्म डारि के नाहर लो पिल्यो, जाहर के सिर काट के राजी, 

फेरिंग नीम को भीड़ को चीर के, मीर के तीर हन्यो चिमना जी | 

चिमना जी ने कुछ समय बाद ही डुबका पर फिर कब्जा जमा लिया और उसके बाद १८५७ के स्वातंत्र समर में भी तात्या टोपे और महारानी लक्ष्मीबाई के सहयोगी की भूमिका निबाही | उस समय में भी यह बूढा शेर अपने युवा बेटे दौलत सिंह के साथ सक्रीय रहा | रणनीति के तहत उन्होंने दौलत सिंह को दबोह में बसा दिया और पूरे कछवाहघार में विद्रोह की आग फ़ैल गई | बिलाया के बरजोर सिंह पंवार के साथ मिलकर दौलत सिंह ने कोंच को ब्रिटिश सत्ता के चंगुल से मुक्त करा लिया | महारानी की मौत के बाद, क्रांति की ज्वाल ठंडी हो जाने के बाद भी १८५९ तक इन लोगों के संघर्ष की गवाही स्वयं अंग्रेज अधिकारियों के पत्राचारों में मिलता है | 

भिंड के इन अचर्चित जुझारू क्रांतिवीरों को सादर नमन |
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