शालिवाहन उपाख्य सातवाहन गौतमीसुत सत्करणी




सम्राट विक्रमादित्य शकों को पराजित कर शकारि कहलाये | स्वाभाविक ही सवाल उठता है कि कौन थे ये शक ? आज के उजबेकिस्तान, किर्गिस्तान ताजिकिस्तान के बीच से बहने वाली सिर नदी के किनारे छोटे छोटे कबीलों के रूप में बसने वाले शक ईसा से दो सौ वर्ष पूर्व हूणों और युईस लोगों के आक्रमणों के कारण अपना क्षेत्र छोड़ने को विवश हुए | किन्तु इन आक्रमणों ने विस्थापित हुए शकों को एकजुट भी कर दिया और फिर तो उनकी सामूहिक शक्ति ने वैक्ट्रीया और पार्सियन साम्राज्यों को अस्तव्यस्त कर दिया | उसके बाद वे अफगानिस्तान के रास्ते सिंध में आकर बसे और मीननगर को अपनी राजधानी बनाया | आगे कैसे वे सौराष्ट्र और मालवा तक पहुंचे इसका वर्णन हमने सम्राट विक्रमादित्य वाले विडियो में किया ही है, जिसमें विक्रमादित्य के पराक्रम व महानता का कथानक भी था और अंतिम अंश में उनकी आश्चर्यजनक पराजय का भी वर्णन था | तो आईये उन्हें पराजित करने वाले महामानव की गाथा पर एक नजर डालें | 

हमारे पुराणों और अन्य संस्कृत ग्रंथों में महापुरुषों का वर्णन दैवीय चमत्कारों के साथ जोडकर किया जाता रहा, जिसे इतिहासकार काल्पनिक कहकर नकार देते हैं | यहाँ तक कि उन महापुरुषों के अस्तित्व पर भी प्रश्नचिन्ह लगा दिया जाता है | किन्तु एक महानायक थे गौतमीसुत सत्करणी, जिन्हें नकारने की तो किसी ने हिम्मत नहीं जुटाई, किन्तु उनके बहाने विक्रमादित्य पर प्रश्नचिन्ह अवश्य लगाए | अर्थात कहा गया कि ये दोनों एक ही व्यक्ति थे | जो भी है, हम पहले संस्कृत ग्रंथों में वर्णित सत्करणी की गाथा को देखते हैं, उसके बाद इतिहासकारों के अभिमत पर चिंतन करेंगे | 

उज्जयिनी नगरी में रहने वाली एक अतिशय सुन्दर ब्राह्मण कन्या जब नदी में स्नान कर रही थी, तब उस पर मोहित होकर शेष नाग ने उससे प्रणय निवेदन किया | परिणाम स्वरुप वह गर्भवती हो गई | कुंआरी कन्या के गर्भवती होने से उसे सामाजिक लांछन सहने पड़े और यहाँ तक कि वह एकाकी दर दर की ठोकरें खाने को विवश हुई | अंततः उसे आज की अमरावती और उस काल की प्रतिष्ठान पुरी में एक कुम्हार के घर शरण मिली, जहाँ उसने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया | स्वाभाविक ही शेष नाग उसके संरक्षक रहे और उनके माध्यम से उसकी शिक्षा दीक्षा भी हुई और कई अलौकिक शस्त्रास्त्र भी प्राप्त हुए | जैसा कि पूर्व के विडियो में वर्णित किया गया है, सम्राट विक्रमादित्य के साथ उसका युद्ध हुआ और प्रथमतः वह पराजित हुआ, किन्तु रात्रि में शेष नाग के आदेश पर सर्पों ने विक्रमादित्य की सेना पर आक्रमण कर दिया | उनके विष से सारी सेना का विनाश हो गया, अकेले विक्रमादित्य ही शेष बचे और पराजय मान उज्जयिनी वापस लौटे | इसके बाद तो वह नौजवान प्रतिष्ठान पुरी का नायक बनना ही था, जनता ने उसे ही अपना राजा स्वीकार कर लिया | 

अंतर केवल इतना है कि इतिहासकार उस नौजवान को सातवाहन वंश का एक महान राजा और शकों को पराजित करने वाला मानते है, जिसने लगभग 25 वर्षों तक शासन करते हुए एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की। उसने शक शासक नहपान को पराजित किया । नहपान ने उस काल में आज के नासिक, पूना, दक्षिण और उत्तरी गुजरात, कोंकण, भड़ौंच से सोपारा तक, बड़ौदा से प्रभास तक, मालवा से पुष्कर तक अपना साम्राज्य फैला लिया था। वह जिन राजाओं को जीतता उनके पुत्रों को अपनी राजधानी में नजरबंद करके रखता था, ताकि कोई भी राजा विद्रोह न कर सके | नहपान ने शतकर्णी के पास भी सन्देश भेजा कि वह उसका अधिपत्य स्वीकार करके अपने पुत्र को जमानत के रूप में उसके पास भेजे | शतकर्णी ने बड़ा ही वीरोचित जबाब दिया – मैं अपने आठ वर्षीय पुत्र को साथ लेकर तुम्हारे पास आ रहा हूँ, हिम्मत हो तो उसे छीन लो | 

उसके बाद शतकर्णी ने नहपान के साथ युद्ध किया और न केवल विजय प्राप्त की वरन उन राजपुत्रों को भी मुक्त कराया जिन्हें नहपान ने बंधक बना रखा था | शतकर्णी ने कृष्णा नदी के तट पर स्थित ऋशिक नगर, विदर्भ आदि प्रदेशों पर भी अधिपत्य कर लिया । उसका प्रभाव क्षेत्र उत्तर में मालवा तथा काठियावाड़ से लेकर दक्षिण में कृष्णा नदी तक तथा पूर्व में बरार से लेकर पश्चिम में कोंकण तक फैला हुआ था। शतकर्णी ने शक, यवन और पार्शियन तीनों विदेशी आक्रान्ताओं का मुकाबला किया और उन्हें परास्त किया | 

