पृथ्वीराज चौहान और आल्हा ऊदल

SHARE:

आखिर आल्ह खंड में महाराज पृथ्वीराज को दुर्योधन का अवतार क्यूँ लिखा गया ? सबसे पहले हम मूल विषय पर ही आते हैं कि आखिर आल्ह खंड के रचयिता कवि ...

आखिर आल्ह खंड में महाराज पृथ्वीराज को दुर्योधन का अवतार क्यूँ लिखा गया ?

सबसे पहले हम मूल विषय पर ही आते हैं कि आखिर आल्ह खंड के रचयिता कवि ने पृथ्वीराज को दुर्योधन का अवतार क्यूँ निरूपित किया | मुझे भरोसा है कि उसे जानकर मित्रों की नाराजगी स्वतः मिट जाएगी | कवि लिखते हैं -
कियो युद्ध कौरव पांडव मिलि, सारथि बने कृष्ण महाराज,
जो कछु इच्छा कृष्णचन्द्र की, सोई तहाँ रचायो साज ||
दुर्योधन आदिक कौरव सब, मारे गए युद्ध मैदान,
भूप युधिष्ठिरादि पांडव तँह, जीते कृपा कीन्हि भगवान |
अहंकार वश भये पांडव तब, बिनती करी कृष्ण ढिंग आय,
रही कामना युद्ध करन की, कलि में पूर्ण करहु सुर राय |
अहंकार जो न करवा दे सो कम है | पांडव विजयी हुए भगवान कृष्ण की कृपा से | किन्तु उन्हें अपने पराक्रम और पौरुष का अभिमान हो गया, उन्हें लगा उन्होंने ही युद्ध जीता है, उनसे अधिक बलवान अब कोई धरा पर नहीं है | इस युग में न सही इस जन्म में न सही, अगले युग और जन्म में हमारी रण पिपासा शांत होना चाहिए | युद्ध की इच्छा पूरी होना चाहिए | भगवान को तो अहंकार का भक्षक कहा गया है, उन्होंने मन में विचार किया -
यह सुनी वाणी भीमादिक की, सोचे मनहिं कृष्ण भगवान,
अहंकार वश भये पांडुसुत, ताते इनहिं देहुँ वरदान |
कौरव हाथ कराय मीचु इन, पुनि करि हेतु देहुँ निज धाम,
यह विचारि कर एवमस्तु प्रभु, हरषित भये सकल तेहि ठाम |
वाह रे लीला बिहारी | समूची सृष्टि जिनकी लीला की रचना है, जो पर्वत को धुल और धुल को पर्वत बना सकते है, उन्हीं आनंद घन परमात्मा ने अपने भक्त पांडवों में उपजे अहंकार के कारण उस जन्म में उन्हें मुक्ति नहीं दी, अगले जन्म में कौरवों के हाथों पराजित होकर जब अहं का नाश हो जाएगा, तब मुक्ति योग्य होंगे, यह विचार किया | और फिर -
मांडलिक नृप भूप युधिष्ठिर, जिनको सुयश प्रगट संसार,
प्रगट भये सोई आल्हा हुई, जिनकी रही अमर तलवार |
भीमसेन प्रगटे ऊदन व्हे, ओ सहदेव वीर मलखान,
अर्जुन प्रगटे ब्रह्मानंद व्है, चारों भये महुबिया ज्वान |
लाखन राणा जो कनवज के, पांडव नकुल क्यार अवतार,
दुर्योधन प्रगटे दिल्ली में, हुई के पृथ्वीराज सरदार |
चोण्डा ब्राह्मण पृथ्वीराज ढिंग, द्रोणाचारज को अवतार,
दुश्शासन प्रगटो धांधू व्है, ताहर कर्ण क्यार अवतार |
नर अभिमन्यु भये इंदल व्है, बेला भई द्रोपदी आय,
बेला अर्थात पृथ्वीराज की पुत्री
नर अभिमन्यु भये इंदल व्है, बेला भई द्रोपदी आय,
एहि विधि प्रगटे कौरव पांडव, सब मिलि कीन्हो युद्ध अघाय ||
तो बंधुओ यह सब कवि की कल्पना ही है, इसे पूर्ण सत्य या ब्रह्म वाक्य नहीं कहा जा सकता, किन्तु यह अवश्य सत्य है कि जन मन में रची बसी है | पृथ्वीराज, जयचंद, राजा परमर्दि देव, आल्हा ऊदल, ये सब ऐतिहासिक सत्य हैं, ये प्रबल पराक्रमी थे, यह भी सत्य है और यह भी ध्रुव सत्य है कि निरर्थक पारस्परिक संघर्ष में यह शक्ति इतनी क्षीण हो गई कि उसका खामियाजा समूचे समाज को शताब्दियों तक भुगतना पड़ा, बर्बर आतताईयों के अत्याचार सहने पड़े |
