हिन्दवी स्वराज्य के सरनौबत




हिन्दवी स्वराज के सूरमा सेना नायकों की चर्चा से उनके जीवन वृत्त को स्मरण कर, उससे प्रेरणा और स्फूर्ति लेकर, आज के समय में भी भारतीय स्वाधीनता की रक्षा और चुनौतियों का सामना कर विश्व महाशक्ति बनने की दिशा में युवा शक्ति सन्नद्ध हो सकती है, यही इस आलेख  का मूल उद्देश्य भी है |

प्रारम्भ से ही शिवाजी महाराज की सेना की कमान नेताजी पालकर ने संभाली हुई थी, जिन्होंने अपने दायित्व का इतनी अच्छी प्रकार निर्वाह किया कि लोग उन्हें दूसरा शिवाजी कहने लगे | किन्तु मिर्जा राजा जयसिंह की कुटिल ब्यूह रचना ने गुल खिलाया और जिन दिनों शिवाजी महाराज आगरा में कैद हुए उस दौर में नेताजी पालकर को बीजापुर के सुलतान की चाकरी में जाना पड़ा | शिवाजी राजे जब कैद से निकलने में सफल हो गए तब नेताजी पर सबसे ज्यादा गाज गिरी और उन्हें मुसलमान होना पड़ा | किन्तु जैसे ही मौक़ा मिला वे मुगलों का साथ छोडकर वापस अपने शिवाजी महाराज के पास जा पहुंचे | शिवाजी ने भी उन्हें अपनाने में देर नहीं की और दुबारा हिन्दू बनाकर अपने ही कुल की एक कन्या से उनका विवाह करवाकर उन्हें समाज मान्यता भी दिलवा दी |

नेताजी पालकर के बाद मराठा सेना के सर नौबत बने प्रताप राव गुर्जर ने भी अतुलनीय पराक्रम का प्रदर्शन किया और साल्हेर में फंसे अपने लोगों को बचाने के लिए उनके नेतृत्व में पहली बार छापामार युद्ध के स्थान पर मुग़ल सेना को सीधी लड़ाई में न केवल करारी शिकस्त दी गई, बल्कि इखलाक खां सहित तीस बड़े मुग़ल सरदारों को बंदी भी बना लिया | औरंगजेब इस पराजय से इतना दुखी हुआ कि तीन दिन तक दरबार में भी नहीं गया | प्रताप राव ने १६७३ में पन्हाला, पारली, चन्दनवंदन किले जीतने के बाद, अप्रैल १६७३ में बीजापुर से ५४ मील दूर उमरणी में बीजापुर के सरदार बहलोल खां को घेर लिया | भूख प्यास से तड़पती बीजापुरी सेना ने दया की भीख मांगी, बहलोल खां ने कसम खाई कि फिर कभी मराठों पर शस्त्र नहीं उठाऊंगा | प्रताप राव को दया आ गई और उन्होंने बहलोल की प्रार्थना स्वीकार कर उसे छोड़ दिया |

जब शिवाजी महाराज को ज्ञात हुआ, तो वे बहुत नाराज हुए, सारी सेना छोड़ दी, यहाँ तक तो ठीक था, लेकिन बहलोल को क्यों छोड़ा ? उसे बंदी क्यों नहीं बनाया ? किसकी आज्ञा से ऐसी संधि की ? उन्होंने सरनौबत प्रताप राव से जबाब तलब किया और साथ ही कह दिया कि अगर बहलोल का वादा झूठा निकला, तो उससे निबटे बिना फिर मुझे सूरत न दिखाना | जैसा शिवाजी महाराज का अनुमान था, बहलोल ने तैयारी कर मराठों पर दोबारा हमला कर दिया | मर्माहत प्रताप राव को २४ फरवरी १६७४ को जब एक पहाडी दर्रे में बहलोल के होने की सूचना मिली, तो उन्होंने आव देखा न ताव और बिना आगा पीछा सोचे अपने मुट्ठी भर सैनिकों के साथ आक्रमण कर दिया | बदले की भावना ने उन्हें उन्मत्त कर दिया था | उनका साहस देखकर बीजापुरी सेना भी चकित थी, लेकिन इतनी बड़ी सेना के सामने ये थोड़े से सैनिक कितनी देर ठहरते ? छत्रपति ने सरनौबत से कहा था, बहलोल खां का झंझट दूर किये बिना मुंह न दिखाना और अपने स्वामी की इच्छा का पालन करने में उन्होंने अपने प्राणों की बलि दे दी | मराठा सेना को जब अपने सेनापति के आत्म बलिदान का समाचार मिला, तो वे व्याकुल हो गए बदला लेने के लिए | प्रताप राव की जगह संभाली आनंद राव ने और टूट पड़े बहलोल की जागीर पर, उसे तो जमकर लूटा ही, २३ मार्च १६७४ को खुद बहलोल भी बंकापुर के पास हुई मुठभेड़ में जान बचाकर भागा | शिवाजी महाराज भी अपने सेनापति के इस आत्म बलिदान को आजीवन नहीं भूले | इसका सबसे बड़ा प्रमाण है कि उन्होंने अपने पुत्र राजाराम का विवाह १५ मार्च १६८० को प्रतापराव की बेटी जानकी बाई के साथ करवाया |

प्रतापराव गुर्जर के बाद हम्बीर राव मोहिते ८ अप्रैल १६७४ को नए सर सेनापति नियुक्त हुए | उनके अभिन्न सहयोगी बने संताजी घोरपडे | १६४० में जन्मे संताजी के पिता म्हालोजी भी शिवाजी महाराज के पिता शाहजी के साथ बीजापुर दरवार में सरदार थे | संताजी का बचपन भी खेलने कूदने, पढ़ने लिखने के साथ अपने पिता के मार्गदर्शन में घुड़सवारी और युद्ध कला में प्रवीण होते बीता | किशोरावस्था आते आते तो वे लाठी पट्टा चलाना, भाला फेंकना, तलवारवाजी के हर फन में वे माहिर होते गए |

