अंग्रेजो का भारत प्रवेश - महाराजा यशवंतराव होल्कर का प्रतिकार



अगर इतिहास के पन्ने पलटकर इस प्रश्न का उत्तर खोजा जाए कि जब अंग्रेज भारत में घुसे, तब सबसे ज्यादा और सबसे लम्बा संघर्ष उनसे किसने किया, तो जबाब मिलेगा महाराजा यशवंत राव होलकर | भारतीय इतिहासकारों ने एक झूठ प्रचारित कर रखा है कि अंग्रेजों ने राज्य दिल्ली की मुग़ल सल्तनत से लिया, जबकि सचाई यह है कि उस समय देश के अधिकाँश भू भाग पर मराठों का कब्जा था | तो आईये शुरू करते हैं यशवंत राव होलकर की गौरव गाथा की चर्चा – 

यह हम देख ही चुके है कि कैसे लोकप्रिय पेशवा माधव राव के बाद पेशवा बने उनके छोटे भाई नारायण राव की हत्या कर चाचा रघुनाथराव पेशवा बने, किन्तु इस कलंक ने उन्हें ज्यादा समय टिकने नहीं दिया और राज्य के प्रभावशाली मंत्रियों ने, जिन्हें 12 भाई कहकर संबोधित किया जाता है, नारायण राव के एक वर्षीय पुत्र माधवराव द्वितीय को पेशवा बनाया | उसके बाद रघुनाथराव शनिवारवाड़ा छोड़कर भाग गए और अंग्रेजों से जा मिले जिसके कारण प्रथम आंग्ल मराठा युद्ध हुआ, जिसमें मराठों की जीत हुई और अंग्रेज और रघुनाथ राव हार गए। किन्तु दुर्भाग्यजनक परिस्थितियों में इस किशोर पेशवा ने 1795 में अपने पैत्रिक आवास शनिवार वाड़ा की छत से कूदकर आत्महत्या कर ली । कोई वंशज शेष न रहने के कारण नाना फडनविस और शक्तिशाली दौलत राव सिंधिया ने रघुनाथराव के दत्तक बड़े पुत्र अमृत राव के स्थान पर उनके पुत्र बाजी राव द्वितीय को पेशवा बनाया | 

स्वातंत्र वीर सावरकर ने इन बाजीराव को ही अंग्रेजों की भारत में जड़ें जमाने के लिए जिम्मेदार माना है | क्योंकि इनके समय में ही मराठा साम्राज्य का पतन होना शुरू हुआ और कई मराठा क्षेत्र अंग्रेज़ों को दे दिये गए । एक प्रकार से बाजीराव द्वितीय ने अपनी रक्षा के लिए अंग्रेज़ों के हाथ देश की स्वतंत्रता बेच दी। यह सब विषय तो आगे आयेंगे फिलहाल तो हम होलकर वंश पर ध्यान केन्द्रित करते हैं - 

उत्तर भारत में मराठा साम्राज्य के सबसे प्रतापी सरदार थे मल्हार राब होलकर | लेकिन दुर्भाग्य तो देखिये उनके इकलौते पुत्र खांडेराव १७५४ में भरतपुर नरेश सूरजमल जाट से हुए युद्ध में उनकी आँखों के सामने ही स्वर्ग सिधार गए | १७६६ में मल्हारराव के देहांत के बाद उनके पोते मालेराव सिंहासन पर बैठे लेकिन कुछ महीनों बाद ही वे भी भगवान को प्यारे हो गए | उसके बाद देवी अहिल्याबाई ने किस धैर्य और बुद्धिमत्ता से मालवा का शासन संभाला यह तो जगत विख्यात है | १३ अगस्त १७९५ को माता अहिल्याबाई के कैलाशवासी होने के बाद सत्ता संभाली तुकोजीराव होलकर ने | वे न केवल स्वर्गीय मल्हारराव के चचेरे भाई के पुत्र थे, वरन उनके सर्वाधिक विश्वस्त सहयोगी भी रहे थे | उन्होंने आयु में अधिक होने के बाद भी सदैव अहिल्याबाई को मातृवत ही सम्मान दिया | इतना ही नहीं तो अपनी मुहर पर भी उन्होंने स्वयं को खंडोजी सुत ही लिखा | लेकिन इनका कार्यकाल भी दो ही वर्ष रहा तथा १५ अगस्त १७९७ को तुकोजी भी स्वर्ग सिधार गए | तुकोजी के बड़े बेटे काशीराव गद्दी पर बैठ तो गए, किन्तु सत्ता संभाल नहीं पाए और हमारे आज के कथानायक यशवंत राव होलकर ने इतिहास के पन्नों में अपनी जगह बनाई | आईये उस समय के घटनाचक्र पर नजर डालते हैं | 

तुकोजी के चार बेटे थे, पहली पत्नी रखमा बाई से काशीराव और मल्हारराव उपाख्य भाई जी तो दूसरी पत्नी यमुना बाई से बिठोजी और यशवंतराव | काशीराव शासक तो बन गए, किन्तु उनकी शेष तीनों भाईयों से पटरी नहीं बैठी और उन्होंने अपनी सुरक्षा की खातिर तत्कालीन सिंधिया नरेश दौलतराव से नजदीकी बढ़ा ली | नतीजा यह निकला कि एक महीने बाद ही अर्थात १४ सितम्बर १७९७ को सिंधिया के सेनापति मुजफ्फर खां ने रात्री के समय शेष तीनों भाइयों के सैन्यदल पर हमला कर दिया | इस लड़ाई में मल्हारराव भाई जी मारे गए और बिठोजी तथा यशवंत राव घायल होकर नागपुर में रघुजी भोंसले की शरण लेने को विवश हुए | महाराष्ट्र में घटनाएँ कुछ ज्यादा ही तेजी से चल रही थीं | इतिहास प्रसिद्ध नाना फड़नवीस और तत्कालीन पेशवा बाजीराव द्वितीय के सम्बन्ध खराब हुए तो चतुर सिंधिया ने बाजीराव का साथ देते हुए नाना फड़नवीस को धोखे से बंदी बना लिया | इतना ही नहीं तो उनके नजदीकी सहयोगियों पर भी कहर टूटा, उनकी संपत्ति लूटी गई, उन्हें इतना बेइज्जत किया गया कि उनमें से एक बुजुर्ग अप्पा बलवंत मेहंदेले ने तो जहर खाकर आत्महत्या ही कर ली | स्वाभाविक ही दौलतराव सिंधिया की ताकत इतनी बढ़ गई थी कि जब उन्होंने नागपुर के भोंसले को पत्र लिखकर यशवंत राव होल्कर को माँगा तो विवश होकर रघुजी भोंसले ने यशवंतराव को गिरफ्तार कर सिंधिया के पास रवाना किया | यह अलग बात है कि रास्ते में ही तू डाल डाल मैं पात पात की तर्ज पर यशवंतराव चकमा देकर निकल गए | 

