अलौकिक कश्मीर के अनोखे राजा


यह निर्विवाद मान्यता है कि भारत में सर्वाधिक क्रमबद्ध राजनैतिक इतिहास अगर कहीं का मिलता है, तो वह कश्मीर का और उसका श्रेय जाता है संस्कृत के महाकवि कल्हण को। महाभारत काल से लेकर आठवीं शताब्दी के कश्मीर नरेश चंद्रपीड़ और मुक्तापीड़ ललितादित्य तक का रोचक और रोमांचक वृतांत उन्होंने लिखा है। कल्हण के पिता चम्पक तत्कालीन राजा हर्ष के महामात्य थे और चाचा कनक भी राजा के अत्यंत प्रियपात्र और राज्य अधिकारी थे, संभवतः यही कारण है कि कल्हण ने जो लिखा उसे प्रामाणिक माना जाता है। राज तरंगिणी का रचना काल सन 1148 1149 माना जाता है। लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि पाठकों को ऐसा प्रतीत होता है, मानो लेखक आँखों देखा हाल सुना रहा हो, दृश्य सजीव हो उठते हैं। इसके पूर्व कि हम उस कथानक पर आगे बढ़ें कल्हण द्वारा लिखी गई राजतरंगिणी के प्रथम श्लोक में उनके द्वारा की गई भगवान शिव के अर्ध नारीश्वर स्वरुप की स्तुति को श्रवण कीजिये, जो उनकी विद्वत्ता का स्पष्ट परिचायक है -
भालं बन्हि शिखांकितम
दध दधि श्रोत्रम वहन सम्भृत,
क्रीडत कुण्डलि जृम्भितं
जलधिजच्छाया च्छ कंठ च्छवि।
वक्षो विभ्रद हीन कंचुक चितं,
बद्धांग नार्द्धस्य वो,
भागः पुंगव लक्ष्मणो स्तु यशसे,
बामोथवा दक्षिणः।।
जिनका बामांग नारी का है, जिनका ललाट केशर तिलक से सुशोभित है, जिनके कानों में दोलायमान कुण्डल क्रीड़ा करते हैं, जिनका कंठ शंख के समान उज्वल है।
जिनका दक्षिण भाग नर का है, जिनके भाल पर वन्हि अर्थात अग्नि शिखा विराजमान है, जिनके कानों के निकट खेलते सर्प बार बार मुंह खोलते रहते हैं, जिनके कंठ की छवि विषपान करने के बाद भी मलिन न होकर कान्तियुक्त नीलाभ है, जिनका वक्ष स्थल नाग कवच से वेष्ठित है,
उन अर्धनारीश्वर वृषभध्वज शिव का दक्षिणांग हो या वामांग, हमारा कल्याण करें।
आइये कश्मीर के इतिहास पर आगे बढ़ने से पूर्व हम पूर्व के कश्मीर की भौगौलिक रचना को देखें। आज हम जिसे झेलम नदी के नाम से जानते हैं, पुराणों में उसे वितस्ता नाम से माता पार्वती का स्वरुप माना गया है। कवि के अनुसार सतीसर नामक महासरोवर से उत्पन्न कश्मीर का हर भूभाग पवित्र तीर्थ है। आज के अफगानिस्तान का भी एक भाग कपिश के नाम से कश्मीर का ही एक प्रांत था। इस कपीश के पूर्व दिशा में स्थित बाजौर से यूसुफजई तक का भाग गांधार देश कहलाता था। महाभारत कालीन महाराज धृतराष्ट्र की पत्नी गांधारी व उनके भाई कुटिल शकुनि गांधार राजकुल के ही थे।

