बाबर और उसका यार बाबरी, किसके नाम पर थी अयोध्या की तथाकथित मस्जिद ?


पानीपत का युद्ध 1526 में हुआ, जिसमें दिल्ली के तत्कालीन शासक इब्राहीम लोदी की पराजय हुई और वह मारा गया। 1527 में बाबर और राणा सांगा की भिड़ंत हुई, 1528 में मेदनीराय का बलिदान हुआ और हुआ एक और महत्वपूर्ण घटना क्रम,जिसने मुगलों और हिन्दुओं के बीच निर्णायक विरोधाभाष की दीवार खींच दी और वह था, हिन्दुओं के आराध्य देव भगवान श्री राम जन्म भूमि पर बने मंदिर के स्थान पर मस्जिद का निर्माण।

खानवा के महासमर के बाद बाबर ने समझ लिया कि राजपूताने से पार पाना उसके बस में नहीं है। अतः उसने अपने परम्परागत शत्रु अफगानों पर ध्यान केंद्रित किया। जैसा की हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, इब्राहीम लोदी का भाई महमूद लोदी खानवा के युद्ध में राणा सांगा के साथ था और युद्ध के बाद उसने बंगाल के शासक नसरत शाह के साथ मिलकर बाबर के खिलाफ सैन्य बल बढ़ा लिया था। वह उत्तर प्रदेश के जौनपुर, बनारस और चुनार तक बढ़ आया था। तो विवशतः बाबर को भी उत्तर प्रदेश का रुख करना पड़ा। उसी दौर में जब वह अयोध्या के नजदीक पहुंचा, तो उसकी भेंट दो मुस्लिम फकीरों से हुई। एक का नाम था फजल अब्बास कलंदर और दूसरे का नाम था मूसा आशिकान। इन दोनों की प्रेरणा से उसने अपने सेनापति मीर बाक़ी को अयोध्या अभियान के लिए छोड़कर आगे की राह पकड़ी। इसके आगे के घटना क्रम का बड़ा ही रोंगटे खड़े करने वाला वर्णन महात्मा बालक राम विनायक लिखित कनक भवन रहस्य, कनिंघम के लखनऊ गजेटियर और हैमिल्टन के बाराबंकी गजेटियर में मिलता है।

श्री रामजन्म भूमि मंदिर विध्वंस और उस स्थान पर मस्जिद निर्माण हेतु मीर बाकी ने अयोध्या पर आक्रमण किया। भीती नरेश मेहताब सिंह, हंसवर नरेश रणविजय सिंह और उनके राजगुरू प. देवीदीन पांडे के नेतृत्व में एक लाख चौहत्तर हजार रामभक्तों की सेना ने उसका सामना किया। सतरह दिनों तक घोर संग्राम होता रहा। यह संग्राम आत्मोत्सर्ग का था, जब तक एक भी रामभक्त जीवित रहा, वह लड़ता रहा। तोपों की मार के सामने तीर तलवार आखिर कब तक ठहरते, सबके सब मारे गए। कवियों ने गाया -

अनगिन बलिदानों की राखें, कण कण में भरती चिंगारी,

मन मंदिर में प्रतिपल गूंजे, हे राम हे राम, अक्षय नवधा भक्ति तिहारी।

शोणित वर्णों में अंकित है, उनके उज्वल त्याग,

सुनकर पढ़कर, तड़पन राम भक्ति की, भड़के भीतर आग।

जन्मभूमि की खातिर जिनने किया प्राणों का अर्पण,

बलिदान कहें या कहें उसे हम राम प्रभु का पूजन ?

कनिंघम ने लखनऊ गजेटियर के छियासठवे अंक के पृष्ठ 3 पर लिखा - एक लाख चौहत्तर हजार हिन्दुओं की लाशें गिर जाने के बाद जन्म भूमि के चारों ओर तोपें लगाकर मंदिर को ध्वस्त किया गया। हेमिल्टन ने बाराबंकी गजेटियर में लिखा हिन्दुओं के खून का गारा बनाकर लखौरी ईटों की नींव मस्जिद बनवाने के लिए दी गई।