उनके कैद होने और फिर छूटने का समाचार फैलते ही पुराने विश्वस्त सहयोगी साथ जुटने लगे और फ़ौज जुट गई, शक्ति इतनी बढ़ गई कि धार के तत्कालीन राजा आनंद राव पंवार ने भी अपने मंत्री रंगनाथ से परेशान होकर इनकी मदद मांगी | यशवंतराव ने आसानी से रंगनाथ को पराजित कर खदेड़ दिया | सिंधिया से नाराज यशवंतराव ने अब उनके इलाकों से बसूली करना भी शुरू कर दिया | यह वह प्रारंभिक दौर था जब यूरोपियन भारतीय राजाओं की सेना में जिम्मेदारियां संभालने लगे थे | ऐसा ही एक व्यक्ति था डूड्रेंस, जो काशीराव होलकर का सेनानायक था | दिसंबर १७९८ में उससे यशवंतराव की पहली भिडंत हुई, जिसमें डूड्रेंस को करारी शिकस्त मिली | उसकी तोपों और अन्य सामान पर भी यशवंतराव का कब्जा हो गया | यह दोनों भाईयों में भिडंत का प्रारंभ था, लेकिन निश्चित रूप से शुरूआत काशीराव ने की थी, जिसने सिंधिया की मदद से अपने ही छोटे भाई मल्हारराव भाई जी की जीवन लीला समाप्त करवाई थी | डूड्रेंस ही हार गया, तो फिर राजधानी महेश्वर पर कब्ज़ा करने में यशवंत राव को भला क्या देर लगती | ६ जनवरी १७९९ को धूमधाम से उनका महेश्वर में राज्याभिषेक संपन्न हुआ | राज्य के अधिकाँश बफादार लोग उनके साथ हो गए | 

लेकिन डूड्रेंस ने हिम्मत नहीं हारी और अपने दामाद प्लूमेट के साथ एक बार फिर हमला किया, एक बारगी तो उसने महेश्वर पर भी पुनः कब्जा जमा लिया, किन्तु शीघ्र ही उसे हार माननी ही पड़ी | चतुर था अतः उसने पाला बदलने में ही भलाई समझी और यशवंतराव के साथ हो लिया | बैसे भी अंग्रेजों को तोताचश्म कहा ही जाता है, इसका और भी प्रमाण हमें आगे देखने को मिलेगा | 

उसी समय का एक रोचक प्रसंग है | एक चित्रकार को महाराज यशवंतराव ने अपना सजीव चित्र बनाने का आदेश दिया | संयोग से उस समय उनकी एक आँख चोटिल थी | हुआ कुछ यूं था कि एक नई बन्दूक का निरीक्षण करते समय उसकी नली फट गई थी और आँख में चोट आ गई थी | अब चित्रकार बड़े असमंजस में था कि करे तो क्या करे | अगर आँख को ठीक बनाए, तो भी गलत फोटो बनाने से सजा का डर, और अगर आँख को यथावत बनाये तो चित्र कुरूप होने से सजा पक्की | उसने एक अद्भुत उपाय सोचा और चित्र में महाराज को बन्दूक से निशाना साधते हुए दर्शाया, जिसमें स्वाभाविक ही एक आँख बंद करनी ही थी | चित्र सुन्दर बना और वास्तविक भी, अतः उसे भरपूर पुरष्कार भी मिला | वह चित्र लोकप्रिय भी हुआ और उसकी अनुकृतियां घर घर में शोभा पाती रहीं | 

यह वह समय था जब अंग्रेज अपनी आँख भारत पर गडाए हुए मौके की ताक में थे और भारत के तीनों प्रभावशाली घराने अर्थात पेशवा बाजीराव, दौलतराव सिंधिया और होलकर भाई आपस में शत्रुता बढ़ा रहे थे | 

सिंधिया और पेशवा से संघर्ष 

यशवंतराव होलकर के बड़े भाई बिठोजी पेशवा के बड़े भाई अमृतराव की ओर से पेशवा बाजीराव की नाक में दम किये हुए थे | दुर्भाग्य जनम परिस्थितियों में बिठोजी को अप्रैल १८०० में बापूराव गोखले ने धोखे से पकड़ लिया और बेड़ियों से जकड़कर पेशवा बाजीराव के सामने पेश किया | पेशवा के दरवार में सिंधिया के प्रशासनिक अधिकारी बालाजी कुंजर की सलाह पर बिठोजी को दो सौ कोड़े लगाकर हाथी के पैरों तले कुचलवाने की सजा सुना दी गई | मराठा साम्राज्य के शुभचिंतकों ने पेशवा को सलाह भी दी कि जिस होलकर वंश ने साम्राज्य की इतनी सेवा की है, उसके साथ ऐसा व्यवहार किया जाना अनुचित होगा, किन्तु अनुभव हीन बाजीराव ने किसी की एक न सुनी और फिर १६ अप्रैल १८०१ को एक हाथी के पैरों से बांधकर बिठोजी को चौबीस घंटे तक क्रूरता पूर्वक मैदान में घसीटा गया, कुचला गया और मार डाला गया | 

