त्रिपुरा के राजसन्यासी गोविन्द माणिक्य और शुजा की मौत



प्रस्तुत कथानक गुरुदेव रवीन्द्र नाथ टैगोर की अमर कृति राज सन्यासी पर आधारित है | त्रिपुरा नरेश गोविन्द माणिक्य प्रतिदिन गोमती स्नान के लिए आते, और एक नन्हीं बालिका हासी और उसका छोटा भाई ताता अपनी बालसुलभ हरकतों से उनका मनोरंजन करते | हासी और ताता के माता पिता स्वर्गवासी हो चुके थे, चाचा ही उनका लालन पालन कर रहे थे | स्वाभाविक ही निसंतान राजा को उन अनाथ वत बच्चों से विशेष मोह हो गया था | एक दिन नदी के किनारे स्थित भुवनेश्वरी देवी के मंदिर की सीढियों से बहती रक्त की धार नदी के जल में आकर मिलती देख बच्ची ने राजा से पूछा – यह क्या है ? 

राजा ने जबाब दिया यह रक्त है, कल एक सौ एक भेंसों की बलि देवी के सम्मुख दी गई थी, यह उनका ही रक्त है ? 

हासी ने रूहांसे स्वर में फिर पूछा – ओ मां, इतना रक्त क्यों ? और वह अपने आँचल से सीढियों पर बहते रक्त को साफ़ करने लगी | उसकी देखा देखी उसका छोटा भाई भी वही करने लगा | दूसरे दिन दोनों बच्चे राजा को वहां दिखाई नहीं दिए तो वे उद्विग्न हो गए और उनके घर जा पहुंचे | मालूम हुआ कि बच्ची हासी को तेज बुखार चढ़ आया है और सन्निपात में वह बार बार एक ही वाक्य दोहरा रही है – ओ मां,इतना रक्त क्यों, ओ मां,इतना रक्त क्यों ? राजा ने सांत्वना भी दी, हासी चिंता न करो, मैं यह खून की धार मिटा दूंगा | उनके आदेश पर राजवैद्य आये, उपचार भी किया, किन्तु बच्ची नहीं बचाई जा सकी | 

वह तो चली गई, लेकिन राजा के कानों में उसके स्वर गूंजते रहे – ओ मां, इतना रक्त क्यों ? 

दूसरे दिन जब भुवनेश्वरी मंदिर का पुजारी बलि के लिए दान लेने दरवार में आया तो राजा ने न केवल दान देने से मना कर दिया, बल्कि आदेश भी दे दिया कि आज के बाद उनके राज्य में बलि प्रथा बंद, मंदिरों में कोई पशु बलि नहीं होगी | दरवारियों की बात तो जाने दें, राजा के भाई नक्षत्र राय के भी रोंगटे खड़े हो गए | भाई यह क्या कह रहे हैं, युगों से चली आ रही प्रथा इस तरह कैसे बंद की जा सकती है | पुरोहित रघुपति भी गरज कर बोला – 

राजा तुम्हारी मति मारी गई है | देवी के क्रोध का तुम्हें कोई अनुमान है या नहीं ? सर्वनाश हो जायेगा, तुम्हारे पाप का फल पूरी जनता को भुगतना पड़ेगा | 

राजा ने तत्काल उत्तर दिया – नहीं पुजारी जी, मति नहीं मारी गई है, आज ही अक्ल आई है | एक बालिका का रूप धारण कर साक्षात जगजननी मां ने मुझे दर्शन दिया है और साफ़ साफ संदेश भी दिया है | बहुत हुआ, अब मां अपने ही जीवों का, अपने ही बच्चों का खून और नहीं देख सकतीं | 

रघुपति ने जनेऊ हाथ में लेकर कहा – देवी का संवाद वर्षानुवर्ष से अपने पुजारी से ही होता आया है, आज वह राजा से कैसे हो गया ? तुम मिथ्या बोल रहे हो, मेरा श्राप है, तुम्हारा नाश हो जाए और वह दरवार से निकल गया | सभा में सन्नाटा छा गया | यह वह समय था जब प्रजा की आस्था के चलते धर्मगुरुओं पर राजा का शासन नहीं होता था, उनका कोई भी कुछ नहीं बिगाड़ सकता था | 

पुजारी रघुपति आगबबूला हो रहा था, उसने राजा के भाई नक्षत्र राय को अपने पास बुलवाया और उसे पट्टी पढाई – राजा तो अब नहीं बचेगा, लेकिन जरा सोचो अगर उसने उस बालक ताता को दत्तक ले लिया, तो तुम्हारा क्या होगा | उसके बाद राजा तुम बनोगे या फिर वह अनाथ ताता ? 