अब चलते चलते आल्ह खंड के इतिहास पर एक नजर -
सम्बत 1929 अर्थात सन 1872 में फर्रुखाबाद में एक कलेक्टर हुए मिस्टर सी ई इलियट | १८५७ के स्वातंत्र्य समर के बाद अंग्रेज आमजन में अपनी पैठ बढ़ाने की जुगत में लगे हुए थे | ऐसे में ईलियट महोदय ने गांव देहात की चौपालों पर गाये जाने वाले इस लोक काव्य को सुना, तो बहुत प्रभावित हुए और इसका अंग्रेजी अनुवाद करवाकर इंग्लैंड भेजा | है न हैरत की बात कि पुस्तक के रूप में आल्ह खंड पहले अंग्रेजी में छपा | उसके बाद इलियट की प्रेरणा से ही मुंशी रामस्वरूप ने सबसे पहले इसे "असली आल्हा" के नाम से हिंदी में प्रकाशित करवाया | उसके बाद कुछ परिवर्तन परिवर्धन और संशोधन के साथ मुम्बई के एक धनपति खेमराज के पुत्र रंगनाथ ने अपने श्री वेंकट ईश्वर मुद्रणालय में इसे प्रकाशित करवाया | उन दिनों आल्हा गायक के रूप में भोलानाथ बहुत प्रसिद्ध हुए | एक और कमाल की बात कि इसके मूल रचनाकार के रूप में भी चंद भाट का ही नाम लिया जाता है | इसका अर्थ यह भी लगाया जा सकता है कि तत्कालीन लोक कवि अपनी रचनाओं को चंद का छद्म नाम दे दिया करते हों, यह संभव है | बैसे भी हमारे यहाँ पुरातन काल से श्रुति अर्थात जो सुना, तथा स्मृति अर्थात जो सुनकर याद रखा गया, यह परिपाटी रही है | लेखन का कार्य तो बहुत बाद में भगवान वेद व्यास जी के समय से प्रारम्भ हुआ | तब तक तो केवल गुरुकुलों में और ऋषि आश्रमों में सुनकर ही ज्ञान को याद रखने की परंपरा थी | कवियों के साथ भी यही रहा होगा | वंश परम्परा से या शिष्य परंपरा से ये लोक काव्य जन मन रंजन करते रहे हों, तो कोई अचम्भा नहीं | पृथ्वीराज रासो को लेकर जो आपत्तियां दिमाग में आती हैं, उसका भी यही प्रति उत्तर हो सकता है | पृथ्वीराज रासो हों या आल्ह खंड, इन लोक काव्यों में बेशक कल्पना का मिश्रण है, लेकिन इनका आधार सत्य घटनाएं ही हैं | ऐसा मेरा मानना है | अन्य महानुभाव अपने भिन्न मत रख ही सकते हैं | एक मित्र ने पृथ्वीराज को लेकर लिखा था कि वह केवल अजमेर के राजा थे, लेकिन उन्होंने इस तथ्य पर ध्यान नहीं दिया कि फिर अफगानिस्तान में गौरी के मकबरे के बाहर दफ़न दिल्ली का तथाकथित काफिर राजा कौन था ?

पृथ्वीराज रासो में वर्णित पृथ्वीराज चौहान की जन्म तिथि, सच या झूठ ?

हमारे अनेक इतिहासकार महानुभाव भाट कवियों द्वारा लिखित पृथ्वीराज रासो और आल्ह खंड जैसे लोक काव्यों को झूठ का पुलिंदा बताते नहीं अघाते | उनका सबसे बड़ा तर्क होता है कि पृथ्वीराज रासो में वर्णित पृथ्वीराज चौहान की जन्म तिथि ही गलत है | तो फिर शेष बातें क्या ख़ाक सही होंगी | मैं उनके प्रति पूर्ण सम्मान व्यक्त करते हुए भी यह कहे बिना नहीं रह सकता कि इतिहास एक रूखा विषय है, जहाँ केवल सीधी सपाट तारीखें और उनसे जुडी घटनाओं का लेखा जोखा भर होता है। जबकि लोक काव्य में कल्पना और लालित्य का मिश्रण भी होता है। कई इतिहासकार पृथ्वीराज रासो को इस आधार पर नकारते हैं कि उसकी शुरूआत ही गलत है। मैं अत्यंत विनम्रता से कहना चाहता हूँ कि रासो में वर्णित महाराज पृथ्वीराज की जन्म तिथि को गलत बताने वाले महानुभाव न तो ज्योतिष की समझ रखते हैं और ना ही काव्य की |
आईये आज के इस वीडियो में हम थोड़ी ज्योतिष चर्चा और थोड़ी रासो के रचयिता कवि की प्रशंसा या आलोचना कर लेते हैं |
