आर्य समाज का जन्म




यह तो सर्वज्ञात ही है कि किस प्रकार मोरवी गुजरात के एक छोटे से गाँव टंकारा में शिवरात्रि पर पूजन के दौरान शिवलिंग पर चुहिया को चढ़ते देख एक किशोर को मूर्तिपूजा से विरक्ति हुई, और आगे चलकर बही किशोर मूलशंकर आगे जाकर स्वामी दयानंद सरस्वती के नाम से प्रसिद्ध हुए | १८२४ में अर्थात भाद्रपद कृष्णपक्ष सम्वत १८८१ को औदीच्य ब्राह्मण करसन लाल जी तिवारी के घर जन्मे इस तेजस्वी बालक ने घर में ही रहकर संस्कृत और धर्मशास्त्रों का अध्ययन किया था | यहाँ तक की चौदह वर्ष की आयु में ही यजुर्वेद संहिता सहित वेदों के पाठ भी सम्पूर्ण हो गए थे | 

जिस समय युवा मूलशंकर निराकार और साकार ब्रह्म को लेकर अपने मन में उठ रहे सवालों के जबाब ढूंढ रहे थे, प्रतिमा के स्थान पर साक्षात शिव को तलाश रहे थे, उस समय अंग्रेज शासक ईसाई मिशनरियों के माध्यम से हिन्दू समाज में व्याप्त कुरीतियों को आधार बनाकर हिन्दू धर्म पर सीधा आक्रमण कर रहे थे | उनका उद्देश्य एक ही था, ज्यादा से ज्यादा धर्मान्तरण करवा कर, हिन्दुओं को ईसाई बनाना और इस प्रकार अपनी सत्ता की जड़ें मजबूत करना | 

इसे समझकर ही आगे चलकर स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने नरेंद्र को स्वामी विवेकानंद बनाया जिन्होंने हिंदुत्व के प्रति उपजी नकारात्मकता के स्थान पर उसकी श्रेष्ठता न केवल भारत में बल्कि पूरी दुनिया में प्रतिस्थापित करने में सफलता पाई | 

प्रकारांतर से यही कार्य स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी किया | अपनी प्रिय बहिन और चाचा जी के निधन ने उनके मनोमस्तिष्क में सवाल और बढ़ा दिए थे | ईश्वर का वास्तविक स्वरुप क्या है, के साथ साथ अब मृत्यु क्यों होती है, क्या इससे बचा नहीं जा सकता | और १८४६ में अपने सवालों का जबाब ढूँढने हेतु २२ वर्षीय दयानंद ने उस समय स्थाई रूप से घर छोड़ दिया जब मातापिता उन्हें विवाह बंधन में बांधने को उद्यत थे | उसके बाद शुरू हुआ, साधू सन्यासियों से मिलने और उनसे संवाद का दौर | इसी बीच एक ब्रह्मचारी ने उन्हें काषाय वस्त्र धारण करवा कर नया नाम भी दे दिया – शुद्ध चैतन्य | अहमदावाद के नजदीक सिद्धपुर नामक स्थान पर नीलकंठ महादेव मंदिर पर पिता ने आखिर इन्हें खोज ही लिया | सिपाहियों के साथ घर को रवाना किया, किन्तु मार्ग में ही चकमा देकर फिर भाग निकले | इन्हें तो अमरत्व पाना था, फिर नश्वर जगत से कैसा मोह ? उसके बाद फिर शुरू हुआ साधू सन्यासियों ब्रह्मचारियों से मिलने और ज्ञान चर्चा का दौर | अंत में एक महाराष्ट्रियन दंडी स्वामी पूर्णानंद सरस्वती ने इन्हें संन्यास की दीक्षा देकर “दयानंद सरस्वती” नाम दे दिया | उसके बाद स्वामीजी ने योग, व्याकरण और शास्त्रों का अध्ययन जारी रखा | एक ही लक्ष्य था सीखना और आगे बढ़ना | 

सच्चे शंकर की खोज में नागाधिराज हिमालय की भी रोमांचक यात्रा की | वहां तांत्रिक ग्रंथों के अनुशीलन के दौरान मांस मदिरा और स्त्री विषयक उल्लेख पढ़ मन को और भी खेद हुआ | 

रूद्र प्रयाग, केदारनाथ, गुप्तकाशी, त्रियुगीनारायण होते हुए शीतकाल में अकेले ही हिमालय की वन कंदराओं में घूमे कि शायद कोई ग्यानी ध्यानी साधू मिल जाए और उससे कुछ ज्ञान प्राप्त हो जाए | किन्तु अनेक कष्ट सहकर भी निष्कर्ष यही निकला कि वेद, उपनिषद, पातंजल और सांख्य शास्त्र के अतिरिक्त कहीं कुछ सार तत्व नहीं है | 