इसकी प्रतिक्रिया होना ही थी, क्रोधित यशवंतराव ने सिंधिया के क्षेत्र में कहर वरपा कर दिया | मंदसौर और सीतामढी में जबरदस्त बसूली की गई, २५ जून १८०१ को सतवास के पास हुई लड़ाई में सिंधिया के सेनानायक मेकेंटायर व अन्य यूरोपियनों को गिरफ्तार कर उनके पास की सैन्य सामग्री कब्जे में ले ली गई | इतना ही नहीं तो, १७ - १८ जुलाई को तो सिंधिया की सेना को बहुत नुक्सान पहुंचाते हुए पावन नगरी उज्जैन पर भी यशवंत राव का कब्जा हो गया | यशवंत राव की इन सफलताओं ने काशीराव को भी प्रभावित किया और उन्होंने भी पत्र लिखकर आपसी मेल मिलाप की इच्छा जताई तो यशवंतराव ने भी सकारात्मक जबाब दिया कि आप तो मेरे बड़े भाई हैं, मैं हमेशा आपके आदेश का पालन करूंगा | आप महेश्वर पहुंचें, मैं युद्ध समाप्त होते ही आपके पास पहुचूँगा | काशीराव महेश्वर पहुँच भी गए | तभी यशवंतराव को सूचना मिली कि सिंधिया की सेना सर्जाराव घाटगे के नेत्रत्व में इंदौर की ओर बढ़ रही है | 

बदले की आग में जलते दौलत राव सिंधिया ने बदला लेने के लिए अपनी पूरी शक्ति जमा कर इंदौर पर धावा बोल दिया था | दस दिन चले युद्ध के बाद १४ अक्टूबर १८०१ को विजई सिंधिया सेना ने इंदौर में प्रवेश किया | जमकर लूटा गया और शानदार राजबाड़ा भी धू धू कर जल उठा | नगर के सारे कुए लाशों से पट गए | यह समाचार पाकर काशीराव होलकर की सेना के बहादुर सिपाही भी यशवंतराव की सेना से जा मिले, आखिर अब तो उनके भी मान सम्मान का प्रश्न था | दुबारा शक्ति संचय कर जब यशवंतराव इंदौर पहुंचे तब वह लगभग बेचिराग था | हर तरफ बरबादी का मंजर था | आहत ह्रदय से अब उनकी प्राथमिकता इंदौर को दोबारा बसाना था, वे प्राणपण से उसमें जुट गए | महेश्वर पहुंचकर उन्होंने बड़े भाई काशीराव से भी भेंट कर उनका आशीर्वाद लिया | 

दौलतराव को जब लगा कि दोनों भाई एकजुट हो गए हैं, तो उन्होंने भी समझौते की बातचीत चलाई | लेकिन यशवंतराव ने दो टूक कहा कि पहले आप उस समझौते का पालन करें जो आपके और मेरे पूज्य पिताजी तुकोजीराव के बीच हुआ था, हमारे वे इलाके छोड़ें जो आपने जबरन कब्ज़ा लिए हैं, और हमारे भतीजे अर्थात बड़े भाई मल्हार राव भाई जी के बेटे को छोड़ें, जिसे आपने बंदी बना रखा है | यह शर्तें दौलतराव सिंधिया ने ठुकरा दी | अब यह तय हो चुका था कि संघर्ष चलता रहने वाला है | अतः सैन्य अभियानों के लिए और इंदौर पुनः बसाने के लिए धन जुटाने यशवंतराव ने अपना रुख राजपूताने की तरफ किया | पहले तो नाथद्वारा के दर्शन किये और उसके बाद लौटते में कोंकरोली, राजसमुंद, लावा, रामपुरा, टोंक आदि से बसूली की | कहीं राजी से सहयोग के रूप में, तो कहीं जबरदस्ती से लड़कर | उनकी बढ़ती ताकत देखकर बड़े भाई काशीराव को चिंता सताने लगी, सहयोगियों ने भी उन्हें पट्टी पढाई और भय इतना बढ़ा कि वे महेश्वर छोड़कर सेंधवा दुर्ग पहुँच गए | सेना तो अब उनके पास कोई बची ही नहीं थी, सब यशवंतराव के साथ मिल चुकी थी | यशवंतराव ने उनका भय दूर करने की चेष्टा भी की, किन्तु असफल रहे तो उन्होंने अपना ध्यान भाई की ओर से हटाकर लक्ष्य की ओर किया और दक्षिण की ओर प्रयाण किया | पेशवा बाजीराव को दहशत होने लगी | उनकी आँखों के सामने वह दृश्य घूमने लगा कि कैसे उन्होंने यशवंतराव के भाई को हाथी के पैरों तले कुचलवाया था | 

यशवंतराव की सेनायें अहमदनगर, डूंगरगाँव, फरहाबाग़ होते हुए सिंधियाओं के मूल स्थान जाम गाँव जा पहुंची, जहाँ उन्होंने सभी महलों को जलाकर ख़ाक कर दिया | उसके बाद पंढरपुर दर्शन करते हुए जब बारामती पहुंचे, तब उनका सामना पेशवा की सेनाओं से हुआ | सेनानायक फतह सिंह माने ने पेशवा बाजीराव की सेना का नेतृत्व कर रहे पुरंदरे को सन्देश भी भेजा कि हम युद्ध करने नहीं, केवल पेशवा से न्याय माँगने आये हैं | लेकिन पुरंदरे को भरोसा नहीं हुआ और पेशवा की सेना ने गोलाबारी शुरू कर दी | अब मजबूरी हो गई, ज़बाब दिया गया और पेशवा की सेना पराजित होकर छिन्नभिन्न हो गई | एक बार फिर यशवंतराव ने पेशवा को सन्देश भेजा कि उन्हें सिंधिया से न्याय दिलवाया जाए, हमें आपस में लड़कर शक्ति क्षीण नहीं करना चाहिए, क्योंकि अंग्रेज मौके की ताक में हैं | उन्होंने यह भी कहा कि पारस्परिक चर्चा हेतु बालोजी कुंजर को ही भेजा जाए, क्योंकि वही संधि के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, एक बार वह मान गया तो फिर संधि पक्की होगी | अब बालोजी कुंजर वही व्यक्ति था जिसने पेशवा बाजीराव को भड़काकर यशवंतराव के बड़े भाई बिठोजी की जघन्य हत्या करवाई थी | डर के मारे उसने जाने से इनकार कर दिया | दूसरे लोग गए तो बात बनी नहीं | 