श्री कृष्ण द्वारा एक महिला का राज्याभिषेक 

राज तरंगिणी में राजवंशों का उल्लेख गोनंद नामक राजा से प्रारम्भ किया है, जो मगध नरेश जरासंध का मित्र था और उसी मित्रता के चलते उसने भी श्री कृष्ण बलराम से युद्ध किया। जब जरासंध ने मथुरा पर आक्रमण किया, तब उसने गोनंद को भी अपने सहयोग के लिए आमंत्रित किया। मित्र के आमंत्रण पर जिस समय गोनंद यमुना किनारे पहुंचा उस समय तक जरासंध की सेनाएं वहां नहीं आई थीं, किन्तु अति आत्मविश्वास में गोनंद ने अकेले ही मथुरा पर चढ़ाई कर दी और युद्ध क्षेत्र में यादव सेना का विध्वंश प्रारम्भ कर दिया। अपनी सेना को संकट में देखकर श्री कृष्ण के बड़े भाई बलराम जी आगे बढे और गोनंद के साथ भिड़ गए। दोनों ही प्रबल पराक्रमी और अतुलित बलशाली थे, अतः लम्बे समय तक संघर्ष जारी रहा। कवि ने रूपक के रूप में इसका वर्णन कुछ यूं किया है कि विजय श्री को अपने हाथ में माला लिए इतनी देर तक इंतज़ार करना पड़ा कि माला के फूल ही कुम्हलाने लगे। अंततः बलराम जी के हाथों बुरी तरह घायल होकर गोनंद ने वीरगति पाई।
गोनंद के बाद उसके पुत्र दामोदर ने कश्मीर का राजपाट संभाला। लेकिन उसके मन से पिता की मौत का बदला लेने की इच्छा समाप्त नहीं हुई। इसीलिए जब उसे ज्ञात हुआ कि गांधार देश की राजकुमारी के स्वयम्बर में भाग लेने हेतु यादव भी आये हैं, तो उसने सेना सजाई और स्वयम्बर स्थल पर जाकर युद्ध का शंख फूंक दिया। विवाह समारोह में अबीर गुलाल के स्थान पर घोड़ों की टापों से उड़ने वाली धुल से वातावरण आच्छादित हो गया। राजकुमारी का स्वयंबर तो एक ओर रह गया, मंगल वाद्यों के स्थान पर घायलों की चीत्कार और शस्त्रास्त्रों की खनखनाहट गूंजने लगी। लेकिन भला भगवान श्रीकृष्ण द्वारा रक्षित यादवों का दामोदर भला क्या बिगाड़ सकता था, वह स्वयं भी सुदर्शन चक्र के प्रहार से आहत होकर वीरगति को प्राप्त हुआ। कश्मीर नरेश दामोदर मृत्यु के समय निसंतान था, अतः श्री कृष्ण ने उसकी गर्भवती पत्नी यशोमती देवी का ही राज्याभिषेक करवा कर उसे कश्मीर की प्रथम महिला रानी होने का गौरव प्रदान किया। राज्य के मंत्रियों में इसके कारण असंतोष था, किन्तु श्रीकृष्ण ने उन्हें समझाया कि कश्मीर तो स्वयं माता पार्वती का ही स्वरुप है, अतः महिला का सिंहासन पर बैठना सर्वथा उचित है। जब तक गर्भ के शिशु का जन्म नहीं होता, तब तक ये ही राजकाज संभालें उसके बाद शिशु राजा बने।
अब श्रीकृष्ण की व्यवस्था से भला कौन असहमत होने का दुस्साहस करता। भगवान श्रीकृष्ण ने जिस भूमि पर महिलाओं को सम्मान दिलाया, इसे दुर्भाग्य नहीं तो क्या कहा जाएगा, कि उसी भूमि पर महिलाओं को पाशविक अत्याचार झेलने को विवश होना पड़ा और निराश्रित होकर कश्मीर से निर्वासित भी होना पड़ा।

श्रीनगर निर्माण गाथा 

खैर जन्म के बाद वह बालक गोनंद द्वितीय के नाम से प्रसिद्ध हुआ। महाभारत युद्ध के समय बालक होने के कारण ना तो कौरवों ने उसे निमंत्रित किया और ना ही पांडवों ने। अतः कश्मीर महाभारत के युद्ध में शामिल नहीं हुआ। इस बालक राजा के बाद के पेंतीस राजाओं का कोई इतिहास उपलब्ध नहीं है, उनके बाद एक प्रतापी राजवंश में लव, कुशेशय, खगेन्द्र और सुरेंद्र राजा हुए, किन्तु सुरेंद्र निसंतान स्वर्गवासी हुए तो दूसरा राजवंश प्रारम्भ हुआ, जिसमें गोधर, सुवर्ण, जनक, शनीचर, राजा हुए। शनिचर भी निसंतान रहे तो उनके बाद गांधार के शकुनि के वंश में उत्पन्न अशोक कश्मीर के शासक बने। अशोक ने जैनमत अंगीकार किया और कश्मीर में अनेक जैन मंदिरों का निर्माण करवाया। इतना ही नहीं तो इन्हीं अशोक ने छियानवे लाख भवनों से सज्जित श्रीनगर का निर्माण भी करवाया।

