बाबर और राणा सांगा भाग 2

राणा सांगा ने बाबर को बियाना में दी करारी शिकस्त

बाबर के साथ काबुल की तुर्क सेना तो थी ही, साथ ही दिल्ली की वह मुस्लिम सेना भी थी, जो लोदी को हराने के पश्चात उसके साथ हो गई थी। इस प्रकार एक विशाल सैन्यदल का सामना राणा की सेना को करना पड़ रहा था। इसके बाद भी अपनी परंपरा के अनुसार हिंदूसेना ने हर-हर महादेव का गगनभेदी उद्घोष किया और युद्घ करने लगी। युद्घ के रोमांचकारीदृश्य देखने योग्य थे। राणा के सैनिक विशाल शत्रु सैन्य दल पर भूखे शेर की भांति टूटपड़े। उन्हें ज्ञात था कि यदि शत्रु को परास्त कर दिया गया तो दिल्ली ही नही संपूर्ण भारतवर्ष से विदेशी सत्ता का नामोनिशान मिट जाएगा। इसलिए अपने प्राणों का ध्यान किये बिना उन्होंने अपना पराक्रम और शौर्य दिखाना आरंभ कर दिया। शीघ्र ही हिंदू वीरों की वीरता के समक्ष शत्रु सेना का मनोबल टूटने लगा और उसके पांव उखड़ गये। युद्घ क्षेत्र को छोडक़र बाबर की सेना भाग खड़ी हुई। एक और बात ध्यान देने योग्य है कि जब बाबरकी सेना युद्घ से भाग रही थी तो राणा ने उसका पीछा नही किया। पराजित होकर भागते हुएशत्रु की पीठ पर प्रहार कर मारना राजपूती शान के खिलाफ जो था। इसे भारतीयों की सदगुण विकृति’ ही कहा जाएगा, अगर उस ऐतिहासिकअवसर को भुना लिया गया होता, तो उसी दिन महाराणा संग्राम सिंह दिल्ली के अधिपति होगए होते । बियाना के युद्ध में राणा की सेना ने बाबर को करारी शिकस्त दी। किन्तु इस जीत को प्रचलित इतिहास में कोई स्थान ही नही दिया गया है, और इसे एक छोटी सी घटनामानकर या जानकर उपेक्षित कर दिया गया है। महाराणा संग्राम सिंह भारत के पराक्रम, साहसऔर वीरता का नाम है।यह उस देशभक्ति का नाम है जिसने परंपरागतअस्त्र, शस्त्रों का प्रयोग करते हुए, बारूद और तोप का पर्याय बनी बाबर की सेना को पराजित कर स्वयं बाबर को भी भयभीत करदिया था।
राणा सांगा के हाथों अपनी दुर्गति कराकर पराजित बाबर दिल्ली पहुंचा, उस समय बाबर के सैनिक भारतीयों के युद्घ कौशल और अदम्य साहस से इतने भयभीत हो चुके थे, कि वे लोग जल्द से जल्द वापस काबुल जाने को उतावले हो रहे थे । लेकिन बाबर जानता था कि पराजित होकर वापस जाने का अर्थ है, उसका खात्मा। इब्राहीम लोदी के साथ हुए पानीपत के संघर्ष में और उसके बाद राणा सांगा के हाथों उसकी आधी सेना पहले ही नष्ट हो चुकी थी। उसे समझ में आ गया था कि उसकी पराजय का समाचार काबुल पहुँचते ही वहां के विद्रोही और प्रबल हो जाएंगे और उसके बाद उसकी जान के भी लाले पड़ जाएंगे। अतः पराजित बाबर ने अपने सैनिकों का मनोबल बढ़ाने के लिए आख़िरी चाल चली । उसने सबसे पहले तो जो कुछ भारत में लूटा था, उस ‘लूट के माल’ को अपने सभी सैनिकों, परिचितों, मित्रों, बंधु बांधवों में बांट दिया, और उसके बाद कहा, मुझे कोई आपत्ति नहीं है, जो वापस जाना चाहे वह चला जाए, लेकिन इतना ध्यान रखना कि मैं यहाँ हारकर वापस जाने को नहीं आया हूँ। मेरे अन्य साथी जो मेरे साथ जीने मरने वाले हैं, वे भी नहीं जाएंगे। आप लोग मेरे द्वारा दिए गए माल असबाब के साथ छोटे छोटे समूहों में वापस जाओगे, तो रास्ते में स्थानीय लोग आपका क्या हाल करेंगे, जरा यह विचार कर लो।

