गोत्र का विज्ञान, आधुनिक आनुवांशिकी - संजय तिवारी

 

हमारी कुंडली हमारा आनुवंशिक इतिहास है। इसी की बुनियाद पर नई पीढ़ी का भविष्य बनता है। इसका आधार गोत्र है। गोत्र , अर्थात मूल गुण। गुणसूत्र यानी क्रोमोसोम्स की गणना का इतना प्राचीन विज्ञान विश्व की किसी अन्य सभ्यता को प्राप्त ही नही है। यह अलग बात है कि अपनी अज्ञानता में हमने कुंडली और गोत्र दोनों को पोंगापंथी प्रचारित कर खुद की तबाही की बुनियाद बना ली। हम मूल रूप से जिस ऋषि कुल से आते हैं वही हमारे आदि पिता हैं। इसीलिए सनातन संस्कृति में हर प्रकार के संबंधों का आधार गोत्र को बनाया जाता रहा है। हमने अपनी अज्ञानता में गोत्र को गौण कर खुद को तबाह कर लिया है। पिता का गोत्र पुत्री को प्राप्त नही होता, आइए जानें क्यों । आधुनिक आनुवंशिक विज्ञान अभी तक जितना भी खोज सका है उसके अनुसार स्त्री में गुणसूत्र xx होते है और पुरुष में xy होते है । इन दोनों स्त्री व पुरुष की सन्तति में हमने माना कि पुत्र उत्पन्न हुआ (xy गुणसूत्र). इस पुत्र में y गुणसूत्र पिता से ही आया यह तो निश्चित ही है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही और यदि पुत्री हुई तो (xx गुणसूत्र). यह गुण सूत्र पुत्री में माता व् पिता दोनों से आये है ।

XX गुणसूत्र

xx गुणसूत्र अर्थात पुत्री . xx गुणसूत्र के जोड़े में एक x गुणसूत्र पिता से तथा दूसरा x गुणसूत्र माता से आता है . तथा इन दोनों गुणसूत्रों का संयोग एक गांठ सी रचना बना लेता है जिसे Crossover कहा जाता है ।


xy गुणसूत्र

xy गुणसूत्र अर्थात पुत्र, पुत्र में y गुणसूत्र केवल पिता से ही आना संभव है क्योंकि माता में तो y गुणसूत्र होता ही नही है और दोनों गुणसूत्र असमान होने के कारण पूर्ण Crossover नही हो पाता केवल 5% तक ही होता है । और 95% Yगुणसूत्र ज्यों का त्यों (intact) ही रहता है । तो महत्त्वपूर्ण Yगुणसूत्र हुआ। क्यू की Y गुणसूत्र के विषय में हम निश्चिंत है कि यह पुत्र में केवल पिता से ही आया है ।

बस इसी y गुणसूत्र का पता लगाना ही गोत्रप्रणाली का एकमात्र उदेश्य है जो हजारों/लाखों वर्षों पूर्व हमारे ऋषियों ने जान लिया था ।

वैदिक गोत्र प्रणाली और y गुणसूत्र

Y Chromosome and the Vedic Gotra System

वैदिक गोत्र प्रणाली ये गुणसूत्र पर आधारित है अथवा y गुणसूत्र को ट्रेस करने का एक माध्यम है। उदाहरण के लिए यदि किसी व्यक्ति का गोत्र कश्यप है तो उस व्यक्ति में विधमान y गुणसूत्र कश्यप ऋषि से आया है या कश्यप ऋषि उस y गुणसूत्र के मूल है। चूँकि y गुणसूत्र स्त्रियों में नही होता यही कारण है कि विवाह के पश्चात स्त्रियों को उसके पति के गोत्र से जोड़ दिया जाता है ।


वैदिक सनातन संस्कृति में एक ही गोत्र में विवाह वर्जित होने का मुख्य कारण यह है कि एक ही गोत्र से होने के कारण वह पुरुष व् स्त्री भाई बहिन कहलाये क्योकि उनका पूर्वज एक ही है । परन्तु ये थोड़ी अजीब बात नही है क्या ? कि जिन स्त्री व् पुरुष ने एक दुसरे को कभी देखा तक नही और दोनों अलग अलग देशों में परन्तु एक ही गोत्र में जन्मे , तो वे भाई बहिन हो गये । इसका मुख्य कारण एक ही गोत्र होने के कारण गुणसूत्रों में समानता का भी है । आज की आनुवंशिक विज्ञान के अनुसार यदि समान गुणसूत्रों वाले दो व्यक्तियों में विवाह हो तो उनकी सन्तति आनुवंशिक विकारों का साथ उत्पन्न होगी । ऐसे दंपत्तियों की संतान में एक सी विचारधारा, पसंद, व्यवहार आदि में कोई नयापन नहीं होता। ऐसे बच्चों में रचनात्मकता का अभाव होता है। विज्ञान द्वारा भी इस संबंध में यही बात कही गई है कि सगौत्र शादी करने पर अधिकांश ऐसे दंपत्ति की संतानों में अनुवांशिक दोष अर्थात् मानसिक विकलांगता, अपंगता, गंभीर रोग आदि जन्मजात ही पाए जाते हैं। शास्त्रों के अनुसार इन्हीं कारणों से सगौत्र विवाह पर प्रतिबंध लगाया गया था।