इन नए नायकों ने नर्मदा पार कर अपनी धमक दिखाते हुए बरहानपुर को लूटा और उसके बाद अपना रुख कर्णाटक की ओर किया | कर्णाटक में इनका सामना मुग़ल सरदार हुसैन खान व उसकी दस हजार की प्रचंड फ़ौज से हुआ, किन्तु इन नरवीरों के सामने वे ठहर नहीं पाए | हुसैन खान को पकड़ लिया गया और ३ मार्च १६७९ को कोप्पल किला और बहादुर बिड़ा किला भी जीत लिया गया | किन्तु उन्हीं दिनों शिवाजी महाराज के बड़े पुत्र संभाजी बादशाह औरंगजेब की कुटिल चालों में फंस गए | संभाजी की मां सई बाई का उनके बचपन में ही स्वर्गवास हो गया था | मातृविहीन संभाजी के स्थान पर विमाता सोयरा बाई अपने पुत्र राजाराम को शिवाजी का उत्तराधिकारी बनाना चाहती थीं | दादी का स्वर्गवास, पिता की व्यस्तता और विमाता का व्यवहार, परिस्थिति कुछ ऐसी बनी कि संभाजी पिता को भी अपने विरुद्ध समझने लगे | कुछ समय के लिए उनका विवेक नष्ट हो गया और वे मुग़ल सेनापति दिलेर खां की बातों में आ गए | उन्हें तुरंत सात हजारी मंसब प्रदान कर दी गई और उनके नेतृत्व में सतारा जिले के भूपालगढ़ पर हमला हुआ | किलेदार फिरंगोजी वरसाला बड़े धर्म संकट में फंसे | तोपें चलाते हैं तो युवराज की जान भी जा सकती है | नतीजा यह हुआ कि भूपालगढ़ पर भगवा के स्थान पर चाँद तारे वाला हरा निसान लहराने लगा | युवराज के सामने अनेक मराठा सैनिकों को मौत के घाट उतारा गया | अपनी आँखों के सामने अपने ही बांधवों को मरते देखकर संभाजी को बेहद पछतावा हुआ और वे एक दिन मुग़ल छावनी से निकल भागे | मराठा टुकड़ियां तो उनके इंतज़ार में ही थीं | युवराज सकुशल पन्हाला पहुँच तो गए, लेकिन नाराज महाराज शिवाजी ने उन्हें नजरबन्द कर, संताजी घोरपड़े के बुजुर्ग पिताश्री माल्होजी घोरपड़े को संभाजी की देखभाल के लिए नियुक्त किया | हिन्दवी स्वराज्य के भावी कर्णधार संभाजी के मन में राष्ट्र सर्वोपरि, धर्म सर्वोपरि का भाव भरने का गुरुतर दायित्व अब उनके सर पर था, जिसका बहुत कुशलता से उन्होंने निर्वाह किया | जब जनवरी १६८० में छत्रपति शिवाजी महाराज की पन्हालगढ़ में संभाजी से भेंट हुई, तो वे उनमें हुए परिवर्तन को देखकर माल्होजी से बहुत प्रसन्न हुए |

उसके बाद मार्च १६८० के प्रथम सप्ताह में राजाराम का विवाह हुआ, किन्तु २३ मार्च को शिवाजी महाराज को ज्वर आ गया | शिवाजी महाराज ने जीवन भर जिस धैर्य और शांति के साथ संकटों का सामना किया, अब वे मृत्यु का भी उसी निडरता से सामना करने को तत्पर थे | ३ अप्रैल १६८० चैत्र सुदी पूर्णिमा को मध्यान्ह में वे स्वर्ग सिधारे | और उसके साथ ही शुरू हो गया सत्ता के दांवपेच का खेल | शिवाजी महाराज के स्वर्गवास का समाचार संभाजी तक नहीं पहुंचाया गया और महारानी सोयराबाई ने राजाराम को रायगढ़ में छत्रपति घोषित करवा दिया | लेकिन यह समाचार पाते ही सरसेनापति हम्बीर राव मोहिते व घोरपड़े परिवार अर्थात म्हालोजी और उनके तीनों पुत्र संताजी, बहिर्जी, मालोजी ने संभाजी का साथ देना तय किया | नतीजा यह हुआ कि जून १६८० की नागपंचमी को संभाजी ने सिंहासन संभाल लिया और १६ जनवरी १६८१ की उनका विधिवत राज्याभिषेक भी हो गया |

उस समय हिन्दवी स्वराज्य के सम्मुख जंजीरा के सिद्दी, गोवा के पुर्तगाली व मुग़ल मुख्य शत्रु थे | तुंगभद्रा के आसपास हो रहे पठानों के उत्पात से निबटने की जिम्मेदारी स्वयं संभाजी राजे ने संभाली और पन्हालगढ़ व रायगढ़ की सुरक्षा हम्बीरराव के हाथों में सोंपकर कर्नाटक की ओर रवाना हो गए |