उसके बाद बाबर ने अपने सभी शराब के पात्र लुढ़का दिए और प्रतिज्ञा की कि भविष्य में वह कभी शराब नहीं पियेगा। फिर बाबर ने अपनी आख़िरी चाल चली और अपने सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा-‘‘ऐ मुसलमान बहादुरो! हिंदुस्तान की यह लड़ाई इस्लामी जेहाद की है। इस लड़ाई में होने वाली हार तुम्हारी नही इस्लाम की हार है। हमारा मजहब हमें बताता है कि इस दुनिया में जो पैदा हुआ है, वह मरता जरूर है। हमको और तुमको सबको मरना है। लेकिन जो अपने मजहब के लिए मरता है, खुदा उसे बहिश्त में भेजकर इज्जत देता है। लेकिन जो मजहब के खिलाफ मौत पाता है उसे खुदा दोजख में भेजता है। अब हमको इस बात का फैसला कर लेना है और समझ लेना है कि हम लोगों में बहिश्त कौन जाना चाहता है? उन्हें हर सूरत में इस लड़ाई में शरीक होना है। कुरान को अपने हाथों में लेकर तुम इस बात का आज अहद करो कि तुम इस्लाम के नाम पर होने वाली इस लड़ाई में काफिरों को शिकस्त दोगे, और ऐसा न कर सकने पर इस्लाम के नाम पर तुम अपनी कुर्बानी देने में किसी हालत में इनकार न करोगे।’’

बाबर की रणनीत्ति कामयाब रही, और सैनिकों ने लुटते पिटते काबुल वापस जाने के स्थान पर बाबर का साथ देना तय किया। बाबर का यह भाषण इतिहास में बहुत प्रसिद्घ है। जबकि इसके मूल में कारण हिंदुओं की वीरता से उत्पन्न हुआ वह भय था जो बाबर की सेना को युद्घ के नाम तक से भागने के लिए प्रेरित कर रहा था।

खानबा के युद्ध में बाबर नहीं विश्वासघात जीता

महाराणा अपने सैन्य दल के साथ दिल्ली की ओर बढे चले आ रहे थे। राणा संग्राम सिंह वीरता शौर्य और पराक्रम में कितने ही बढे चढ़े हों, लेकिन एक मामले में बाबर महाराणा से आगे था। वह छल-बल का प्रयोग करके भी युद्घ जीतने में विश्वास रखता था, जबकि इस विधा से महाराणा सर्वथा अनभिज्ञ थे।

अपनी कूटनीति के तहत बाबर ने सांगा के पास संधि का प्रस्ताव किया। शत्रु के हथियार गिरा देने पर अथवा उसके संधि प्रस्ताव पर राजपूत कभी विश्वासघात नही करते थे। संधि की बातचीत में एक महीना बीत गया। युद्घ के लिए उत्तेजित राजपूत सेनाओं में ढीलापन उत्पन्न हो गया। वे खानवा में डेरा डाले रहे। भारत की देशभक्ति को बाबर ने संधि के छलपूर्ण प्रयास से धूमिल कर दिया। बाबर ने इतने विशाल सैन्य दल को झांसा देकर संधि के झूठे झूले में झुलाते झुलाते उन्हें सुला दिया और इस देरी का उपयोग स्वयं अपने सैन्य दल को सुदृढ़ करने में और घर के भेदी ढूंढने में करता रहा। जैसे ही उसका मंसूबा पूरा हुआ, उसने युद्घ की घोषणा कर दी।