इस अभियान का समाचार पाकर सिंधिया की सेना भी पुणे की ओर बढ़ चली | अहमदनगर से पुणे तक का ७२ मील का भूभाग मानो रणक्षेत्र में परिवर्तित हो गया | २५ अक्टूबर १८०२ को जब पूरा देश दीपावली मना रहा था, मराठा साम्राज्य के योद्धा आपस में खून की होली खेल रहे थे | इतिहासकारों के अनुसार दोनों ओर का सैन्य बल लगभग बराबर का था | होलकर के साथ लगभग एक लाख चालीस हजार सैनिक थे, तो सिंधिया के साथ पिच्यासी हजार और पेशवा के सैनिक लगभग साठ हजार | घोरपडी, बनवारी और हड़पसर गाँवों के बीच तोपें गरजने लगीं | कभी एक दल को पीछे हटना पड़ता तो कभी दूसरे दल को | तभी चीते की सी फुर्ती से यशवंतराव, सिंधिया के तोपखाने के पीछे जा पहुंचे और तोपचियों के सर काट डाले | बस फिर क्या था पलड़ा पलट गया, जो तोपें अभी तक होलकर सेना पर आग बरसा रही थीं, वे सिंधिया और पेशवा की सेना का संहार करने लगीं | प्रसिद्ध इतिहासकार जदुनाथ सरकार ने उस यूद्ध का वर्णन करते हुए लिखा है कि यशवंतराव होलकर विरोधी सैनिकों पर इस प्रकार झपटे जैसे हिरणों पर बाघ टूटता है और उसके बाद तो प्रतिद्वंदी ऐसे तितर बितर हो गए जैसे आंधी आने पर भूसा उड़ता है | विजई यशवंतराव ने जब पुणे शहर में प्रवेश किया, उसके पूर्व उन्होंने अपने सैनिकों को सख्त हिदायत दी थी कि जिसने एक भी पुणे वासी को सताया, उसका सर कलम कर दिया जाएगा | इस कठोर अनुशासन के कारण पुणे वासियों की दीपावली में कोई व्यवधान नहीं आया | 

पराजित पेशवा भागते हुए सिंहगढ़ की तरफ जा रहे थे, यशवंतराव ने उन्हें सन्देश भी भेजा कि आप निर्भय होकर पुणे वापस आ जाएँ, आप अब भी मेरे सम्मानित शासक हैं | किन्तु पेशवा ने भरोसा नहीं किया तो गाड़ियों में भरकर उनके लिए खाद्य सामग्री भेजकर यशवंतराव ने अपनी सदाशयता प्रदर्शित की | लेकिन पेशवा पर इसका कोई असर नहीं हुआ और उन्होंने रायगढ़ पहुंचकर ३० अक्टूबर १८०२ को अंग्रेजों को पत्र भेजा कि मेरा सेवक होलकर मेरे साथ अन्याय कर रहा है, अतः मैं आपसे संधि करना चाहता हूँ | अंततः धूर्त बालोजी कुंजर की सलाह पर, १ दिसंबर १८०२ को हर्कुयन नामक पानी के जहाज पर सवार होकर पेशवा बेसिन जा पहुंचे जहाँ भारत के भाग्य को अँधेरे में धकेलने वाली कुख्यात बेसिन संधि पर उन्होंने और क्लोज ने हस्ताक्षर कर दिए | अधिकाँश मराठा सरदारों ने बेसिन की संधि के प्रति अपना रोष प्रकट किया, क्योंकि उन्हें लगा कि पेशवा ने अपनी क़ायरता के कारण उन सभी की स्वतंत्रता बेच दी है। 

अंग्रेज सेना हुई मटियामेट 

बेसिन संधि से मराठा संघ में उपजे आक्रोश को भुनाने के लिए यशवंतराव होलकर ने १ जनवरी १८०३ को सभी मराठा सरदारों की एक बैठक आयोजित की, जिसमें उन्होंने कहा कि बाजीराव पेशवा ने मराठा राज्य अंग्रेजों के हाथों बेच दिया है | यह देशद्रोह है अतः अब समय आ गया है, जब हमें रघुनाथ राव के दत्तक बड़े पुत्र अमृत राव को पेशवा मान्य कर उनके झंडे तले अंग्रेजों से युद्ध करना चाहिये, और ऐसा ही हुआ भी | यशवंत राव ने अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष का बिगुल फूंक दिया और शुरूआत की अंग्रेजों से संधि कर चुके निजाम से | आक्रमण कर उसके इलाके से ११ लाख रुपये बसूल किये | यह एक प्रकार से अंग्रेजों को सीधे चुनौती थी | निजाम ने बेलेजली से शिकायत की तो कर्नल मरे के नेतृत्व में मुम्बई की सेना तो जनरल स्टुअर्ट के अधीन मद्रास की अंग्रेज सेना ने एकत्रित होकर १२ मार्च को तुंगभद्रा नदी पार कर पुणे पर चढ़ाई कर दी | २० अप्रैल १८०३ को पुणे पर अंग्रजों का अधिकार हो गया | अमृतराव वहां से जुन्नार तो यशवंत राव चाँदवड चले गए | 

१३ मई १८०३ को बाजीराव पेशवा पुनः गद्दी पर आसीन तो हो गए, लेकिन कुछ समय बाद ही उन्हें समझ में आ गया कि वे अब अधिकार विहीन हैं, अंग्रेजों के हाथ की कठपुतली भर हैं | उन्होंने दौलत राव सिंधिया को समझाने की कोशिश की ताकि उनका होल्कर से विवाद समाप्त हो जाए और सिंधिया, होलकर और रघुजी भोंसले मिलकर संयुक्त मराठा शक्ति का प्रदर्शन करें | ४ जून १८०३ को बोडबाड में सिंधिया और भोंसले से उन्होंने भेंट भी की | माहौल का ही असर था कि दौलत राव सिंधिया ने भी समझौते की पेशकश स्वीकार करते हुए होल्कर के भतीजे खाण्डेराव को तो जुलाई में अपनी कैद से आजाद कर सकुशल उनके पास भेज दिया, लेकिन होल्कर के जो इलाके उनके कब्जे में थे, उन्हें वापस नहीं किया | 

चतुर अंग्रेज फूट डालो और राज करो की नीति अपना रहे थे, जनरल बेलेजली ने होल्कर को पत्र लिखकर ईस्ट इंडिया कंपनी से मित्रता का आग्रह किया | उसी दौरान दौलतराव सिंधिया का लिखा एक पत्र होल्कर के हाथ लगा, जिसमें उन्होंने भोंसले को लिखा था कि अभी तो हम होल्कर की मांग पूरी करने का दिखावा करते हैं, युद्ध समाप्ति के बाद मिलकर उससे पूरा बदला लेंगे | होलकर को लगा कि यह तो उन्हें समाप्त करने का षडयंत्र चल रहा है, और वे मालवा रवाना हो गए | सिंधिया और भोंसले ने इसकी कोई ख़ास परवाह नहीं की, क्यों उन्हें ज्ञात हुआ था कि अंग्रेजों के पास महज पचपन हजार का सैन्य बल है, जबकि संयुक्त मराठा सेना ढाई लाख से भी अधिक है | इनमें भी चालीस हजार तो फ्रांसीसी सेना नायकों द्वारा विशेष रूप से प्रशिक्षित हैं | 