उस समय संताजी ने वही रणनीति अपनाई जो छत्रपति शिवाजी महाराज की थी | अर्थात अपनी सेना के बड़े भाग को सुरक्षित स्थान पर छुपाकर संताजी थोड़े से सैनिकों के साथ शत्रु के सामने पहुंचते, पठानों को लगता अरे संताजी जैसे सेनापति को जिन्दा पकड़ा जा सकता है, वह उनका पीछा करते और डरकर भागने का नाटक करते संताजी उन्हें वहीँ ले पहुंचते, जहाँ उनकी सेना छुपी होती | बस फिर क्या था – हर हर महादेव, जय शिवाजी जय भवानी का निनाद और शत्रु सेना का विनाश | तीन महीने के अन्दर ही कोप्पल से तुंगभद्रा तक का पूरा क्षेत्र शत्रु रहित हो गया | छत्रपति संभाजी राजे ने प्रसन्न होकर संताजी को खूब शाबासी और भरपूर इनाम दिए | ‘शम्भाजी के बढ़ते प्रभाव की जानकारी पाकर बादशाह औरंगजेब ने अपने सेनापति कासिम खां को बड़ी सेना के साथ दक्षिण भेजा | मुग़ल सेनायें तूफानी बादलों की तरह दक्षिण पर छा गईं | कुतुबशाही और आदिलशाही तो उस झंझावात में ठहर ही नहीं पाईं, केवल मराठा ही उनके मार्ग के प्रमुख अवरोधक थे | बीजापुर का सरदार रुस्तमखान मुगलों से मिल गया और इस सम्मिलित शक्ति ने सतारा पर चढ़ाई कर दी | उनके साथ हम्मीरराव के नेतृत्व में भीषण युद्ध हुआ और रुस्तमखान की करारी हार हुई | लेकिन हम्बीर राव भी युद्ध में गंभीर घायल हुए और दिसंबर १६८७ को स्वर्ग सिधारे | महाराज शम्भाजी को अतीव दुःख हुआ | संताजी उस समय कर्नाटक में व्यस्त थे, कवि कलश और म्हालोजी घोरपड़े से विचार विमर्श कर महाराज शम्भाजी ने महादजी पानसंबल को सरसेनापति नियुक्त किया |

कुछ समय बाद महाराज संभाजी राजे ने अपना रुख कोंकण की ओर करना तय किया और कविकलश और म्हालोजी घोरपडे व चुनिन्दा चार सौ सैनिकों के साथ पन्हालगढ़ से राजधानी रायगढ़ जाने के इरादे से निकले । इस बात की जानकारी उनके साले गनोजी शिर्के को भी लगी | गनोजी शिर्के मनसबदारी न मिलने से नाराज चल रहां था, अतः उसने न केवल मुग़ल सरदार मुकर्रबखान को उनकी सूचना दे दी, बल्कि मार्गदर्शन कर गुप्त मार्ग से पांच हजार मुग़ल सैनिकों को संगमेश्वर भी पहुंचा दिया, जहाँ महाराज संभाजी गाँव बालों की समस्याएं सुन रहे थे | यह वह रास्ता था जो सिर्फ मराठाओं को पता था। इसलिए संभाजी महाराज ने सोचा भी नहीं था कि शत्रु इस ओर से आ सकेगा। युद्ध असमान था, इतनी बड़ी फ़ौज के सामने 400 सैनिकों का प्रतिकार क्या काम करता, फिर भी जीवट के साथ मराठा वीरों ने भीषण संघर्ष किया | महाराज को सुरक्षित निकालने के लिए बुजुर्ग म्हालोजी घोरपड़े ने जान की बाजी लगा दी | अपने महाराज की ढाल बनकर म्हालोजी ने तो रणभूमि में वीरोचित मृत्यु का वरण किया, किन्तु संभाजी महाराज शत्रु सेना का घेरा तोड़कर निकलने में सफल रहे। मुकर्रबखान हताशा में था कि संभाजी इस बार भी उनकी पकड़ से निकलकर रायगढ़ पहुँचने में सफल हो गए, लेकिन इसी दौरान एक मुखबिर ने मुगलों को सूचित कर दिया कि संभाजी रायगढ़ जाने के बजाय नजदीक ही एक हवेली में ठहरे हुए हैं। जो कार्य औरंगजेब की शक्तिशाली सेना नहीं कर सकी, वह कार्य एक मुखबिर ने कर दिया। 15 फरवरी, 1689 का काला दिन इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जब संभाजी को हिरासत में ले लिया गया । उनके साथ घायल अवस्था में कविकलश भी पकडे गए | उसके बाद की गाथा तो जगत विख्यात है कि इस्लाम कबूल न करने पर कैसे निर्दयता पूर्वक 11 मार्च, 1689 हिन्दू नववर्ष के दिन औरंगजेब के आदेश पर दोनों के शरीर टुकडे टुकडे कर तुलापुर की नदी में फेंकें गए, जिन्हें किनारे रहने वाले लोगों ने इकठ्ठा करके सिला और उनका विधिपूर्वक अंत्यसंस्कार किया। तब से इन लोगों को " शिवले " इस नाम से जाना जाता है |

कवि योगेश ने इस ह्रदय विदारक घटना का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है:

