फाह्यान की भारत यात्रा


ईसा के जन्म से भी बहुत पहले चीन देश में बौद्ध धर्म का प्रचार हो चुका था | चीन सम्राट मिंगटो ने तो ईसवी सन ६७ के आसपास बौद्ध आचार्य कश्यप मातंग और धर्मरक्षक को ससम्मान चीन आमंत्रित किया, जिन्होंने बौद्ध धर्म के अनेक ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में कर वहां बौद्ध धर्म की जड़ें मजबूत कीं | उसके बाद अनेक चीनी विद्वान भारत में तीर्थाटन और ज्ञानार्जन के लिए आते रहे | इनमें से ही एक थे फाह्यान, जो ईसवी सन ४०० में भारत के लिए रवाना हुए | वह चीन से भारत आया स्थल मार्ग से और वापस लौटा जल मार्ग से | दोनों ही मार्गों पर उसे भीषण कठिनाईयों का सामना करना पड़ा | उस दौर की यात्राएं कितनी कठिन और दुरूह होती थीं, उनको पढ़कर ही रोंगटे खड़े हो जाते हैं | लाप नामक मरुभूमि में ऊपर से आग उगलता सूरज और नीचे तपती रेत, प्यास से सूखता गला | इस विपत्ति में उसके कई साथियों का तो धीरज जबाब दे गया और वे वापस हो गए | किन्तु अपने कुछ साथियों के साथ फाह्यान ने अपना संकल्प नहीं छोड़ा | वह तो दर्शन करना चाहता था भगवान बुद्ध की क्रीडा भूमि का |

फाह्यान द्वारा लिखित यात्रा वृतांत से तात्कालिक भारत की महानता का बड़ा स्पष्ट दिग्दर्शन होता है | खुतान पहुँचने पर वहां के बौद्ध राजा ने उसका बड़ा स्वागत सत्कार किया | खुतान से वह काबुल पहुंचा जो उस समय भारत का ही एक प्रांत था | वहां से स्वात, गांधार और तक्षशिला होते हुए वह तब के पुरुषपुर और आज के पेशावर पहुंचा, जहाँ उसने बहुत ऊंचा, सुन्दर और मजबूत स्तूप देखा, जिसके सम्बन्ध में फाह्यान ने लिखा कि यात्रा में यूं तो उसने बहुत से स्तूप और मंदिर देखे, किन्तु इससे अधिक भव्य कोई नहीं देखा | सिन्धु नद पारकर वह मथुरा पहुंचा, जहाँ जमुना किनारे बीस बिहार थे, जिनमें तीन हजार से अधिक बौद्ध भिक्षु निवास करते थे | यहाँ तक आते आते, उसके साथ केवल एक साथी ही शेष रह गया था | किन्तु उसने हिम्मत नहीं हारी और बौद्ध तीर्थों के दर्शन, धर्म ग्रंथों के अध्ययन, बुद्ध के संस्मरणों की खोज में जुटा रहा | वह तत्कालीन महाप्रतापी सम्राट चन्द्रगुप्त द्वितीय के शासन काल में भारत आया था, इसके बाद भी उसने चन्द्रगुप्त का नाम भी कहीं नहीं लिखा | हाँ तत्कालीन भारत के विषय में अवश्य लिखा |

उसके यात्रा वृतांत से ज्ञात होता है कि देश की प्रजा धन धान्य से परिपूर्ण होकर सुख शांति से जीवन व्यतीत करती थी | शासन व्यवस्था न्याय युक्त और दृढ थी | मध्य देश का जलवायु न अधिक ठंडा था, न अधिक गरम | पूरे देश में लोग कहीं भी आ जा सकते थे, खाली पडी कोई भी जमीन जोतकर कृषि कार्य कर सकते थे | अपराधी को न तो कोई शारीरिक दंड दिया जाता था, न मृत्यु दंड, केवल जुरमाना भर लगाया जाता था | हाँ अगर कोई बार बार अपराध करता था, तो उसका दाहिना हाथ काट दिया जाता था | जो लोग मद्यपान करते थे, या जीव हिंसा करते थे, वे नीच माने जाते थे और उन्हें नगर के बाहर रहना पड़ता था | बाजारों में सामान्य जीवनोपयोगी बस्तुओं का क्रय विक्रय कौड़ियों में होता था |