17 मार्च 1527 को प्रातः नौ बजे के लगभग रणभेरी बज उठी तथा राणा ने अपने सेना के बाँयें सैनिक दल को मुगल सेना के दाहिने दल पर धावा बोलने का आदेश दे दिया। यह आक्रमण इतना तीव्र था कि मुगल सेना इस प्रारंभिक आक्रमण को सहन न कर सकी और बाबर को अपने दाहिने दल की सहायतार्थ तुरंत चिन तैमूर सुल्तान को ससैन्य उधर भेजना पङा। राणा सांगा ने अपने हाथी पर बैठे हुए युद्घ की परिस्थिति का निरीक्षण किया। उन्होंने देखा कि उधर से मुस्तफारूमी की तोपें आग उगल रही थीं। गोलों से राजपूत बड़ी तेजी के साथ मारे जा रहे हैं और शत्रु की सेना तोपों के पीछे है। उन्होंने एक साथ अपनी विशाल सेना को शत्रु पर टूट पडऩे की आज्ञा दी। राणा की ललकार सुनते ही समस्त राजपूत सेना अपने प्राणों का मोह छोडक़र एक साथ आंधी की तरह शत्रु के गोलंदाजों पर टूट पड़ी। उस भयानक विपद के समय उस्ताद अली तथा मुस्तफा ने राजपूतों पर गोलों की भीषण वर्षा की। उस मार में बहुत से राजपूत एक साथ मारे गये। लेकिन आग के गोले बरसाती तोपों की परवाह न करते हुए धराशायी होते हुए भी मेवाड़ी वीर तोपचियों तक जा पहुंचे। कितने रोमांचकारी क्षण थे, जब मातृभूमि की स्वतंत्रता के लिए संघर्ष कर रहे वीर अपने प्राणों की परवाह किये बिना आग बरसाती तोपों को छीनने के लिए तोपचियों पर झपटे थे। उनकी वीरता अद्भुत थी। वे तोपों को छीनने ही वाले थे कि विश्वासघात हो गया। महाराणा सांगा का एक विश्वस्त प्रमुख सेनापति धोखा कर गया। उस विश्वासघाती का नाम सलहदी तंवर था। वही सलहदी तंवर जो राणा सांगा का दामाद भी था। अपनी सैनिक टुकड़ी के साथ वह युद्घ के निर्णायक क्षणों में बाबर से जा मिला। इसका पता चलते ही राणा सांगा की पुत्री राणी दुर्गावती ने अपने पति को धिक्कारा और अपने दो बच्चों सहित प्रचण्ड अग्निज्वाला में प्रवेश करके तन त्याग दिया। जो भी हो बाबर की योजना सफल हो गई थी।