एक विशेष बात ध्यान देने योग्य है | महर्षि दयानंद सरस्वती की हस्तलिखित आत्मकथा उपलब्ध है, लेकिन उसमें १८५७ से लेकर १८६० तक की कोई चर्चा नहीं है | अनेक लोगों का मानना है कि उस दौरान वे क्रांतिकारी सन्यासी की भूमिका में थे, यद्यपि इसके अकाट्य तथ्य नहीं मिलते | १८५७ में नर्मदा का उग्द्गम देखने भीषण वनों में रीछ और हाथियों का सामना करते हुए वे आगे बढे, इसके बाद उनकी आत्मकथा में केवल यह उल्लेख मिलता है कि १४ नवम्बर १८६० को उनकी विरजानंद जी से मथुरा में भेंट हुई | 

विरजानंद जी की वेदादि आर्य ग्रंथों में प्रगाढ़ आस्था थी, किन्तु शेखर, कौमुदी आदि आधुनिक पुस्तकों के प्रति बड़ी अश्रद्धा थी | ८१ वर्षीय विरजानंद अंधे थे, किन्तु व्यक्ति पहचानने की उनमें अद्भुत क्षमता थी | उनके पास रहकर स्वामी जी ने ग्रंथों का अध्ययन प्रारंभ किया | ढाई वर्ष तक वहां रहकर उन्होंने अध्ययन किया और विदा लेते समय गुरू दक्षिणा स्वरुप कुछ लोंग विरजानंद जी के चरणों में समर्पित कीं, क्योंकि धन तो वे लेते ही नहीं थे | विरजानंद जी मुस्कुराकर बोले – दयानंद मुझे लॉन्ग नहीं चाहिए, लेकिन जो चाहिए, वह केवल तुम ही दे सकते हो | 

दयानंद बोले – आदेश कीजिए गुरू जी | 

विरजानंद ने धीर गंभीर स्वर में बोले – मैं तुमसे तुम्हारे जीवन की दक्षिणा चाहता हूँ | प्रतिज्ञा करो कि आर्यावर्त में अनार्ष ग्रंथों की महिमा स्थापित करोगे और भारत में वैदिक धर्म की स्थापना में अपने प्राण तक अर्पित कर दोगे | 

उसी क्षण दयानंद जी ने चरण छूकर उनका आदेश शिरोधार्य किया | उसके बाद स्वामी जी दो वर्ष आगरा में रहे, फिर ग्वालियर होकर जयपुर पहुंचे, जहाँ उनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर जयपुर नरेश उनके सहयोगी बन गए | १८५५ के हरिद्वार कुम्भ में उन्होंने अपने वस्त्र फाडकर एक पताका तैयार की और उस पर लिखा – पाखण्ड खंडिनी | उसे अपनी कुटिया पर फहराकर अधर्म अनाचार और शोषण के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी | कुम्भ के बाद पूरे देश में घूमकर उन्होंने वेद, शास्त्र, ब्रह्मचर्य, पराविद्या और सत्वगुण का प्रचार तथा पुराणादि ग्रंथों, मूर्ति पूजा, तंत्र में वर्णित वाम मार्ग, भांग आदि नशे का विरोध शुरू कर दिया | उनकी भाषा संस्कृत थी, इसलिए आमजन तो उनकी बात नहीं पहुँच पा रही थी, किन्तु पंडित वर्ग उनसे परेशान हो गया | १६ नवम्बर १८६९ को “मूर्तिपूजा वेदोक्त है अथवा नहीं” इस विषय पर काशी में एक शास्त्रार्थ का आयोजन हुआ, जिसमें काशी नरेश की अध्यक्षता में एक ओर तो अकेले महर्षि दयानंद सरस्वती थे, और दूसरी ओर उस युग के प्रकांड पंडित स्वामी विशुद्धानंद, बालशास्त्री, माधवाचार्य और तारचरण आदि थे | उस शास्त्रार्थ को लेकर पायोनियर और पैट्रियट आदि समाचार पत्रों ने आलेख प्रकाशित किये | ऐसे शास्त्रार्थों में कौन जीता कौन हारा, यह कहना कठिन होता है, किन्तु इस शास्त्रार्थ के बाद प्रयाग मिर्जापुर आदि स्थानों पर भ्रमणकर स्वामी जी जब एक बार फिर बनारस पहुंचे तो काशी नरेश ने उन्हें अपने राजमहल में आमंत्रित कर स्वर्ण सिंहासन पर आसीन करवाया | बनारस में तीन माह रहने के बाद उत्तर प्रदेश और बिहार होते हुए जब वे कोलकता पहुंचे, तो वहां कई विद्वानों के साथ उनका विचार विमर्श हुआ और उसकी परिणति यह हुई कि उन्होंने संस्कृत के स्थान पर अपना उद्बोधन हिन्दी में देना प्रारंभ कर दिया | बाद में सत्यार्थ प्रकाश भी उन्होंने हिन्दी में ही लिखा | साथ ही उनकी वेशभूषा भी बदल गई और उन्होंने धोती कुडता दुपट्टा पहनना शुरू कर दिया | स्वाभाविक ही अब स्वामी जी के विचार आम जनता तक भी पहुँचने लगे और उनका प्रभाव भी तेजी से बढ़ने लगा | 

