रचि महेस निज मानस राखा।।चार।। - संजय तिवारी

 

महेस यानी भगवान शंकर ने क्या रचा। रचने के बाद लंबे समय तक उस रचना को अपने मानस में क्यों रखा। किसके लिए उन्होंने रचा। इस रचना की भाषा क्या है। इस रचना का उद्देश्य क्या है। श्री रामचरित मानस के रूप में गोस्वामी जी को यह रचना कैसे प्राप्त हुई है और शिव की इस प्रदाता स्वरूप अनुकंपा की आवश्यकता क्यों पड़ी है, इन सभी प्रश्नों को जानना और इनके उत्तर तलाशना प्रत्येक सनातन मनुष्य का आवश्यक कार्य है। यह अलग बात है कि कलियुग के मनुष्य को इस कार्य मे लगाने के लिए बहुत प्रयास करना पड़ता है। शक्ति साधना और स्थापना के समग्र स्वरूप में रामकथा गंगा का प्रवाह अनेक दर्शन स्थापित करता है जिसका विवेचन और वर्णन श्रीरामचरित मानस में गोस्वामी जी करते हैं।

वर्णानामर्थसंघानां रासानां छन्दसामपि।
मंगलानां च कर्तारौ वंदे वाणीविनायकौ।।
भवानीशंकरौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धा: स्वान्तःस्थमीश्वरम।।

भवानी और शंकर से पूर्व वाणी और विनायक की वंदना के साथ रामकथा गंगा की यात्रा का आरंभ स्वयं में बहुत कुछ स्पष्ट करता है। सृष्टि के समस्त नियामक तत्वों की विवेचना और उनके प्रति समर्पण की स्थापना करते हुए गोस्वामी जी इस कथा को शरणागति घाट से लेकर आगे चलते है। उन्होंने इसी घाट पर सबकुछ समझा दिया है । यह स्पष्ट कर दिया है कि सृष्टि रचना का उद्देश्य क्या है। सृष्टि में किसकी क्या महत्ता है। किसके महत्व का क्या क्रम है। कैसे और किस क्रम में जीव, जगत और ब्रह्म का विस्तार और उनके संबंध स्थापित होते हैं। श्रुति, स्मृति, उपनिषद , पुराण, इतिहास और विज्ञान के प्रत्येक धरातल पर सभी तात्विक विवेचन के माध्यम से जीवन को सुगम और सफल कैसे बनाया जा सकता है।

धूमउ तजइ सहज करुआई।
अगरु प्रसंग सुगंध बसाई॥
भनिति भदेस बस्तु भलि बरनी।
राम कथा जग मंगल करनी॥

अर्थ यह कि धुआँ भी अगर के संग से सुगंधित होकर अपने स्वाभाविक कड़ुवेपन को छोड़ देता है और सुगंधित हो जाता है। वह कहते हैं कि मेरी कविता अवश्य रसयुक्त नहीं है, परन्तु इसमें जगत का कल्याण करने वाली रामकथा रूपी उत्तम वस्तु का वर्णन किया गया है। इसलिए यह भी अच्छी समझी जाएगी। गोस्वामी जी की यह उद्घोषणा और उनका विश्वास मानस के राम को मनुष्य ही नही समस्त सृष्टि में राम तत्व की उस स्थापना को बल देता है जिसके निरूपण में सनातन के सभी सद्ग्रन्थों की अनन्त यात्रा चलती आ रही है।

शरणागति घाट का संदेश स्पष्ट है-

बालमीक नारद घट जोनी
निज निज मुखन कही निज होनी।।
जलचर थलचर नभचर नाना
जे जड़ चेतन जीव जहाना।।
मति कीरति गति भूति भलाई
जब जेहिं जतन जहां जेहि पाई।।
सो जानब सत्संग प्रभाऊ
लोकहुँ बेद न आन उपाऊ।।
बिनु सत्संग बिबेक न होई
राम कृपा बिनु सुलभ न सोई।।