एक जैन राजा का शैव्य पुत्र जिसने बनवाये बौद्ध मठ

हैडिंग पढ़कर आपको हैरत हो रही होगी, किन्तु सचाई यही है। पूर्व के वीडियो में श्रीनगर निर्माता जिन अशोक का वर्णन है, जो स्वयं तो जैन थे, किन्तु भगवान शिव में भी उनकी अगाध आस्था थी। उन्होंने जैन होते हुए भी, श्री विजयेश्वर शिव मंदिर का जीर्णीद्धार करवाया, साथ ही उसके ही नजदीक एक नवीन अशोकेश्वर नामसे मंदिर निर्माण करवाया। उनके पुत्र जलोक तो जितने पराक्रमी और सुयोग्य राजा थे, उतने ही परम शिवभक्त भी। एक महात्मा के आशीर्वाद से उन्हें कोटिवेधी रस की प्राप्ति हो गई, साथ ही उसके माध्यम से पारे से स्वर्ण बनाने की विधि भी उन्हें ज्ञात हो गई। अतः उनके समय में कश्मीर के वैभव में मानो चार चाँद लग गए। जलोक के समय में कश्मीर पर म्लेच्छों के आक्रमण शुरू हो गए, किन्तु पराक्रमी जलोक ने न केवल उन्हें खदेड़ा, वरन कन्नौज आदि प्रदेशों को जीतकर वहां के विद्वानों को लाकर कश्मीर में बसाया और उनकी मदद से राजयतंत्र में सुधार किया। उसकी पटरानी ईशान देवी ने कश्मीर में मातृ चक्रों की स्थापना की।
किन्तु उनके गुरू के प्रभाव से बौद्धों को क्षति होने लगी। रुष्ट होकर बौद्ध सन्यासियों ने एक कूट युक्ति रची। एक दिन जब राजा दर्शनों के लिए विजयेश्वर मंदिर जा रहा था, एक कृत्या भिक्षुणी के वेश में उनके सामने आई और अपनी क्षुधा शांत करने की प्रार्थना की। जब राजा ने उसे इच्छानुसार भोजन कराने की प्रतिज्ञा कर ली, तब उसने नरमांस खाने की इच्छा प्रगट की। एक जैन पिता की संतान राजा जलोक ने तुरंत निर्णय लिया और स्वयं को ही उसके आहार के रूप में प्रस्तुत कर दिया। यह पौराणिक काल के महाराज शिवि जैसा ही प्रसंग प्रतीत होता है, जहाँ राजा शिवि ने एक कबूतर की प्राणरक्षा के लिए बाज को स्वयं का मांस खिलाया था। जलोक की अहिंसा और भूत दया से प्रभावित होकर उस कृत्या ने उन्हें बताया किजिन बौद्धों को उनके राज्य में कष्ट हो रहा है, उन्होंने ही उसे भेजा था ताकि राजा धर्मच्युत हो जाएँ।
जैसे राजा की दया और अहिंसा ने कृत्या को प्रभावित किया था, उसी प्रकार इस रहस्योद्घाटन से राजा भी विचलित हुए और उसके बाद जुलोक ने उसी स्थान पर कृत्याश्रम नामक एक बौद्ध विहार बनवाया। अंत समय में इस धर्माचारी राजा ने चीरमोचन तीर्थ में जाकर समाधिस्थ होकर अपनी देह विसर्जित की। यह गाथा उस समय की है, जब पृकृति परमेश्वरी की क्रीड़ाभूमि कश्मीर धनधान्य और वैभव से परिपूर्ण था। राजतरंगिणी में अनेक राजाओं के कथानक हैं, जिनमें से कुछ तो अत्यंत पुण्यात्मा और प्रजा बत्सल थे, तो कुछ दुष्ट राजाओं के भी कथानक हैं। लेकिन जो दुष्ट थे, उनका अंत भी बैसा ही हुआ। ऐसे ही एक राजा मिहिरकुल का वर्णन कवि ने किया है। उस कठोर ह्रदय वाले राजा ने यद्यपि उत्तर की दिशा से हुए म्लेच्छों के आक्रमणों को विफल किया, किन्तु क्रूरता में उससे बढ़कर कोई राजा नहीं हुआ। उसके ह्रदय में न बच्चों के लिए दया थी, न बुजुर्गों के लिए सम्मान। उसकी क्रूरता का एक उदाहरण देखिये। एक युद्ध में विजयी होकर जब वह वापस लौट रहा था, तब उसकी सेना का एक हाथी फिसलकर घाटी में जा गिरा। गिरते समय हाथी ने जो आर्तनाद किया, वह मिहिरकुल को अत्यंत ही रोमांचित हो उठा। उसे परम आनंद की अनुभूति हुई। उसके बाद उसके आदेश पर एक एक कर सौ हाथियों को घाटी में गिरवाया गया। ऐसे दुष्टों को विक्षिप्त ही कहा जाएगा। इनके दुष्ट कार्यों के कथन से वाणी