इसी समय बाबर ने अपनी तुलुगमा पद्धति का प्रयोग किया।आईये अब जरा इतिहासकारों द्वारा प्रशंसित उस तुलुगमा युद्ध नीति के विषय में जानें, जिसे उन्होंने बाबर की जीत का मुख्य कारण निरूपित किया है। यह तुलुगमा और कुछ नहीं छुपकर पीठ पर वार करना था, जिससे राजपूत पूरी तरह अनभिज्ञ थे। उन्होंने तो बाबर की हारकर भागती सेना पर भी हथियार नहीं चलाये, लेकिन बाबर ने जिस समय युद्ध पूरे यौवन पर था, अपनी सेना की एक टुकड़ी को राजपूत योद्धाओं पर पीठ पीछे से आक्रमण करने भेज दिया। रुस्तमखान तुर्कमान तथा मुनीम अक्ता ने अपनी सैनिक टुकङियों के साथ चक्कर काटते हुये राजपूत सेना पर पीछे से आक्रमण कर दिया। जब तक वे कुछ समझ पाते, तब तक राजपूतों के कई शूरवीर सेनानायक चंद्रभान, भोपतराय, माणिकचंद्र, दलपत आदि धराशायी हो गये। हसनखाँ मेवाती भी गोली का शिकार हो गा। इस कुटिल आक्रमण का सामना करते हुये रावत जग्गा, रावत बाघ, कर्मचंद आदि कई सरदार भी मारे गये। इन्हीं योद्घाओं के साथ हसन खां मेवाती और महमूद खां लोदी ने भी अपना बलिदान देकर भारत के अमर शहीदों में अपना नाम अंकित कराया उनका बलिदान विशेष रूप से उल्लेखनीय है, क्योंकि उन पर या उनकी बीस हजार की सेना पर बाबर के जेहाद या उत्साहजनक भाषण का कोई प्रभाव नही पड़ा और वे अंतिम क्षणों तक भारत के लिए लड़ते रहे। ऐसे वीर सपूतों को और अपने दिये वचन का सम्मान करने वाले सच्चे देशभक्तों को कोटि-कोटि प्रणाम।

ऐसी गंभीर स्थिति में राणा ने स्वयं को भी युद्ध में झोंक दिया। परंतु दुर्भाग्यवश से अचानक राणा सांगा के सिर में तीर लगने से राणा मूर्छित हो गये। राणा के विश्वस्त सहयोगियों ने तत्काल राणा को युद्ध स्थल से बाहर निकाल लिया तथा अजमेर के पृथ्वीराज, जोधपुर के मालदेव और सिरोही के अखयराज की देखरेख में राणा को बसवा ले जाया गया। युद्ध भूमि में उपस्थित राजपूतों ने अंतिम दम तक लङने का निश्चय किया तथा राजपूत सैनिकों को राणा के घायल होने और युद्ध स्थल से चले जाने की बात मालूम न हो और उनका मनोबल बना रहे, इसके लिये हलवद (काठियावाङ)के शासक झाला राजसिंह के पुत्र झाला अज्जा को राणा साँगा के राज्यचिह्न धारण करवाये तथा उसे हाथी पर बैठा दिया। कुछ समय तक झाला अज्जा के नेतृत्व में युद्ध चला । राजपूत वीरतापूर्वक लङे, परंतु तोपों के गोलों के समक्ष उनकी एक न चली। दिन ढलते ढलते युद्घ का पासा पलट गया। युद्ध भूमि पर मृतक तथा घायल राजपूतों के अलावा कोई राजपूत सैनिक दिखाई नहीं दे रहा था। बाबर की विजय निर्णायक रही। लाशों के टीले और कटे हुये सिरों की मीनारें बनाकर विजय की प्रसन्नता प्रकट की गयी।

खानवा के युद्घ क्षेत्र में ना तो बाबर जीता था और ना उसकी तोपें जीती थीं, खानवा में जीता था विश्वासघात और जीती थीं बाबर की छलपूर्ण नीतियां। भारत के शेरों ने अपने शौर्य का परिचय दे दिया था, उसे इतिहासकारों ने उचित सम्मान और उचित स्थान इतिहास में नही दिया है । राणा सांगा ने जिस प्रकार अनेकों राजाओं का संघ बनाकर एक बड़ी सेना तैयार की और उस सेना से शत्रु को जिस प्रकार विचलित कर उसके तोपखाने पर अपने असंख्य बलिदान देकर नियंत्रण स्थापित करना चाहा था, वह भी तो एक इतिहास है, यदि लोग बाबर की कथित जीत को पढ़ते हैं तो तोपों पर अपना नियंत्रण स्थापित करने वाले इन सैनिकों के अदम्य साहस को भी पढऩा चाहिए।

