शकारि विक्रमादित्य




कवि सोमदेव भट्ट ने सम्राट विक्रमादित्य के पिता महेन्द्रादित्य का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है - अवन्ती नगरी में महेन्द्रादित्य नामक एक विश्व विजई शत्रुजेता राजा राज्य करता था | वह विभिन्न शस्त्र संचालन में कुशल था, साथ ही कामदेव के समान सुन्दर भी था | दान में उसका हाथ खुला रहता था, किन्तु तलवार की मूठ पर कसा रहता था | 

किन्तु दुर्भाग्य से कवियों द्वारा इस प्रकार प्रशंसित महेन्द्रादित्य को शकों के विनाशकारी आक्रमण का सामना करते हुए पराजित भी होना पड़ा और प्राण रक्षा के लिए वनों की शरण लेना पड़ी | उनकी पराजय का कारण भी वही था, जिसके लिए भारत कुख्यात है, अर्थात घर का भेदी लंका ढाए | महेन्द्रादित्य शैव्य थे और ईसा से सत्तर वर्ष पूर्व का यह वह काल था, जब बौद्ध, जैन सनातनी संघर्ष चरम पर था | इसी संघर्ष को रेखांकित करने वाले कथा सरित्सागर के ये शब्द प्रयोग ध्यान देने योग्य हैं – 

महेंद्रादित्य ने पुत्र प्राप्ति हेतु अनेक व्रत किये, तपस्या की, और फिर शिवजी की कृपा से उनके ही एक गण माल्यवंत ने उनके यहाँ पुत्र के रूप में जन्म लिया | सम्पूर्ण नगर उत्सव के आनंद में मग्न हो गया, उस समय राजा ने धन की इतनी वर्षा की कि बौद्धों को छोड़कर कोई भी अनीश्वरवादी नहीं रह गया | 

महेन्द्रादित्य ने अपने इस पुत्र विक्रमादित्य की शिक्षा के लिए हर संभव प्रयत्न किये और कुशाग्र बुद्धि वाले विक्रमादित्य युद्ध और शान्ति दोनों काल की कलाओं में पारंगत हो गए | लेकिन तभी सनातनी और जैन बौद्ध संघर्ष की परिणति यह हुई कि कालक नामक एक महाशय ने विदेशी शकों से सहायता ली और महेन्द्रादित्य की सत्ता का उन्मूलन हुआ | कालक को कतिपय इतिहासकारों ने जैन माना है, तो कुछ ने बौद्ध, जो भी है, मालव भूमि शकों के पदाघात से अपावन हुई | शकों के अवन्ती पर आधिपत्य के परिणाम स्वरुप महेन्द्रादित्य का पूरा परिवार चिन्न भिन्न हो गया | विक्रमादित्य भी अपने पिता से बिछुड़कर अपनी माता के साथ यहाँ वहां छुपने को विवश हुए | निस्सहाय होते हुए भी विक्रमादित्य के मन में शत्रुओं से प्रतिशोध लेने की भावना बनी हुई थी | मां के प्रेरक उपदेश उनके संबल थे | मालव प्रजा उनके साथ थी | शकों का यह आक्रमण किसी झंझावात के समान अकस्मात हुआ था | महेन्द्रादित्य असावधान थे, उन्हें कल्पना ही नहीं थी कि शक उनपर इतनी दूर से आकर आक्रमण कर सकते हैं | मालवा ने तो उस समय प्रतिकार भी किया था, सौराष्ट्र तो बिना किसी ख़ास प्रतिरोध के ही शकों के आधिपत्य में आ गया था | 