संतो को गोस्वामी जी ने साक्षात तीर्थराज प्रयाग बताया है। संतो के संग के बिना जीवन को सार्थक बनाने का कोई अन्य उपाय नही। इसलिए सत्संग की महत्ता की यहां अति आवश्यक स्थापना भी दी गयी है। साक्षर और शिक्षित होने के अनेक मार्ग संभव हो सकते हैं किंतु विवेक की प्राप्ति के लिए सत्संग अनिवार्य है। सत्संग भी तभी सुलभ हो सकता है जब मनुष्य के साथ दो स्थितियां बनें। या तो स्वयं भगवान की कृपा हो अथवा मनुष्य के पुण्य पुंज घनीभूत रहें।

मानस में दो स्थान पर दो प्रकार से संतो के सान्निध्य की स्थिति बताई गई है-

एक स्थान पर चौपाई आती है-
बिनुहरि कृपा मिलहिं नहि संता
एक अन्य स्थान पर लिखा है-
पुण्य पुंज बिनु मिलहिं न संता

यहां यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि जिन संत की बात गोस्वामी जी कर रहे है वह संत स्वरूप की चर्चा है, संत रूप की नही। संत का रूप तो कोई भी बना सकता है, संत वह है जिसका स्वरूप संत का है। केवल संत का रूप धारण कर आज असंख्य लोग भ्रम फैला कर लोगो की भावनाओ से बड़ी आसानी से खेल रहे हैं वैसा ही मानस में भी एक चरित्र कालनेमि का है। कालनेमि वास्तव में स्वरूप से संत नही है लेकिन रूप बनाकर उसने संजीवनी बूटी लाने जा रहे श्री हनुमान जी को एक क्षण के लिए भ्रमित करने की कोशिश की है। संत तो स्वरूप से होता है। संतत्व के लिए रूप नही स्वरूप अनिवार्य है। जो स्वरूप में संत हैं उनके सान्निध्य से ही जीवन को सही दिशा मिलेगी। इसके लिए आवश्यक है कि किसी रूपधारी कालनेमि की जाल में जीव न फंसे बल्कि वास्तविक उस संत स्वरूप से वह जुड़े जिनकी तुलना गोस्वामी जी ने साक्षात तीर्थराज प्रयाग से किया है। ऐसे संत स्वरूप का सान्निध्य ही विवेक प्रदान करेगा।

शरणागति घाट की यह कथा गंगा अपनी गति से आगे बढ़ रही है। इसी घाट पर गोस्वामी जी ने मां जगतजननी भवानी को बार बार याद किया है। कभी शैलसुता , कभी सती, कभी पार्वती और आरंभ में ही परमशक्ति माता जानकी की वंदना वह करते है। शक्ति का संधान, शक्ति का निरूपण और शक्ति की साधना के साथ शक्ति स्वरूप मां गंगा के साक्षात दर्शन के साथ शरणागति की यात्रा कर्मकांड घाट की ओर बढ़ती है।

मंगल करनि कलिमल हरनि
तुलसी कथा रघुनाथ की।
गति कूर कबिता सरित की
ज्यों सरित पावन पाथ की॥
प्रभु सुजस संगति भनिति
भलि होइहि सुजन मन भावनी
भव अंग भूति मसान की
सुमिरत सुहावनि पावनी॥

गोस्वामी तुलसीदासजी कहते हैं कि श्रीरघुनाथजी की कथा कल्याण करने वाली और कलियुग के पापों को हरने वाली है। मेरी इस भद्दी कविता रूपी नदी की चाल पवित्र जल वाली नदी (गंगाजी) की चाल की भाँति टेढ़ी है। शरणागति घाट की महिमा और इस घाट के दृश्य का अवलोकन अद्भुत है। इस घाट से इस कथा गंगा स्वरूप शक्ति का प्रवाह कितना उर्जादायी है ,इसका अनुभव वही कर सकता है जो इस घाट की आड़ार पर पहुंच कर स्वयं इस अविरल गंगा की प्राणमयी धारा के दर्शन करे।

क्रमशः

जै सियाराम।।

संजय तिवारी
संस्थापक - भारत संस्कृति न्यास
वरिष्ठ पत्रकार

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