भी लज्जित होती है। यद्यपि सत्तर वर्ष राज्य करने के बाद उसने अंता समय में अपने पापों और हिंसक कृत्यों का प्रायश्चित करते हुए स्वयं को तप्त लौहखंड पर लिटाकर अपनी जीवन लीला समाप्त की। कश्मीर में अनेक लोग मिल जाएंगे जो मिहिरकुल की दानशीलता के कारण उसकी महानता का बखान करते हैं। उनकी मान्यता है कि मिहिरकुल की क्रूरता शत्रुओं से प्रतिशोध लेने के लिए विकसित हुई थी। जो भी हो मिहिरकुल का वृतांत यही दर्शाता है कि इंसान भलाई और बुराई का पुतला है। एक ही व्यक्ति कभी अच्छा तो कभी बुरा हो सकता है, साथ ही एक के लिए बुरा व्यक्ति किसी दूसरे के लिए अच्छा तो किसी के लिए अच्छा व्यक्ति किसी अन्य के लिए बुरा हो सकता है। संभवतः इसीलिए हमारे यहाँ कहा गया है, व्यक्ति से नहीं, बुराई से नफ़रत करो।
आईये अब एक रोचक कथानक का शुभारम्भ करते हैं। मुझे भी पढ़कर हैरत हुई थी। एक कवि को भी उज्जयिनी नरेश शकारि विक्रमादित्य द्वारा कश्मीर नरेश बनाया गया। इतना ही नहीं तो वे अत्याधिक लोकप्रिय शासक भी सिद्ध हुए। आईये उस कथानक को स्मरण करते हैं। कश्मीर के प्रजाबत्सल राजा श्रेष्ठसेन की मृत्यु के बाद उनके दो पुत्रों हिरण्य और तोरमाण ने मिलकर राज्य की व्यवस्था संभालना प्रारम्भ किया। किसी बात पर रुष्ट होकर बड़े भाई हिरण्य ने छोटे भाई तोरमाण को बंदी गृह में डाल दिया। उस समय तोरमाण की पत्नी अंजना देवी गर्भवती थीं। अपने गर्भ में पल रहे बच्चे की सुरक्षा की खातिर वे गुप्त रूप से एक सज्जन कुम्भकार के यहां जाकर रहने लगीं। विधि का विधान भी विचित्र ही है। इच्छ्वाकुवंशीय राजा बृजेन्द्र की पुत्री अंजना देवी को भी इस प्रकार अनाथावस्था का दुःख झेलना पड़ा। समय आने पर उन्होंने एक तेजस्वी पुत्र को जन्म दिया। नाम रखा गया प्रवरसेन। बालक कौन है, इस रहस्य को कुम्भकार परिवार और अंजना देवी ने छुपाकर ही रखा। जिस प्रकार सिंह के बच्चे को अन्य वन्य प्राणी सम्मान की दृष्टि से देखते हैं, उसी प्रकार निर्धन और दरिद्र परिवार के बच्चों ने भी उस तेजस्वी बालक को अपना सहज नायक बना लिया।
एक दिन जब वह बालक अपने हमउम्र बच्चों के साथ खेल रहा था, उसके मामा जयेन्द्र की नजर उस पर पड़ी। उसकी मुखाकृति अपने बहनोई के समान देखकर उसे हैरत हुई और उसने बालक का पीछा किया और कुम्भकार के घर तक जा पहुंचा। वहां अपनी बहिन दुरावस्था को देखकर उसे अपार मानसिक वेदना हुई। उसी समय बालक को भी अपनी वास्तविकता का ज्ञान हुआ। तो उसका मन भी अपने पिता का बदला लेने को मचल उठा। किन्तु मां और मामा ने समझाया कि अभी तुम बच्चे हो, समय का इन्तजार करो, थोड़ा बड़े हो जाने पर ही प्रयास करना उचित होगा। लेकिन कुछ ही समय बाद हिरण्य ने तोरमाण को मुक्त कर दिया, किन्तु शीघ्र ही उनकी मृत्यु हो गई। पति की मृत्यु का समाचार पाकर उनकी पत्नी अर्थात प्रवरसेन की मां ने भी अपनी देह विसर्जन करने की ठानी। प्रवरसेन ने किसी प्रकार मां को समझाबुझाकर रोका और उन्हें लेकर तीर्थाटन को निकल गया।
विधि का विधान देखिये कि इसी दौरान राजा हिरण्य भी निसंतान स्वर्गवासी हो गए। अब मंत्री परिषद के सामने समस्या यह थी कि नया राजा किसे बनाया जाए। राजवंश का कोई व्यक्ति उनके सामने नहीं था। प्रवरसेन के विषय में तो उन्हें कोई जानकारी थी ही नहीं। ऐसी स्थिति में मंत्री परिषद ने उज्जयिनी नरेश महाराज विक्रमादित्य को सन्देश भेजा कि वे किसी सुयोग्य व्यक्ति को कश्मीर का राज्य सोंपें।