सबसे पहले देखते हैं कि पृथ्वीराज रासो में आखिर लिखा क्या है, जिसके आधार पर कवि को वर्षों से झूठा और अज्ञानी घोषित किया जाता रहा है | रासोकार लिखते हैं -
दरबार बैठि सोमेश राय, लीन्हे हजार ज्योतिषी बुलाय |
कहो जन्मकर्म बालक विनोद, शुभ लगन महूरत सुनत मोद ||
आपको इसका अर्थ तो निश्चय ही समझ में आ ही गया होगा कि महाराज सोमेश्वर ने अनेक ज्योतिषियों को बुलाया और उनसे कहा कि नवजात बालक के कैसे कर्म रहेंगे, वे बताकर हम लोगों अर्थात मातापिता को सुनाईये ताकि हम आनंदित हों |
लेकिन इसके आगे कवि ने कुछ काव्य कुशलता दर्शाते हुए एक पहेली की शक्ल में उनकी जन्म तिथि वर्णित की और उसके आधार पर उन्हें विद्वानों ने सीधे सीधे झूठा ही घोषित कर दिया | आईये विवेचन करते हैं। कवि ने लिखा -
सम्वत एकादश पञ्च अग्ग, बैशाख मास पख कृष्ण लग्ग।
गुरु सिद्ध योग चित्रा नखत, गर नाम कर्ण शिशु परम हित्त।
बस यहीं से विवाद शुरू हो गया। सम्वत 1115 तो सभी ने मान लिया, किन्तु विद्वानों ने कहा कि बैसाख मास के कृष्ण पक्ष में चित्रा नक्षत्र आता ही नहीं है। सही भी है। मैंने भी काफी दिमाग लगाया, मन मानने को तैयार ही नहीं था कि इतने सुन्दर काव्य का रचयिता कवि इतनी बड़ी भूल कर सकता है। किन्तु जब मैंने चित्रा नक्षत्र ढूंढकर उस समय की कुंडली बनाई तो मेरे सामने कवि की कुशलता और प्रतिभा स्पष्ट हो गई। वह कुंडली इस समय आपके सामने है। इसमें चित्रा नक्षत्र के साथ सिद्ध योग भी है, बस अंतर केवल इतना है कि इसमें तिथि पूर्णिमा है। ध्यान दीजिये - क्या कवि सीधे सीधे तिथि नहीं लिख सकते थे ? अगर विद्वानों की धारणा के अनुसार उन्होंने कृष्ण पक्ष और बैसाख मास लिख दिया तो तिथि क्यों नहीं लिखी ?
मेरा मानना है कि उन्होंने स्पष्ट लिखा है कि महाराज पृथ्वीराज का जन्म चैत्र मास की पूर्णिमा को हुआ। अग्ग बैसाख मास पख कृष्ण लग्ग का अर्थ है कि आगे बैसाख मास का कृष्ण पक्ष प्रारम्भ होने वाला है। संभव है विद्वान मेरे इस अभिमत को नकार दें, किन्तु आगे भी देखिये, कवि ने इसी प्रकार छद्म प्रकार से कुछ और बातें भी लिखी हैं, जिन्हें समझने में सर खपाने की जरूरत थी,लेकिन सीधी बात समझने के आदी विद्वानों ने उनकी इस पहेली को समझने की कोशिश ही नहीं की। कवि ने लिखा -
उषा प्रकाश इक घरिय रात, पल तीस अंश त्रय बाल जात।
गुरु बुद्ध शुक्र परि दसहिं थान, अष्टमै थान शनि फल विधान।
पंचदूअ थान परि सोम भोम, ग्यारवें राहु बल करम होम।
बारहें सूर सो करन रंग,अन मो नमाई तृण करै भंग।
विद्वानों ने इसका अर्थ किया कि एक घड़ी बाद रात को जन्म हुआ तो बारहवें स्थान पर सूर्य आ ही नहीं सकता, सब गप्प है। बारहवें स्थान पर सूर्य है तो दसवें स्थान पर बुद्ध शुक्र भी नहीं आ सकते। अब ज्योतिष के विद्यार्थी जरा दिमाग लगाएं कि क्या पहली पंक्ति " उषा प्रकाश इक घरिय रात, पल तीस अंश त्रय बाल जात" का अर्थ यह नहीं हो
सकता कि उषा का प्रकाश उदय होने में एक घटी, तीन अंश और तीस पल शेष हैं। अर्थात सूर्योदय के लगभग ढाई घंटे पूर्व महाराज पृथ्वीराज का जन्म हुआ। उसी आधार पर मैंने कुंडली बनाई तो सब समझ में आ गया और मैं कवि की विद्वत्ता के समक्ष नत हो गया।