कन्नौज, श्रावस्ती आदि नगरों को पारकर फाह्यान मगध की राजधानी पाटलीपुत्र पहुंचा, जो अपने ऐश्वर्य के चरम पर थी | अशोक के महल को देखकर वह चकित रह गया | वह भारी भारी पत्थरों से बना था, जिन पर सुन्दर बेल बूटे खुदे हुए थे | उसे समझ में नहीं आया कि इन भारी पत्थरों को यहाँ लाया कैसे गया होगा | यहाँ महायान और हीनयान पंथियों के लिए अलग अलग दो बिहार थे, जिनमें छः सात सौ भिक्षु रहते थे | फाह्यान ने यहाँ तीन वर्ष रहकर संस्कृत सीखी | पाटलीपुत्र में ही उसे पहली बार पूरी विनय पटिक पढने को मिली | फाह्यान ने लिखा कि भारतवासी बड़े धर्मनिष्ठ और दयावान थे | जिन लोगों को परमात्मा ने धन सम्पदा दी हुई थी, वे केवल स्वार्थ के लिए उसका उपयोग नहीं करते थे, परोपकार उनकी सहज वृत्ति था | जगह जगह सदाव्रत खुले हुए थे, धर्मशालाएं थीं | निशुल्क औषधालय थे | ना कोई भूखा रह सकता था, नाही बिना उपचार के | राजा सर्वप्रिय था और शांतिपूर्ण ढंग से शासन करता था | प्रजा के कामों में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया जाता था | प्रजा में भी स्पर्धा थी तो केवल सद्गुणों की, अतएव अपराध बहुत कम होते थे | हजारों मील के लम्बे सफ़र में फाह्यान को कोई डाकू या ठग नहीं मिला | भारत वासियों को इतनी सुख समृद्धि में रहते देखकर फाह्यान ने उनके भाग्य की सराहना की |

यह बौद्ध धर्म का अवनति काल था, अतः फाह्यान को बुद्ध की जन्म स्थली कपिलबस्तु और निर्वाण स्थल कुशी नगर लगभग निर्जन ही मिले, गिने चुने लोग ही बहां रहते थे | बोध गया की जनसंख्या भी बहुत कम थी | संभवतः इसके पीछे सम्राट का महा भागवत होना ही प्रमुख कारण रहा हो | किन्तु फाह्यान ने कहीं बौद्ध धर्मावलम्बियों पर अत्याचार, अन्याय या धार्मिक पक्षपात होते नहीं देखा | उसका दूसरा साथी तावचिंग तो भारत से इतना प्रभावित हुआ, कि उसने वापस चीन जाने का विचार ही त्याग दिया | यहाँ तक कि उसने ईश्वर से प्रार्थना की कि उसे जब भी दुबारा जन्म लेना पड़े तो वह भारत में ही पैदा हो |

लेकिन फाह्यान का तो उद्देश्य ही अपने देश में वापस जाकर सम्पूर्ण विनय का प्रचार करना था, अतः वह अकेला ही लौट चला | अंगदेश की राजधानी चंपा होकर वह ताम्रलिप्ति पहुंचा जो आजकल बंगाल के मेदनीपुर जिले में तामलुक कहलाता है | वहां दो वर्ष रहकर उसने कई धर्म ग्रंथों की नक़ल की | एक दिन उसने बाजार में एक चीनी व्यापारी को पंखा बेचते देखा, तो उसे चीन की याद आई और वह रो पड़ा, वापस जाने को व्यग्र हो गया | संयोग से उसे चीन जाने वाला जहाज भी मिल गया | सौ यात्रियों को लेकर जहाज चीन को रवाना हुआ | किन्तु मार्ग में तूफ़ान आ गया और जहाज की पेंदी में भी छेद हो जाने से उसमें पानी भरने लगा | जहाज को हल्का करने के लिए बहुत सा सामान समुद्र में फेंकना पड़ा | फाह्यान के बर्तन भी समुद्र में फेंक दिए गए | भाग्यवश तभी एक टापू मिल गया, जहाँ जहाज की मरम्मत की गई और वहां से सब लोग सकुशल जावा पहुँच गए | जावा में उन दिनों सनातन धर्म का ही बोलबाला था, बौद्ध धर्म की कोई चर्चा भी नहीं थी | पांचवे महीने में एक दूसरे जहाज द्वारा फाह्यान चीन की ओर बढ़ा | मार्ग में इस जहाज को आंधी पानी ने घेर लिया | एक पुरोहित ने विचार कर कहा कि इस भिक्षु को साथ लेने के कारण यह विपत्ति आई है | इस को कहीं किसी द्वीप पर उतार देना चाहिए | शायद अन्य सहयात्री यह कर भी देते, किन्तु एक दयालु यात्री ने कठोरता पूर्वक कहा कि अगर ऐसा किया गया, तो वह चीन पहुंचते ही इसकी सूचना वहां के बौद्ध राजा को दे देगा | डर के मारे यात्रियों ने फाह्यान को उतारने का विचार छोड़ दिया और कई दिनों बाद अंततः जहाज ने चीन की भूमि को स्पर्श किया और सबने परमात्मा को धन्यवाद दिया |
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