एक कवि जिसे सम्राट विक्रमादित्य ने बनाया कश्मीर नरेश

जिस समय राजा विहीन कश्मीर की मंत्रिपरिषद ने सम्राट विक्रमादित्य से राज्य की व्यवस्था संभालने का आग्रह करने का निर्णय लिया, ठीक उसी समय उज्जयिनी में भी एक नवीन कहानी जन्म ले रही थी। मातृगुप्त नामक एक कवि ने देश के अनेक राज दरबारों में अपनी प्रतिभा और योग्यता से सम्मान प्राप्त करने के बाद तय किया कि सम्राट विक्रमादित्य की राजसभा में भी अपना भाग्य आजमाया जाए। वह अत्यंत आशा और विश्वास के साथ उज्जयिनी आया और सम्राट विक्रमादित्य की सभा में अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया। किन्तु राजा ने जानबूझकर मातृगुप्त की परीक्षा लेने के लिए उनके प्रति उदासीनता प्रदर्शित की। इधर महाराज विक्रमादित्य के गुणों से अत्याधिक प्रभावित मातृगुप्त ने भी ठान लिया था कि उसे तो अब आजीवन केवल उनकी ही सेवा में रहना है। वह बिना निराश या क्षुब्ध हुए लगातार एक वर्ष तक राजा की सेवा में जुटा रहा। अंततः एक रात्रि को मातृगुप्त का भाग्योदय हो ही गया। शीतकाल की अर्ध रात्रि में विक्रमादित्य की अकस्मात नींद खुली, तो उन्होंने पाया की उनके शयन कक्ष का दीपक बुझा हुआ है, अतः उन्होंने दीपक प्रज्वलित करने हेतु प्रहरी को पुकारा। कोई है ? किन्तु दैवयोग से सभी प्रहरी निद्रा मग्न थे, कोई उनकी आवाज से जागा नहीं। संयोग से कक्ष के बाहर बगीचे में उदास बैठे मातृगुप्त को लगा कि उससे ही पूछा गया है, अतः उसके मुंह से निकला। महाराज मैं मातृगुप्त।
राजा ने कहा अंदर आओ, तो वह कक्ष में प्रविष्ट हुआ और राजा के आदेशानुसार दीप प्रज्वलित करने के बाद जैसे ही वह बाहर जाने को उद्यत हुआ, राजा ने गंभीर स्वर में कहा - थोड़ा रुको। डर के मारे मातृगुप्त की मानो जान ही निकलने को हुई। उसे लगा राजा पूछेंगे कि इतनी रात को यहाँ क्या कर रहे हो। मैं उज्जयिनी का मूल निवासी नहीं हूँ, कहीं राजा मुझे किसी शत्रु राजा का गुप्तचर न समझ लें। उसकी ऊपर की सांस ऊपर और नीचे की निचे रह गई। डरते डरते वह राजा के सम्मुख खड़ा रह गया।
राजा ने शांति से पूछा - रात्रि कितनी शेष है। मातृगुप्त ने उत्तर दिया यामिनी का डेढ़ प्रहार शेष है। राजा ने अच्चम्भित होकर पूछा, तुम्हें कैसे मालूम हुआ, क्या रात भर से जाग ही रहे हो ? बंधुओ उन दिनों आज की तरह घड़ी नहीं हुआ करती थीं, अतः विक्रमादित्य का प्रश्न स्वाभाविक था।
इस प्रश्न के उत्तर में मातृगुप्त ने जो कहा उससे उसका भाग्य भी बदल गया। मातृगुप्त ने इस प्रश्न का उत्तर एक कविता के रूप में कुछ इस प्रकार दिया -

शीतनो धृ शितस्य मापशिमिव चिन्तार्णवे मज्जितः।
शान्ताग्निं स्फुटिता धरस्य धमतः क्षुत क्षाम कण्ठस्य में।
निद्रा क्वाप्य वमानितेव दयिता, सन्त्यज्य दूरं गता।
सत्पात्र प्रतिपादितेव वसुधा न क्षीयते शर्वरी। .