लेकिन जब अंग्रेजों ने १२ अगस्त १८०३ को अहमदनगर पर हमला किया, तो उनकी सारी तैयारी धरी रह गई, क्योंकि भिंगार के रघुनाथ बाबा देशमुख ने चार हजार की रिश्वत लेकर गढ़ के भेद अंग्रेजों को बता दिए और अहमदनगर अंग्रेजों के कब्जे में चला गया | यह समाचार पाकर सिंधिया और भोंसले की संयुक्त सेना ने ६ सितम्बर को असाई नामक गाँव के पास अंग्रेजों का मुकाबला किया | यहाँ उनकी पीठ में फिर छुरा मारा गया और १६ यूरोपियन अफसर और मेरठ सरगने की बेगम समरू अकस्मात इनका साथ छोडकर अंग्रेजों से जा मिले | १५ अक्टूबर को स्टीवेंसन ने बुरहानपुर पर कब्जा कर उसे खूब लूटा | २१ अक्टूबर को असीरगढ़ भी उनके कब्जे में क्या गया, सिंधिया और भोंसले अलग अलग हो गए | बेलेजली ने सिंधिया का पीछा किया तो स्टीवेंसन भोंसले के पीछे लगा | बरार से लेकर उड़ीसा तक के इलाके में भोंसले का पराभव हुआ, उसके बाद तो लगातार अंग्रेजों की विजय दुन्दुभी बजने लगी | १६ सितम्बर १८०३ को दिल्ली का मुग़ल बादशाह शाह आलम द्वितीय १२ लाख रुपये वार्षिक का पेंशनर बन गया | मानो अब तक वह उनका कर्मचारी रहा हो | एक एक कर आगरा मथुरा भी अंग्रेजों के अधिकार में पहुँच गए | यहाँ यह उल्लेख करना आवश्यक है कि जयपुर, जोधपुर, भरतपुर के राजाओं ने तो अंग्रेजों से संधि कर ली थी, किन्तु इस दौरान केवल दौलत राव सिंधिया ने ही उनका मुकाबला किया | अंततः इतिहासकारों ने लिखा कि द्वितीय आंग्ल-मराठा युद्ध में अंग्रेज़ों की जीत हुई और मराठा क्षेत्रों पर उनकी प्रभुसत्ता स्थापित हो गई।आपके दिमाग में सवाल आ रहा होगा कि इस पूरे संघर्ष में पेशवा कहाँ थे, वे बेचारे शक्तिहीन, उनका क्या उल्लेख किया जाए ? 

अब सवाल उठता है कि इस दौरान यशवंत राव होल्कर क्या कर रहे थे ? वे उन राजाओं से चौथ बसूली कर अपनी ताकत बढ़ा रहे थे जिन्होंने अंग्रेजों से संधि कर ली थी | उन्होंने किसी को भी तो नहीं बख्शा | निजाम के अधीन आने वाले पैठन और जालना से लेकर राजपूताने के उदयपुर, देवगढ़, बदनोर से भी बसूली की | एक और हैरत अंगेज काम उन्होंने किया | जैसे ही उन्हें समाचार मिला कि यूरोपियन अधिकारियों ने युद्ध के समय अकस्मात सिंधिया का साथ छोड़कर अंग्रेजों का साथ दिया है, उन्होने अपने यूरोपियन सेनानायकों को सजाये मौत दे दी | ना रहेगा बांस न बजेगी बांसुरी | यह इस बात का स्पष्ट प्रमाण था कि वे जानते थे कि उनको अंग्रेजों से भिड़ना ही पडेगा | अतः उन्होंने नागपुर, जोधपुर, भरतपुर तथा देश के अन्य राजाओं के पास सन्देश भेजे कि देश धर्म की रक्षार्थ सब मिलकर अंग्रेजों का सामना करें | लेकिन इसे क्या कहें कि मछेरी के राजा ने उनका पत्र लार्ड लेक के पास ही पहुंचा दिया और अंग्रेज समझ गए कि उनके खिलाफ होल्कर युद्ध की तैयारी कर रहे हैं | 

जोधपुर नरेश मानसिंह राठौड़ से अवश्य उनका समझौता हो गया, परिणाम स्वरुप वे न केवल यशवंत राव होल्कर की पत्नियों के राखीबन्द भाई बन गए, बल्कि पूरा होल्कर परिवार भी लगातार चार वर्ष ससम्मान जोधपुर के चैनपुरा में रहा, जिसमें दो रानियाँ तुलसा बाई और लाडाबाई, पुत्री भीमा बाई, मल्हार राव होल्कर के पुत्र खाण्डेराव, और भतीजे हरिराव होल्कर अर्थात बिठोजी के पुत्र भी शामिल थे | 

इधर यशवंतराव तैयारी में जुटे थे, तो उधर अंग्रेजों ने दौलतराव सिंधिया को बरगलाया कि होल्कर से जो इलाके छीने जायेंगे, वे सब सहयोगियों को दे दिए जायेंगे | अब स्थिति यह बनी कि गायकवाड और सिंधिया तो खुलकर अंग्रेजों के सहयोगी बन गए, उसके बाद भी युद्ध शुरू करने के पहले चतुर अंग्रेजों ने होल्कर के सहयोगी भवानीशंकर बख्शी और अमीर खां पिंडारी को अपने साथ मिलाने का प्रयास शुरू कर दिया | अमीर खां उस समय खुलकर तो अंग्रेजों के साथ नहीं गया किन्तु उन्हें गुपचुप मदद करता रहा | नतीजा यह निकला कि टोंक पर आसानी से अंग्रेजों का कब्जा हो गया | यही टोंक रियासत बाद में पिंडारी को सोंप दी गई | 

