बुरहानपुर की कहानी बनाम तथाकथित महान अकबर की बेईमानी





हमारे इतिहासकार भी विचित्र हैं, जो मुस्लिम अबुल फजल और फ़रिश्ता द्वारा लिखित इतिहास को सच मानते हैं | स्वर्गीय रायबहादुर डॉ.हीरालाल द्वारा लिखित “मध्यप्रदेश का इतिहास” में वर्णित बुरहानपुर की यह कहानी इसी झूठी मान्यता को बेनकाब करती है |

सन १३७० ईसवी में फीरोज तुगलक ने अपने एक योद्धा मलिक खान फारुकी को करोंद और तालनेर के परगने बख्से | उसने तालनेर को केंद्र बनाकर अपनी बारह हजार घुड़सवारों की फ़ौज के साथ आसपास के इलाके भी जीतकर अपने अधीन कर लिए | मालवा पर उन दिनों गौरी घराना काबिज था, उनके साथ अपने बेटे का वैवाहिक सम्बन्ध कायम कर उसने अपनी ताकत और बढ़ा ली | १३९९ में उसकी मौत के बाद उसका बेटा गजनी खां, नसीर खां के नाम से गद्दी पर बैठा | उसने असीरगढ़ को जीतकर ताप्ती नदी के दोनों किनारों पर दो नगर बसाए | दो धर्मगुरुओं जैनुद्दीन और शेख बुरहानुद्दीन के नाम पर उन नगरों के नाम क्रमशः जैनाबाद और बुरहानपुर रखे गए | अपने पिता की नीति का अनुशरण करते हुए, नसीर खां ने अपनी बेटी का निकाह दक्षिण के बहमनी राजा से कर दिया, लेकिन उन दोनों में ज्यादा बनी नहीं और बहमनी राजा ने बुरहानपुर पर हमला कर उसे लूटा | पराजित नसीर खां तैलंग के किले में भागकर छुपा और १४३७ ईस्वी में उसका देहांत हो गया | इस फारुकी वंश ने लगभग 200 वर्ष तक इस इलाके पर शासन किया | तो बात करते हैं तथाकथित महान अकबर की बेईमानी की |

१५९६ ईसवी में तत्कालीन शासक बहादुरशाह का अकबर से विरोध हो गया तो उसने अपने बचाव के लिए असीरगढ़ में ऐसा प्रबंध किया कि दस वर्ष घिरे रहने पर भी बाहर से कोई बस्तु लाने की आवश्यकता न पड़े | उसका अंदेशा सही निकला और अकबर ने स्वयं आकर बुरहानपुर को जीतने के बाद असीरगढ़ को भी घेर लिया | लेकिन किला अटूट और अजेय था, इस घेरेबंदी का उस पर कोई प्रभाव नहीं हुआ | किला फतह न कर पाने के कारण अकबर खीझ रहा था | उसने जिद्द ठान ली थी कि किसी भी तरह किला जीतना ही है | उसने किले के सब रास्ते बंद करवा दिए, असीरगढ़ पर रातदिन तोपों से गोले बरसने लगे |

बहादुरशाह ने अपनी मां और बेटे को भेजकर सुलह का प्रयत्न भी किया, किन्तु अकबर की शर्त थी कि बहादुरशाह पूर्ण शरणागति स्वीकार करे | यह बहादुरशाह को स्वीकार नहीं था, अतः बात नहीं बनी |

तीन महीने इसी प्रकार बीत गए | असीरगढ़ में राजकुल के नजदीकी सम्बन्धियों के सात लडके जरूरत पड़ने पर गद्दी नासीनी के लिए तैयार रखे गए थे | उनको किले से बाहर जाने की अनुमति नहीं थी | जब ताकत से काम नहीं बना तो अकबर ने छल का सहारा लिया और बहादुरशाह को किले से बाहर आकर भेंट करने का निमंत्रण दिया | अकबर ने कसम खाई कि उसका बाल भी बांका नहीं होगा और उसे सुरक्षित वापस जाने दिया जाएगा | बहादुर शाह ने विश्वास कर लिया और अकबर के सामने पहुंचकर गले में रुमाल डालकर विनम्रता पूर्वक बादशाह को तीन बार सलाम किया | किन्तु तभी एक मुग़ल सरदार ने उसे पीछे से पकड़कर धरती पर दे मारा और कहा सिजदा कर मरदूद | सिजदा अर्थात जमीन पर माथा टेक कर प्रणाम |