कुंडली में ग्यारहवीं अर्थात कुम्भ राशि में राहु हैं, मंगल से पांचवे स्थान पर चंद्र हैं। गुरू दसवें स्थान पर हैं और बुध शुक्र भी गुरू की राशि में हैं। शनि चन्द्रमा से आठवें घर में है।
अब एक अंतिम बात - बारहें सूर का जिन लोगों ने यह अर्थ लगाया है कि बारहवें स्थान पर सूर्य हैं, उस पूरी पंक्ति को ध्यान से पढ़ने पर समझ में आ सकता है कि वहां सूर का अर्थ सूर्य नहीं बल्कि शूर वीरता है। बड़े बड़े शूरवीर भी इनके सामने मुंह में तृण दबाने को विवश होंगे, उनका मान भंग होगा |
कथानक पर आगे बढ़ने के पूर्व इस वीडियो के प्रसारण का कारण यही है कि अगर आल्ह खंड जैसे लोक काव्य की सत्यता और प्रामाणिकता पर भरोसा ही नहीं होगा तो मजा ही क्या आएगा? तो आईये अगले अंक से शुरू करते हैं महाराज पृथ्वीराज और परम प्रतापी आल्हा ऊदल का कथानक। अरे हाँ यह कुंडली किस तारीख की है, यह बताना तो भूल ही गया - वह तारीख है - 17 अप्रैल 1058 |

पृथ्वीराज और आल्हा ऊदल मलखान का प्रथम युद्ध

जैसा कि हम आल्हा ऊदल की कहानी में वर्णित कर चुके हैं, वनाफर दच्छराज और बच्छराज दोनों भाईयों की परवरिश राजा परमार्दि देव उपाख्य राजा परमाल ने की और जब वे युवा हुए तब उनका विवाह भी अपनी सालियों से ही करवा दिया। इसके बाद दच्छराज के लिए महोबा से आधा कोस की दूरी पर दसहर पुरवा नामक ग्राम में एक महल बनवा दिया गया, तो बच्छराज को सिरसा गढ़ सौंप दिया गया। इन्हीं दच्छराज के पुत्र हुए, आल्हा, धांधू और ऊदल, जबकि छोटे भाई बच्छराज के पुत्र हुए महा बलशाली और धीर वीर मलखान और सुलखान । धांधू की परवरिश कैसे पृथ्वीराज के चाचा कन्ह के यहाँ हुई और कैसे वे पृथ्वीराज के अभिन्न सहयोगी बने, इसका वर्णन भी हम पूर्व में कर चुके हैं, जिसे आप पिता की हत्या का बदला शीर्षक वीडियो में देख सकते हैं। उसकी लिंक नीचे डिस्क्रिप्शन में दी गई है। दच्छराज और बच्छराज की कैसे हत्या हुई और कैसे उसका बदला इन भाईयों ने लिया, यह प्रसंग भी उक्त वीडियो में वर्णित है।
बच्छराज जिस सिरसागढ़ के अधिपति बनाये गए थे, वह दिल्ली का सीमावर्ती भाग था। उनकी ह्त्या के बाद उनके अल्पबयस्क पुत्र मलखान चूंकि अपनी मां और चचेरे भाईयों के साथ महोबा में ही राजा परमाल की देखरेख में रहने लगे, तो पृथ्वीराज ने सिरसागढ़ पर कब्जा जमाकरअपने पुत्र पार्थ को सौंप दिया।
मलखान जब युवा हुए तो एक दिन शिकार को जंगल में गए और वहां पहली बार उनकी जानकारी में आया कि उनके पिता के स्वामित्व के सिरसागढ़ पर पृथ्वीराज के पुत्र पार्थ कब्जा जमाये बैठे हैं। हुआ कुछ यूं कि मलखान और पार्थ दोनों ने एक ही हिरण पर नजरें जमाईं। जब पार्थ उस हिरन पर तीर से निशाना साध रहे थे, तभी मलखान ने उसका पहले शिकार कर लिया। अपने शिकार का शिकार कोई दूसरा कर ले यह भला पार्थ को कैसे सहन होता, दोनों की भिड़ंत होना ही थी। उस समय के उन दोनों के संवाद सुनने योग्य हैं -
बोला पारथ नर मलखे से, ओ राजन के राजकुमार,
क्यों शिकार हमरी तुम मारी, क्यूँ कमबख्ती लगी तुम्हार।
इतनी सुन के मलिखे तड़पा,ओ पारथ से कहीं सुनाय,
यह सीमा है गढ़ महुए की, तू है कौन देश का राय।
पटिया नाहीं तेरे बाप की, जो चलि आयो हमरे गांव,
सिंहा विचरत हैं जा वन में, या में गीदड़ का क्या काम ?