अर्थात सर्दी से ठिठुरते हुए, चिंता सागर में डूबते उतराते हुए मेरे होठ फूंक फूंक कर आग जलाते हुए फट गए हैं। भूख और प्यास से बोलने की शक्ति भी शेष नहीं रही है। ऐसे में नींद भी किसी अपमानित स्त्री के समान त्यागकर दूर जाने को ही ठहरी।और रात्रि किसी सत्पात्र को प्राप्त भूमि के समान समाप्त होने का नाम ही नहीं ले रही।
राजा को मन ही मन अत्यंत ग्लानि हुई। इतना गुणवान व्यक्ति मेरे आश्रित होते हुए भी इतना दुखी है। तभी उन्हें स्मरण आया कि कश्मीर की मंत्रिपरिषद ने राज्य के लिए किसी शासक की मांग की है। बस उन्होंने निर्णय ले लिया कि किसी राजा या जमींदार के स्थान पर इस गुणवान और सरस्वती पुत्र को ही मां पार्वती की भूमि कश्मीर का अधिपति बनाना चाहिए। किन्तु इसके बाद भी प्रगट में उन्होंने मातृगुप्त से कुछ नहीं कहा। दूसरे दिन राज दरवार में राजा ने मातृगुप्त को एक पत्र देकर आदेश दिया कि इसे ले जाकर कश्मीर के अधिकारीयों को सौंप दें। हाँ मार्ग में इस पत्र को पढ़ने का प्रयास न करना।
मातृगुप्त बेहद निराश हो गए। उन्हें लगा कि उनकी काव्य प्रतिभा का यह निरादर और अपमान है। एक विद्वान् व्यक्ति से एक हरकारे का काम लिया जा रहा है। उन्हें यह भी लगा कि अकारण ही विक्रमादित्य की इतनी ख्याति है कि वे गुणों के पारखी हैं और उनके राज्य में गुणवान सम्मान पाते हैं। दरवारियों को भी सम्राट का कार्य अनुचित प्रतीत हुआ कि किसी सामान्य जन द्वारा कराये जाने वाला कार्य एक गुणवान और विद्वान व्यक्ति से कराया जा रहा है।
उस समय की मातृगुप्त की मनोदशा का बहुत सुन्दर रूपकीय वर्णन कल्हण ने राज तरंगिणी में किया है। मातृगुप्त कश्मीर की ओर जाते हुए सोच रहे थे कि गरुड़ के भय से शेष नाग ने भगवान विष्णु की शरण ली, तो उन्होंने न केवल उन्हें अपनी शैय्या ही बना लिया, वरन पृथ्वी का भार भी सदा सदा के लिए उनके सर पर लाद दिया।
शायद मेरा भाग्य ही खराब है, यही सब सोचते विचारते वे देवदार के वृक्षों से सुशोभित, शूरपुर पहुंचे, जिसे आज सोपुर के नाम से जाना जाता है। कश्मीर के महामात्य उन दिनों वहां ही थे। जैसे ही मंत्रियों को सूचना मिली कि सम्राट विक्रमादित्य के दूत महाराज का सन्देश लेकर आये हैं, उन्हें अविलम्ब सत्कार पूर्वक सभाकक्ष में सर्वोच्च आसन प्रदान किया गया। वह पत्र एकांत में मंत्रियों ने पढ़ा और उसके बाद मातृगुप्त के समीप आकर आदर से पूछा श्रीमान मातृगुप्त आप ही हैं क्या ? जैसे ही उन्होंने हाँ कहा, सभा गृह उनके जयजयकार से गूंजने लगा। एक स्वर्ण सिंहासन पर बैठाकर उनका राज्याभिषेक कराया गया। क्योंकि पत्र में लिखा था कि पत्रवाहक मातृगुप्त को मेरे समान ही समझा जाए।
विक्रमादित्य की कृपा का स्मरण करते मातृगुप्त के नेत्र सजल हो गए। वह स्वयं कष्टभोगी थे, अतः राज्य प्राप्ति के बाद दीन दुखियों की सेवा में ही रम गए। उनका यश चारों ओर फ़ैलने लगा।लोगों ने अब तक राज्य करने वाले राजा ही देखे थे, जनसेवा को ही अपना जीवनोद्देश्य समझने वाला राजा पहली बार देखा था। केवल कल्हण ने ही नहीं, सम्राट समुद्रगुप्त ने भी मातृगुप्त का उल्लेख किया है -