'देश धरम पर मिटने वाला

शेर शिवा का छावा था।

महा पराक्रमी परम प्रतापी

एक ही शंभू राजा था।।

तेजपुंज तेजस्वी आंखें

निकल गयीं पर झुका नहीं।

दृष्टि गयी पर राष्ट्रोन्नति का

दिव्य स्वप्न तो मिटा नहीं।।

दोनों पैर कटे शंभू के

ध्येय मार्ग से हटा नहीं।

हाथ कटे परवाह न की

सत्कर्म कभी तो छूटा नहीं।।

जिह्वा कटी खून बहाया

धरम का सौदा किया नहीं।

वीर शिवा का बेटा था वह

गलत राह पर चला नहीं।।

वर्ष तीन सौ बीत गये अब

शंभू के बलिदान को।

कौन जीता कौन हारा

पूछ लो सकल जहान को।।

मातृभूमि के चरण कमल पर

जीवन पुष्प चढ़ाया था।

है राजा दुनिया में कोई

जैसा शंभू राजा था।

अपने पिता के बलिदान और महाराज शम्भाजी राजे की गिरफ्तारी की जानकारी मिलने के बाद संताजी और उनके भाईयों ने बदला लेने की प्रतिज्ञा की | अपनी आँखों में आंसू की जगह अंगारे बसाए | संताजी और उनके भाई बहिर्जी व मालोजी तथा खंडो बल्लाल ने रायगढ़ पहुंचकर महारानी येसूबाई को इस बात पर सहमत किया कि अब चूंकि शम्भाजी महाराज के पुत्र युवराज शाहू जी केवल सात वर्ष के ही हैं, अतः स्वधर्म और स्वराष्ट्र के रक्षणार्थ महाराज राजाराम के नेतृत्व में ही संघर्ष करना उचित होगा | राजाराम महाराज ने भी बहुत ही बुद्धिमत्ता और दूरदर्शिता का परिचय देते हुए अपने आप को साहू जी महाराज का प्रतिनिधि ही प्रदर्शित किया । निहित स्वार्थों को छोड़कर राष्ट्र के लिए काम करने के दृष्टिकोण से समकालीन इतिहास की यह बहुत ही महत्वपूर्ण घटना है। उधर छत्रपति संभाजी महाराज की निर्दयता और क्रूरता पूर्वक हत्या करने के पश्चात मुगल कुछ अधिक ही उत्साहित हो गए थे । मराठा साम्राज्य को छिन्न भिन्न कर हिंदवी स्वराज्य को नींव से उखाड़ फेंकने के लिए औरंगजेब स्वयं दक्षिण में डेरा डाल कर बैठ चुका था । मुगल हिंदवी स्वराज्य के गढ ,कोट व चौकियों को एक-एक कर अपना ग्रास बनाते जा रहे थे । राजधानी रायगढ को भी औरंगजेब के सेनापति जुल्फिकार खान ने घेर लिया | ऐसे भयंकर और कठिनाइयों से भरे हुए समय में तय हुआ कि मुगलों को चकमा देते हुए राजाराम महाराज कर्नाटक स्थित जिंजी के किले में चले जाएं और वहां से मुगलों के विरुद्ध युद्ध जारी रखें । तदनुरूप राजाराम महाराज रायगढ से निकल गए | उनकी उस ऐतिहासिक जिन्जी यात्रा का वर्णन हम पूर्व में ही कर चुके है, जिसकी लिंक आप विडियो के अंत में व नीचे डिस्क्रिप्शन में देख सकते हैं |

अमात्य रामचंद्र पन्त ने रणनीति बनाई कि संताजी घोरपडे और धनाजी जाधव अपने आक्रमणों द्वारा मुग़ल सेना को इतना त्रस्त करें कि उनका ध्यान रायगढ़ से हट जाए | यह एक बड़ी चुनौती थी, किन्तु इन दोनों नरनाहरों ने इसे बखूबी अंजाम दिया | मराठा सेना की इस जय विजय सी जोडी ने लूटमार और मार काट की धूम मचा दी | चूंकि शम्भाजी महाराज की गिरफ्तारी में शेख निजाम की सबसे बड़ी भूमिका थी, अतः वह संताजी के सबसे अधिक निशाने पर था | अपने दस हजार चुनिन्दा सैनिकों के साथ संता जी और धनाजी की जोडी पूरे महाराष्ट्र में मुग़ल सत्ता को चुनौती देती घूम रही थी | तभी ३ नवम्बर १६८९ को संभाजी के सात वर्षीय पुत्र साहू जी व संभाजी की पत्नी येसूबाई भी औरंगजेब की गिरफ्त में पहुँच गए ।

मदमस्त औरंगजेब ने मराठों का मनोबल तोड़ने के लिए अपना विशाल शामियाना ठीक उसी जगह लगाया, जहाँ उसने शम्भाजी महाराज की जघन्य हत्या करवाई थी | इधर रामचंद्र पन्त ने धनाजी जाधव को रणमस्त खान व शहाबुद्दीन के ठिकानों पर हमला करने भेजा तो संताजी ने सीधे औरंगजेब के शिविर पर ही हमला करने की ठान ली | न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी | शम्भा जी महाराज और अपने पिता माल्होजी की मौत का बदला लेने को वे अकुला रहे थे | औरंगजेब के इस शाही शामियाने में कई तम्बू थे और बादशाह का तम्बू सुरक्षा की द्रष्टि से सबसे बीच में था | लगभग पांच हजार फुट लम्बे और एक हजार फुट चौड़े इलाके में यह छोटा मोटा नगर सा बसा हुआ था | इसमें नक्कार खाना, सभागृह, भेंट के लिए आने वाले बड़े लोगों के लिए अतिथि गृह, महिलाओं के लिए पृथक जनानखाना, सब कुछ था | इस छावनी की सुरक्षा के लिए भी पुख्ता व्यवस्था थी | इसके अतिरिक्त घोड़ों के लिए अस्तबल, शस्त्रागार, अधिकारियों, मंत्रियों और शहजादों के लिए आवास व्यवस्था भी और सशस्त्र सुरक्षा व्यवस्था भी | मोटे तौर पर इसमें घुसना माने मौत को दावत देना ही था | लेकिन छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य का यह सैनिक भय किस चिड़िया का नाम है, यह तो जानता ही नहीं था | नाहि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः, यह संता जी का घोष वाक्य था | शेर के मुंह में हिरन खुद थोड़े ही आता है, उसे शिकार करना ही पड़ता है | अतः इस शेर ने औरंगजेब का शिकार करने की ठान ही ली |

