भाग्य के धनी और परम प्रतापी धार के राजकुमार जगदेव




श्री टॉड ने राजस्थानी इतिहास, श्री ऑरल स्टाईन ने कश्मीरी इतिहास और श्री एटकिन्सन ने हिमाचल प्रदेश का इतिहास लेखन किया है, उसी प्रकार श्री अलेग्जेंडर किनलोक फार्ब्स ने गुजरात के इतिहास पर शोध कार्य किया | इसके लिए उन्होंने चारण भाटों से लेकर शिलालेखों, जनश्रुतियों, राजबाडों के पोथीखानों में विलक्षण तल्लीनता और परिश्रम से यह कार्य किया | उनके द्वारा लिखित रासमाला में गुजरात के चालुक्य और बाघेला वंश का विषद वर्णन है | यह पुस्तक सन १९२४ में प्रकाशित हुई थी, और उसका गुजराती अनुवाद १९२७ में व बाद में हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हुए | तत्कालीन समाज की कमियों और खूबियों की जानकारी के लिए और साथ ही विदेशी आक्रान्ताओं के समक्ष हमारी पराजय के कारणों को जानने समझने में इन कथानकों से हमें मदद मिल सकती है, इस द्रष्टि से ही यह विडियो आपके समक्ष प्रस्तुत है | जैसा कि मैं अक्सर कहता हूँ, हमारे पूर्वजों ने इतिहास बनाने में दिलचस्पी ली, इतिहास लेखन में नहीं | इसी कारण जिन लोगों ने भी लिखा, उसमें कल्पना का भी पर्याप्त मिश्रण रहा | उसमें से सत्य का अनुमान हमें ही करना होगा | तो आईये कथानक प्रारंभ करते हैं –

यह कथानक है धार के परमार नरेश उदयादित्य के पराक्रमी व सौभाग्यशाली बेटे जगदेव का | उदयादित्य के दो रानियाँ थीं, वाघेला वंश की रानी के पुत्र रणधवल आयु में बड़े होने के अतिरिक्त राजा की प्रिय रानी के पुत्र भी थे, जबकि सोलंकी वंश की रानी पर राजा का प्रेम भी कम था और जगदेव आयु में भी छोटे होने के कारण एक प्रकार से उपेक्षित ही रहते थे | लेकिन जैसे जैसे समय बीता और दोनों राजकुमारों ने युवावस्था में कदम रखा, जगदेव के गुणों की चर्चा होने लगी, वे जनप्रिय होते गए | राजा के मन में भी उनके प्रति स्नेह जागृत होने लगा | लेकिन इसका नतीजा यह हुआ कि वे अब बिमाता के निशाने पर रहने लगे | एक बार जब धार नरेश उदयादित्य मांडू गए हुए थे, पीछे से जगदेव के गुणों से प्रभावित होकर गौड़ देश के राजा गंभीर ने अपनी पुत्री के विवाह का नारियल भेजा | लेकिन बिमाता ने चाल चली और पुरोहित को यह बताकर कि राजा के उत्तराधिकारी तो उनके बेटे रणधवल है, वह नारियल जगदेव के स्थान पर रणधवल को दिलवा दिया |

लौट कर पुरोहित ने गौड़ राजा गंभीर को भी इस विवाह हेतु सहमत कर लिया और तय समय पर धार से बारात रवाना हुई | बारात में जगदेव भी थे | रास्ते में टोंक के चावड़ा वंशी राजा को जब यह समाचार ज्ञात हुआ, तो उन्होंने धार के आमात्य से आग्रह किया कि उनकी पुत्री बीरमती का विवाह जगदेव से करा दिया जाए, उसके बाद बारात आगे जाए | और इस प्रकार राजकुमार जगदेव का विवाह पहले हो गया और उसके बाद रणधवल का विवाह हुआ | दोनों राजकुमार अपनी अपनी पत्नियों के साथ धार वापस लौटे | मांडू से लौटने के बाद राजा उदियादित्य इन विवाह समाचारों से बहुत प्रसन्न हुए, और उन्होंने जगदेव को अपना गले का हार और कटार भेंट स्वरुप दे दी | लेकिन सौतिया डाह में डूबी बड़ी रानी ने जिद्द करके वह दोनों चीजें वापस मंगवा लीं | जगदेव को इसमें अपना अपमान प्रतीत हुआ और उसने कुछ कर दिखाने की चाह में राज्य छोड़ दिया | जाते समय उसने अपनी मां से कहा –