महाराणा संग्राम सिंह का महाप्रयाण और चंदेरी के मेदनी राय

मूर्छित महाराणा संग्रामसिंह रणभूमि से किसी प्रकार बाहर ले जाया गया। पर वह शूरवीर मातृभूमि के लिए तड़प रहा था, उसके हर सांस से भारत माता की जय का स्वर उच्चरित हो रहा था। मूर्छावस्था में भी उसकी देशभक्ति और स्वतंत्रता के प्रति समर्पण का भाव देखने योग्य था। चेतना लौटते ही वे रणभूमि में चलने की हठ करने लगे। वह नही चाहते थे कि उन्हें रणभूमि में पड़े अनेकों हिंदू देशभक्त वीरों के शवों के मध्य से उठाकर इस प्रकार लाया जाता। राणा की इच्छा थी कि मुझे रणभूमि में ही वीरगति प्राप्त करने दी जाती।

महाराणा अपनी दशा पर दु:खीऔर विश्वासघाती लोगों पर अत्यंत क्षुब्ध थे। तब शौर्य और साहस की उस साक्षात मूर्ति ने कठोर प्रतिज्ञा ली कि जब तक शत्रु को परास्त नही कर लेंगे तब तक चित्तौड़ नही लौटेंगे। उनका संकल्प था कि वह नगर या ग्राम में नही जाएंगे, भूमि पर शयन करेंगे और सिर पर राज्य चिन्ह धारण नही करेंगे, यहाँ तक कि सिर पर मेवाड़ी गौरव की प्रतीक पगड़ी भी धारण नही करेंगे।

यह है भारत की पहचान। भारत का अभिप्राय है-भीषण प्रतिज्ञा लेने वाला भीष्म। भारत का अभिप्राय है -भीषण प्रतिज्ञा लेने वाला चाणक्य। हमारी राष्ट्रीय चेतना का यही प्राणभूत तत्व अत्यंत विषम परिस्थितियों में भी महाराणा संग्राम सिंह को प्राण ऊर्जा प्रदान कर रहा था।

उधर अब बाबर के निशाने पर थे खानवा के युद्ध में राणा सांगा के अभिन्न सहयोगी रहे चंदेरी के वीरवर मेदनी राय। मेदिनी राय न केवल चितौड़ के शासक राणा साँगा की कमान में बाबर से युद्ध करने के लिये खानवा के मैदान में अपनी सेना लेकर गये थे बल्कि राणा साँगा उन्हे अपना पुत्र भी मानते थे। खानवा में राणा की पराजय के बाद बाबर ने उन सभी राजपूत राजाओं के दमन का सिलसिला शुरू किया जो राणा साँगा की कमान में बाबर से युद्ध करने खानवा पहुँचे थे। इनमें मेदिनीराय का नाम प्रमुख था। चंदेरी अभियान के लिये बाबर 9 दिसम्बर 1527 को सीकरी से रवाना हुआ।

बाबर और उसकी फौज रास्ते भर लूट हत्या बलात्कार करती 20 जनवरी 1528 को चंदेरी पहुँची। बाबर ने रामनगर तालाब के पास अपना कैंप लगाया और दो संदेश वाहक शेख गुरेन और अरयास पठान को राजा मेदिनी राय के पास भेजा। संदेश वाहकों ने तीन संदेश दिये एक मुगलों की आधीनता स्वीकार करो और मुगलों के सूबेदार बनों दूसरा चंदेरी का किला खाली करदो इसके बदले कोई दूसरा किला ले लो और तीसरा अपनी दोनों बेटियों की शादी मुगल शहजादों से कर दो।