एक अंधेरी काली रात में बादलों ने मूसलाधार बरसना शुरू किया, अंग पर अंगरखा, मुंह को मुंडासे से ढके, पीठ पर ढाल, एक हाथ बाजू में लटकी म्यान में रखी तलवार की मूठ पर, जैसे जंगल में बाघ शिकार की ताक में दबे पाँव आगे बढ़ता है, ठीक बैसे ही धीरे धीरे गरुड़ की नज़रों से देखता, औरंगजेब के शामियाने की तरफ बढ़ चला यह मराठा केसरी | रास्ते में जो मुग़ल सैनिक उनींदा या सोया मिलता गया, उसका सर कटता गया | किसी जीवित प्रेत के समान संताजी ने बादशाह के शामियाने में प्रवेश कर ही लिया | उनकी इच्छा थी कि जो हाल शिवाजी महाराज ने अफजल खान या शाइस्ता खान का किया था, वही गति आज उनके हाथों औरंगजेब की हो | लेकिन दुर्भाग्य से औरंगजेब की मौत अभी आई नहीं थी | सोने के दो कलश दरवाजे पर रखे थे, वे गिर गए और उनकी आवाज से शिविर में सभी जाग गए | औरंगजेब भी अपने रंगीन सपनों की दुनिया से बाहर आ गया | और संताजी भी भागते भूत की लंगोटी भली की तर्ज पर उन दो स्वर्ण कलशों को उठाकर तूफानी गति से आनन फानन में निकल गए | औरंगजेब माथे पर हाथ मारकर बोला या अल्लाह ये आदमी है या भूत | कैसे आ गया यहाँ तक ? उसके बाद जब संता जी ने अपने भाईयों के साथ पन्हालगढ़ पहुंचकर महाराज राजाराम और महारानी ताराबाई के सामने मुगलों से लूटी हुई दौलत उंडेली, तो दरवार में उपस्थित हरएक की आँखें चोंधिया गईं | स्वराज्य के अभियान में यह संपत्ति बहुत काम आने वाली थी | प्रसन्न राजाराम महाराज ने संता जी को ममलकत मदार, उनके एक भाई मालोजी को अमीरुल उमराव और दूसरे भाई बहिर्जी को हिंदूराव की उपाधि प्रदान की |

पन्हालगढ़ से महाराज राजाराम ने कर्णाटक की ओर प्रस्थान किया | उनके साथ संताजी के दोनों भाई बहिर्जी और मालोजी, प्रहलाद निराजी, खंडो बल्लाल, कान्होजी आंग्रे, रघुनाथ हनुमंते आदि शूरवीर लिंगायत का वेश बनाकर निकले | शत्रुओं को चकमा देने के लिए वे सीधे दक्षिण नहीं गए, बल्कि पहले कृष्णा नदी पार कर पूर्व दिशा में जाकर फिर दुबारा कृष्णा नदी पारकर दक्षिण की और बढे | इस दौरान कई स्थानों पर बहिर्जी घोरपडे ने महाराज को अपने कन्धों पर उठाये रखा | महाराज को पकड़ने निकले निजाम से निबटने की जिम्मेदारी संताजी घोरपडे ने संभाली | लडाई का शंखनाद हो गया | हरहर महादेव, शिवाजी महाराज की जय के निनाद से आसमान को गुंजाते मराठा वीर निजाम की सेना पर चढ़ दौड़े | तलवारें विद्युत गति से चलने लगीं, पहले ही हल्ले में संताजी के वार से निजाम जख्मी हो गया | यह देखकर उसका बेटा आगे बढ़ा तो उसे नारों महादेव ने रोका | निजाम के हाथी घोड़े लश्कर सब कुछ लूट कर कोल्हापुर की दिशा में धकेल दिया गया, ताकि वे महाराज राजाराम को कोई परेशानी पैदा न कर सकें |

उधर तुंगभद्रा पार कर कैसे महारानी चेन्नम्मा की मदद से महाराज राजाराम जिन्जी सुरक्षित पहुंचे उसका पूरा वर्णन हम कर ही चुके हैं, उसकी लिंक डिस्क्रिप्शन व विडियो के अंत में है ही | महाराज राजाराम तो सकुशल जिन्जी पहुँच गए, किन्तु संताजी के भाई मालोजी व अनेक मराठा वीर इस दौरान मुगलों के हत्थे चढ़ गए व कैद कर लिए गए | औरंगजेब ने इसके बाद महारानी चेन्नम्मा से चिढकर उनसे बदला लेने के लिए जांनिसार खान और मतलब खान के नेतृत्व में बड़ी सेना को रवाना किया | यह समाचार मिलते ही संताजी ने इसकी पूर्व सूचना महारानी को भेज दी और स्वयं भी अपने सैन्य दल के साथ तुंगभद्रा के तट पर पहुँच गए | उधर बिदनूर से महारानी की सेना भी उनसे आ मिली |

जांनिसार खां भी शूरवीर लड़ाका था | इसके पूर्व जब औरंगजेब के बेटे अकबर ने उसके खिलाफ विद्रोह किया था, तब जांनिसार ने ही उसे पराजित किया था और बदले में मनसब पाई थी | कुतुबशाही से हुई लडाई के बाद उसे खुद औरंगजेब ने रत्नजडित खंजर और घोडा इनाम में दिया था |

लेकिन युद्ध शुरू हुआ तो संताजी के सामने खान की सब बहादुरी धरी रह गई | आरपार की लड़ाई हुई | घोड़ों की हिनहिनाहट, हाथियों की चिंघाड़, तलवारों की झंकार से वातावरण गूंजने लगा | संताजी की तलवार तो शत्रु रक्त की प्यासी थी ही | जल्द ही जमीन पर पड़े शवों और घायलों पर निशाना साधते चील कौए आसमान से जमीन पर उतरने लगे | मुग़ल सेना का भीषण विनाश हुआ | जांनिसार खान और तहरुबखान दोनों ही गंभीर घायल होकर जमीन सूंघने लगे | इन दोनों सेनापतियों सहित अनेक मुग़ल सैनिक बंदी बनाए गए | उस समय रानी चेन्नम्मा ने एक होशियारी दिखाई और इन सब बंदियों को औरंगजेब के पास भेज दिया इस सन्देश के साथ कि इन सबको हमने संताजी के कब्जे से छुडाया है | औरंगजेब के दिल में संताजी का खौफ और बढ़ गया | एक बार फिर उसके मुंह से निकला या अल्लाह ये आदमी है या जिन्न | एक शिवाजी से पीछा छूटा था, यह दूसरा कहाँ से आ गया |