मातृगुप्तो जयति यः, कविराजो न केवलम।
कश्मीर राज्यो प्य भवत, सरस्वती प्रसादतः।।

अर्थात मातृगुप्त की जय हो, जो केवल कवि ही नहीं थे अपितु जिन्होंने मां सरस्वती की कृपा से कश्मीर का राज्य भी प्राप्त किया था।
इसी प्रकार पांच वर्ष बीत गए। तब तक राज्य के वास्तविक अधिकारी प्रवरसेन अपनी मां को तीर्थाटन कराकर वापस आये। जब उसे ज्ञात हुआ कि सम्राट विक्रमादित्य ने एक कवि को कश्मीर का अधपति नियुक्त कर दिया है, तो उसका मन क्रोध से भर गया। उसने राज्य पुनः प्राप्त करने के लिए शक्ति संचय प्रारम्भ कर दी। कवि के अनुसार प्रवरसेन ने भगवान शिव से भी वरदान प्राप्त किया।
अलौकिक कश्मीर के राजवंशों की अनोखी कहानियां भाग 4 - कौन अधिक महान - विक्रमादित्य, कवि मातृगुप्त, प्रवरसेन
भगवान शिव का आशीर्वाद पाने के बाद प्रवरसेन को सैन्य शक्ति प्राप्त करने में भी अधिक कठिनाई नहीं हुई। राजवंश के पुराने वफादार सैनिक और सरदार उनसे आ मिले। लेकिन प्रवरसेन को जब साधु स्वभाव के वर्तमान कश्मीर नरेश कवि मातृगुप्त के विषय में जानकारी मिली कि वह किस प्रकार आमजन को सुखी बनाने व उनके कष्टों को दूर करने के लिए निरंतर कार्य कर रहे हैं, तो प्रवरसेन को यह उचित नहीं लगा कि वह उस पर आक्रमण करे। प्रवरसेन का क्रोध मातृगुप्त को राजा बनाने वाले सम्राट विक्रमादित्य पर केंद्रित हो गया। मालवा नरेश को क्या अधिकार था, मेरे राज्य को इस प्रकार किसी और को देने का ? प्रवरसेन पराक्रमी थे, अतः अतः प्रवरसेन ने उज्जयिनी पर आक्रमण करने का तय किया। विक्रमादित्य ने मेरा राज्य किसी और को दिया है, तो मैं भी उनका राज्य छीन लूंगा, ऐसा प्रवरसेन ने विचार किया।
लेकिन विधाता को यह भी स्वीकार नहीं था। प्रवरसेन जब उज्जयनी के मार्ग में ही थे, तभी उन्हें सम्राट विक्रमादित्य के स्वर्गवास का समाचार प्राप्त हुआ। जिन पर क्रोध था, वह अब संसार में ही नहीं हैं, तो अब युद्ध का क्या औचित्य। यह सोचकर प्रवरसेन किंकर्तव्य विमूढ़ होकर वापस लौटे। वे जब कश्मीर की सीमा के नजदीक ही पहुंचे तभी उनके गुप्तचरों ने सूचना दी कि कश्मीर नरेश कवि मातृगुप्त राज्य छोड़कर सन्यासी वेश में तीर्थाटन को जा रहे हैं और वे अभी नजदीक ही ठहरे हुए हैं। प्रवरसेन को लगा कि संभवतः उनके किसी हितचिंतक ने मातृगुप्त जैसे सज्जन और साधु स्वभाव के व्यक्ति को राज्य च्युत कर दिया है। अत्यंत मानसिक कष्ट में वह अकेले मातृगुप्त से मिलने वहां पहुंचे जहाँ वे ठहरे हुए थे। मातृगुप्त और प्रवरसेन का संवाद भारतीय संस्कृति के उस मूल तत्व को प्रदर्शित करता है, जिसके कारण वह विश्व की सर्वश्रेष्ठ धरोहर है।
प्रवरसेन ने विनम्रता से प्रणाम कर मातृगुप्त से राज्य त्याग का कारण पूछा। कुछ क्षण मौन रहकर गहरी सांस लेते हुए मातृगुप्त धीर गंभीर स्वर में बोले - जिनके कारण मैं राजा बना, वे पुण्यात्मा ही अब पृथ्वी पर नहीं हैं। मणि भी सूर्य के प्रकाश में चमकती है, अंधकार में तो उसमें और पत्थर में कोई अंतर नहीं है।
प्रवरसेन ने शंका जाहिर की कि कहीं आपको किसी ने बलपूर्वक राज्य त्याग को विवश तो नहीं किया है। यह सुनते ही मातृगुप्त ने तनिक आवेश में किन्तु मुस्कुराकर उत्तर दिया। इस पृथ्वी पर कोई मुझे बलपूर्वक विवश नहीं कर सकता। सम्राट विक्रमादित्य ने राख में घी डालकर हवन नहीं किया है। मैं सम्राट विक्रमादित्य के स्वर्ग गमन के पश्चात स्वेच्छा से सर्वस्व त्याग कर काशी में ब्राह्मणोचित जीवन जीना चाहता हूँ। उस मणिदीप के पश्चात मुझे भोग विलास तो दूर की बात है, पृथ्वी पर कुछ देखना भी अच्छा नहीं लग रहा।
विस्मित प्रवरसेन ने कहा - हे विप्रवर निश्चय ही यह वसुंधरा रत्न प्रसूता है, जिसने आप जैसे कृतज्ञ और धार्मिक व्यक्ति को जन्म दिया। आपकी योग्यता को पहचानने वाले सम्राट विक्रमादित्य भी धन्य हैं। मेरी प्रार्थना है कि आप राज्य त्याग न करें। अब इस भूमि को आप मेरे द्वारा दी गई मानकर यहाँ शासन करें।
उनकी बात सुनकर मातृगुप्त हँसे और बोले - मैं कठोर बात नहीं कहना चाहता, किन्तु कहे बिना कोई उपाय भी नहीं है। मैं आपका भूतकाल जानता हूँ और आप मेरा जानते हैं। किन्तु इस समय मेंरे मन की बात आप नहीं जानते और आपकी मनोदशा मैं नहीं जनता। एक साधारण व्यक्ति से मुझे सम्राट विक्रमादित्य ने राजा बनाया, एक राजा किसी से दान लेता नहीं देता है। अतः आपका दान स्वीकार करना, महाराज विक्रमादित्य के महत्व को कम करना है। उन्होंने जो उपकार मुझ पर किया, उसका प्रति उत्तर यही हो सकता है कि उनके दिवंगत हो जाने के बाद, मैं भी सभी प्रकार के भोग विलास का त्याग कर दूँ।
मातृगुप्त की इस विरक्ति को देखकर निश्वास छोड़ते हुए प्रवरसेन ने कहा - कश्मीर की सारी सम्पदा आपकी है, आपके जीवनकाल में इसे मैं स्पर्श भी नहीं करूंगा।
इसका कोई प्रतिउत्तर न देते हुए मातृगुप्त काशी को रवाना हो गए। विवश प्रवरसेन ने राज्य व्यवस्था तो संभाली, किन्तु उस दृढ निश्चयी राजा ने राज्य से होने वाला समस्त लाभ मातृगुप्त को भेजना शुरू कर दिया। एक सन्यासी जीवन जीते हुए मातृगुप्त ने भी वह समस्त धन जन सामान्य के हित में मुक्त हस्त से उपयोग किया।
कवि कल्हण ने विक्रमादित्य, मातृगुप्त और प्रवरसेन तीनों को लेकर बहुत सुन्दर भाव कुछ इस प्रकार व्यक्त किये हैं -