बर्बर शक जिस प्रदेश से होकर गए, उसे ध्वस्त कर दिया | गाँव जला दिए, फसलें उजाड़ दीं, जनता का विनाश किया | वे केवल विनाशकारी थे | किन्तु शकों के अत्याचारों ने समाज को जागृत कर दिया और विक्रमादित्य के नेतृत्व में न केवल मालवा बल्कि राजपूताना, मध्यभारत और पूर्वी पंजाब तक के गणतंत्र साथ हो गए | प्रभावक चरित के अनुसार शकों और गणतांत्रिक सेनाओं के बीच हुए घनघोर युद्ध में शकों के वंश का पूर्ण उन्मूलन कर दिया गया | महज चार वर्ष ही शकों का आधिपत्य उज्जयिनी पर रह सका | शकों पर विजय के कारण विक्रमादित्य को शकारी की उपाधि प्राप्त हुई | और भारतीय इतिहास की इस महत्वपूर्ण विजय के उपलक्ष्य में एक संवत की स्थापना की गई, जिसे पहले कृत संवत, बाद में मालव गण संवत और नवीं सदी आते आते विक्रम संवत कहा जाने लगा | विक्रमादित्य की महानता तो देखिये, उन्होंने अपने काल में इसे अपना नाम नहीं दिया, कृत संवत कहा | कृत अर्थात सतयुग के बाद का शान्ति और समृद्धि का युग, भगवान राम के काल कृत युग का स्मरण | 

विक्रमादित्य ने विचार किया कि केवल मालवा से शकों का उन्मूलन ही पर्याप्त नहीं है, जब तक कोंकण, सौराष्ट्र, सिंध और भारत के पश्चिमी सीमांत के समीपवर्ती भागों में वे विद्यमान हैं, भारत तब तक सुरक्षित नहीं है | इसके लिए आवश्यक है सबको एक झंडे के नीचे लाना, सबको संगठित करना, या तो अनुनय से अथवा बलपूर्वक | उन्होंने दोनों उपायों का सहारा लिया | राज्य विस्तार उनकी अभिलाषा नहीं रही, वे धर्मविजई थे, इसीलिए भारत उनका आज भी स्मरण करता है | सर्व प्रथम विक्रमादित्य ने सौराष्ट्र और सिंध को शकों से मुक्त कराया | उनके इस विजय अभियान को देखकर, उनकी शक्ति को जानकर, गौडाधिराज शक्तिकुमार, कर्णाटक के राजा जयध्वज, लाट नरेश विजयवर्मन, कश्मीर के अधिपति सुनंदन, सिन्धुराज गोपाल, भिल्लराज विन्ध्यबल और पारसीकों के राजा निर्मुक ने उनकी अधीनता स्वीकार कर ली, तो सिंहल नरेश और कलिंगराज ने अपनी पुत्रियों का विवाह उनसे करके संबंधों को मधुर बना लिया | विक्रमादित्य ने भी इन राज्यों पर अपना अधिकार नहीं जमाया, किसी राजा का राज्य नहीं छीना, राजनैतिक प्रभुता अवश्य स्थापित की | देश ने विदेशी शासन तथा शोषण से मुक्त होकर शान्ति और समृद्धि का उपभोग किया | 

जैसा कि हमने पूर्व में वर्णित किया यह वह समय था, जब बौद्ध, जैन, सनातनी संघर्ष चरम पर था, उसकी ही परिणति था शकों का आक्रमण | किन्तु शांतिकाल में विक्रमादित्य ने सर्वधर्म समभाव का ही उदाहरण प्रस्तुत किया, जैन ग्रंथों में भी उनकी प्रशंसा करते हुए उल्लेख है | एक उदाहरण देखिये – 

एक बार जैन सूरि सिद्धसेन दिवाकर अवन्ती पहुंचे | उसी समय बिहार के दौरान संयोग से विक्रमादित्य उनके सामने आ गए | विक्रमादित्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिए उन्हें मानसिक अभिवादन किया और सूरी जी ने हाथ उठाकर उन्हें आशीर्वाद दिया | राजा ने पूछा, जब हमने अभिवादन नहीं किया, तब आपने हमें आशीर्वाद क्यों दिया ? सूरी जी ने कहा, यह उसे दिया गया है, जिसने अभिवादन किया, तुम हमारा आदर करने से चुके नहीं हो, अतः आशीर्वाद के अधिकारी हो | राजा हाथी से नीचे उतरे और उनका स्वागत करते हुए एक करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ समर्पित कीं | अब समस्या यह आई कि निर्लोभ सूरी जी उसे कैसे स्वीकार कैसे करते और दिए हुए दान को विक्रमाधित्य कैसे वापस लेते | मध्य मार्ग निकाला गया और वह धन भग्न मंदिरों के जीर्णोद्धार में लगाया गया | 

