विक्रमादित्य की कहानियाँ



बड़े भाई भर्तहरी और भानजे गोपीचंद

यह ईसा से जन्म के भी लगभग सौ वर्ष पूर्व की कहानी है | उज्जैन नरेश गन्धर्वसेन के दो पुत्र थे | बड़े का नाम भर्तहरी और जगतप्रसिद्द छोटे का नाम था विक्रमादित्य | स्वाभाविक ही पिता की मृत्यु के पश्चात बड़े बेटे भर्तहरी राजा बने, जिन्हें लोक बोलचाल की भाषा में आज भी भरथरी के नाम से याद किया जाता है | वे अत्यंत ही नीति परायण, ईश्वर में आस्था रखने वाले और विद्वान व्यक्ति थे | संक्षेप में कहें तो गुणों की खान थे | राजा भर्तहरी द्वारा संस्कृत व्याकरण पर लिखित दस हजार कारिकाओं का अर्थ समझने और समझाने में बड़े बड़े विद्वानों को भी शास्त्रार्थ करना पड़ता था | इतना ही नहीं तो राजा भरथरी ने नीति, श्रृंगार और वैराग्य शतक नामक तीन अन्य ग्रंथों की भी रचना की थी, जो आज भी संस्कृत महाविद्यालयों की पाठ्यपुस्तकों में विशेष स्थान रखती हैं | राजा भर्तहरी ने अपनी छोटी किन्तु विदुषी बहिन मदनावती का विवाह बंगाल के तत्कालीन नरेश हरिश्चंद्र गौड़ के साथ किया था | इन्हीं के पुत्र थे राजा गोपीचंद | मामा भानजे दोनों राजा थे, किन्तु उनकी जोडी प्रसिद्ध हुई अलग कारणों से |

राजा भरथरी की पत्नी अनंगसेना उपाख्य पिंगला अतिशय सुन्दर थीं | राजा को उनसे अतिशय प्रेम था | एक प्रकार से लट्टू थे उन पर | किन्तु एक दिन बड़ा ही विचित्र प्रसंग हुआ, जिसने राजा की जीवन दिशा ही बदल दी | राज दरबार में एक तपस्वी पधारे | वे राजा के गुणों से बहुत प्रभावित हुए और बोले राजा तुम जैसे महान राजा को तो युगों तक जीवित रहकर प्रजा का रक्षण और राज्य का संवर्धन करना चाहिए | इसलिए मैं तुमको यह दिव्य रसायन युक्त सुमधुर फल देता हूँ, जो मुझे वर्षों की तपस्या के बाद प्राप्त हुआ है | इस फल का सेवन करने वाला सदा सर्वदा के लिए अमर हो जाएगा | मैं ठहरा सन्यासी, ईश्वर की जब इच्छा हो, मुझे अपनी शरण में ले लें, मुझे दीर्घायु लेकर क्या करना है, अतः इस दिव्य फल को तुम ग्रहण करो और धर्माचरण करते हुए दीर्घकाल तक राज्य करो |

राजा ने आदर सहित वह फल ग्रहण किया | दरबार से उठकर जब वे रनिवास में गए तो उन्होंने विचार किया कि अपनी प्राणप्रिय रानी के बिना मैं लम्बे समय तक जीकर भी क्या करूंगा ? इससे अच्छा तो यह है कि भले ही कम जियूँ, किन्तु जब तक जिऊँ, रानी के साथ जिऊँ | अगर मेरे सामने यह स्वर्गवासी हुई, तो ऐसे जीवन का मेरे लिए क्या अर्थ है | अतः राजा ने वह फल अपनी प्रिय रानी पिंगला को दे दिया और आग्रह किया कि उसे खाकर वह अमर हो जाए |