उसने 'त्रि-समुंद्र-तोय-पीत-वाहन' उपाधि धारण की जिससे यह पता चलता है कि उसका प्रभाव पूर्वी, पश्चिमी तथा दक्षिणी सागर अर्थात बंगाल की खाड़ी, अरब सागर एवं हिन्द महासागर तक था। जिन दिनों शातकर्णी का विजय अभियान पूरे देश में चल रहा था, अहिंसा के समर्थक बौद्ध भिक्षु उसकी माता के पास पहुंचे और कहा कि अब तक हम इस राज्य में शान्ति से रह रहे थे, किन्तु अब जब आपका बेटा हिंसाचार कर रहा है, लगातार युद्ध में रत है, हम इस राज्य में नहीं रह सकते | मां ने कहा कि आप मेरे पुत्र के आने तक थोडा रुक जाएँ | शतकर्णी जब युद्ध से लौटे, तब मां ने उन बौद्ध भिक्षुओं को उनसे मिलवाया | शतकर्णी ने जोर से हंसकर कहा, भंते मेरा राज्य छोडकर कहाँ जाओगे, अब तो जहाँ भी जाओगे वहां मेरा ही राज्य पाओगे | बेचारे बौद्ध इस सचाई को जान समझ कर चुप रह गए | 

शतकर्णी की चारित्रिक विशेषता और द्रढता का परिचायक एक प्रसंग विशेष ध्यान देने योग्य है | अपना विशाल साम्राज्य खड़ा कर लेने के बाद शतकर्णी ने एक राजसूय यज्ञ का आयोजन किया और यज्ञ के दौरान प्रथम पूज्य के रूप में अपनी मां के चरण पखारे | कई राजाओं और प्रभावी धर्मगुरुओं ने इस पर आपत्ति जताई और कहा एक कुंआरी मां को यह सम्मान कैसे दिया जा सकता है ? शतकर्णी ने गरजकर कहा, जिस माँ नौ माह मुझे गर्भ में रखकर मुझे जन्म दिया, जिसने अपार कष्ट सहकर मेरा लालन पालन किया, मेरे लिए तो वही प्रथम पूज्य है | आज मैं न केवल उनका पूजन करूंगा बल्कि आज से मेरा नाम केवल शतकर्णी नहीं, बल्कि गौतमीसुत शतकर्णी होगा | मैं ही नहीं मेरे वंशज भी अपनी मां के नाम से ही जाने जायेंगे | मेरे बाद मेरा बेटा भी वाशिष्ठी पुत्र पुलोमावि के नाम से जाना जाएगा | और ऐसा ही हुआ भी | 

इतिहासकारों का मानना है कि वह कुंआरी मां का पुत्र नहीं, बल्कि सातवाहन राजा का पुत्र था | मौर्य साम्राज्य की शक्ति क्षीण होने पर पुष्यमित्र श्रंग या शुंग के वंश का अभ्युदय हुआ, उसके बाद कन्व वंश सत्तारूढ़ हुआ, जिसके अंतिम राजा सुशर्मा को मारकर प्रथम सातवाहन राजा सिमुक ने मगध के राजसिंहासन पर कब्ज़ा किया | उनकी तीसरी पीढी में शतकर्णी का जन्म हुआ | इस मत से तो कलिंग नरेश खारवेल और सातवाहन शतकर्णी का कार्यकाल एक ही हुआ | दोनों ही एक साथ विजेता कैसे हो सकते थे ? इसके अतिरिक्त इतिहास कार एक और अटपटी बात मानते हैं कि भारत में प्रचलित शक संवत वस्तुतः शकों ने चलाया था | जिन शकों का आज कोई अस्तित्व ही नहीं है, प्रतापी विक्रमादित्य और शतकर्णी ने जिनको या तो जड़ मूल से समाप्त कर दिया या हिन्दू समाज में ही वे समरस होकर स्वतः अस्तित्व शून्य हो गए, उन्होंने कभी नवीन संवत प्रचलन में लाया होगा, तह तर्क गले नहीं उतर सकता | इसके अतिरिक्त विक्रम संवत के ७५ वर्ष बाद शक संवत प्रारंभ होता है | तो जब सम्राट विक्रमादित्य ने शकों को पराजित कर अपना साम्राज्य विस्तीर्ण कर लिया, उसके ७५ वर्ष बाद किसी शक राजा ने किस उपलक्ष में अपना संवत शुरू किया होगा ? 

शतकर्णी संस्कृत ग्रंथों के अनुसार कुंआरी मां के पुत्र हों या किसी सातवाहन राजा की विधवा रानी के, उनका पराक्रम निर्विवाद है | वे शालिवाहन जिनके विषय में जनश्रुति है कि वे मिट्टी के पुतलों में प्राण फूंककर अपनी सेना बना लेते थे, इसका भावार्थ यह ही माना जाना चाहिए कि वे अतिशय सामान्य जन में भी चेतना का संचार करने में प्रवीण थे | उनकी विजय वाहिनी की मूल शक्ति आमजन ही था | अंत में एक महत्वपूर्ण तथ्य ध्यान में रखने योग्य है | शतकर्णी के बाद लगभग पंद्रह सौ वर्ष तक भारत पर कोई विदेशी आक्रमण नहीं हुआ | संभवतः यह शतकर्णी द्वारा जागृत की गई सामजिक चेतना का ही परिणाम था | ऐसे जननायक, अद्भुत मातृभक्त और शालिवाहन शक संवत प्रणेता को सादर वंदन |
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