अकबर ने ऊपरी तौर पर तो नाराजगी दिखाई किन्तु बहादुरशाह से कहा कि तुम इसी बख्त किलेदार से कहो कि वह किला हमको सोंप दे | बहादुर शाह अकबर का यह व्यवहार देखकर हैरत में था | उसके साथ इस प्रकार वायदा खिलाफी होगी, उसे इसका सपने में भी गुमान नहीं था |

बहादुर शाह ने अकबर की बार स्वीकार नहीं की और उसे अपना वायदा याद दिलाते हुए वापस जाने हेतु विदा मांगी | लेकिन अकबर ने अपनी कसम की कुछ परवाह न करते हुए उसे कैद कर लिया | उस समय असीरगढ़ का किलेदार एक हब्शी था, गजब का नमक हलाल और बहादुर | उसके कुशल प्रबन्धन के कारण ही मुगलों की तोपों और छापों का किले पर रत्ती भर भी असर नहीं हुआ था | उसने जब यह समाचार सूना, तो अपने बेटे को वायदा खिलाफी का विरोध करने हेतु अकबर के पास भेजा | अकबर ने उसकी बात अनुसुनी कर एक ही बात पूछी – क्या तुम्हारा बाप किला हमें सोंपने को तैयार है ?

लडके ने तुर्की बतुर्की जबाब देते हुए कहा – किला सोंपना तो दूर की बात है, मेरा पिता तो इस बेईमानी के बाद आपका चेहरा भी देखना पसंद नहीं करेगा | अगर आप शाह को न भी छोड़ेंगे तो किले में सात शहजादे तैयार हैं, एक के बाद एक सत्ता संभालने को |

यह जबाब सुनते ही अकबर की आँखें अंगार उगलने लगीं और उसने हुकुम सुना दिया – फौरन क़त्ल करो इस गुस्ताख को |

बेटे की इस नृशंस ह्त्या का समाचार पाने के बाद हब्शी किलेदार ने रूमाल हाथ में लेकर किले में मौजूद सभी सरदारों और सिपाहियों से कहा – भाईयो जाड़ा आने वाला है, मुग़ल सेना खुले आसमान के नीचे ठिठुरना कभी बर्दास्त नहीं कर पायेगी | उसे जल्द ही घेरा उठाकर वापस जाना होगा | किसी इंसान की ताकत नहीं कि वह इस किले में सेंध लगा सके या इसे जीत सके | जब तक इस किले की हिफाजत करने वाले लोग ईमानदारी को ही इज्जत की बात समझते हैं, तब तक इसे कोई नहीं ले सकता | मेरी जिन्दगी का समय पूरा हो चुका | मैं उस बेईमान बादशाह का मुंह नहीं देखना चाहता | आप लोगों को मेरे खून का बास्ता, धोखा न देना |

इतना कहकर उसने अपने हाथ में पकडे रुमाल को गांठ लगाकर गले में डाल लिया, और दोनों हाथों से खींचकर अपने प्राण दे दिए | वाह रे हब्शी | इतिहास तेरा नाम तक नहीं जानता, लेकिन तू अमर है |

उधर अकबर को समझ में आ गया कि यहाँ न बल काम आ रहा है और न ही छल से काम बना है | उसने अब अंतिम उपाय आजमाया और किले के बड़े बड़े सरदारों को सोने और चांदी से पूर दिया | हब्शी को शायद इस बात का पहले से अहसास था, अतः उसने जान देकर अंतिम कोशिश की थी, सरदारों में गैरत बचाए और जगाये रखने की | लेकिन उसकी यह कोशिश सफल नहीं हुई | साढ़े दस महीने की घेराबंदी के बाद १७ जनवरी १६०१ को असीरगढ़ बेईमान सरदारों ने बेईमान अकबर के हवाले कर ही दिया | बहादुरशाह ग्वालियर के किले में और सातों शहजादे अन्य किलों में कैद रखने के लिए भेज दिए गए, गुमनामी की मौत मरने को |

अबुल फजल और फ़रिश्ता जैसे तथाकथित इतिहासकारों ने लिखा कि किले में जानवरों के मरने से रोग फ़ैल गया और बहादुरशाह ने इसे अकबर का जादू मानकर किला खुद होकर बादशाह के हवाले कर दिया |

अकबर ने अपने लडके दानियाल को इलाके का नया सूबेदार नियुक्त कर दिया, जो महज चार वर्ष बीतते न बीतते १६०५ में शराबखोरी के चलते मर गया | खुद अकबर भी अपने बेटे सलीम के विद्रोह से उत्पन्न मानसिक क्लेश झेलते हुए उसी वर्ष अर्थात २७ अक्टूबर १६०५ को दुनिया से रवानगी डाल गया | पता नहीं उसे खुदा के दरवार में बेईमान करार दिया गया होगा या महान माना गया होगा ?
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