लेकिन दुर्भाग्य तो देखिये, कि राजा जिस रानी को अपने प्राणों से ज्यादा प्यार करते थे, वह स्वयं किसी और को दिल दे चुकी थी | जो भाव राजा के मन में अपनी रानी के लिए थे, बैसे ही भाव रानी के मन में अपने प्रेमी के लिए थे | यह अंग रहित कामदेव के पुष्पधनुष से छूटे वाण जो न करवा दें, वह कम है | रानी ने वह फल अपने प्रेमी दास को सोंप दिया | मानव मनोविज्ञान का अद्भुत चमत्कार तो देखिये कि रानी का वह प्रेमी भी एक गणिका का दीवाना था, उसने वह फल अपनी प्रेमिका वैश्या को सोंप दिया | ईश्वर राजा के शरीर को नहीं, बल्कि उनके यश को अमर करना चाहते थे | इसीलिए विद्वानों ने कहा भी है, ईश्वर हमें वह नहीं देता, जो हम चाहते हैं, हमें ईश्वर वह देता है, जिसके हम योग्य होते हैं | हमारी योग्यता क्या है, वह हम स्वयं नहीं जानते, किन्तु वह अकारण करुणा वरुणालय तो जानता है | उस गणिका के मन में सुबुद्धि आई | उसने विचार किया कि मेरा यह पापमय जीवन लंबा चले, इसका क्या लाभ, इससे अच्छा तो यह है कि, प्रजावत्सल हमारे राजा दीर्घायु हों | उसने वह फल ले जाकर राजा को ही सोंप दिया | इस प्रकार कई हाथों में होता हुआ, वह अमृत फल पुन्हः राजा भर्तहरी के पास ही लौट आया |

परमार वंश के सूर्य राजा भर्तहरी को सारी कहानी जानने में देर नहीं लगी | उन्हें न क्रोध आया, न क्षोभ हुआ, केवल यह ज्ञान प्राप्त हुआ कि यह संसार कितना निस्सार है और व्यर्थ है यह राज्य | इस काम, क्रोध, लोभ, मोह से युक्त संसार में रमने से तो यही अच्छा है कि प्रभु चरणों का स्मरण किया जाये | मालवाधिपति भर्तहरी एक क्षण में निष्कर्ष पर पहुँच गए और राज्य अपने छोटे भाई विक्रमादित्य को सोंपकर सन्यासी हो गए | उस समय तक शास्त्र की छः शाखाओं की शिक्षा विद्यार्थियों को दी जाती थीं – मीमांसा, न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग और वेदान्त | सन्यासी भरथरी ने पूरे देश में घूम घूम कर छात्रों को व्याकरण पढ़ाया और उसे शास्त्र की सातवीं शाखा की मान्यता दिलवाई |

जैसा कि पूर्व में उल्लेखित किया, भर्तहरी और विक्रमादित्य की बहिन मदनावती का विवाह बंगाल नरेश हरिश्चंद्र गौड़ से हुआ था | अपने बड़े भाई भर्तहरी से अत्याधिक प्रभावित मदनावती ने पति के स्वर्गवासी होने के बाद अपने प्रिय पुत्र गोपीचंद को भी वीतराग योग का उपदेश दिया | और बंगाल जैसे देश का राज छोड़कर गोपीचंद भी अपने मामा भरथरी के मार्ग पर चलने लगे | उस अखंड मंडलाकार, चराचर में व्याप्त आनन्द घन परमेश्वर को जानने का प्रयत्न करने लगे | कुछ लोगों का मानना है कि भरथरी और गोपीचंद को योग विद्या का उपदेश स्वयं सिद्धराज गोरखनाथ ने आकर दिया था | जो भी हो राजपाट छोडकर दो राजाओं द्वारा सन्यासी बनने की यह गाथा भारतीय लोक गायक शताब्दियों से गाते आ रहे हैं | खासकर मालवा, राजस्थान और बंगाल में तो यह आज भी चाव से सुनी सुनाई जाती है |

राजा भर्तहरी द्वारा राज्य छोड़ने के बाद छोटे भाई विक्रमादित्य ने भी अपने वंश की कीर्ति को खूब बढ़ाया | जनमन को उन्होंने कितना प्रभावित किया, उसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यह मान्यता ही है कि आठ हाथ ऊंचे और बत्तीस पुतलियों वाले जिस सिंहासन पर वे विराजमान होते थे, उनके विषय में जन मान्यता रही कि वह स्वयं देवराज इंद्र ने उन्हें प्रदान किया था | वे शकों को पराजित कर शकारी विक्रमादित्य कहलाये, उससे भी अधिक ख़ास बात यह है कि उनके राज्य में प्रजा अतिशय सुखी थी | उनसे ज्यादा लोकप्रिय शासक भारतीय इतिहास में शायद ही कोई अन्य हुआ हो | वंश भास्कर कार ने लिखा है कि परदुखकातर इस राजा के प्रभाव क्षेत्र में किसी मनुष्य को कोई दुःख नहीं रहा | 