इतनी सुन लई जब पारथ ने, बोली गई करेजे पार,
बोला पारथ तब मलखे से, सुनले सच्चा वचन हमार।
यह है सीमा मेरे बाप की, जो हैं शब्दभेदी चौहान,
गढ़ दिल्लीपति पृथ्वीराज हैं, जिनको जानत सकल जहान।
यहाँ का राजा बच्छराज था, जो महुए का राजकुमार,
जा दिन मरगा बच्छराज नृप, सिरसा भया बिना सरदार।
तबहिं राजा पृथ्वीराज ने, यह दिल्ली में लिया मिलाय,
सिरसागढ़ का यह जंगल है, सिरसा तीन कोस रही जाय।
इतनी बात सुनी पारथ की, तब हंस कही वीर मलखान,
भली बताई पारथ ठाकुर,तुम सुन लेहु वीर चौहान।
मैं हूँ बेटा बच्छराज का, औ मलखान हमारो नाम,
भलो आपनो जो तुम चाहो, खाली करो सिरसवा गाँव।
उसके बाद भिड़ंत होनी ही थी, मलखान ने न केवल पार्थ के कसबल निकाल दिए, बल्कि चेतावनी भी दे दी कि सिरसागढ़ उनका है, आठ दिन बाद वे आकर उसका अधिकार ले लेंगे। शिकार से लौटकर समूचा घटनाक्रम उन्होंने अपने भाईयों और राजा परमाल को सुनाया और अपने पिता के सिरसागढ़ को वापस लेने की इच्छा जताई। किन्तु महाराज परमाल राजनीति समझते थे, महाराज पृथ्वीराज की क्षमता और शक्ति को भी जानते थे, अतः उन्होंने इसकी अनुमति नहीं दी। लेकिन मलखान को कहाँ चैन आना था, वह अकेले ही सिरसा को रवाना हो गए। अब उनका अकेले जाना भला किसे स्वीकार होता, और राजा परमाल ने ही आदेश दिया कि सब साथ जाओ। फिर तो उनके पिता के मित्र बनारस के सैयद ताल्हन, उनके सब भाई सेना सजाकर चल पड़े गढ़ सिरसा की ओर।
हाथी चलते चाल लहरुआ, घोड़े सुघर हिरण की चाल,
छमछम छमछम बजे पैंजनी, दमकै अष्टधातु की नल।
लहर लहर लहरें सब बल्लम, झंडन रही लालरी छाय,
फौजें चली जाएँ महुवे की, शोभा वरनि करी ना जाए।
उधर पार्थ ने भी पृथ्वीराज को सन्देश भेज दिया कि आठ दिन बाद महोबा वाले सिरसा पर आक्रमण करेंगे तो दिल्ली की सेनाएं भी मदद के लिए आ पहुँची। घनघोर युद्ध हुआ -

मुरचन मुरचन नचे कबूतरी, कबूतरी मलखान की घोड़ी का नाम था
मुरचन मुरचन नचे कबूतरी, मलिखै कहे पुकारि पुकारि,
खेंचि सिरोही रजपूतन लई, नंगी चलन लई तलवार।
सुआ सुपारी जैसे कतरे, त्यों दल काटि के दियो बिछाय,
बड़े लड़ैया महुबे वारे, जिनसे कछू पेश ना आये।
पारथ बोलै तब योधन से, सुनलो वीर बनाफर राय,
एक एक से होय लड़ाई, अंधाधुंध होयगी नांय।
यह मन भाय गई आल्हा के, भिर गए एक एक से आय,
पारथ मलिखै की बरनी भई, चन्दन उदय सिंह भिड़ जाएँ।
धांधू ढेवा की बरनी है, आल्हा और चोंडिया राय,
एक प्रहर तक भई लड़ाई, शोभा बरनि करी ना जाए।
पारथ हार गया मलिखै से, जीता जंग भंवर मलखान,
चन्दन हारा बघ ऊदन से, आल्हा से चोंडा बलवान।
एक एक की लड़ाई में सभी महुवे के वीर जीत गए, तो मन से पराजित दिल्ली के सेनापतियों ने अपनी सेना को युद्ध का आदेश देकर किसी तरह अपनी हार को टालने की कोशिश की। किन्तु असफल रहे। और फिर -
फाटक तोडा गढ़ सिरसा का, धसगा किला मांहि मलखान,
ऐसे कूदे महुवे वारे, जैसे,लंका में हनुमान।
पारथ भाग गया दिल्ली को, जँह दरवार पिथौरा क्यार,
हमारे सिरसा हमहि दिलावो, तुम सब लायक बाप हमर।
इतनी सुन के पिरथी बोले, कछु दिन धीर धरो मन मांहि,
दांव लगे केहू समया पर, लेवें जीत जंग रण मांहि।
स्पष्ट ही इस पराजय के बाद पृथ्वीराज भी समझ चुके थे कि आल्हा ऊदल मलखान जैसे पराक्रमियों को जीतना इतना आसान नहीं है, अतः उन्होंने अपने बेटे को भी समय का इन्तजार करने की सलाह दी।

पृथ्वीराज के सहयोगी भी बने आल्हा ऊदल