नक्षत्र राय ने विचलित और चिंतित स्वर में पुछा – प्रभो, मुझे क्या करना चाहिए ? 

एक ही उपाय है, देवी रक्त मांग रही है, राजवंशी रक्त – रघुपति गभीर होकर बोला | देवी की आज्ञा मानकर तुम राजा को शीश मां के चरणों में समर्पित करो और अक्षय कीर्ति को प्राप्त करो | तुम और तुम्हारे बाद तुम्हारे वंशज इस राज्य पर युगों तक राज्य करेंगे | 

नक्षत्र राय असमंजस में था, वह विचार मग्न वहां से चला आया | राजा भी असावधान न थे | उनके पास भी रघुपति और नक्षत्र राय की भेंट का समाचार पहुँच गया | दो दिन बाद ही राजा अपने भाई को साथ लेकर शिकार के बहाने घने जंगल में जा पहुंचे और योजना बद्ध अपने सैनिकों से अलग भी हो गए | एक नदी के किनारे नितांत एकांत में उन्होंने अपने भाई से कहा – भाई, मुझे न प्राणों का कोई मोह है और ना ही राज्य का | यह तलवार लो और मुझे मारकर मेरे शव को नदी में फेंक दो | लौटकर सबसे कह देना की मुझे शेर खा गया | किसी को कोई संदेह भी नहीं होगा | अगर मुझे महल में मारोगे तो जनता को देर सबेर पता चल ही जाएगा और भाई का हत्यारा मानकर उनकी नज़रों में तुम्हारी कोई इज्जत नहीं बचेगी | इसलिए मुझे महल में नहीं यहाँ मारो | 

नक्षत्र राय की आँखें डबडबा गईं | वह अपने भाई के चरणों में गिर पड़ा और क्षमा याचना की | जंगल से लौटकर उसने पुजारी रघुपति से साफ कह दिया, नहीं मैं अपने भाई का हत्यारा नहीं बन सकता... 

रघुपति ने हिम्मत नहीं हारी और फिर समझाया – कोई बात नहीं है, राजा को तो देवी दंड देंगी ही, लेकिन तुम कमसेकम अपने मार्ग के सबसे बड़े रोड़े, उस बालक ताता को तो यहाँ ला सकते हो | मैं अपने हाथों से उसे देवी को बलि दूंगा | इससे प्रसन्न होकर देवी का तुम पर आशीर्वाद हो जाएगा और देर सबेर तुम राजा बन ही जाओगे | 

नक्षत्र राय को यह बात जम गई और एक रात वह उस अनाथ बालक का अपहरण कर रघुपति को सोंप आया | राजा सज्जन अवश्य थे, किन्तु असावधान और अयोग्य नहीं | जिस समय रघुपति उस बालक की बलि देने जा रहा था, उसे गिरफ्तार कर लिया गया | रघुपति को राज्य से निष्कासित कर दिया गया और उसके सहयोग के आरोप में यही व्यवहार नक्षत्र राय के साथ भी हुआ | 

राज्य से निष्कासित नक्षत्र राय तो ब्रह्मपुत्र के किनारे गूजरपाडा नामक छोटे से गाँव के जागीरदार पीताम्बर राय के यहाँ अतिथि बनकर रहने लगे, किन्तु बदले की आग में जलता रघुपति ढाका पहुंचकर मौके की तलाश करने लगा | उसके जीवन का बस एक ही लक्ष्य था त्रिपुरा में हुए अपमान का बदला लेना | 