राम राज्य के विषय में कहा गया है –

दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम राज्य नहीं काहुहि व्यापा, अर्थात रामराज्य में किसी को कोई कष्ट नहीं था | राम तो ईश्वरीय अंश थे, अतः कहा जा सकता है कि पृकृति ने उनकी प्रेरणा से ही यह सब कर दिया होगा | किन्तु विक्रमादित्य ने अपनी कार्य पद्धति से, अपने समर्पण से प्रजा का दुःख कैसे दूर किया, यह जानने योग्य है | एक प्रसंग देखिये –

राजा दानवीर था, जरूरतमंदों के लिए उसका खजाना सदा खुला रहता था, किन्तु फिर भी उसे हैरत हुई कि राज्य में चोरियां होने लगीं | चोर कोतवाल की गिरफ्त में ही नहीं आ रहे थे अतः एक रात विक्रमादित्य स्वयं कंगाल वेश में निकले | उज्जैन नगर के बाहर बियाबान में बने एक मंदिर में जब वे लेटे हुए थे, तभी चार चोर वहां आये और साथ में लाया हुआ भोजन करने लगे | चारों आपस में सलाह कर रहे थे कि भोजन के बाद नगर में जाकर चोरी करेंगे | उनकी बातें सुनकर राजा ने सोचा कि अगर अभी अकेले इन्हें पकड़ने की कोशिश करूंगा, तो कोई बचकर भाग सकता है, अतः इनका विश्वास जीतकर दिन में कहाँ रहते हैं, यह जानना चाहिए | अतः वे उनके सामने याचक भिखारी बनकर पहुँच गए | बोले दो दिन का भूखा हूँ, कुछ खाने को दो ना |

चोरों ने कहा अरे कंगाल तू कहाँ से आ मरा,पहले कहता तो दे भी देते, अब तो यह हमारी झूठन भर बची है | राजा ने कहा कि वही दे दो भाई, भूख के मारे जान निकली जा रही है | चोरों के सरदार ने कहा, हम दे तो देंगे, लेकिन बदले में तू हमारे क्या काम आयेगा ? मुफ्त में तो हम किसी को कुछ नहीं देते |

राजा बोला मैं आपका सामान ढोने को तैयार हूँ | एक चोर ने कहा अरे दे भी दो, हम बैसे ही इस झूठन को फेंकने ही वाले थे, इसे साथ रख लो, लूट का माल इस पर ही लाद देंगे |

चोरों की झूठन अपने खप्पर में लेकर विक्रमादित्य ने उसे खाने का अभिनय किया और उसके बाद वे चोर जब चलने को उद्यत हुए, तब चोरों के सरदार सरीसृप नामक चोर ने सगुन विचार करते हुए, दूर से बोलने वाले सियारों की ऊह ऊह की आवाज सुनी और हैरत से अपने दूसरे साथियों से बोला – अरे ये सियार बड़ी विचित्र बात कह रहे हैं | इनका कहना है कि यहाँ उपस्थित पांच लोगों में से चार चोर और एक राजा है |

उसकी बात सुनकर शेष तीनों चोर ठठाकर हंस पड़े और बोले – अब तुम रहने भी दो अपनी पोंगा पंडिताई | अरे अपन चारों तो एक दूसरे को अच्छी तरह जानते हैं, हममें से तो कोई राजा है नहीं और रहा सवाल हमारी झूठन खाने वाले इस महा कंगाल का, तो क्या कोई राजा ऐसे झूठन खा सकता है ?

जब किसी ने सरीसृप का भरोसा नहीं किया, तो वह भी सबके साथ चोरी अभियान में सम्मिलित होकर नगर की ओर बढ़ा | नगर में उन्होंने नगर सेठ की हवेली पर धावा बोला और सेंध लगाकर खूब मालमत्ता चुराया | सामान ढोते हुए विक्रमादित्य भी उनके साथ रहे | चोरों ने चुराई गई संपत्ति एक तालाब के किनारे गाढ़ दी, उसके बाद एक कलार के घर में जाकर शराब पीने में मशगूल हो गए | मौक़ा देखकर राजा वहां से निकलकर अपने महल में पहुँच गए |