है न हैरत की बात। तीसरे शत्रु के साथ एक युद्ध आल्हा ऊदल और पृथ्वीराज ने साथ साथ मिलकर भी लड़ा था। जैसा कि पूर्व में वर्णन किया जा चुका है कि आल्हा के बाद वनाफर जस्सराज के घर में एक पुत्र धांधू का भी जन्म हुआ था। गण्डान्त मूल नक्षत्र में जन्म के कारण ज्योतिषियों ने कहा कि बच्चा पिता को भारी है, अगर इसका चेहरा पिता देखेंगे तो जीवित नहीं रहेंगे। उस समय की मान्यताओं के अनुसार उस बच्चे को लालन पालन के लिए एक दासी को दे दिया गया और यह व्यवस्था की गई, कि बच्चा कभी पिता के सामने न आने पाए। संयोग से एक मेले के दौरान वह तेजस्वी बच्चा अपनी पालने वाली दासी से बिछुड़कर महाराज पृथ्वीराज के चाचा परम पराक्रमी कन्ह को मिला, और उनके यहाँ ही उसकी परवरिश हुई। महोबा के राजा परमार को यह जानकारी मिल भी गई, किन्तु उन्होंने राहत की ही सांस ली कि अच्छा है, वहां बालक की परवरिश दासी से तो बेहतर ही होगी। और सचमुच धांधू की कन्ह ने पुत्रवत ही परवरिश की। धांधू युवा होकर महाराज पृथ्वीराज के महान सेनानायकों में से एक हो गए।
उधर बुखारे के राजा रणधीर सिंह ने अपनी बेटी केसरी के विवाह हेतु देश विदेश के सभी राजाओं को टीका भिजवाया और उसमें जैसा कि लगता है प्रचलन में था, घूरे पर, द्वार पर और मड़वे के दौरान तीन युद्धों में विजयी होने के बाद विवाह की शर्त रखी। तो इस विचित्र शादी के प्रस्ताव को राजाओं ने अमान्य कर दिया, किसी ने टीका स्वीकार नहीं किया। कौन इतनी दूर बुखारे में सेना लेकर जाए युद्ध करके विवाह करने को।
तो राजकुमार मोती जब निराश भाव से उरई को जा रहे थे, तब रास्ते में उन्हें दिल्ली के योद्धा ताहर मिले, उन्होंने कहा कि हमारे यहाँ दिल्ली में एक प्रबल पराक्रमी योद्धा धांधू हैं, वे सब प्रकार से राजकुमारी के योग्य हैं, किन्तु मोती ने कहा, नहीं भाई नहीं, वे तो वनाफर है, हमारी बराबरी के नहीं हैं, हम उन्हें कैसे विवाह का टीका दे सकते हैं। इस पर नाराज होकर पराक्रमी ताहर ने सहयोगियों सहित मोती को बंधन में ले लिया और दिल्ली जाकर सब बात महाराज पृथ्वीराज को बताई। चामुंड राय की सलाह पर पृथ्वीराज ने धांधू के विवाह की तैयारी शुरू कर दी। जब युद्ध करके, हराकर ही शादी करनी है, तो वधु पक्ष की राजी नाराजी की क्या चिंता करना।
राजकुमार मोतीसिंह ने जब जाकर अपने पिता को सब समाचार बताया तो नाराज होकर बुखारा नरेश ने युद्ध के लिए सेनाएं सजा लीं। आने दो राजा पृथ्वीराज को, हम देखते हैं, कैसे होती है यह शादी ? दिल्ली में सब तेल आदि नेगचार करने के बाद दूल्हा बने धांधू को लेकर बरात या यूं कहें तो सेना रवाना हुई। बारह दिन के सफर के बाद यह दल बुखारा की सीमा पर जा पहुंचा।
छेदा नामक एक सन्देश वाहक को आगे भेजा गया कि वह बरात आगमन की सूचना राजा को दे आये। राजा तो क्रुद्ध बैठे ही थे, उन्होंने सन्देश वाहक को मार डालने का आदेश दे दिया, किन्तु रणबांकुरा छेदा मारकाट करता, वहां से सकुशल वापस लौट गया। उसका पराक्रम देखकर बुखारा नरेश सोच में पड़ गए और उन्होंने चालबाजी से काम लेने का विचार किया। एक सुन्दर दासी को राजकुमारी बनाकर उस बाग़ में भेजा गया, जहाँ धांधू स्नान करने गए हुए थे। दासी से धांधू से भेंटकर बताया कि वही राजकुमारी है, और उन्हें बातों में फंसाकर अपने साथ महलों में ले आई और राजा ने उन्हें एक तहखाने में बंदी बनाकर कैद कर लिया। राजकुमारी केसरी को इससे बड़ा दुःख हुआ और उसने यह समाचार महाराज पृथ्वीराज को पहुंचा दिया। स्वाभाविक ही पृथ्वीराज की सेना युद्ध के लिए सन्नद्ध हुई और उधर से राजकुमार मोतीसिंह भी बचाव के लिए तैयार था। इसके आगे कवि ने जादू टोने का वर्णन किया है कि पृथ्वीराज की सेना पत्थर की हो गई, संभव है छद्म युद्ध में बड़े पैमाने पर उनके ऊपर किसी जहरीली बस्तु का प्रयोग किया हो और वे लोग बड़ी संख्या में मूर्छित हो गए हों, खैर जो भी हो पृथ्वीराज हार मानकर वापस दिल्ली लौट गए।