इतनी सब व्यूह रचना के बाद भी जब जून जुलाई १८०४ में सीधी लड़ाई शुरू हुई उस समय का वर्णन देशभक्तों का मस्तक गर्व से ऊंचा कर देता है | 

गरोठ के नजदीक हुए युद्ध में अंग्रेजों की ओर से ल्यूकान तो होल्कर की और से हरनाथ सिंह का आमना सामना हुआ तो न केवल अंग्रेजों की पराजय हुई, बल्कि उनके सजयोगी झज्जर के नबाब मेंजावत अली खान का भाई फेज तलब खान बंदी बना लिया गया, कोटा की सेना के एक उच्चाधिकारी अनवर खान का भाई अफजल खान भी मारा गया | तीन हजार घोड़े, चार हाथी दो तोपें भी होल्करी सेना के हाथ लगीं | ८ जुलाई को अंग्रेज सेनानायक मानसन पर चम्बल नदी के किनारे भानुपुरा के नजदीक यशवंतराव ने जोरदार आक्रमण किया | बड़ी संख्या में अंग्रेजों और सिंधिया के सैनिक मारे गए | भयंकर मारकाट के बाद बापूजी सिंधिया और मानसन यहाँ से जान बचाकर भागने को विवश हुए और कोटा पहुंचकर शरण ली | ल्यूकन को घायल अवस्था में गिरफ्तार कर लिया गया | उसके अतिरिक्त भी बहुत से सैनिक बंदी बनाए गए | उपरोक्त स्थान का नाम उस युद्ध की स्मृति में संग्राम घाट ही हो गया और इसी नाम से उसे आज भी जाना पहचाना जाता है | 

भयभीत मानसन जल्दी से जल्दी चम्बल पार कर जाना चाहता था | कोटा राज्य के इतिहास में डॉ. मथुरालाल शर्मा ने लिखा है कि कोटा के शासक जालिम सिंह ने उसकी रसद और सैन्य सहायता देकर मदद भी की | इस संघर्ष में पलायथे के अमर सिंह ने वीरता दिखाते हुए अंग्रेजों की ओर से प्राणोत्सर्ग किया | उसकी बहादुरी से होल्कर भी इतने प्रभावित हुए कि पीपल्या गाँव में उसके स्मारक के लिए दो बीघा जमीन माफी में दी | 

मानसन की करारी हार के बाद कोटा नरेश जालिम सिंह ने यशवंतराव होल्कर से संधि करते हुए तीन लाख रुपये हरजाने के रूप में दिए | कोटा में शरण लिए हुए बापू जी सिंधिया भी होल्कर के सम्मुख आत्म समर्पण कर उनकी सेना में शामिल हो गए | ध्यान दीजिये की अंग्रेजों ने तीन तरफ से यशवंतराव को घेरने का प्रयास किया था | उत्तर से लेक बढ़ रहा था, दक्षिण से आर्घर बेलजली तो पश्चिम से मानसन | लेकिन दूरंदेश यशवंतराव ने इसके पहले कि ये तीनों सेनायें मिलें, मानसन की सेना को मटियामेट कर दिया | 

विवश हुए अंग्रेज 

अब स्थिति यह बनी कि कोटा से पिटा कुटा मानसन २९ अगस्त १८०४ को सीकरी पहुंचा तो होल्कर के सैनिकों ने वहां भी उसे घेर लिया तो वह भागकर फतेहपुर जा घुसा और फिर वहां से ३१ अगस्त को आगरा जा पहुंचा | इस समय तक लगातार युद्ध करते करते होलकर सैनिक तो सैनिक घोड़े भी बेहद थक चुके थे | उनकी नालें घिस गई थीं और पीठ की खाल हटने लगी थी | महाराज ने कुछ समय फतहपुर ही विश्राम किया और वहां से देश के सभी राजाओं को अंग्रजों के खिलाफ एकजुट होने के लिए पत्र भेजे | भरतपुर के राजा रणजीत सिंह के पास तो यह सन्देश लेकर अपने विश्वस्त भास्कर भाऊ को रवाना किया और उसके बाद मथुरा की तरफ कूच कर दिया | अंग्रेजों ने मथुरा में एक बड़े सैन्य दल को तैनात कर रखा था, किन्तु होल्कर रूपी तूफ़ान के सामने वह तिनकों की तरह उड़ गई और मथुरा पर महाराज यशवंतराव का कब्जा हो गया | गंगा और जमुना के बीच का इलाका अंग्रेजों ने सिंधिया से छीनकर अपने अधिकार में कर लिया था और उसके बाद उन्होंने जो जुल्मोसितम ढाया था, उसके कारण वहां त्राहि त्राहि मची हुई थी | अतः जब यशवंतराव ने मथुरा पर कब्जा किया तो पूरे इलाके की जनता में ख़ुशी की लहर दौड़ गई | 

मथुरा में ही महाराज को सूचना मिली कि २२ सितम्बर को लार्ड लेक आगरा पहुँच गया है | इसके बाद रणनीति के अनुसार होल्कर सेना दो भागों में बंट गई | एक टुकड़ी शेख कुदरतदौला, हरनाथ सिंह और बापूजी सिंधिया के नेतृत्व में दिल्ली की तरफ बढी तो शेष सेना महाराज की अगुआई में २९ सितम्बर को आगरा की ओर रवाना हुई | उन्होंने लेक के आक्रमण का इंताजर करने के स्थान पर उसे छकाने की योजना बनाई थी | जिस गुरिल्ला युद्ध में मराठा माहिर थे, वही पद्धति अपनाई गई | खुले युद्ध के स्थान पर छापामार युद्ध | छोटे छोटे दल अंग्रेजों पर अकस्मात हमला करते और नुक्सान पहुंचाकर चम्पत हो जाते | अंग्रेज घुड़सवार उनका पीछा करते किन्तु वे हाथ नहीं आते | परेशान होकर जैसे ही वे पीठ फेरते, उन पर फिर हमला हो जाता | लेक को अब दिल्ली की चिंता भी सताने लगी थी, जहाँ मराठा सेना ने घेरा डाल दिया था और महाराज भी उस तरफ बढ़ रहे थे | 