दूसरे दिन दरवार में राजा ने कोतवाल को आड़े हाथों लिया और कहा, तुम तो नगर की रक्षा करने में पूरी तरह निष्फल सिद्ध हुए हो, अब कोतवाल का काम भी मुझे ही करना पड़ रहा है | अभी जाओ और पिचंड कलार के घर में छुपे चार शराबियों को पकड़कर लाओ, वे ही नगर में हुई सभी चोरियों के लिए जिम्मेदार है | उन्हें जंजीरों से बांधकर दरवार में पेश करो |

राजा की आज्ञा के अनुसार कोतवाल उन चारों चोरों को पकड़कर जंजीरों से जकडकर राजा के सामने लेकर आया | राजा को देखते ही सरीसृप अपने साथियों से बोला – देख लो मैंने तो पहले ही कहा था कि यह राजा है, सियारों का कथन झूठ नहीं हो सकता | अब भुगतो नतीजा |

उसकी बात सुनकर राजा बोले – अरे मूर्ख, तू जानवरों की बोली समझता है, लेकिन पाप और पुण्य का अंतर नहीं जानता | सगुन विचारता है लेकिन पराया धन चुराने का यह पाप कर्म छोड़ने का विचार क्यों नहीं करता ?

सरीसृप ने चतुरता पूर्वक जबाब दिया – महाराज दरिद्रता ने हमें चोरी जैसा पाप करने को विवश किया है, अपराधी हम नहीं, हमारी दरिद्रता है | आपने तो दरिद्र होने का नाटक भर किया, तो आपको हमारी झूठन खाना पडी | हम तो नाटक नहीं कर रहे हैं, सचमुच दरिद्र हैं और यह दरिद्रता ही हमें पापकर्म करने को विवश करती है |

निन्द्यम नियोजयति, भोजयती प्रदुष्टम

पापांश्च भिक्षयति शिक्षयति छलादीन |

देहीति घोषयति पोषयतिह चौर्यम,

किम नो न कारयति दुर्विध भावदायः||

उसकी बात सुनकर विक्रमादित्य ने उन चोरों की परीक्षा लेने का तय किया और चोरों द्वारा चुराया गया सब धन उन लोगों से बसूल कर उनके शिकार बने लोगों को वापस करवाने के बाद सरीसृप को शाल्मली नामक नगर का राजा बना दिया और शेष चोरों को भी भरपूर धन देकर वहां से विदा किया | लेकिन अपने गुप्तचरों को इन लोगों के पीछे लगा दिया | कुछ समय बाद गुप्तचरों ने जानकारी दी कि सरीसृप तो जनता को लूटने और सताने में ही रस ले रहा है, उसके राज्य में कोई सुरक्षित नहीं है, यहाँ तक कि महिलाओं की इज्जत आबरू भी | और शेष तीनों चोरों ने भी आपके द्वारा दिया गया सारा धन गुलछर्रों में उड़ा दिया है, और फिर से दरिद्री हो चुके हैं | राजा ने अब विलम्ब नहीं किया और चारों को पकड़ मंगवाया | सरीसृप को तो प्राणदंड मिला और शेष तीनों ने अपना शेष जीवन जेल के अन्दर बिताया |

पापी को भी सुधरने का अवसर देना, न सुधरे तो दण्डित करना | यही पुरातन पद्धति भारतीय न्याय व्यवस्था की पढ़ने को मिलती है | विदेशी यात्रियों ने भी इसका वर्णन किया है, शारीरिक दंड केवल आदी मुजरिमों को, अन्यथा केवल जुर्माना |

कैसा होना चाहिए एक आदर्श शासक ?

एक आदर्श शासक कैसा होना चाहिए, यह प्रश्न सतत पूछा जाता रहा है | भारतीय मनीषा ने राजा राम को एक आदर्श के रूप में मान्य किया है | रामराज्य का वही आदर्श विक्रमादित्य ने अंगीकार किया था | भारतीय इतिहास में विक्रमादित्य की महत्ता भी उनकी आदर्शवादिता ही है | मानवता और प्रजा की सेवा करते हुए, उन्होंने अभिनव राम बनने का प्रयत्न किया | लोकरंजन, प्रजा पालन और प्रजा रक्षण हेतु अनवरत कर्मशील और जागरूक रहने वाले विक्रमादित्य का वर्णन कथा सरित्सागर में कुछ इस प्रकार किया गया है –