राजकुमारी केसरी ने निराश होकर महोबा समाचार भेजा और राजा परमाल की पत्नी मल्हना की आज्ञा से आल्हा ऊदल मलखान अपने भाई धांधू को बुखारे की कैद से छुड़वाकर उसकी शादी करवाने रवाना हुए। यह दल पहले दिल्ली पहुंचा और आल्हा ऊदल मलखान अकेले पृथ्वीराज से मिलने पहुंचे। पृथ्वीराज ने ससम्मान इन्हें स्वर्ण सिंहासन पर बैठाया, सत्कार किया। यही तो था हमारा भारत जहाँ शत्रु भी अतिथि रूप में आये तो उसका पूरा मान रखा जाता था। इन लोगों ने अपने आने का कारण बताया, और पृथ्वीराज से भी साथ चलने का आग्रह किया। पृथ्वीराज अनमने दिखाई दिए तो मलखान ने दो टूक लहजे में कहा -
मुख ते नाहीं क्यूँ बोलत हो, तुमन्हि हंसउआ को डर नांय,
संग हमारे जो ना चलिहों, जग में हँसी बड़ी हुई जाये।
बैठे रहियो तुम डेरा में, हमारी देख लेउ तलवार,
इतनी सुनके पिरथी सोचे, अद्भुत शूर महोबिया क्यार।
हुक्म दे दियो पृथ्वीराज ने, लश्कर तुरत भयो तैयार,
तीनि दिना को धावा करके, पहुंचे नगर बुखारा जाय।
उसके बाद ऊदल, मलखान, ढेवा पंडित और गंगू भाट चालबाजी का जबाब चालबाजी से देने भभूत रमाये योगी बनकर नगर में पहुंचे। मलखान खंजरी बजा रहे थे, तो ऊदल बांसुरी की तान छेड़ रहे थे। गंगू भाट के हाथ में इकतारा था, तो ढेबा पंडित डमरू बजा रहे थे। इनकी सुमधुर तान सुनकर राजा ने इन्हें दरवार में बुलाया और पुरष्कार स्वरुप हीरे मोती देना चाहे, किन्तु ऊदल बोले, हम तो योगी हैं, आपकी धन दौलत से हमें क्या लेना देना, हमें तो बस भोजन करा दो। अब भोजन कोई हाथ में तो दिया नहीं जा सकता, योगियों को महल में पहुँचाया गया, जहाँ मौका मिलते ही, राजकुमारी को इन लोगों ने वास्तविक परिचय दे दिया और राजकुमारी की मदद से धांधू को तहखाने से निकाल कर अपने साथ ही लेकर अपने डेरे पर लौट आये। राजा को पता भी नहीं चला कि धांधू उसकी कैद से मुक्त हो चुके हैं।
उसके बाद एक और चालबाजी की गई। राजकुमारी द्वारा दी गई जानकारी का लाभ उठाया गया और उस देवी मंदिर में खुद धांधू मूर्ति बनकर बैठ गए जहाँ प्रतिदिन राजा रणधीर सिंह दर्शन को जाया करते थे। और फिर जब राजा आये तो वहां उन्हें बंदी बना लिया गया। सठे शाठ्यम समाचरेत। राजा की गिरफ्तारी की सूचना मिलने पर राजकुमार मोतीसिंह ने सेना को युद्ध के लिए सन्नद्ध किया। लेकिन अब तो बाजी पलट चुकी थी। इस बार उनका सामना महोबा के रण बांकुरों से था। बुखारा के सैन्य दल की हालत यह हो गई कि -
हाहाकार मच्यो लश्कर में, सिगरे शूर गए घबराय,
कोई रोवे महतारी को, कोई पुरखन को चिल्लाय।
दुई दुई फेंटन के बंधवैया, जे रण दुलहा चले बराय,
झुके सिपाही महुवे वारे, तिनसे कोई बचैया नांय।
वह जादूगरनी एक बार फिर आई, जिसने पृथ्वीराज की सेना को पत्थर का बनाया था, उससे मलखान बोले -
बोले मलिखै वा मालिन से, मालिन सुनो हमारी बात,
पुख्य नक्षत्र माहिं जन्मा हूँ, परवा करूँ काल की नांय।
ढाल की औझड़ मलिखै मारी, मालिन गिरी धरा पर जाय,
जरा काट लियो मालिन को, जादू सब झूठी हुई जाय।
उसके बाद दिल्ली के जिन सैनिकों को पत्थर का बनाया गया था, उन्हें मालिन ने वापस पूर्व रूप दिया। राजा राजकुमार दोनों पराजित हो गए, फिर विवाह में क्या बाधा शेष बची -