ढाका उन दिनों बादशाह शाहजहाँ के मंझले बेटे शुजा के अधिकार में था, जिसे शाहजहाँ ने बंगाल का सूबेदार बनाकर नियुक्त किया हुआ था | रघुपति ने विचार किया कि अगर किसी प्रकार शाह शुजा की कृपा मिल जाए तो आसानी से राजा गोविन्द माणिक्य से बदला लिया जा सकता है | उसे यह अवसर जल्द ही मिल भी गया | शाहजहाँ के मृत्यु शैय्या पर होने का समाचार पाते ही उसके चारों बेटे राजमुकुट को अपने अधिकार में लेने को उतावले हो गए | अपनी राजधानी राजमहल से शुजा भी सेना लेकर दिल्ली की ओर चल पड़ा | 

रघुपति ने भी ढाका छोड़कर विजय गढ़ नामक एक दुर्ग के हिन्दू सरदार विक्रम सिंह के चाचा से दोस्ती गांठकर वहां रहना शुरू कर दिया | उसकी किस्मत से शुजा के विद्रोह को दबाने की जिम्मेदारी आमेर नरेश जयसिंह को मिली, जिन्होंने न केवल शुजा को परास्त कर दिया, वरन उसे गिरफ्तार कर इसी विजय गढ़ के बन्दीखाने में रखा | शुजा से नजदीकी बढाने को बेताव रघुपति को मौका मिल गया और एक रात उसने शुजा को आजाद कराकर गुप्त रास्ते से बाहर कर दिया | शुजा अभी अपनी सेना संगठित ही कर पाया था कि तब तक औरंगजेब बड़े भाई दारा को मारकर दिल्ली के मुग़ल राजसिंहासन पर काबिज हो गया | यह समाचार पाकर निराश हुए शुजा ने एक दूत भेजकर औरंगजेब के प्रति सद्भाव व समर्थन दिखाने में ही भलाई समझी | औरंगजेब ने भी उसे यथावत बंगाल का सूबेदार बना रहने दिया | ना तो शुजा का मन साफ़ था और ना ही औरंगजेब का, यह तो बाद में सामने आ ही गया | 

किन्तु रघुपति को इससे क्या, उसका लक्ष्य तो एक ही था – त्रिपुरा का पराभव | उसने पहले तो नक्षत्र राय को ढूंढा और फिर पहले की तरह उसे पट्टी पढाई और फिर शुजा से आग्रह किया कि गोविन्द माणिक्य के स्थान पर नक्षत्र राय को त्रिपुरा का राजा घोषित कर दिया जाए | रघुपति के अहसान तले दबे शुजा ने बात मान ली और मुग़ल सेना का एक दस्ता साथ लेकर नक्षत्र राय और रघुपति त्रिपुरा की ओर रवाना हो गए | 

त्रिपुरा में जब इस आक्रमण का समाचार पहुंचा तो रघुपति के स्थान पर मां भुवनेश्वरी मंदिर की पूजा अर्चना हेतु नियुक्त हुए नए पुजारी बिल्वन का सन्देश पाकर कुकि जाति के युद्ध प्रिय लोग आनंद से नाच उठे | युद्ध की सूचना के रूप में लाल कपडे से बंधी हुई कटार गाँव गाँव पहुँचने लगी | देखते ही देखते त्रिपुरा की पहाड़ियां रणबाँकुरे सैनिकों से भर गईं | बड़े पत्थरों से गोमती का पानी रोक दिया गया ताकि अवसर आने पर शत्रु सेना को बाँध तोड़कर बाढ़ से डुबोया जा सके | लेकिन जब इसकी जानकारी मिली तो राजा गोविन्द माणिक्य ने भाई से युद्ध करने के स्थान पर वनों की शरण लेना ज्यादा उचित माना | आखिर रक्तपात व जीव हिंसा रोकने वाला वह राजसन्यासी और करता ही क्या | पुजारी बिल्वन के सब प्रयत्न निष्फल हुए और विजई मुग़ल सेना ने त्रिपुरा में प्रवेश किया | 