संताजी के पराक्रम का एक और प्रसंग प्रसिद्ध है | औरंगजेब ने सतारा का किला कब्जा करने की योजना बनाई और उसके लिए अपने वफादार और बहादुर सरदार रुस्तम खान उपाख्य सर्जाखान को भेजा | उसका मुकाबला करने को संताजी घोरपडे, धनाजी जाधव, अमात्य रामचंद्र पन्त, शंकरा जी नारायण आदि एकत्रित हुए | यह भांपकर रुस्तम खान ने अपने बेटे गालीब खान की पांच हजार सैनिकों व पांच हाथियों के साथ आगे भेजा | उसका इरादा समझकर संताजी ने अपने बंदूकधारी सैनिकों का उपयोग किया, जिन्होंने झाड़ियों में छुपकर अकस्मात गोलियां चलाना शुरू कर दिया | आगे आगे आ रहे हाथी इस हमले से एकदम बेकाबू हो गए और अपनी ही सेना को कुचलते हुए भागने लगे | यह देखकर अपनी सारी योजना भूलकर रुस्तम खान शेष सेना के साथ बढ़ा, इसके जबाब में मराठा सेना भी आगे बढी | रुस्तमखान ने बहादुरी से उनका सामना किया | उसकी सारी सेना इकट्ठी होते ही संताजी ने डरकर भागने का नाटक किया | उत्साहित मुग़ल सेना ने पीछा किया और चक्रव्यूह में फंस गए | वहां पहुँच गए जहाँ संताजी उन्हें ले जाना चाहते थे | मराठा सेना ने उन्हें चारों ओर से घेरकर पिटाई शुरू कर दी | आगे से गोलियां बरस रही थीं, तो पीछे से तीरों की मार हो रही थी | घायल होकर रुस्तम खान भी हाथी के हौदे से नीचे जा गिरा | उसके गिरते ही मुग़ल सेना में भगदड़ मच गई | मराठा सरदार मानाजी मोरे उसे बंदी बनाकर अपनी छावनी में ले आये |

रुस्तमखान सोलह दिन कैद में रहने के बाद चार हजार घोड़े, आठ हाथी व एक लाख रूपये देकर बंधन मुक्त हुआ | औरंगजेब की नींद उड़ गई | संताजी की यही युद्ध नीति थी | हाथी के दांत खाने के अलग, दिखाने के अलग और यही उनकी सफलता का राज था | एक नहीं ऐसे अनेक प्रसंग हैं | इसी के परिणाम स्वरुप प्रतापगढ़, रोहिडा, रायगढ़, तोरणा जैसे महत्वपूर्ण किले भी स्वराज्य के अधीन हो गए और बड़ी तादाद में धन सम्पदा व युद्ध सामग्री हाथ लगी सो अलग |

संताजी की इन सफलताओं और लगातार की पराजय से चिढ़े औरंगजेब ने उनके भाई मालोजी की ह्त्या करवा दी | वे राजाराम महाराज के साथ जिन्जी जाते समय मुगलों के हत्थे चढ़ कर उनकी कैद में थे | मालोजी की मृत्यु का समाचार पाकर संताजी के दुःख का पारावार न रहा | दुःख इस लिए ज्यादा था, क्योंकि उन जैसे वीर योद्धा की मृत्यु युद्धक्षेत्र में नहीं हुई | भाई की मृत्यु के साथ ही संताजी के भी दुर्दिन शुरू हो गए | उनकी प्रसिद्धि से अनेक प्रभावशाली लोगों को ईर्ष्या होने लगी | उनकी सफलताओं और ध्येयनिष्ठा को भुलाकर जो भी गलत होता, उसका दोष उनके मत्थे मढा जाने लगा | पन्हालगढ़ के किलेदार पिराजी घाटगे ने स्वराज्य के लिए मिले धन का हिसाब माँगने पर, हिसाब देने के स्थान पर रामचंद्र पन्त के कान भरे कि संताजी गढ़ शत्रु के हाथ देना चाहते हैं | इतना ही नहीं तो राजाराम महाराज ने उनकी सेना सूर्याजी पिसाल जैसे दगाबाज के पास भेजने के आदेश दे दिए | संताजी को लगने लगा कि वे नाम मात्र के ही सर सेनापति हैं, वस्तुतः तो केवल हुक्म के गुलाम भर हैं | छत्रपति शिवाजी महाराज ने कभी इकतरफा हुकुम नहीं सुनाया, किन्तु राजाराम महाराज और अमात्य रामचंद्र पन्त कैसे निर्णय ले रहे हैं, उन्हें समझ नहीं आ रहा था |

जब वे इस मनःस्थिति में गुजर रहे थे तभी धनाजी जाधव अपने साथ नागोजी माने और उसके बेटे सुभानराव के साथ वहां पहुंचे और राजाज्ञा का खलीता दिया कि इन दोनों को सेना में शामिल कर लिया जाए | अब ये नागोजी माने वही व्यक्ति था जो इसके पूर्व मुग़ल सेना का मनसबदार था | उसे अपनी सेना में शामिल करने का खलीता देखकर संताजी का खून खौल उठा | मेरी सेना में किसे लेना, किसे निकालना, क्या अब यह अधिकार भी उन्हें नहीं है | इसके पूर्व कि वे कोई प्रतिक्रिया व्यक्त करते तभी नारों महादेव खबर लाये कि इतिक खान फ़ौज लेकर जिन्जी की तरफ बढ़ रहा है |