गोत्र संवहन

इस गोत्र का संवहन यानी उत्तराधिकार पुत्री को एक पिता प्रेषित न कर सके, इसलिये विवाह से पहले ही कन्यादान कराया जाता है और गोत्र मुक्त कन्या का पाणिग्रहण कर भावी वर अपने कुल गोत्र में उस कन्या को स्थान देता है, यही कारण था कि विधवा विवाह भी स्वीकार्य नहीं था। क्योंकि, कुल गोत्र प्रदान करने वाला पति तो मृत्यु को प्राप्त कर चुका है। इसीलिये, कुंडली मिलान के समय वैधव्य पर खास ध्यान दिया जाता और मांगलिक कन्या होने से ज्यादा सावधानी बरती जाती है। आत्मज़् या आत्मजा का सन्धिविच्छेद तो कीजिये।
आत्म+ज या आत्म+जा ।
आत्म=मैं, ज या जा =जन्मा या जन्मी अर्थात उत्पन्न। यानी जो मैं स्वयं ही जन्मा या जन्मी हूँ।यदि पुत्र है तो 95% पिता और 5% माता का सम्मिलन है। यदि पुत्री है तो 50% पिता और 50% माता का सम्मिलन है। फिर यदि पुत्री की पुत्री हुई तो वह डीएनए 50% का 50% रह जायेगा, फिर यदि उसके भी पुत्री हुई तो उस 25% का भी 50% डीएनए रह जायेगा, इस तरह से सातवीं पीढ़ी में पुत्री के जन्म में यह परसेंटेज घटकर 1℅ से भी कम लगभग 0.75% रह जायेगा। अर्थात, एक पति-पत्नी का ही डीएनए सातवीं पीढ़ी तक पुनः पुनः जन्म लेता रहता है, और यही है सात जन्मों का साथ।

जब पुत्र होता है तो पुत्र का गुणसूत्र पिता के गुणसूत्रों का 95% गुणों को अनुवांशिकी में ग्रहण करता है और माता का 5% (जो कि किन्हीं परिस्थितियों में एक % से कम भी हो सकता है) डीएनए ग्रहण करता है, और यही क्रम अनवरत चलता रहता है, जिस कारण पति और पत्नी के गुणों युक्त डीएनए बारम्बार जन्म लेते रहते हैं, अर्थात यह जन्म जन्मांतर का साथ हो जाता है।

इसीलिये, अपने ही अंश को पित्तर जन्मों जन्म तक आशीर्वाद देते रहते हैं और हम भी अमूर्त रूप से उनके प्रति श्रद्धा भाव रखते हुए आशीर्वाद ग्रहण करते रहते हैं, और यही सोच हमें जन्मों तक स्वार्थी होने से बचाती है, और सन्तानों की उन्नति के लिये समर्पित होने का सम्बल देती है। माता पिता यदि कन्यादान करते हैं, तो इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि वे कन्या को कोई वस्तु समकक्ष समझते हैं, बल्कि इस दान का विधान इस निमित किया गया है कि दूसरे कुल की कुलवधू बनने के लिये और उस कुल की कुल धात्री बनने के लिये, उसे गोत्र मुक्त होना चाहिये। डीएनए मुक्त हो नहीं सकती क्योंकि भौतिक शरीर में वे डीएनए रहेंगे ही, इसलिये मायका अर्थात माता का रिश्ता बना रहता है, गोत्र यानी पिता के गोत्र का त्याग किया जाता है। तभी वह भावी वर को यह वचन दे पाती है कि उसके कुल की मर्यादा का पालन करेगी यानी उसके गोत्र और डीएनए को करप्ट नहीं करेगी, वर्णसंकर नहीं करेगी, क्योंकि कन्या विवाह के बाद कुल वंश के लिये रज् का रजदान करती है और मातृत्व को प्राप्त करती है। यही कारण है कि हर विवाहित स्त्री माता समान पूज्यनीय हो जाती है।

यह रजदान भी कन्यादान की तरह उत्तम दान है जो पति को किया जाता है। यह शुचिता अन्य किसी सभ्यता में दृश्य ही नहीं है। गोत्र का विज्ञान अति विशद है। यह जीवन संचालन का मूल है। इसे केवल कुछ शब्दों में बांध कर नही समझ सकते। इस चर्चा को फिर कभी आगे बढ़ाएंगे।

क्रमशः

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