१४ अक्टूबर १८०४ को एक बारगी तो लगा था कि महाराज दिल्ली से भी अंग्रजों को खदेड़ देंगे | सहारनपुर के खतौली में समरू बेगम ने भी उनका साथ देने का वायदा किया तो भरतपुर के जाट राजा रणजीत सिंह ने तो खुलकर अंग्रेजों से संधि तोड़कर होलकर का साथ देने का सन्देश भेज दिया | यह परिवर्तन महाराज यशवंत राव होलकर के प्रबल पराक्रम के कारण उन्हें मिल रही लगातार की सफलताओं के कारण ही हुआ था | जाट लोग वीर योद्धा थे | उन्हें अपनी स्वतंत्रता से अतिशय प्रेम था और यशवंत राव के रूप में जब उन्हें लगा कि अंग्रेजों के विधर्मी शासन से मुक्ति पाई जा सकती है, तो उन्होंने मौका नहीं गंवाया | उसके बाद होल्कर और रणजीत सिंह दोनों मित्रता पूर्वक डींग में मिले, जहाँ जाट महाराजा ने अपने पुत्र लक्ष्मण सिंह और दीवान राय सिंह के नेतृत्व में तीन टुकड़ियां महाराज होल्कर के साथ कर दीं | ३ नवम्बर १८०४ को डींग के बाहर हुए मैदानी युद्ध में जनरल फ्रेजर सहित ८४३ अंग्रेज सैनिक मारे गए, किन्तु होल्कर सेना को कहीं अधिक नुक्सान हुआ और लगभग चार हजार सैनिक खेत रहे | उसके बाद २३ दिसंबर को अंग्रेजी तोपखाने ने दुर्ग पर गोलाबारी शुरू कर दी | दीवार में एक बड़ा छेद कर जब सेना उस छेद से दुर्ग में प्रवेश कर रही थी, उस समय दुर्ग का द्वार खोलकर होल्कर और रणजीत सिंह की संयुक्त सेना बड़े वेग से बाहर निकल आई और मारकाट करते हुए अंग्रेजी सैनिकों की पंक्ति को चीरते हुए निकल कर भरतपुर किले में पहुँच गई | 

लार्ड लेक ने ३ जनवरी १८०५ को भरतपुर दुर्ग पर भी घेरा डाल दिया | महाराज सूरजमल द्वारा स्थापित भरतपुर दुर्ग अभेद्य था | इसके चारों ओर दो बड़ी खाइयां थीं | बाहरी खाई ढाई सौ फीट चौड़ी और बीस फीट गहरी थी, तो भीतरी खाई जिसे सुजान गंगा नहर कहा जाता है, एक सौ पिचहत्तर फीट चौड़ी और चालीस फीट गहरी थी | मुख्य किले की दीवार भी सौ फीट ऊंची और तीस फीट चौड़ी थी | अंग्रेजों ने हरचंद कोशिश की कि महाराज रणजीत सिंह होलकर का साथ छोड़ दें, लेकिन उन्होंने स्पष्ट कह दिया कि जीते जी वे अपने स्वाभिमान से समझौता हरगिज नहीं करेंगे | ७ जनवरी से युद्ध शुरू हो गया | तोपों के गोले, बंदूकों की गोलियां और तीरों की मार ने कोहराम मचा दिया | भरतपुर का मैदान अंग्रेज सैनिकों की लाशों से पट गया | जैसे तैसे किले की दीवार में एक छेद हुआ भी तो वह भी उनके लिए काल ही बना | जो लोग अन्दर गए, वे मारे गए और शेष बलपूर्वक धकेल दिए गए | इस प्रयास में कर्नल जेटलैंड को अपनी जान गंवानी पड़ी | 

एक महीने से अधिक समय तक अंग्रेज सेना घेरा डाले पड़ी रही किन्तु सिवाय जनहानि और नुक्सान के उन्हें कुछ नहीं मिला | १२ फरवरी १८०५ को गुजरात से एक नई टुकड़ी मेजर जोन्स के नेतृत्व में आ जाने के बाद एक बार फिर अंग्रेजों ने किले में प्रवेश का प्रयास किया, किन्तु वे जिस मार्ग से अन्दर जाना चाहते थे, उसी मार्ग से जाट और मराठा वीरों ने बाहर निकलकर उनकी दुर्गति कर दी | यहाँ तक कि उनकी खंदकों पर भी इन वीरों ने कब्जा जमा लिया | २१ फरवरी को अंग्रेजों ने अंतिम प्रयत्न किया किन्तु स्वयं महाराज यशवंत राव होलकर और महाराज रणजीत सिंह की दुधारी तलवारों ने उनकी एक न चलने दी | पी ई रावर्ट्स ने लिखा कि ६ जनवरी तथा २१ फरवरी के बीच लेक ने चार बार आक्रमण किये जो सभी भयानक क्षति सहित असफल कर दिए गए | विवश अंग्रेज १० अप्रैल १८०५ को भरतपुर का घेरा उठाने को विवश हुए | कोटा में मानसन और भरतपुर में लेक की जो बेइज्जती हुई उसे अंग्रेज आज तक शर्म से याद करते हैं | यह युद्ध भारतीय स्वाभिमान का एक अनुपम आख्यान है | महाराज रणजीत सिंह का प्रतिदिन लगभग एक लाख रूपया व्यय हुआ, आय का कोई साधन न होते हुए भी उन्होंने देशहित में इसे सहर्ष वहन किया | भरतपुर के किले को लोहागढ़ का खिताब मिला | 

इस अपमान के बाद अंग्रेजों ने सीधी लड़ाई के स्थान पर कूटनीतिक बिसातें बिछाना शुरू कर दिया | सबसे पहले तो भरतपुर नरेश को अपने साथ मिलाया और उनसे संधि की कि अंग्रेज उनके राज्य में हस्तक्षेप नहीं करेंगे और वे भी होल्कर का साथ नहीं देंगे | उसके बाद लार्ड बेलेजली ने दिल्ली पहुंचकर होल्कर के विश्वस्त भवानी शंकर बख्शी को नजफगढ़, नबाब मुर्तजा खान को पलवल, मुहम्मद खान अफरीदी को होडल, बहादुर खान और अशरफ खान को शाहपुर बाराबंकी की जागीरें देकर यशवंत राव होलकर की सैन्य शक्ति को कमजोर करने का प्रयास किया | भवानी शंकर को दिल्ली के कूचा घासीराम में एक हवेली भी दी गई, जो आज भी नमक हराम की हवेली के नाम से जानी जाती है | लेकिन बेलेजली के इन सब प्रयत्नों से भी मानसन और लेक की शर्मनाक पराजय का दाग नहीं धुला, बेलेजली का जादू ख़तम हो गया था | इंग्लेंड में खलबली थी | अंततः जुलाई १८०५ में बेलेजली को इंग्लेंड वापस बुला लिया गया और उनके स्थान पर पहले कार्नवालिस और उसके बाद जोर्ज बारलो ने सेनापति और गवर्नर दोनों पद ग्रहण किये | 