स्वाभिमानी मेदनी राय ने शर्तों को अस्वीकार कर दिया। मेदनी राय पर बाबर के आक्रमण का समाचार पाते ही घायल शेर राणा सांगा व्याकुल हो उठे। उस स्थिति में भी उन्होंने बाबर से दो दो हाथ करने चंदेरी जाने का निर्णय लिया। लेकिन कालपी आते आते उनकी स्थिति और भी बिगड़ गई। कुछ इतिहासकारों का मानना है कि लगातार युद्धों से उकताए उनके ही किसी सरदार ने उन्हें जहर दे दिया, किन्तु मेरा मन इसे सही नहीं मानता। संभव है कि बारूद से घायल शरीर में स्वतः जहर फ़ैल गया हो। जो भी हो भाग्य के धनी बाबर की किस्मत से महाराणा सांगा मेदनी राय की मदद को चंदेरी नहीं पहुँच पाए और मेदिनी राय खंगार युद्ध क्षेत्र में अकेला पड़ गया !

बाबर के पास तोपखाना और बारूद था। दूसरी तरफ राजपूतों के पास तीर कमान, तलवार, भाला या आग के गोलों के अतिरिक्त कुछ नहीं। 27 जनवरी को किले का द्वार खोलकर युद्ध हुआ पर तोपखाने के सामने राजपूत सेना टिक न सकी। राजा घायल हो गये उन्हे अचेत अवस्था में किले के भीतर लाकर द्वार बंद कर दिया गया। 28 जनवरी को बाबर का तोपखाना किले दीवार पर गरजने लगा। महारानी मणिमाला को भविष्य का अंदाजा हो गया और वे किले के भीतर स्थित महाशिव के मंदिर में चली गई। उनके साथ राज परिवार और अन्य क्षत्राणियां थी जिनकी संख्या 1500,से अधिक बताई गई है। सभी सती स्त्रियों ने पहले शिव पूजन किया फिर स्वयं को अग्नि को समर्पित कर दिया।

जिस समय ये देवियाँ जौहर कर रहीं थी तभी किसी विश्वासघाती ने किले का दरबाजा खोल दिया। मुगलों की फौज भीतर आ गयी। किले के भीतर यूँ भी मातम जैसा माहौल था । जिसके हाथ में जो आया उससे मुकाबला करने लगा। पर यह युद्ध नाम मात्र का रहा। रात भर मारकाट हुई। यह मारकाट एक तरफा थी। हमलावरों ने किले के भीतर किसी पुरूष को जीवित न छोड़ा। उनके शीश काटे गये उनका ढेर लगाया गया और उस पर मुगलों का ध्वज फहराया गया। बाबर यहाँ पन्द्रह दिन रहा। आसपास जहाँ तक बन पड़ा लूटपाट की गयी। लाशों के ढेर लगे। मकानों को ध्वस्त किया गया। यातनायें देकर छुपा धन वसूला गया । और अय्यूब खान को चंदेरी का सूबेदार बना कर लौट गया

इस युद्ध और जौहर का वर्णन ग्वालियर और गुना जिले के गजट में भी है । चंदेरी में जौहर स्थल भी बना है वहां महिलाएं पूजन करने भी जातीं हैं । रानी मणिमाला ने चंदेरी के दुर्ग चंद्रगिरी में 29 जनवरी 1528 को खंगार क्षत्राणियों के साथ जौहर किया था। इसलिए इस दिन को शौर्य दिवस के रूप में मनाया जाता है।

29 जनवरी को चंदेरी का ध्वंश हुआ और देशधर्म के लिए अपना सर्वस्व होम करने वाले महावीर राणा सांगा 30 जनवरी को अपना शरीर छोड़कर दिव्य पथ के रही हो गए और पीछे छोड़ गए अपनी अक्षय कीर्ति गाथा, जो हम युगों युगों तक कहते सुनते रहेंगे। उन्होंने अपने देश की स्वतंत्रता के लिए कठोर साधना की। अपना हर श्वांस उन्होंने मातृभूमि के लिए समर्पित कर दिया। और यह भी उतना ही सत्य है कि जब जब राणा सांगा का उल्लेख होगा, मेदनी राय का नाम भी उनके साथ ही होगा। 
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