सिंह न देखे चन्द्रमा, ना संपत्ति ना रिद्धि,

एकाकी साहस भलो, जहं साहस तहं सिद्धि |

सिंह चन्द्रमा अनुकूल है या नहीं, यह देखकर शिकार को नहीं निकलता, हाथ में पैसा हो न हो, दैव अनुकूल हों न हों, साहसी व्यक्ति को हर काम में सफलता मिलती है | उनके घर छोड़ने का समाचार पाकर उनकी पत्नी बीरमती ने भी साथ चलने का हठ किया | मार्ग में नरभक्षी शेरों को मारने से उनकी ख्याति उनसे दो हाथ आगे चलने लगी | हर जगह उनका सत्कार हुआ | पाटन पहुँचने के बाद जब जगदेव जगतप्रसिद्ध सिद्धराज जयसिंह के दरवार में कोई काम तलाशने गए, पीछे से उनकी पत्नी बीरमती को एक वैश्या फुसलाकर अपने घर ले गई, जहाँ बीरमती के हाथों पाटन के कोतवाल के अय्यास बेटे का खून हो गया | इतना ही नहीं तो उस वीरांगना ने उसे पकड़ने आये कई सैनिकों को भी यमपुरी पहुंचा दिया | समाचार पाकर महाराज सिद्धराज स्वयं वहां पहुंचे और वैश्या व कोतवाल को दण्डित कर जगदेव को अपने दरवार में नियुक्त कर लिया |

जगदेव ने अनेक वर्षों तक पाटन नरेश सिद्धराज जयसिंह की पूर्ण निष्ठा से सेवा की | इस दौरान उनके दो पुत्र हुए, जग धवल और बीजधवल | गुजरात की लोकगाथाओं में जगदेव शीश के दानी के रूप में प्रसिद्ध हैं | एक विचित्र प्रसंग रासमाला में वर्णित है | मित्रगण उसे इतिहास मानें या न मानें यह उनके विवेक पर निर्भर है, किन्तु यह रोचक अवश्य है | हुआ कुछ यूं कि राजा सिद्धराज को आधी रात में कुछ महिलाओं के रोने और कुछ के गाने की आवाज आई | उन्होंने पहरे पर तैनात जगदेव से इसका कारण मालूम करने को कहा | राजकुमार जगदेव अपनी ढाल सर पर रखकर और तलवार हाथ में लेकर रवाना हो गए | राजा ने सोचा कि देखना चाहिए कि जगदेव भादों की इस काली अंधियारी रात में जाते भी हैं या नहीं और वह भी जगदेव के पीछे पीछे छिपकर चल दिए |

नगर के बाहर श्मशान से ही आवाजें आ रही हैं, यह अनुमान कर जगदेव निडरता पूर्वक वहां जा पहुंचे जहाँ कुछ महिलायें विलाप कर रही थीं, तो कुछ गा रही थीं |

उन्होंने विनम्रता पूर्वक रो रहीं महिलाओं से उनके रोने का कारण पूछा, तो उन महिलाओं ने उत्तर दिया कि हम लोग पाटन की योगनियाँ हैं, कल पाटन के लोकप्रिय राजा सिद्धराज जयसिंह की मृत्यु होने वाली है, यही जानकर हम दुखी हैं | अचंभित जगदेव ने अब हंसने और गाने वाली महिलाओं से उनके प्रसन्न होने का कारण पूछा तो उन्होंने बताया कि हम लोग दिल्ली की इष्टदेवियाँ हैं, कल जब पाटन के इस प्रतापी राजा की मृत्यु हो जायेगी, तो गुजरात भी दिल्ली के अधीन हो जायेगा, यही हमारी प्रसन्नता का कारण है | जगदेव ने उन देवियों से पुछा कि आज के समय में महाराज जयसिंह देव से अधिक धर्मपरायण और जनसेवक कोई राजा नहीं है, क्या किसी प्रकार उनकी मृत्यु टल नहीं सकती ?