संघर्ष उसके बाद भी थमा नहीं। महाराज रणविजय सिंह के वीरगति पाने के बाद महारानी जयराज कुमारी ने तीन हजार वीरांगनाओं की सेना लेकर लगातार हुमायूँ के समय तक छापामार युद्ध जारी रखा। उनके गुरू महेश्वरानंद जी ने पच्चीस हजार सन्यासियों की सेना निर्मित की। यहाँ तक कि अंततः जन्मभूमि पर जयराज कुमारी जी का अधिकार हो गया। हुमायूं ने एक बार फिर शाही सेना भेजी, जिसके साथ संघर्ष करते हुए इन सभी महानायकों और वीरांगनाओं ने अपना पावन बलिदान दिया।

इनके बाद स्वामी बलरामचारी जी ने संघर्ष की बागडोर संभाली और जन्मभूमि के रक्षणार्थ बीस बार प्रयत्न किया। पंद्रह बार उनका कब्जा भी हुआ और बार बार कब्जा मुस्लिमों के हाथ में आता जाता रहा। कूटनीतिक अकबर ने ऊबकर मध्यमार्ग अपनाया और मस्जिद के सामने एक चबूतरे पर मंदिर बनवाने और पूजन करने की अनुमति हिन्दुओं को दे दी। लेकिन धर्मांध औरंगजेब ने वह मंदिर भी तुड़वा दिया।

संघर्ष की गाथा बहुत लम्बी है। आईये जरा बाबर की आत्मकथा बाबर नामे में वर्णित बाबरी से सम्बंधित एक हैरत अंगेज उल्लेख पर भी नजर डाल लें -
बाबर की पहली शादी चचेरी बहन आयशा से हुई थी। आयशा से एक बेटी पैदा हुई थी जो 40 दिन भी जीवित नहीं रह सकी। बाबर को अपनी पत्नी से तो कोई प्यार नहीं था, लेकिन उर्दू बाज़ार में रहने वाले बाबरी नामक एक लड़के से अजीब सा लगाव हो गया।
उसे लेकर उसने कई शेर भी लिखे -
इस परिवश पे क्या हुआ शैदा
बल्कि अपनी ख़ुदी भी खो बैठा।
उसका एक फ़ारसी शेर ये है:
हेच किस चूं मन ख़राब व आशिक़ व रुस्वा मबाद
हेच महबूब चोत व बे रहम व बे परवा मबाद
"लेकिन स्थिति यह थी कि अगर बाबरी कभी मेरे सामने आ जाता, तो मैं शर्म की वजह से निगाह भर कर उसकी ओर नहीं देख पाता था. भले ही मैं उससे मिल सकूं और बात कर सकूं. बेचैन मन की ऐसी अवस्था थी कि उसके आने का शुक्रिया तक अदा नहीं कर सकता था. उसके न आने की शिकायत भी नहीं कर सकता था और ज़बरदस्ती बुलाने की हिम्मत भी नहीं थी..."
शोम शर्मिंदा हर गह यार ख़ुदरा दर नज़र बेनम
रफ़ीक़ा सूए मन बेनंदू मन सूए दीगर बेनम
"उन दिनों में मेरी स्थिति ऐसी थी, इश्क़ और मोहब्बत का इतना ज़ोर और जवानी व जुनून का ऐसा प्रभाव हुआ कि कभी कभी नंगे सिर नंगे पैर महलों, बगीचों और बागों में टहला करता था. न अपने और पराये का ख्याल था, न ही अपनी और दूसरों की परवाह.
अब सवाल यह उठता है कि अयोध्या में जो बाबरी मस्जिद बनी, वह बाबर ने अपने नाम से बनवाई, या अपने उस यार बाबरी के नाम पर बनवाई।
बाबरी मस्जिद के नाम पर टेसुए बहाने वाले लोग जरा विचार तो करें।
१५२६ में भारत आया बाबर महज चारवर्षों बाद 1530 में मर भी गया, भांड इतिहासकारों ने लिखा और वर्षों तक प्राथमिक कक्षाओं में बच्चों को पढ़ाया गया कि हुमायूं के बीमार पड़ने के बाद,उसने हुमायूं के बिस्तर की तीन परिक्रमा की, और प्रार्थना की कि मेरा बेटा ठीक हो जाए, इसकी बीमारी मुझे लग जाए, और उसके बाद वह मर गया। लेकिन मैं तो कहता हूँ कि उसे उसके अत्याचारों और कुकर्मों का दंड मिला और रामजी के न्याय से वह असमय जहन्नुम रसीद हुआ।
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