बाबर का पूर्वज नृशंस तैमूर लंग और अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी



शीर्षक पढ़कर आपको हैरत हो रही होगी कि बाबर का उल्लेख करते समय तैमूर तक तो ठीक है, इसमें अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी बीच में कहाँ से आ गई। तो आईये उसे स्पष्ट करते हैं। बाबर पिता की ओर से तैमूर तो माता की ओर से मंगोल लुटेरे चंगेज खान का वंशज था। तैमूर ने भारत को जीता, तो उसे भी काफिर भारत को रोंदना चाहिए, यही महत्वाकांक्षा थी बाबर की। अब तैमूर भारत क्यों आया, इसे स्पष्ट करते हुए 1957 में अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के हिस्ट्री डिपार्टमेंट ने सैयद अतहर अब्बास रिजवी लिखित एक पुस्तक प्रकाशित की "तुगलक कालीन भारत" । पुस्तक क्या है, हिन्दुओं के खिलाफ नफ़रत फैलाने का, उन्हें नीचा दिखाने का और क्रूर मुस्लिम शासकों के व्यवहार को आदर्श बताने का प्रयास ही है। उक्त पुस्तक में तारीखे फिरोजशाही का हिंदी अनुवाद है, उसे पढ़ते समय मेरा मन ग्लानि और अवसाद से भर गया।

एक अंश देखिये -

सुल्तान फिरोजशाह को कई बार यह सूचना दी गई कि प्राचीन देल्ही में एक दुष्ट जुन्नारदार अर्थात ब्राह्मण खुल्लमखुल्ला मूर्तिपूजा करता है, उसने एक लकड़ी की मुहर बनवाई है, जिस पर देवी देवताओं क चित्र अंकित हैं, शहर के सभी लोग उसके घर में मूर्तिपूजा करने जाते हैं। सुलतान ने उस जुन्नारदार को मुहर सहित दरवार में लाने का आदेश दिया। जब वह फिरोजाबाद आया तो सुलतान ने आमिलों, सूफियों तथा मुफ्तियों से फतवा माँगा। उन्होंने फतवा दिया कि यह मुसलमान हो जाए, अन्यथा इसे जीवित ही जला दिया जाए। उससे इस्लाम स्वीकार करने के लिए बहुत कहा गया, तथा ईमान का मार्ग दिखाया गया, किन्तु उसने स्वीकार नहीं किया। अंत में उसे सुलतान के समक्ष दरवार में लाया गया, और लकड़ी ढेर की गई। उसे हाथ पैर बांधकर मुहर के साथ लकड़ी के ढेर में डाल दिया गया। संध्या की नमाज के समय मुहर और उस जुन्नारदार के दो ओर से आग लगाई गई, एक सर की तरफ से, दूसरी पैर की तरफ से। जुन्नारदार क्षण भर में जल गया। शरीयत की कठोरता को धन्य है, शहंशाह द्वारा शरा का कण भर भी उल्लंघन नहीं किया गया। उसने जुन्नारदारों से जजिया बसूल किया। सुलतान का मानना था कि जुन्नारदार कुफ्र की कोठरी की कुंजी हैं, काफिर उनके भक्त होते हैं, सर्वप्रथम उनसे जजिया लिया जाय, किसी भी हालत में माफ़ न किया जाए। इस पर चारों शहर के जुन्नारदार एकत्रित हुए और निवेदन किया कि आज तक ऐसा नहीं हुआ, किसी सुलतान ने हमसे जजिया नहीं बसूला, हम गरीब लोग, कैसे दें ? इससे तो अच्छा है कि हम लोग भी लकड़ी इकट्ठी करें और जलकर मर जाएँ। इसपर सुल्तान ने उन लोगों की ओर क्रोध से देखते हुए कहा कि इन लोगों से कहो कि देर न करें, तुरंत मर जाएँ, इनका जजिया माफ़ नहीं होगा। इस पर उन जुन्नारदारों ने कई दिनों तक अनशन किया, यहाँ तक कि मृत्यु के नजदीक पहुँच गए। अंत में शहर के सारे हिन्दू इकट्ठे हुए और जुन्नारदारों से कहा कि जजिया के कारण आत्महत्या करना उचित नहीं है, आप लोगों का जजिया हम लोग चुकाएंगे।