वे पित्रहीनों के पिता, बन्धु हीनों के भाई, अनाथों के नाथ, निराशों की आशा और प्रजा के क्या नहीं थे अर्थात सर्वस्व थे |

स पिता पितृहीनानाम, बन्धूनाम स बान्धवः |

अनाथानामंच नाथः, सः प्रजानां कः स नामवत ||

प्रथ्वी अधिपति विक्रमादित्य ने वह किया, जो अन्य किसी ने नहीं किया, उन्होंने वह दिया, जो अन्य किसी के द्वारा नहीं दिया गया, तथा उन्होंने उन कार्यों में भी सफलता प्राप्त की, जो दूसरों के लिए असाध्य थे –

यत्कृतं यन्न कैनापि, य दत्तं यन्न केनचित |

तत्साधितम असाध्यं च, विक्रमार्केण भूभुजा ||

इसके पूर्व कि हम विक्रमादित्य से सम्बंधित प्रसंगों की चर्चा करें, हमें एक बात समझनी होगी कि ये प्रसंग कवियों द्वारा वर्णित हैं, अतः इनमें कल्पना का भी पुट संभव है, अतः जिन्हें इनपर भरोसा न हो, वे इनमें से सत्य को छानें, अलग करें | आइये कुछ प्रसंग देखते हैं –

विक्रमादित्य के राज में त्रिपुष्कर नामक एक ब्राह्मण के पुत्र कमलाकर निपट मूर्ख थे | एक दिन उनसे पिता ने कहा कि बेटा जिसके पास विद्या और बुद्धि नहीं है, वह तो पूंछ और सींग विहीन बैल ही है | ऐसा व्यक्ति तो इस भूमि पर केवल भार है | अतः तुम कश्मीर जाकर चन्द्रमौली नामक गुरू की सेवा करो और उनसे शिक्षा ग्रहण कर ही घर वापस आओ | पिता की आज्ञा मानकर कमलाकर कश्मीर गए और अध्ययन किया, और प्रकांड विद्वान बनकर वापस घर को चले | मार्ग में जब वे कान्तिपुरी नामक नगरी में पहुंचे तो उन्हें एक अत्यंत सुन्दर कन्या दिखाई दी, जिसे देखते ही कमलाकर मुग्ध हो गए | उन्होंने जानकारी ली तो ज्ञात हुआ कि जो भी उस भुवन मोहिनी कन्या से विवाह की इच्छा करता है, उसे एक राक्षस मार देता है |

निराश और दुखी कमलाकर उज्जैन पहुंचे, तो घर जाने के स्थान पर सीधे विक्रमादित्य के दरवार में पहुंचकर अपनी व्यथा सुनाई | राजा ने उनकी बात सुनी और फिर उन्हें अपने साथ लेकर खुद भी कान्तिपुरी जा पहुंचे | उस राक्षस को युद्ध में मारकर उन्होंने उस कन्या का विवाह कमलाकर के साथ करवाया |

इसका अर्थ हम यह ही निकाल सकते हैं कि जिसे राक्षस कहा जा रहा है, वह कोई दुष्ट आतताई रहा होगा, जो जबरन उस सुन्दरी से उसकी इच्छा के विरुद्ध शादी करना चाहता रहा होगा | जिसे विक्रमादित्य ने मारकर उस कन्या और कमलाकर दोनों को संकट से मुक्त किया |

ऐसा ही एक दूसरा प्रसंग कुछ इस प्रकार है | एक बार राजा को ज्ञात हुआ कि समुद्र के बीच एक द्वीप है, जिसका नाम ही आम जन ने राक्षस द्वीप रख दिया है | वहां के नरभक्षी राजा ने आदेश दिया हुआ है कि प्रतिदिन उसके राज्य में रहने वाले सभी परिवार अपने एक परिजन को भोज्य पदार्थ के रूप में उसे दें | विक्रमादित्य के ही एक प्रजाजन ने उनके सम्मुख गुहार लगाई कि उनके एक मित्र भी उस द्वीप में रहते हैं, इसके पूर्व कि उनके परिवार का नंबर आये, उनकी रक्षा की जाये |