नक्षत्र राय राजा बन गया, मुग़ल सेना ने खूब लूटपाट की | भुवनेश्वरी मंदिर की प्रतिमा भी गोमती में फेंक दी गई | नक्षत्र राय को अब पुजारी रघुपति की जरूरत नहीं थी सो उसके साथ वही व्यवहार हुआ, जिसके वह काबिल था, घनघोर अपमान | मुग़ल सेना कुछ समय बाद वापस हो गई, लेकिन पीछे छोड़ गई हिंसा में मृत लोगों के क्षत विक्षत शव, उजड़े हुए खेत खलिहान, जली हुई बस्तियां, भग्न मंदिर और प्रजा में असंतोष व प्रतिशोध की ज्वाला | पुजारी बिल्वन अपने शिष्यों के साथ सेवा कार्य में जुटे थे, जबकि आहत रघुपति कुंठा और आत्मग्लानि में डूबकर स्वतः राज्य से निष्कासित हो गया | 

उधर गोविन्द माणिक्य को अराकान के राजा ने अपना मेहमान बनाना चाहा, किन्तु उन्होंने महलों के स्थान पर मयानी नदी के तट पर एक झोंपड़ी बनाकर वही ईश्वराराधन करना निश्चित किया | अब वे’ राजा नहीं राजसन्यासी बन चुके थे | कुछ समय बाद अराकान राजा से अनुमति लेकर रामू नगर के दक्षिण में बने एक दुर्ग में उन्होंने बच्चों की एक पाठशाला खोल ली | वे बच्चों को पढ़ाते, उनके साथ खेलते, कोई बीमार पड़ जाता तो उसे देखने उसके घर जाते | 

शुजा और औरंगजेब के सम्बन्ध तो बिगड़ने ही थे, औरंगजेब का बेटा मुहम्मद और सेनापति मीर जुमला उस पर चढ़ दौड़े | लेकिन मुहम्मद शुजा की बेटी का मंगेतर भी था | संबंधों ने जोर मारा और मुहम्मद बगावत पर उतर आया | शुजा ने अपनी बेटी की शादी मुहम्मद से कर दी | लेकिन सेनापति मीर जुमला कहाँ मानने वाला था | लड़ाई जारी रही और शुजा का बेटा मारा गया | स्वयं शुजा ढाका छोड़कर मक्का जाने का निश्चय कर अपनी पत्नी और दो बच्चियों के साथ भेष बदलकर निकल पड़ा | और किस्मत तो देखिये ये लोग फकीर भेष में उसी किले में जा पहुंचे जहाँ राजसन्यासी गोविन्द माणिक्य का विद्यालय था | उसी दौरान रघुपति और बिल्वन भी वहां आ पहुंचे | रघुपति पश्चाताप की आग में जल रहा था और प्रायश्चित करना चाहता था | जबकि बिल्वन त्रिपुरा की प्रजा के सन्देश वाहक बनकर आये थे | नक्षत्र राय की मृत्यु हो चुकी थी | 

बिल्वन ने स्वेच्छा से गोविन्द माणिक्य द्वारा प्रारंभ किये गए विद्यालय का भार अपने कन्धों पर ले लिया | राजसन्यासी गोविन्द माणिक्य जब त्रिपुरा पहुंचे तो जनता ने उनका भव्य स्वागत किया, वे एक बार फिर राजा बने | रघुपति एक बार फिर मंदिर के पुजारी बन गए | शुजा को गोविन्द माणिक्य ने अपने मित्र अराकान के राजा की शरण में भेजा, लेकिन राजा ने विश्वासघात किया और शुजा को मारकर उसकी सबसे छोटी बेटी से शादी कर ली | गोविन्द माणिक्य को बहुत दुःख हुआ और उन्होंने अभागे शुजा की याद में कुमिल्ला नगर में एक मस्जिद बनवा दी, जिसे आज भी शुजा मस्जिद के नाम से जाना जाता है | उन्होंने कुमिल्ला के दक्षिण में एक बड़ा तालाब भी बनवाया | उनके प्रयत्न से ही मिहिर कुल आबाद हुआ | राजा गोविन्द माणिक्य ने १६६९ में अपनी जीवन यात्रा पूर्ण की |
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