यह सुनते ही संता जी ढाल तलवार लेकर बाहर की और दौड़ पड़े | वे भूल चुके थे अपना दुःख, अपनी नाराजी, याद था तो केवल यह कि हिन्दवी स्वराज्य पर संकट है | अनिष्टकारी समाचार कुछ और भी आये | भाई बहिर्जी भी परलोक सिधार गए | इतना ही नहीं तो औरंगजेब ने जुल्फिकार खान व आसद खान को भी इतिक खान की मदद के लिए सेना के साथ रवाना कर दिया है | संताजी ने अपने दोनों भाईयों का शोक मनाया या आक्रमणकारियों से निबटने की रणनीति बनाई ? अपने महाराज राजाराम और आमात्य रामचंद्र पन्त की नाराजगी का क्या परिणाम निकला ? आगे की कहानी बेहद दर्दनाक है मित्रो

जिन्जी को घेरने के लिए मुगलों की तीन तीन सेनायें बढ़ रही थीं | जुल्फीकार खान तो जिन्जी से महज साठ मील दूरी तक आ चुका था | ऐसी परिस्थिति में भला संताजी अपने भाई का शोक कैसे मना सकते थे | पिता पहले ही मातृभूमि की सेवा करते व शम्भाजी महाराज की रक्षा का प्रयत्न करते स्वर्ग सिधार चुके थे | एक भाई माना जी की मुगलों की कैद में जघन्य हत्या हो चुकी थी | अब दूसरे भाई महिर्जी भी भगवान को प्यारे हो गए थे | संताजी ने सबकुछ भूलकर जहाँ एक ओर तो सैन्यबल को मुकाबले के लिए सन्नद्ध किया वहीं दूसरी ओर मुग़ल सेना की रसद रोक दी | सफल रणनीति के चलते हालत यह हो गई कि जुल्फिकार खान की फ़ौज भूख प्यास से तड़पने लगी | जिन्जी की ओर आगे बढ़ना भूलकर अपने खाने पीने की जुगत अब उनकी प्राथमिकता थी | भूखे प्यासे युद्ध क्या ख़ाक करते |

जुल्फिकार खान को राहत देने बजीर आसद खान और शहजादे कामबक्ष की फौजें उसकी मदद को आगे बढ़ने लगीं तो स्थिति भांपकर संताजी और धनाजी ने बिना मौका गंवाए, उनके आक्रमण का इंतज़ार किये बिना, मुग़ल लश्कर पर अकस्मात चढ़ाई कर दी | असावधान मुगलों की सेना जब तक संभलती तब तक तो एक प्रमुख मुग़ल सरदार इस्माइल खान पकड़ कर कैद कर लिया गया | १३ दिसंबर १६९२ को समाचार मिला कि अलीमर्द खान रसद लेकर जिन्जी की तरफ बढ़ रहा है, बस फिर क्या था, यह बहादुर सेना नायक चढ़ दौड़े और शत्रुदल का संहार करने के साथ उनके पांच हाथी, तीन सौ उम्दा घोड़े, अनगिनत बैल खच्चर आदि जानवरों के साथ अलीमर्द खान को भी जिन्दा पकड़ लिया | उसके बाद जिन्जी की तरफ प्रयाण किया ताकि जिन्जी रक्षा को नियुक्त सेना के साथ जा मिलें | उन्हें रोकने का हनीउद्दीन खान और मतलब खान ने पूरा प्रयास किया, किन्तु असफल रहे |

उसी दौरान छत्रपति राजाराम का एक खलीता पाकर संता जी हतप्रभ रह गए | उन्हें मिरज प्रांत की देश्मुखी प्रदान की गई थी | यह आज्ञापत्र ऐसा ही था मानो आज देश पर पाकिस्तान का आक्रमण हो और रक्षामंत्री को उसी समय किसी राज्य का मुख्यमंत्री बना दिया जाए | यह उसका सम्मान होगा या अपमान | यद्यपि आज्ञापत्र की भाषा बहुत प्रशंसात्मक थी | लिखा गया था –

सेनापति संताजी पुत्र म्हालोजी घोरपडे ने राज्य की बहुत निष्ठापूर्वक सेवा की है, शेख निजाम, सर्जाखान, रणमस्त खान, अनवर खान जैसे बड़े मुग़ल बजीरों को परास्त किया है, यहाँ तक कि राज्यरक्षण के उनके प्रयत्नों से स्वयं औरंगजेब के मन में भी दहशत पैदा हो गई, इसे देखते हुए यह नियुक्ति की जा रही है |

संताजी किसी पद के अभिलाषी नहीं थे, उनके मन में एक ही प्यास थी कि छत्रपति शिवाजी महाराज की गद्दी सुरक्षित रहे, जल्द से जल्द मुगलों की कैद से महारानी येशू बाई और युवराज शाहू जी की मुक्ति हो | केवल इन्हीं उद्देश्यों की खातिर उन्होंने जिन्जी से रायगढ़ तक का इलाका अपने घोड़े की टापों से रोंदा था | ऐसे में संताजी के हाथों में पहुंचा यह आदेश और साथ ही भेंट का फरमान |

संताजी की मनःस्थिति विचित्र हो गई थी |वे छत्रपति के दरवार में उपस्थित हुए | उन्हें आसन पर बैठने का संकेत हुआ, पर वो ससम्मान जुहार कर खड़े ही रहे | राजाराम महाराज ने उलाहना दिया – हमारे सरसेनापति को तो हमसे मिलने की भी फुर्सत नहीं मिलती |

संताजी ने विनयपूर्वक सर झुकाए जबाब दिया –

महाराज सर सेनापति के रूप में मेरी जिम्मेदारी राज्य रक्षण की है, स्वराज्य निष्ठा और शिवतत्व पर अमल मैंने यथासंभव किया है | मुगलों को जगह जगह पराजित कर छत्रपति शम्भाजी महाराज की ह्त्या का बदला लिया गया है | किन्तु यह दुखदाई और ह्रदय विदारक है कि आज राज्य में सूर्याजी पिसाल, नागोजी माने, निम्बालकर पिराजी घाटगे, प्रहलाद निराजी जैसे स्वार्थी तत्व आपके नजदीकी हैं | इन लोगों की शिकायत पर मुझे आरोपी के रूप में बुलाया गया है | मैं हिन्दवी स्वराज्य का सेनापति हूँ, किसी का गुलाम नहीं | मैं महादेव का भक्त और स्वराज्य का सेवक हूँ, जो आजीवन रहूँगा |