यह सुनकर दयालु विक्रमादित्य योग पादुकाओं के सहारे समुद्र पारकर उस द्वीप में पहुंचे | एक नौजवान एक शिला पर भय से थरथर कांपता हुआ बंधन में बंधा, बैठा इंतज़ार कर रहा था कि कब राक्षस आये और उसका शिकार करे | राजा ने उसे बंधन मुक्त किया और कहा कि वह घर जाए, उसकी जगह आज वे राक्षस का ग्रास बनेंगे | युवक चकित हुआ, किन्तु प्राणरक्षा हो रही थी, सो चुपचाप अपने घर चला गया |

उसके बाद जब राक्षस आया तो विक्रमादित्य ने शिकार होने के बदले उसका ही शिकार कर लिया और इस प्रकार उस द्वीप के लोगों को आतंक से मुक्ति मिली | यहाँ भी हमें भावार्थ निकालना होगा | महाभारत में भी लगभग ऐसा ही प्रसंग है, जब भीम ने अपने एक शरणदाता के पुत्र को बचाने के लिए ऐसे ही एक राक्षस को मारा था | संभव है उस समय कुछ नरभक्षी शक्तिशाली प्रजाती रही होगी, जिसका इन कथाओं में उल्लेख आता है | भीम हों या विक्रमादित्य, इन लोगों ने अपनी प्रजा की उन आतताईयों से रक्षा की होगी और दुष्टों को दण्डित किया होगा |

ऐसी ही अनेक गाथाएँ संस्कृत ग्रन्थ वंश भास्कर में पढ़ने को मिलती हैं, कहीं बाढ़ में डूबते लोगों की जीवन रक्षा करते, तो कहीं महिलाओं पर अत्याचार करते नराधमों को दण्डित करते, तो कहीं खजाना खोलकर मुक्त हस्त से दान देकर दुखियों का दुःख दूर करते विक्रमादित्य का वर्णन इस ग्रन्थ में किया गया है | पति के दूर देश रहने के कारण चरित्र भ्रष्ट हुई किसी महिला को सन्मार्ग पर लाने, कीचड़ में फंसी गाय को शेरों का शिकार बनने से बचाने, जलाने के लिए लकड़ी लेने जंगल में गई एक शूद्र वृद्धा के तूफान में फंस जाने पर उसे घोड़े पर बैठाकर स्वयं पैदल चलकर आने, जैसे प्रसंग पढ़कर विक्रमादित्य की मानवता के दर्शन होते हैं | अंत में चलते चलते एक प्रसंग देखिये –

एक दिन कुछ कांवडिये विक्रमादित्य के दरवार में पहुंचे और जानकारी दी कि गंगा जी लेकर आते समय मार्ग में कुछ देवी भक्तों ने उनके एक साथी को बलि देने के लिए पकड़ लिया है | वे लोग भी बड़ी मुश्किल से भागकर जान बचाकर यहाँ तक पहुंचे हैं | यह सुनते ही निडर भाव से राजा विक्रमादित्य उस स्थान पर जा पहुंचे, जहाँ उस कांवडिये को देवी के सम्मुख बलि देने की तैयारी चल रही थी | कथाकार ने जो लिखा है, वह तो इस प्रकार है कि राजा ने बलि देने को उद्यत लोगों से कहा कि भाई इस दुबले पतले व्यक्ति की जगह मुझ जैसे मोटे ताजे को बलि दोगे, तो देवी तुम पर ज्यादा प्रसन्न होंगी | इसलिए देवी की सेवा में अपना शरीर अर्पण कर पुण्य प्राप्त करने का अवसर मुझे दो |

लोगों को भला क्या आपत्ति होती, उन लोगों ने प्रस्ताव स्वीकार कर लिया | किन्तु जैसे ही विक्रमादित्य ने उस कांवडिये को बंधन मुक्त कर स्वयं अपने हाथों से अपना सर काटने का प्रयत्न किया, देवी ने प्रगट होकर उन्हें रोक दिया और कहा विक्रम वर मांग | राजा ने कहा कि माता अगर आप प्रसन्न हैं, तो जीव हिंसा छोड़ दें | देवी ने कहा तथास्तु |

जो चाहें वे इस कथा पर विश्वास करें अन्यथा इसका भावार्थ निकालें कि राजा ने अपने व्यक्तित्व से सम्मोहित कर बलि देने वालों का ह्रदय परिवर्तन कर दिया और भविष्य में जीवहिंसा न करने का वचन ले लिया |

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