२९ जनवरी १८७५ को वे मुम्बई पहुंचे, स्थानीय विद्वतसमाज ने उनका पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत किया | मुम्बई में ही उसी वर्ष सम्वत १९३१ की वर्ष प्रतिपदा को आर्य समाज की स्थापना उन्होंने की, जिसके प्रारंभिक सदस्यों में शामिल थे – श्याम जी कृष्ण वर्मा, जिन्होंने बाद में इंग्लेंड में जाकर क्रांतिकार्यों का श्रीगणेश किया | तो इस प्रकार भारतीय नववर्ष आर्य समाज का भी जन्म दिवस है, इसीलिए नववर्ष की कहानियों में हमने इसे भी सम्मिलित किया है | 

आखिर अंग्रेज सरकार तक जन जाग्रति के यह स्वर कब तक नहीं पहुंचते | स्वामी जी की मृत्यु जिन परिस्थितियों में हुई, उससे भी यही आभास मिलता है कि उसमें निश्चित ही अग्रेजी सरकार का कोई षड्यन्त्र था। उन दिनों वे जोधपुर नरेश महाराज जसवन्त सिंह के निमन्त्रण पर जोधपुर गये हुए थे। वहां उनके नित्य ही प्रवचन होते थे। दो-चार बार स्वामी जी राजमहल में भी गए। वहां पर उन्होंने नन्हीं नामक वेश्या का महाराज जसवन्त सिंह पर अत्यधिक प्रभाव देखा। स्वामी जी ने महाराज को इस बारे में समझाया तो उन्होंने विनम्रता से उनकी बात स्वीकार कर ली और नन्हीं से सम्बन्ध तोड़ लिए। इससे नन्हीं स्वामी जी के बहुत अधिक विरुद्ध हो गई। उसने स्वामी जी के रसोइए कलिया उर्फ जगन्नाथ को अपनी तरफ मिला कर उनके दूध में पिसा हुआ कांच डलवा दिया, जिसने बाद में स्वामी जी के पास आकर अपना अपराध स्वीकार कर क्षमा मांगी । उदार-हृदय स्वामी जी ने उसे राह-खर्च और जीवन-यापन के लिए पांच सौ रुपए देकर वहां से विदा कर दिया ताकि पुलिस उसे परेशान न करे। 

स्वामी जी को जोधपुर के अस्पताल में भर्ती करवाया गया तो वहां सम्बन्धित चिकित्सक भी शक के दायरे में रहा। उस पर आरोप था कि वह औषधि के नाम पर स्वामी जी को हल्का विष पिलाता रहा। बाद में जब स्वामी जी की तबियत बहुत खराब होने लगी तो उन्हें अजमेर के अस्पताल में लाया गया। मगर तब तक काफी विलम्ब हो चुका था। स्वामी जी को बचाया नहीं जा सका। 

इस सम्पूर्ण घटनाक्रम में आशंका यही है कि वेश्या को उभारने तथा चिकित्सक को बरगलाने का कार्य अंग्रेजी सरकार के इशारे पर किसी अंग्रेज अधिकारी ने ही किया। ३० अक्टूबर १८८३ को दीपावली के दिन स्वधर्म, स्वभाषा, स्वराष्ट्र, स्वसंस्कृति और स्वदेशोन्नति के अग्रदूत स्वामी दयानन्द जी का शरीर पंचतत्व में विलीन हो गया और वे अपने पीछे छोड़ गए एक सिद्धान्त, कृण्वन्तो विश्वमार्यम् - अर्थात सारे संसार को श्रेष्ठ मानव बनाओ।
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