सखियाँ मंगल गावन लागीं, केसरी भूषण सजी बनाय,
सजी पालकी तब धांधू की, शोभा कछू कही न जाय।
लेकिन राजकुमार मोती का मन अभी भी साफ़ नहीं था, जो भांवरों के समय सामने आया, जैसे ही भाँवरें शुरू हुईं, उसने धांधू के सर पर तलवार से वार किया, लेकिन ऐसी कई शादियां देख चुके ऊदल ने ढाल पर वह वार रोक लिया। तलवारें एक वार फिर चलना शुरू हुईं, लेकिन भाँवरें भी पड़ती रहीं।
बैठि तमाशा पृथ्वी देखें, मन में कहें वीर चौहान,
बड़े लड़ैया महुवे वारे, सचमुच हैं भारी बलवान।
अंततः शादी संपन्न हुई, राजा ने भरपूर दान दहेज़ के साथ बेटी को विदा किया। बारात वापस पहले दिल्ली पहुंची जहाँ पृथ्वीराज ने कुछ दिन महोवा बालों को रोककर उनका आतिथ्य सत्कार किया। उसके बाद धांधू ने महोबा जाकर अपनी नव परिणीता पत्नी केसरी के साथ महारानी मल्हना का आशीर्वाद लिया। आठ दिन महोबा में रहकर धांधू वापस दिल्ली लौट गए यह कहते हुए -
दया तुम्हारी माता चहिये, हम नालायक पुत्र तुम्हार,
कर्म रेख को मेटे जग में, अब सूबेदार पिथौरा क्यार।

COMMENTS

BLOGGER: 3
Loading...
नाम

अखबारों की कतरन,40,अपराध,3,अशोकनगर,24,आंतरिक सुरक्षा,15,इतिहास,158,उत्तराखंड,4,ओशोवाणी,16,कहानियां,40,काव्य सुधा,64,खाना खजाना,21,खेल,19,गुना,3,ग्वालियर,1,चिकटे जी,25,चिकटे जी काव्य रूपांतर,5,जनसंपर्क विभाग म.प्र.,6,तकनीक,85,दतिया,2,दुनिया रंगविरंगी,32,देश,162,धर्म और अध्यात्म,244,पर्यटन,15,पुस्तक सार,59,प्रेरक प्रसंग,80,फिल्मी दुनिया,10,बीजेपी,38,बुरा न मानो होली है,2,भगत सिंह,5,भारत संस्कृति न्यास,30,भोपाल,26,मध्यप्रदेश,504,मनुस्मृति,14,मनोरंजन,53,महापुरुष जीवन गाथा,130,मेरा भारत महान,308,मेरी राम कहानी,23,राजनीति,89,राजीव जी दीक्षित,18,राष्ट्रनीति,51,लेख,1125,विज्ञापन,4,विडियो,24,विदेश,47,विवेकानंद साहित्य,10,वीडियो,1,वैदिक ज्ञान,70,व्यंग,7,व्यक्ति परिचय,29,व्यापार,1,शिवपुरी,889,शिवपुरी समाचार,309,संघगाथा,57,संस्मरण,37,समाचार,1050,समाचार समीक्षा,762,साक्षात्कार,8,सोशल मीडिया,3,स्वास्थ्य,26,हमारा यूट्यूब चैनल,10,election 2019,24,shivpuri,2,
ltr
item
क्रांतिदूत : पृथ्वीराज चौहान और आल्हा ऊदल
पृथ्वीराज चौहान और आल्हा ऊदल
क्रांतिदूत
https://www.krantidoot.in/2021/08/alha-udal-and-prathviraj-chauhan%20.html
https://www.krantidoot.in/
https://www.krantidoot.in/
https://www.krantidoot.in/2021/08/alha-udal-and-prathviraj-chauhan%20.html
true
8510248389967890617
UTF-8
Loaded All Posts Not found any posts VIEW ALL Readmore Reply Cancel reply Delete By Home PAGES POSTS View All RECOMMENDED FOR YOU LABEL ARCHIVE SEARCH ALL POSTS Not found any post match with your request Back Home Sunday Monday Tuesday Wednesday Thursday Friday Saturday Sun Mon Tue Wed Thu Fri Sat January February March April May June July August September October November December Jan Feb Mar Apr May Jun Jul Aug Sep Oct Nov Dec just now 1 minute ago $$1$$ minutes ago 1 hour ago $$1$$ hours ago Yesterday $$1$$ days ago $$1$$ weeks ago more than 5 weeks ago Followers Follow THIS CONTENT IS PREMIUM Please share to unlock Copy All Code Select All Code All codes were copied to your clipboard Can not copy the codes / texts, please press [CTRL]+[C] (or CMD+C with Mac) to copy