राजराजेश्वर मंदिर (बृहदेश्वर मंदिर) तमिलनाडु




राजराज चोल ९८५ ईसवी में तंजोर की गद्दी पर बैठे, पांड्य और केरल को उन्होंने अपने अधीन किया, चालुक्यों और कलिंग पर आधिपत्य जमाया, कर्णाटक पर चढ़ाई कर तैलप के बेटे सत्याश्रय को चार वर्ष के युद्ध के बाद पराजित किया | इतना ही नहीं तो अपनी जल सेना की मदद से आज की श्रीलंका और तब के सिंहल को भी जीत लिया, मालदीव पर भी अधिकार कर लिया | अपने राज्यारोहण के पच्चीसवें वर्ष में अर्थात 1010 ईसवीं में राज राजा चोल ने अपनी राजधानी तंजावुर में तमिल इतिहास के महानतम "वृहदेश्वर मंदिर" (पेरिया कोविल) का निर्माण करवाया था। राज राजा जो एक असाधारण योद्धा होने के साथ साथ, भगवान शिव के अनन्य भक्त और कला व वास्तुकला के भी जानकार थे। वृहदेश्वर का अर्थ है - ब्रह्मांड के स्वामी। यह उस सर्वशक्तिमान के लिए एक भक्त राजा की विनम्र श्रद्धांजलि है ।

एक किले के अन्दर सात सौ पचास फीट लम्बाई और चार सौ फीट की चौडाई में यह भव्य मंदिर बना हुआ है, जबकि किला एक खाई से घिरा हुआ है। उस प्राचीन काल की तकनीक को देखकर आज के बड़े बड़े इंजीनियर भी दांतों तले उंगली दबाने को विवश हो जाते हैं । इस मंदिर की कुल ऊँचाई 216 फीट है। आखिर कैसे इतनी ऊंचाई पर लगभग अस्सी टन वजनी पत्थर पहुंचाया गया होगा, जबकि उस युग में आधुनिक मोर्टार आदि भी नहीं थी।

यह मंदिर राजराजेश्वर मंदिर और बृहदेश्वर मंदिर, दो अलग-अलग नामों से जाना जाता है । विशालकाय पत्थरों से बना यह भव्य मंदिर ऐसी जगह में बना हुआ है जहाँ दूर-दूर तक न कोई पत्थरों का पहाड़ है और ना ही कोई पत्थरों की खदान है। अतः इस मंदिर को बनाने के लिए विशालकाय पत्थर लाने के लिए तीन हजार हाथियों का उपयोग किया गया था।

यह विश्व का प्रथम और एकमात्र मंदिर है, जो पूरी तरह ग्रेनाइट पत्थर से बना हुआ है। इस विशालकाय मंदिर को यूनेस्को ने विश्व धरोहर घोषित किया है। बृहदेश्वर मंदिर में एक विशाल शिवलिंग और विशाल अखंड नंदी की प्रतिमा विराजमान है।

मंदिर की आकृति भगवान शिव के निवास स्थल कैलाश पर्वत का आभास देती है। इस मंदिर की एक विशेष खूबी यह है कि इतने विशाल होने के बावजूद इनकी परछाई धरती पर नहीं पड़ती। विश्व की विशाल संरचनाओं में इस मंदिर का नाम आता है। इसका आकार पिरामिड की तरह त्रिकोण है।

क्या इसे महज संयोग कहें कि शिवलिंग की ऊंचाई 12 फीट है और तमिल भाषा में स्वरों की संख्या भी 12 ही है। शिवलिंग का आधार अठारह फीट है और तमिल भाषा में व्यंजनों की संख्या भी अठारह ही है। मंदिर का शिखर जिसे विमान कहा जाता है, उसकी कुल ऊंचाई दो सौ सोलह फीट है और तमिल के संयुक्त अक्षरों की संख्या भी दो सौ सोलह ही है। शिवलिंग से नंदी प्रतिमा की दूरी 247 फीट है और तमिल में कुल शब्द भी इतने ही हैं, अर्थात बारह स्वर, अठारह व्यंजन और दो सौ सोलह संयुक्त अक्षर का योग।

मंदिर के शिखर पर स्थित कलश की ऊंचाई चौदह दसमलव चार फीट है तथा इसके निर्माण में ताम्बे और स्वर्ण का प्रयोग किया गया है। ताम्बे का प्रयोग इसे आकाशीय बिजली गिरने के खतरे से बचाता है। कलश के अन्दर वरगु जिसे उत्तर भारत में कोदों कहा जाता है, वह भरा रहता है। इसके पीछे का विचार यह माना जाता है कि जल प्रलय काल में यदि सृष्टि समाप्त हो जाये, तब बचे हुए लोग इसे बीज के रूप में प्रयोग कर प्रथ्वी पर पुनः अन्न उत्पादन कर सकें। स्मरणीय है कि कोदों का बीज बारह वर्ष तक जर्मिनेट हो सकता है। इसीलिए हर बारह वर्ष में होने वाले कुम्भाभिशेक उत्सव में इस वरगु को बदल दिया जाता है। किसे हमारे पूर्वजों की इस धरोहर पर गर्व नहीं होगा।