इससे भी अधिक हैरत अंगेज क्रूर कथा तो अभी बाक़ी है। तैमूर को लेकर सरफद्दीन अली यज़दी की पुस्तक जफ़र नामे का अनुवाद भी उक्त तुगलक कालीन इतिहास नामक पुस्तक में किया गया है। उसमें लिखा गया है कि तैमूर ने सुना था कि हिंदुस्तान में दिल्ली तथा आसपास के इलाके पर हालांकि मुसलमानों का ही कब्जा है, इस्लाम का ही प्रभुत्व है, किन्तु वहां के बादशाह ने जजिया के नाम पर थोड़ी सी रकम लेकर काफिरों को दुराचार और मूर्तिपूजा की अनुमति दे रखी है। अतः उसने काफिर हिन्दू और उन्हें मूर्तिपूजा की अनुमति देने वाले मुसलमान दोनों को ही सजा देने के लिए भारत की ओर कूच किया । पुस्तक में नृशंस हत्याकांडों का विस्तृत और रोंगटे खड़े करने वाला विवरण इस प्रकार वर्णित किया गया है, मानो यह कोई महान कार्य हो। मैं तो केवल कुछ अंश ही साझा करता हूँ। अक्टूबर नवम्बर 1398 में खुरासान के बादशाह अमीर तैमूर ने मुल्तान में अपनी सेना का पड़ाव किया। उसके बाद भटनेर के किले में घिरे हुए दस हजार हिन्दुओं की हत्या करवा दी व किलेदार जुलजी भट्टी को बंदी बना लिया। उसके बाद सामाना, कतियल, असंदी होते हुए तैमूर की सेना पानीपत पहुंची। पूरे इलाके के अग्निपूजक लोग अपने घरों को जलाकर भाग गए। विजयी सेना ने उस प्रदेश में किसी व्यक्ति को नहीं देखा। पानीपत में दस हजार मन गेंहू का ढेर अवश्य मिला, जो सेना में बाँट दिया गया।
तैमूर ने यमुना नदी पारकर दोआब क्षेत्र में प्रवेश कर नमोली या लोनी के किले को घेरा। स्थानीय लोगों ने यथाशक्ति प्रतिकार किया, किन्तु पराजय निश्चित जानकर कोट के अंदर जौहर हुआ। सिंध नदी के तट से इस स्थान तक लगभग एक लाख हिन्दू मूर्तिपूजक बंदी बनाये जा चुके थे। शाही आदेश हुआ कि इन सबकी ह्त्या कर दी जाए। जो कोई आज्ञा पालन में विलम्ब करे, उसे भी मार दिया जाए। इस प्रकार कमसेकम एक लाख अधर्मी हिन्दू जिहाद की तलवार द्वारा मार डाले गए।
तैमूर जमुना नदी पारकर फिरोजाबाद पहुंचा । भयभीत सुल्तान महमूद ने थोड़ा बहुत प्रतिकार किया, किन्तु अंततः गुजरात भाग गया। 27 दिसंबर 1398 को हौजखास के नजदीक की मस्जिद में तैमूर ने नमाज पढ़ी, तो शहर में शाही सेना ने लूटमार शुरू कर दी। बहुत से अधर्मियों ने अपने आपको परिवार सहित जला डाला। 28 - 29 - ३० दिसंबर को भी लूट और कत्ले आम का तांडव जारी रहा। शाही सेना के प्रत्येक व्यक्ति ने डेढ़ सौ से दो सौ स्त्री पुरुष बच्चों को गुलाम बनाया। जवाहरात, हीरे, मोती, सोना चांदी, बेशुमार सबके हाथ लगी। हिन्दुओं के सिरों का बुर्ज आसमान छूने लगा और उनका शरीर पक्षियों का भोजन बना। फिरोजाबाद, बजीराबाद, बागपत होते हुए तैमूर ने 10 जनवरी को मेरठ को भी जीता। यहाँ भी दिल्ली जैसी ही लूट खसोट हत्याएं हुईं। 23 फरवरी तक यही सब करते, लुटेरों का यह गिरोह जम्मू पहुंचा। कड़े संघर्ष के बाद जम्मू का राय घायल अवस्था में पकड़ा गया और बेबश स्थिति में उसने कलमा पढ़कर मुसलमान हो जाना कबूल किया। अंततः 9 मार्च को उक्त पुस्तक में वर्णित साहिबे किरान नामक यह दरिंदा वापस समरकंद की ओर रवाना हुआ।
आप ही बताईये, कि ऐसी पुस्तकें प्रतिबंधित होना चाहिए या किसी विश्वविद्यालय को प्रकाशित कर छात्रों को पढवाना चाहिए। मदरसों में देश के बहुसंख्यक हिन्दुओं के प्रति नफ़रत का जहर मन में भरकर, बड़े हुए बच्चे विश्व विद्यालयों में यह इतिहास पढ़ेंगे तो क्या अन्य धर्मावलम्बी देश वासियों के प्रति अपनापन रखने वाले बनेंगे ? कितने हैरत की बात है कि हमारे मुसलमान बंधू उन मुस्लिम शासकों को आदर्श मानते हैं, जिनके अत्याचारों से पीड़ित होकर उनके पूर्वज मुसलमान बने। जरूरत है उनको बार बार यह याद दिलाने की, कि तुम्हारी रगों में किसी बर्बर अत्याचारी लुटेरे का खून नहीं, शांतिप्रिय और सबके कल्याण की कामना करने वाले सर्वे भवन्तु सुखिनः का मन्त्र जपने वाले हिन्दुओं का ही रक्त है। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी जैसी नफ़रत फैलाने वाली फैक्ट्रियां बंद होना चाहिए।
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