दरवार में यद्यपि अधिक लोग नहीं थे, केवल महाराज, महारानी ताराबाई के अतिरिक्त खंडो बल्लाल जैसे विश्वस्त लोग ही थे, लेकिन जो भी थे वे सब हतप्रभ रह गए, सनाका छा गया |

राजाराम महाराज ने आवेश पूर्वक कहा – मैंने नागोजीराव और सुभानराव माने को मुगलों से तोड़कर स्वराज्य के पक्ष में किया और उन्हें सेना में लेने के लिए तुम्हारे पास भेजा, पर तुमने क्या किया ? मेरे शब्दों की क्या कीमत रही |

संताजी का धीर गंभीर स्वर गूंजा – महाराज ये वो लोग हैं जो अपने फायदे के लिए रोज निष्ठा बदलते हैं | कभी मुगलों के साथ तो कभी आदिलशाही के साथ | ऐसे दगावाज और स्वार्थी लोगों का क्या भरोसा ? महाराज आपके शब्दों का मान रखने के कारण ही वह जिन्दा रहे, अन्यथा तो मेरे सामने आते हैं, उनका सर धड से अलग हो जाता | महाराज बाहर जुल्फिकार खान की सेनायें सन्नद्ध खडी हैं, मुझे आज्ञा दें उनका सामना करने की, यहाँ से प्रस्थान करने की |

लेकिन महाराज ने उन्हें टोका, बोले – संताजीराव तुम जुल्फिकार खान की चिंता छोडो | वह घेरा उठाने वाला है |

वस्तुतः हुआ कुछ यूं था कि जिस तरह संताजी ने जुल्फिकार खान की घेराबंदी कर रसद बंद करवा दी थी और जो भी मदद को आये उन्हें दबोच लिया था, उससे घवराकर वह गुप्त रूप से जिन्जी किले में जाकर महाराज राजाराम से मिला था और उन्हें पेशकश की थी कि एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ और तमाम हीरे जवाहरात के अतिरिक्त पन्हालगढ़ भी वापस करने के बाद वह चुपचाप घेरा उठाकर चला जाएगा | संताजी से उसका मार्ग खुलवा दिया जाए | इस संधि की जानकारी मिलते ही संताजी हक्के बक्के हो गए और बोले – महाराज आज बीजापुर हमारी मुट्ठी में है | खान केवल विश्राम चाहता है |

लेकिन महाराज कुछ सुनना ही नहीं चाहते थे, यहाँ तक कि महारानी ताराबाई ने भी संताजी का समर्थन किया, तो उन्हें भी कह दिया, राजनीति पुरुषों का काम है, आप हस्तक्षेप न करें | स्मरणीय है कि ताराबाई स्वयं भी पूर्व सरसेनापति हम्बीरराव की पुत्री होने के कारण युद्ध नीति भली प्रकार समझती थी | महाराज राजाराम ने संता जी को युद्धबंद करने की स्पष्ट आज्ञा दे दी | बुझे मन से संताजी अपने शिविर में लौटे |

कुटिल औरंगजेब को जैसे ही महाराज और सेनापति के मतभेद की जानकारी लगी उसने एक और चाल चल दी | तानाजी के नाम लिखा एक गुप्त पत्र इस प्रकार भेजा कि वह धनाजी जाधव के हाथ लग गया | उस पत्र से यह ध्वनित होता था मानो संताजी उसके साथ मिल गए हों | उस पत्र को देखकर धना जी जैसे संताजी के घनिष्ठ मित्र भी उन पर संदेह कर बैठे और वह पत्र महाराज राजाराम तक पहुंचा दिया | पहले से नाराज महाराज ने तुरंत संताजी की सेनाओं को वापस आने, उनके स्थान पर धनाजी जाधव को सर सेनापति बनाने का आदेश प्रसारित कर दिया |

कल्पना कीजिए क्या गुज़री होगी संताजी पर ? कितना आहत और दुखी हुए होंगे ? लेकिन वह शूरवीर चुपचाप अपमान का कड़वा घूँट पीकर जंगलों में चला गया, वान्यप्रस्थ लेकर भगवान शिव की आराधना करने | प्रतिदिन नदी में स्नान, कंदमूल का आहार और चुपचाप भगवान का नाम स्मरण, यही अब उनकी दिनचर्या थी | एक दिन जब स्नान के बाद वे ध्यान लगाए बैठे थे, उसी नागोजी माने ने घात लगाकर उन पर आक्रमण कर दिया, जिसे उन्होंने अपनी सेना में लेने से इनकार कर दिया था | उस नराधम ने उनका सर धड से अलग कर आँखें चुपचाप औरंगजेब के पास पहुंचा दीं और प्रत्यक्षतः महाराज राजाराम की सेवा में लगा रहा | जैसे ही औरंगजेब ने शाबासी देकर उसे वापस बुलाया वह अविलम्ब उससे जा मिला |

संताजी का हर अनुमान सही सिद्ध हुआ | न केवल माने के बारे में, बल्कि युद्ध विराम को लेकर भी, जो जल्द ही समाप्त हुआ और जिन्जी जैसे अभेद्य किले पर भी मुगलों का कब्जा हुआ, महाराज राजाराम को जिन्जी छोड़ने को विवश होना पड़ा | 

आईये पूरे अंतर्मन से संताजी घोरपडे को सादर श्रद्धांजली अर्पित करें | ॐ
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