उत्तर दिशा में स्थित मुख्य प्रवेश द्वार से प्रवेश करते ही मानो आदिकाल का स्मरण हो आता है। एक पैर उठाये, गदा पद्मधारी चतुर्भुज मुकुटधारी द्वारपाल, भगवान विष्णू के वामनावतार और राक्षसराज महाराज बली की कथा का स्मरण कराते हैं। मंदिर के चारों ओर परिक्रमा का गलियारा है, जिसकी चौडाई सात फीट है। गलियारे की दीवारों पर भगवान शिव के दरबार की सुन्दर झांकियां चित्रित हैं। यह चोल चित्रकला और मूर्तिकला का अद्भुत संग्रहालय है, यद्यपि इसकी सुरक्षा की द्रष्टि से इसे दर्शनार्थियों के लिए बंद कर दिया गया है। गर्भगृह के बाहर स्थित हॉल में भी शिव पार्वती के विवाह आदि के सुन्दर भित्ति चित्र अंकित हैं, जो एक हजार साल बीत जाने के बाद भी अपनी चमक से श्रद्धालुओं को मंत्रमुग्ध कर देते हैं।

द्वारपाल देवताओं और गर्भगृह के चारों ओर बनी भव्य मूर्तियों के अलंकरण में एक सुरुचिपूर्ण सादगी दिखाई देती हैं। दक्षिणामूर्ति और योगलक्ष्मी जैसी विभूतियों के चेहरे सार रूप में हैं। विमनम के अंदर, गर्भगृह के आसपास एक छिपा हुआ गलियारा है। आगंतुकों के लिए शायद ही कभी खुला हो, इस गलियारे की दीवारों को चूने के साथ प्लास्टर कर चित्रों के लिए एक बड़े कैनवास के रूप में इस्तेमाल किया गया था। दक्षिणामूर्ति, नटराज शिव, त्रिपुर संहार, नृत्यांगनाओं, संतों, योद्धाओं के चित्र चोल चित्रकला के अद्भुत उदाहरण हैं। सुंदरमूर्ति नयनार के सफेद हाथी पर बैठकर कैलाश तक पहुँचने की कहानी को एक अन्य दीवार पर दर्शाया गया है। इन सबमें उल्लेखनीय है, अपने गुरु करुवुर देवर के साथ राजराजा का चित्रण। करुवुर देवर ही मंदिर निर्माण के प्रमुख प्रेरक और निर्देशक थे, मंदिर के बाहरी प्रांगण में उन्हें समर्पित एक विशेष मंदिर भी है। इस गलियारे में बनी शिव प्रतिमाएं रंगीन हैं, और उनमें शिव के इक्यासी नृत्य मुद्राएँ दर्शाई गई हैं, जो तमिल नाट्य शास्त्र के शानदार चित्र कहे जा सकते हैं। प्रसिद्ध इतिहासकार सी. शिवराममूर्ति ने भगवान शिव की इन नृत्य मुद्राओं को अद्वितीय कहा है ।

शायद इस मंदिर का सबसे रोमांचक पहलू इसकी दीवारों पर अंकित विशाल शिलालेख हैं जो राजा के शासनकाल और साथ ही उनके उत्तराधिकारियों का विवरण प्रस्तुत करते हैं। वे बताते हैं कि राजा ने मंदिर के रखरखाव, दैनिक पूजा, त्योहारों, भक्ति गीतों के गायन और नृत्य के लिए बड़ी संख्या में गाँवों, धन और मवेशियों को दान में दिया। उन्होंने और उनकी रानियों ने मंदिर में शानदार सोने और मणि के गहने प्रस्तुत किए। राजा, उनकी प्रिय रानी लोकमहादेवी और उनकी बहन कुंदावई के दान विवरण को गर्भगृह के करीब एक शिलालेख में दर्ज किया गया है। शिलालेखों में सबसे उल्लेखनीय विवरण चार सौ देवदासियों को दी गई दो गलियों का मिलता है । उनके नाम, उत्पत्ति के स्थान, उनके घरों के दरवाजों पर अंकित संख्या का भी विवरण इस शिलालेख में है। शिलालेखों से राजा, उसकी रानियों, उनके रिश्तेदारों, प्रमुख व्यापारियों, सैनिकों के अतिरिक्त सिंचाई के लिए बनी नहरों, अस्पतालों, स्कूलों की जानकारी मिलती है।
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें