बाबर और राणा सांगा भाग - 1

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सांगा बने राणा तो सुन्नी से शिया बना बाबर  अपने शैशव काल में मेरे समान शायद आपने भी गुनगुनाया होगा – अस्सी घाव लगे थे तन में, लेकिन व्यथा नह...

सांगा बने राणा तो सुन्नी से शिया बना बाबर 
अपने शैशव काल में मेरे समान शायद आपने भी गुनगुनाया होगा –
अस्सी घाव लगे थे तन में, लेकिन व्यथा नहीं थी मन में |

युद्धों में एक भुजा, एक आँख, एक टांग खोने व अनगिनत ज़ख्मों के बावजूद उन्होंने अपना महान पराक्रम नहीं खोया । आईये इस श्रंखला का प्रारम्भ राणा सांगा और बाबर के प्रारंभिक जीवन वृत्त की तुलना से करते हैं। हमारे नायक तो राणा सांगा ही हैं, अतः पहले उनकी ही चर्चा। मेवाड़ के इतिहास में सब कुछ आदर्श और अच्छा ही नहीं है | प्रतापी महाराणा कुम्भा जब एक दिन कुम्भलगढ़ किले के पास स्थित नीलकंठ महादेव मंदिर में पूजन कर रहे थे, तभी उनके बेटे उदय सिंह प्रथम ने उनकी हत्या कर दी | बुड्ढा न जाने कौनसा अमरफल खाकर आया है, मरता ही नहीं है। मैं क्या खुद बुड्ढा हो जाने के बाद राजा बनूँगा ? बस करवा दी ह्त्या और बड़ा बेटा होने के कारण शासक भी बन गया, किन्तु लोग उससे घृणा करते रहे । कुम्भा जैसे महान राजा के हत्यारे को आखिर कौन मेवाड़ का राणा स्वीकार करता ?
मेवाड़ के सरदारों ने कुम्भा के दूसरे बेटे रायमल को उसकी ससुराल ईडर से बुलवा लिया। पिता को दिए अपने वचन का पालन करते हुए राज्य का अधिकार त्यागने वाले कलियुग के भीष्म चूंडा भी मांडू से आ गए | युवराज चूंडा की अमर गाथा हम पूर्व में प्रकाशित कर चुके हैं, लिंक स्क्रीन पर और वीडियो के अंत में देखी जा सकती है। दाड़िमपुर के पास हुए युद्ध में पराजित होकर ऊदा ने कुम्भलगढ़ के अजेय किले में शरण ली तो वहां से उसके ही सरदारों ने उसे धक्के देकर बाहर निकाल दिया | उदय सिंह ने मांडू के सुलतान की शरण ली, किन्तु उसे उसकी करनी का फल मिल कर ही रहा, 1473 में आसमानी बिजली गिरने से उसकी मौत हुई |
उस क्रूर और अलोकप्रिय राजा के मरने के बाद राणा कुम्भा के दूसरे बेटे राणा रायमल ने गद्दी संभाली व मालवा के सुल्तानों के आक्रमण को दो बार विफल किया | रायमल के प्रथ्वीराज, जयमल व संग्राम सिंह सहित १३ पुत्र थे | सबसे बड़े प्रथ्वीराज और रायमल के चहेते बेटे जयमल के साथ हुए संघर्ष में तीसरे संग्रामसिंह की तरुणाई में ही एक आँख फूट गई | संघर्ष का कारण भी विचित्र है | एक महात्मा ने तीनों राजकुमारों द्वारा भविष्य पूछे जाने पर संग्राम सिंह के प्रतापी सम्राट होने की भविष्य वाणी कर दी, तो गुस्साए दोनों बड़े भाई छोटे संग्रामसिंह की हत्या करने पर ही उतारू हो गए | फलस्वरूप इतिहास प्रसिद्ध उस राणा सांगा को जान बचाने के लिए मेवाड़ ही छोड़ना पड़ा | लेकिन महात्मा की भविष्य वाणी सत्य सिद्ध हुई और दोनों बड़े राजकुमार अपने पिता राणा रायमल के जीवन काल में ही स्वर्ग सिधार गए | अंततः संग्राम सिंह उपाख्य राणा सांगा ने २४ मई 1509 को मेवाड़ की सत्ता संभाली ।
अब एक नजर बाबर के प्रारंभिक जीवन पर। आज के उजबेकिस्तान का छोटा सा शहर है फरगाना, जहाँ का शासक था, उमर शेख मिर्जा। उसकी काबलियत केवल यह थी कि उसका श्वसुर यूनुस खां मंगोल लुटेरे चंगेज खान का वंशज था और जैसा कि बाद में प्रमाणित भी हुआ, उसकी पत्नी कुतलुग निगार खानम ने ही बाबर की मां के रूप में इतिहास में जगह बनाई। जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है मिर्जा अर्थात अदना सा सामंत, तो उमर शेख ख़्वाब तो बड़े बड़े देखता था, किन्तु कुब्बत थी नहीं। उसका बड़ा भाई अहमद मिर्जा समरकंद और बुखारा का शासक था, जिससे यह उमर शेख कुढ़ता रहता था। जैसे ही श्वसुर मरे, साले भी फरगाना पर कब्जे के लिए चढ़ दौड़े और उमर शेख ने जान बचाने के लिए एक पहाड़ी किले में शरण ली। दुर्भाग्य ने यहाँ भी पीछा नहीं छोड़ा और एक मकान उसके ऊपर गिर गया, उसकी जीवित ही कबर बन गई। उस समय उसके बेटे बाबर की आयु महज ग्यारह वर्ष थी।
उमर शेख की मौत से इतना अवश्य हुआ कि मामा तो वापस हो गया, किन्तु चाचा से अदावत बनी रही। चाचा भी जल्द ही परलोक सिधार गया और उसके बेटों में गद्दी को लेकर सर फुटौअल शुरू हो गई, और बिल्लियों की लड़ाई में बन्दर की पाव बारह की तर्ज पर नतीजा यह निकला कि समरकंद पर उजबेक सरदार शैबानी खां काबिज हो गया। बाबर ने उससे समरकंद छीनने की कोशिश की, तो नतीजा यह निकला कि उसे फरगाना से भी भागना पड़ा , इतना ही नहीं तो जान बख्शी के बदले वह अपनी बहिन का निकाह भी शैबानी खां से करवाने को विवश हुआ। उन्नीस वर्षीय इस बेघरबार तरुण को कई बार तो फाके कशी करनी पडी, तो कई बार गाँवों में मांगकर रोटी का जुगाड़ करना पड़ा।
लेकिन स्थिति बदली और वह भी शैबानी खां के कारण ही बदली। शैबानी खां एक महत्वाकांक्षी व्यक्ति था, किस्मत ने उसे समरकंद का शासक बना दिया था, किन्तु इससे उसे संतोष नहीं था। उसने कुंदुज के गवर्नर खुसरो शाह को हराया और उसकी सेना भंग कर दी, जिसके बहुत से दस्ते बाबर से आ मिले । इस नए सैन्य दल की मदद से बाबर ने नए क्षेत्र की ओर रुख किया और आसानी से काबुल और कंधार पर कब्जा जमा लिया।
इस इस दौरान ईरान के शाह इस्माइल सकबी ने बाबर के जानी दुश्मन शैबानी खान का खात्मा कर दिया, तो बाबर ने उससे संधि कर ली और शाह की मदद से समरकंद पर कब्जा करने की अपनी साध भी पूरी कर ली। शाह की कृपा पाने के लिए बाबर सुन्नी से शिया हो गया। शिया होने से उसे लाभ भी हुआ और हानि भी। लाभ तो यह हुआ कि ईरानियों ने उसे बंदूकों और तोपों का प्रयोग सिखाया, तो हानि यह हुई कि उसका शिया होना इलाके के सुन्नी लोगों को गवारा नहीं हुआ। और शाह जैसे ही ईरान वापस हुआ, बाबर को भी उज्बेक नेता अब्दुल्ला खान ने 1513 में समरकंद से खदेड़ दिया। उसके बाद बाबर कभी भी अपने पूर्वजों की सरजमीं को नहीं लौट सका। वह नए जीते हुए क्षेत्र काबुल को लौटा, लेकिन वहां अफगानिस्तान में भी उसकी राह आसान नहीं थी। उसे कदम कदम पर स्थानीय अफगानों के कड़े प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। किन्तु 1514 में उसे उस्ताद अली नामक एक तुर्क तोपची की सेवाएं प्राप्त हो गईं, जिसकी दम पर उसने अफगानिस्तान में विद्रोहियों को रोंद डाला। लेकिन विद्रोही हार मानने को तैयार ही नहीं थे, संघर्ष चलता रहा और उसके साथ ही बाबर को अपने सैनिकों को पारिश्रमिक भुगतान भी कठिन हो गया। अतः अपने पूर्वज तैमूर की तरह ही भारत को लूटने की योजना बनाई। रेगिस्तानी उजाड़ इलाके से निकलकर सरसब्ज और समृद्ध भारत भूमि पर आक्रमण करने की इच्छा हुई। 1519 में उसे जब एक और तुर्क तोपची मुस्तफा मिल गया तो उसने भारत की ओर कूच कर दिया।

पराक्रमी राणा सांगा और भारत पर बाबर के शुरूआती हमले

बाबर ने सीधे दिल्ली पर धावा नहीं बोला, उसने शुरूआती अभियान केवल शत्रु की शक्ति की थाह पाने के लिए किये। दिल्ली पर उस समय इब्राहीम लोदी का शासन था, और उसका महत्वाकांक्षी चाचा दौलत खान मन ही मन स्वयं दिल्ली की गद्दी कब्जाने की जुगत में लगा हुआ था। बाबर ने पहला हमला यूसुफजई लोगों के विरुद्ध किया। बाजौर में उसके द्वारा किया गया कत्लेआम महज अपना आतंक कायम करने के लिए किया गया, ताकि लोगों के मन में तैमूर की याद ताजा हो जाए। उसके बाद झेलम के तटवर्ती भेरा और खुशाब पर कब्जा करने के बाद उसने अपना एक दूत दिल्ली भेजा कि जो प्रदेश पहले कभी तुर्कों के अधीन थे, उसे सौंप दिए जायें। लेकिन दौलत खान ने उस दूत को क़त्ल कर दिया। मजा देखिये की उसके बाद भी बाबर काबुल को वापस हो गया। एक तो उसकी हिम्मत नहीं हुई, आगे बढ़ने की और दूसरे काबुल में उसके पीठ फेरते ही विद्रोह हो गया। बाबर को लगा कि भारत जीतने के चक्कर में कहीं काबुल भी हाथ से न निकल जये। उसके जाते ही यूसुफजई अफगानों ने उसके द्वारा नियुक्त शासक को उखाड़ फेंका। 1519 और 1522 के बीच बाबर ने चार आक्रमण किये, किन्तु हर बार उसे घर की चिंताओं और उपद्रवों के कारण वापस जाना पड़ा। जैसा कि पूर्व में उल्लेख किया, इब्राहीम लोदी का महत्वाकांक्षी चाचा दौलत खान पहले तो स्वयं दिल्ली का शासक बनना चाहता था, किन्तु जब उसे यह समझ में आ गया कि ऐसा होना संभव नहीं है, तो उसने पंजाब का स्वतंत्र शासक बनने की इच्छा से 1524 में बाबर को दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए आमंत्रित किया । यह वह दौर था, जब दक्षिण में तो विजयनगर साम्राज्य पूर्ण गौरव के साथ अपनी जड़ें मजबूती से जमाये हुए था, बाद में भी उसका बाबर बाल भी बांका नहीं कर सका। आसाम भी पूर्ण स्वाधीन रहा, इसके बाद भी चाटुकारिता की पराकाष्ठा करते हुए, सिक्यूलर इतिहासकारों ने बाबर को भारत का बादशाह लिखा, यह शर्मनाक और हास्यास्पद है।
आईये अब राणा सांगा के शौर्य की चर्चा करते हैं। बाबर के आगमन के पूर्व दिल्ली पर जिस लोदी वंश का शासन था, वह भी राणा सांगा के हाथों पराजय का कड़वा घूँट पी चुका था, इतना ही नहीं तो उसकी राजधानी आगरा को भी राणा सांगा ने जलाकर राख कर दिया था। दिल्ली की कमजोर स्थिति को भांपकर मालवा और गुजरात के मुस्लिम शासकों ने स्वयं को दिल्ली से पृथक स्वतंत्र शासक घोषित कर दिया । इन दोनों को भी मेवाड़ के परम पराक्रमी अपराजेय योद्धा राणा सांगा ने छठी का दूध याद दिला रखा था। यूं कहने को तो मालवा पर महमूद द्वितीय का शासन था, किन्तु पहले तो परोक्ष रूप से राणा सांगा के आत्मीय मेदनी राय वहां मंत्री के रूप में सत्ता सूत्र संभाले हुए थे। यहां तक कि मालवा के अन्य मुस्लिम सामंतों को जब यह स्थिति सहन नहीं हुई, तो उन लोगों ने गुजरात के सुलतान मुजफ्फर शाह द्वितीय को आमंत्रित किया। किन्तु राणा सांगा तुरंत मदद को आये और मालवा के शाह महमूद को न केवल पराजित किया, बल्कि उसे गिरफ्तार कर चित्तौड़ ले गए।यह अलग बात है कि बाद में उदारता दिखाते हुए ससम्मान उसे उसका राज्य वापस कर दिया। मैदनी रॉय अब स्वाधीन होकर चंदेरी के शासक हो गए।
गुजरात पर उस दौर में मुजफ्फर शाह का शासन था, जो 1401 में राजपूत से मुसलमान बनकर सत्तासीन होने वाले जफ़र खान का वंशज था। इस मुजफ्फर शाह को भी राणा सांगा के हाथों पराजय का स्वाद चखना पड़ा। तो राणा संग्राम सिंह उपाख्य सांगा एक प्रकार से समूचे मध्य क्षेत्र पर अपना दबदबा कायम किये हुए थे।
राणा के पराक्रम को राजस्थानी डिंगल कवियों ने गाया -
को मालव दल मथई, कौन महमद गहि मिल्लई,
को गुजरातहि गाहि, साहि सम्मुख गहि बिल्लई,
को लोदी संग लऱई, कौन आगरो प्रजारई,
को बाबर कहिं हटकि, बहुरि पड़वा लगि तारइ ?
भनि राय नृपति मल्लह सुतन, तुंअ डर बंग तिलंगवे,
संग्राम राण तुम बिन अवर, इति शाह को अंगवे ?
अर्थात तेरे अलावा कौन मालव सेना का संहार कर, मुहम्मद शाह को कुचल कर बंदी बना सकता है ? गुर्जर प्रदेश के शाह से कौन लोहा ले सकता है ? लोदी से लड़कर आगरा कौन जला सकता है, और कौन बाबर को रोककर वापस दिल्ली तक खदेड़ सकता है ? हे रायमल के सुपुत्र राणा,संग्राम सिंह, तुम्हारे भय से बंगाल और तैलंग भी कांपते हैं, तुम्हारे अलावा और कौन हमारा शाह हो सकता है ?
इक्क लीय जालौर, इक्क झर हरे चन्देरिय,
ठट्टा अरु मुल्तान, आन मांड़ौ लगि फेरिय,
दरिया सों हद करिय, उभर कोई करे न कदर,
लेतौ परबत माल, मारि लिए बीच सिकंदर।
भनि राय नृपति मल्लह सुतन, सरन शाहि धरि अंगवई,
संग्राम तपे गढ़ चित्रवर, इक्क छत्र महि भुग्गवई।
अर्थात एक झपट्टे में ही उसने जालौर और चंदेरी को कब्जे में कर लिया। ठट्टा, मुल्तान और मांडू सब ओर उसकी दुहाई फिरने लगी, समुद्र पर्यन्त उसकी सीमा हो गई, पर्वत श्रंखला के बीच फंसाकर सिकंदर लोदी को भी शरणागति स्वीकार करने को उसने विवश कर दिया, रायमल का सुपुत्र संग्राम सिंह चित्तौड़ पर एक छत्र शासन करने लगा।
युद्धों में उनके पराक्रम का वर्णन कवि ने कुछ इस प्रकार किया है -
सेल संडासी करिग, खग्ग घन करिग रंग रस,
कर उद्दरण अरि शीश, रुधिर अरि करिग झारवस,
धोक सद्द नीसान, खान सब कट्टिस किन्नउ,
सार गहत सुरतान, सुतौ जीवित धर लिन्नऊ।
तो ऐसे थे राणा संग्राम सिंह उपाख्य राणा सांगा। 

बाबर का दिल्ली पर कब्ज़ा, लेकिन अब सामना हुआ भारत के अपराजेय योद्धा राणासांगा से

दौलत खान का निमंत्रण पाकर बाबर ने १५२४ ईसवी में कंधार के मार्गसे भारत में प्रवेश किया। लाहौर के नजदीक दिल्ली की सेना ने उसे रोकने का असफल प्रयत्न किया, और लाहौर पर बाबर का कब्जा हो गया। अनेक कसबे जलाकर लुट लिए गए। इसी दौरान दौलत खान और इब्राहीम लोदी का एक चाचा आलम खान उसके साथ आ मिले और आसानी से पंजाब के एक बड़े भूभाग पर बाबर का कब्जा हो गया। ये दोनों ही पंजाब के स्वतंत्र शासक बनना चाहते थे, किन्तु बाबर ने जालंधर दौलत खान को, उसके बेटे दिलावर खान को सुल्तानपुर और इब्राहिम के चाचा आलम खान को दीपालपुर भर दिया। महत्वाकांक्षी दौलत खान मनहीमन कुढ़ गया। तभी एक बार फिर काबुल में विद्रोह की आग भड़क उठी और बाबर को वापस जाना पड़ा।

आप लोग समझ ही चुके होंगे कि किस प्रकार समरकंद से भगाया गया बाबर, काबुल और कंधार में अपनी जड़ें जमाने की कोशिश कर रहा था, किन्तु स्थानीय अफगान उसकी नाक में दम किये हुए थे। उधर जैसे ही बाबर काबुल वापस लौटा, दौलत खान ने समूचे पंजाब को अपने अधिकार में लेने का प्रयत्न शुरू कर दिया। उसने अपने ही बेटे दिलावर खान से सुलतान पुर तो आलम खान से भी दीपालपुर छीन लिया। आलम खान ने काबुल पहुंचकर उसकी सब करतूतें बाबर को बताईं तो बाबर गुस्सा तो बहुत हुआ, किन्तु स्थानीय विद्रोह को दबाने के चक्कर में तुरंत चल भी नहीं पाया। दो वर्ष बाद 1526 में जब उसे समझ में आ गया कि उजाड़ अफगानिस्तान के बासिंदों से पार पाना कठिन है, तो उसने सेना सजाई और शस्य श्यामला षड ऋतू बाली भारतभूमि को ही अपना नया ठिकाना बनाना तय किया। भारत आया तो सबसे पहले दौलत खान को पंजाब में ठिकाने लगाया और उसके बाद 21 अप्रैल 1526 को पानीपत के मैदान में हुई लड़ाई में दिल्ली के सुलतान इब्राहीमलोदी से उसका मुकाबला हुआ। बाबर ने अपनी आत्म कथा में अपने मुंह मियाँ मिट्ठू बनते हुआ लिखा है कि उसने महज बारह हजार सैनिकों की मदद से यह विजय हासिल की। जैसा कि हम ग्वालियर के महान शासक मानसिंह तोमर वाली श्रंखला में उल्लेखकर चुके हैं कि उनके बाद सत्तासीन हुए उनके पुत्र विक्रमादित्य भी इस युद्ध में इब्राहीमके साथ थे। स्पष्ट ही उस समय के हिन्दू शासक भी बाबर के विरुद्ध खड़े हुए। जो भी हो,किन्तु उस युद्ध में इब्राहीम लोदी मारा गया और दिल्ली पर बाबर का कब्जा हुआ।

बाबर पानीपत के युद्घ में इब्राहीम लोदी को परास्त कर चुका था पर लोदी के पारिवारिक लोगऔर उसके शुभचिंतक अभी भी जीवित थे । इब्राहीम लोदी की मृत्यु के उपरांत अफगान सैनिकों ने बाहर खां लोहानी नामक अफगान सरदार के नेतृत्व में एकत्र होना आरंभ किया। बाहर खां ने अपना नाम परिवर्तित कर सुल्तान मौहम्मद खान कर लिया और हसन खां मेवाती को अपना सेनापति बनाया। इन लोगों ने इब्राहीम लोदी के भाई महमूद लोदी को दिल्ली का बादशाह घोषित करने की योजना पर कार्य करना आरंभ कर दिया। लेकिन हसन खां मेवाती की योजना सिरे नही चढ़ सकी और उसके मूर्त रूप लेने से पहले ही अफगान सैनिकों और अधिकारियों में फूट पड़ गयी। कई अफगान सरदार बाबर के पास गये और उसे सारा भेद बता दिया। बाबर नेअपने पुत्र हुमायंू के माध्यम से सेना भेजकर विद्रोह के संभावित क्षेत्रों पर अपना नियंत्रण स्थापित कर लिया।लेकिन इन लोगों के मन में बदले की आग धधकती रही । हसन खां मेवाती को यह भलीभांति ज्ञात था कि भारत में महाराणा संग्राम सिंह ही ऐसे महायोद्घा हैं, जो बाबर को पराजित कर सकते हैं, इसलिए मेवाती और महमूद खां लोदी महाराणा से मिलने जा पहुंचे। राणा सांगा, हसन खां व लोदी ने मिलकर गहन मंत्रणा की,स्पष्ट ही हसनखां और लोदी दोनों मुस्लिम योद्घा किसी भी प्रकार से बाबर मुक्त हिंदुस्थान चाहते थे। संग्राम सिंह उपाख्य राणा सांगा को अवसर उपयुक्त लगा, भारतभूमि को यवन शासन से मुक्त कराने का उनका सपना सत्य होता प्रतीत हुआ और मुगलों को दिल्ली से निकालकर दिल्ली पर भी अपना केसरिया लहराने के लिए उन्होंने देश के अनेक हिन्दू राजाओं को संगठित करने का महान कार्य सम्पादित किया। बाबर को परास्त करने के लिए सांगा ने शूरवीर सैनिकों तथा सरदारों को अपने साथ एकत्रित किया । राजस्थान के अनेकों शक्तिशाली शासकों, सामंतों और सरदारों ने राणा सांगा का नेतृत्व स्वीकार कर अपना सैन्य सहयोग राणा को दिया था। बड़े सौभाग्य से ऐसे क्षण आये थे-जब हम पर लगने वाले ‘पारंपरिक फूट’ के आरोपों को सिरे से ही नकारा जा सकता था। राणा की सेना में इस बार एक लाख बीस हजार सामंतों सरदारों सेनापतियों तथा वीर लड़ाकुओं की संख्या थी। इसके अतिरिक्त युद्घ में लडऩे वाले पांच सौ खूंखार हाथी थे। इस प्रकार सैनिक, सवारों, सरदारों, सामंतों और उन शक्तिशाली राजपूतों को लेकर राणा सांगा युद्घ के लिए रवाना हुए। डूंगरपुर, सालुम्ब, सोनगड़ा, मेवाड़ मारवाड़ अंबेर, ग्वालियर, अजमेर चंदेरी तथा दूसरे राज्यों के अनेक बहादुर राजा इस विशाल सेना का नेतृत्व कर रहे थे’’। स्वतंत्रता की दुन्दुभि चारों ओर बज रही थी। जोश से भरे हुए हर सैनिक के मन में एक ही भाव था –

क्या कभी किसने सुना है, सूर्य छिपतातिमिर भय से,

क्या कभी सरिता रुकी है,बाँध से वन पर्वतों से ?

हम न रुकने को चले हैं, सूर्य के यदिपुत्र हैं तो,

हम न हटने को चले हैं, सरित की यदि प्रेरणा तो।

चरण अंगद ने रखा है, आ उसे कोई हटाए,

दहकता ज्वालामुखी यह, आ उसे कोई बुझाये।

उस समय तक धौलपुर बियाना और ग्वालियर के किलों पर बाबर का कब्जा हो चुका था ।राणा द्वारा संगठित की गई विशाल सेना ने बियाना परआक्रमण किया।

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नाम

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बाबर और राणा सांगा भाग - 1
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