उधर यशवंतराव होल्कर ने अन्य राजाओं को साथ मिलाने के प्रयास नहीं छोड़े | वे पंजाब भी गए और जीन्द व पटियाला के शासकों से मिले, अमृतसर जाकर गुरुओं का आशीर्वाद भी लिया | हमदर्दी तो मिली पर कोई ठोस सहायता से वंचित रहे | लाहौर के महाराजा रणजीत सिंह ने साथ देने का मन भी बनाया किन्तु पंजाब के अन्य राजाओं ने उनका मन भी कमजोर कर दिया | उलटे चतुर लार्ड लेक ने लाहौर महाराजा के माध्यम से ही होलकर के पास संधि प्रस्ताव भेजा और वे होलकर का साथ देने के स्थान पर उन्हें ही अंग्रेजों से संधि का प्रस्ताव देने लगे | कुल लब्बो लुआब यह कि भारत का कोई एक भी राजा यशवंत राव होलकर का साथ देने को तैयार नहीं हुआ | उनके सहयोगी भी एक एक कर अंग्रेजों से मिलते जा रहे थे | उन्होंने विचार किया कि फिलहाल संघर्ष टालना ही उचित है, पुनः शक्ति संचय कर उपयुक्त समय पर अंग्रेजों को खदेड़ा जाए | २४ दिसंबर १८०५ को राजपुरघाट नामक स्थान पर संधि हो गई | अंग्रेजों ने उन्हें स्वतंत्र महाराजा मान्य किया | ताप्ती व गोदावरी नदियों के दक्षिण का भाग उन्हें दे दिया गया | जयपुर, उदयपुर, कोटा बूंदी आदि के राजाओं पर उनका अधिकार स्वीकार कर लिया गया | होल्कर के सभी इलाकों में कोई हस्तक्षेप न करने का वचन दिया गया | अपने इस अनुपम विजेता महाराजा का इंदौर की जनता ने पलक पांवड़े बिछाकर स्वागत किया | 

अंग्रजों से संधि के बावजूद यशवंत राव अग्रेजों को देश से खदेड़ने की योजना बनाते रहे, लेकिन देश्घातियों के षडयंत्र भी चलते रहे | अप्रैल १८०९ में अंग्रेजों के साथ मिलकर युद्ध करने की तैयारी हेतु हैदरावाद की निसवन नबाब काली बेगम ने अपने मुख्त्यार महिपत राय के हाथों एक करोड़ रुपये यशवंत राव के पास भेजे, किन्तु यह समाचार पाकर अंग्रेजों से मिल चुके राज्य के ही एक सरदार धर्मा कुंवर ने उसे मारकर वे रुपये लूट लिए | इतना ही नहीं तो नवम्बर १८०९ में जब महाराजा यशवंत राव होलकर ने भानुपुरा को अपनी नई राजधानी के रूप में विक्सित किया और इंदौर से वहां के लिए प्रस्थान किया तो मार्ग में धर्मा कुंवर ने उनकी ह्त्या का षडयंत्र रचा | किन्तु रानी तुलसा बाई की सूझबूझ और राज्य के बफादार सैनिकों की तत्परता से वह असफल हुआ और उसे पकड़ लिया गया | ३१ मार्च १८१० को उसे मृत्युदंड दे दिया गया | 

अपने स्वास्थ्य से बेपरवाह लगातार संघर्ष करते रहे यशवंत राव होल्कर का अंतिम समय बहुत पीड़ा दायक गुजरा | ब्रेन ट्यूमर की असहनीय वेदना सहन करते हुए २८ अक्टूबर १८११ को देवोत्थान एकादशी के पवित्र दिन उस भीष्म पराक्रमी, जुझारू, महाराजाधिराज, राज राजेश्वर, यशवंतराव होलकर ने इस दुनिया से विदाई ली | उस दिन राज्य में दीप नहीं जले आमजन को लगा मानो उनके देव सो गए हैं | रेवा नदी के तट पर उनका अंतिम संस्कार हुआ | राजस्थानी कवि चैन्करण सांदू ने लिखा – 

हिन्दवाणों हलकों हुओ, 

तुराकां रहा न तंत, 

अंग्रेजां ऊछज कियो, 

जोखभियो जसवंत | 

अर्थात हिन्दुस्तान का एकमात्र रक्षक नहीं रहा | हिन्दुओं का बल टूट गया, तुर्क अर्थात मुसलमान शासक तो पहले ही कमजोर हो चुके थे | यशवंत राव की म्रत्यु पर अंग्रेजों ने खुशियां मनाई | 

नवम्बर 1817 में बाजीराव द्वितीय के नेतृत्व में संगठित मराठा सेना ने पूना की 'अंग्रेज़ी रेजीडेन्सी' को लूटकर जला दिया और खड़की स्थिति अंग्रेज़ी सेना पर हमला कर दिया, लेकिन वह पराजित हो गये। तदनन्तर वह दो और लड़ाइयों में हारे - 

जनवरी 1818 में भीमा कोरेगाव की लडाई, जिसमे अंग्रेजो ने अपनी सेना ,जो संख्या में मराठो से कम थे ,जिनमें ५०० महार सैनिक भी थे , ने पेशवा के २७,००० मराठा सैनिकों को पराजित किया था और एक महीने के बाद आष्टी की लड़ाई में । 

अंततः 3 जून, 1818 ई. को उन्हें अंग्रेज़ों के सामने आत्मसमर्पण करना पड़ा। अंग्रेज़ों ने इस बार पेशवा का पद ही समाप्त कर दिया और बाजीराव द्वितीय को अपदस्थ करके बंदी के रूप में कानपुर के निकट बिठूर भेज दिया जहाँ 1853 ई. में उनकी मृत्यु हो गई। और फिर शुरू हुआ उनके दत्तक पुत्र नानासाहब के नेतृत्व में १८५७ का स्वतंत्रता संग्राम |
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