इस पर देवियों ने उत्तर दिया कि अगर राजकुल का कोई व्यक्ति अपना शीश दान कर दे तो राजा की मृत्यु टल सकती है | जगदेव ने कहा कि मैं भी धार का राजकुमार हूँ, क्या मेरे शीश दान से महाराज जयसिंह देव पर आई विपत्ति टल सकती है ? देवियों के हाँ कहने पर उसने कहा कि मैं अंतिम बार अपनी पत्नी से मिलकर लौटता हूँ | इस पर देवियाँ ठठाकर हंसने लगीं और कहा कि कौन ऐसी महिला होगी जो अपने सुहाग को मृत्यु के लिए अनुमति देगी, जरूर जाओ किन्तु हमें निश्चित पता है कि तुम नहीं लौटने वाले | झाड़ियों में छुपे महाराज जयसिंह देव चकित भाव से यह सब नजारा देख सुन रहे थे | उन्हें पहली बार ज्ञात हुआ कि उनके यहाँ सेवक के रूप में कार्यरत जगदेव वस्तुतः धार का राजकुमार है | देवियों के साथ साथ वे भी इंतज़ार करने लगे कि जगदेव अपनी पत्नी से मिलकर लौटते हैं या नहीं ?

किन्तु यह क्या ? जगदेव लौटे, लेकिन अकेले नहीं, अपनी पत्नी और दोनों पुत्रों के साथ | उन्होंने आते ही पूछा कि मेरे शीश दान के बदले महाराज जयसिंह देव की कितनी आयु बढ़ेगी ? देवियों ने उत्तर दिया बारह वर्ष | इस पर जगदेव ने कहा कि मेरी पत्नी भी मेरे बाद जीवित नहीं रहना चाहती, वह बाद में सती होने के स्थान पर मेरे सामने ही अपना जीवन दान करना चाहती है | हम दोनों के बाद इन अबोध नन्हें बालकों का क्या होगा, अतः आप हम चारों के शीश लेकर महाराज के जीवन को अड़तालीस वर्ष बढ़ा दें | देवियों के सहमत होते ही वे अपने बड़े पुत्र का सर काटने को उद्यत हुए, किन्तु उन्हें देवियों ने रोक दिया और कहा कि हमने तुम चारों का बलिदान स्वीकार कर लिया है और राजा सिद्धराज जयसिंह देव का जीवन अड़तालीस वर्ष बढ़ा दिया है |

जगदेव प्रसन्नता पूर्वक वापस हुए | उनकी स्वामीभक्ति और उनकी पत्नी की पतिभक्ति से अभिभूत राजा जयसिंह देव भी अपने महल में चले गए | दूसरे दिन दरवार में महाराज ने दरवारियों को सब वृतांत सुनाकर कहा कि आज के बाद मैं जो राज्य करूंगा, वह जगदेव के प्रताप से ही | उन्होंने न केवल अपने राज सिंहासन के बगल में जगदेव के लिए आसन लगवाया, बल्कि अपनी पुत्री का विवाह भी उनके साथ कर दिया |

किन्तु यह उदारता और मधुर सम्बन्ध अधिक समय तक नहीं ठहरे | कई अति मानवीय गाथाओं का लब्बोलुआब यह है कि राजा जयसिंहदेव को जगदेव की राज्य में बढ़ती ख्याति से ईर्ष्या होने लगी और उसी मानसिकता में उन्होंने जगदेव को नीचा दिखाने के लिए धार पर आक्रमण करने का निर्णय ले लिया | स्वाभाविक ही अपने गृहराज्य पर संकट आया देखकर जगदेव ने भी महाराज जयसिंह देव से विदा लेकर धार को प्रस्थान कर दिया | उनके पिता धार नरेश उदयादित्य ने न केवल उनका स्वागत किया बल्कि उन्हें ही अपना उत्तराधिकारी भी घोषित कर दिया | जगदेव पन्द्रह वर्ष की अवस्था में घर छोड़कर निकले थे, उन्होंने अठारह वर्ष महाराज सिद्धराज जयसिंह देव की सेवा की और पिता की मृत्यु के बाद वावन वर्ष राज काज संभाला | उनके बाद उनके बेटे जगधवल धार अधिपति हुए |
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