विक्रमादित्य ने जो अद्भुत सफलताएँ पाईं, उनके जिन सद्गुणों ने उन्हें लोकमान्य बनाया, उनके कारण वे एक आदर्श बन गए | उनके बाद जिस किसी भारतीय शासक ने विदेशी आक्रमणकारी को परास्त करने में सफलता पाई, उसने विक्रमादित्य की उपाधि धारण की | वस्तुतः यह एक प्रकार से उज्जयिनी नरेश विक्रमादित्य के प्रति उनका सम्मान व्यक्त करना ही था | समुद्रगुप्त, चन्द्रगुप्त द्वितीय, कुमारगुप्त, स्कन्दगुप्त, चालुक्य नरेश षष्ठ विक्रम तथा चोल नरेश विक्रम ऐसे ही कुछ उदाहरण हैं | पानीपत के द्वितीय युद्ध में १५५५ में मुगलों के खिलाफ लड़ते हुए दुर्भाग्यपूर्ण मृत्यु का शिकार हुए हेमचन्द्र विक्रमादित्य उपाख्य हेमू तक यह परंपरा बनी रही | 

अब आप ही बताईये कि हम भारतीयों को नव वर्ष अपने विजय पर्व विक्रम संवत के प्रथम दिवस वर्ष प्रतिपदा को मनाना चाहिए या हास्यास्पद आंग्ल नव वर्ष को ? 

विक्रमादित्य का कार्यकाल आमतौर पर ईसा से लगभग सौ वर्ष पूर्व का माना जाता है | उनके जीवन के अंतिम समय में हुई एक पराजय का भी वर्णन संस्कृत साहित्य में मिलता है | वह कथा कुछ इस प्रकार से है – 

विक्रमादित्य के सम्मुख एक दिन एक विचित्र और पेचीदा मामला आया | एक धनपति ने मृत्यु पूर्व अपने चारों पुत्रों को बसीयत छोडी कि उनके पलंग के पायों नीचे उन चारों के हिस्से की संपत्ति है | पिता की मृत्यु के बाद जब पलंग हटाकर पायों वाले स्थान को खोदा गया, तो चार घड़े निकले, जिनमें क्रमशः मिट्टी, तृण, हड्डियां और कोयला भरे थे | किसी की समझ में नहीं आ रहा था कि इसका क्या अर्थ है ? विक्रमादित्य के दरवार में भी कोई इसका मतलब नहीं समझ पाया | स्वर्गवासी धनिक के निराश चारों पुत्र महाराष्ट्र और आंध्र के सीमावर्ती प्रतिष्ठान नगरी में गए और आश्चर्यजनक ढंग से वहां एक कुम्हार के घर में पल रहे नौजवान ने उनकी समस्या का समाधान कर दिया | उसने कहा कि मिट्टी का अर्थ है भूमि, तृण का अर्थ है धान्य, हड्डियों का अर्थ है पशु और कोयले का अर्थ है स्वर्ण व रत्न | अब आप लोग अपनी रूचि के अनुसार संपत्ति में से अपना अपना भाग ले लो | चारों बेटे संतुष्ट होकर लौट गए | 

यह प्रसंग सुनकर विक्रमादित्य ने उस युवक को अपनी सभा में आमंत्रित किया, किन्तु युवक ने चोंकाने वाला जबाब दिया | उसने कहा मुझे आपसे कोई काम नहीं है, आपको है तो आप मेरे पास आईये | नाराज होकर विक्रमादित्य ने सेना सहित प्रतिष्ठान पुरी को घेर लिया और वहां के राजा को सन्देश भेजा कि उस नादान युवक को उनके पास भेजा जाए | लेकिन युवक फिर भी नहीं आया, युद्ध हुआ और उसमें विक्रमादित्य की पराजय हुई | कौन था वह युवक ? कैसे हुई वह पराजय ? जानने के लिए अगला अंक देखना न भूलें 


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