अन्योन्यं स्वाभिमानानाम अन्योन्योचित्य शाली नाम,
त्रयाणा मपि वृत्तांत ऐश त्रिपथगा पयः।

एक दूसरे से बढ़कर स्वाभिमानी, एक दूसरे से बढ़कर उचित व्यवहार करने वाले, इन तीनों का वृतांत त्रिपथगा के जल के समान है। त्रिपथगा का अर्थ होता है मां गंगा, जो स्वर्ग लोक से मृत्युलोक अर्थात पृथ्वी पर पधारीं और फिर पाताल लोक में जाकर राजा सगर के पुत्रों को तारकर भागीरथ की तपस्या को सफल किया। कवि का भाव यही है कि त्रिपथगा की पावन विमल धारा के समान ही सम्राट विक्रमादित्य, कश्मीर के राजा मातृगुप्त और प्रवरसेन का चरित्र भी है। मित्रो यही यह भारतीय चिरंतन शास्वत संस्कृति वास्तविक कश्मीरियत है, जिस शब्द का आधुनिक गद्दार कश्मीरी अलगाववादी उपयोग तो करते हैं, किन्तु उसका भाव लेश मात्र भी नहीं जानते।
जब विक्रमादित्य के पुत्र प्रवरसेन ने प्रतापशील उपाख्य शीलादित्य से शत्रुओं ने उनका राज्य छीन लिया, तब प्रवरसेन ने उन्हें पुनः उज्जयिनी के सिंहासन पर बैठाया। यह एक प्रकार से उनकी ओर से सम्राट विक्रमादित्य को श्रद्धांजलि थी। उनकी सेनाओं ने पूर्वी समुद्र तट से पश्चिमी समुद्र तट तक के भू भाग पर नियंत्रण कर लिया। प्रवरसेन ने वितस्ता नदी के तट पर अपने नाम से एक नवीन नगर का निर्माण करवाया, नाम रखा गया प्रवरपुर। इतिहासकार आज के श्रीनगर को इसी प्रवरपुर का रूपांतर मानते हैं, जबकि मूल श्रीनगर का निर्माण सम्राट अशोक ने करवाया, यह उल्लेख कल्हण ने किया है। संभव है पूर्व में अशोक द्वारा निर्मित श्रीनगर को ही प्रवरसेन ने और वृद्धि गत कर उसका नाम प्रवरपुर रखा हो, जो बाद में पुनः श्रीनगर हो गया। प्रवरसेन द्वारा निर्मित अनेक मंदिरों में से ही एक था प्रवरेश्वर मंदिर, जहाँ से उनके सशरीर कैलाशवासी होने का उल्लेख कल्हण ने किया है। किन्तु आज यह मंदिर कहाँ है, नहीं कहा जा सकता, हाँ श्रीनगर के मध्य में जियारत बहाउद्दीन के समीप स्थित कब्रिस्तान में मंदिरों और देवस्थानों के अनेक अलंकृत शिलाखंड आज भी लगे दिखाई देते हैं।
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