भारत के सिकंदर कहे जाने वाले एशिया विजेता कश्मीर नरेश ललितादित्य


जैसा कि पूर्व में वर्णित किया जा चुका है, लगभग पांच सौ वर्षों तक कश्मीर पर पवित्र गोनंद वंश का शासन रहा। इस वंश के अंतिम राजा थे राजा बालादित्य। उनके निसंतान निधन के बाद उनके जामता निर्मल कर्कोटक वंशीय दुर्लभ वर्धन को राज्य प्राप्त हुआ। दुर्लभ वर्धन के बाद उनके पुत्र दुर्लभक प्रतापादित्य के नाम से सिंहासनारूढ़ हुए। प्रतापादित्य अपने नाम के अनुरूप ही परम प्रतापी भी थे। उनसे शत्रुता रखने वाला कोई शासक पृथ्वी पर शेष नहीं रहा। उन्होंने अपने नाम से प्रतापपुर नामक एक नगर भी बसाया। प्रतापादित्य के काल में अनेक वैभव शाली धनवान व्यापारी और साहूकार कश्मीर में व्यापार के निमित्त आया करते थे। राजा भी उनका यथोचित आदर सत्कार करते थे। एक बार रोहित देश के नोण नामक एक धनी व्यापारी को उन्होंने अपने महल में भोजन पर बुलाया और रात्रि विश्राम की भी व्यवस्था की। सुबह राजा ने व्यापारी से पूछा महोदय रात्रि को नींद तो ठीक से आई ना, कोई कष्ट तो नहीं हुआ ?
तनिक संकोच से व्यापारी ने उत्तर दिया महाराज राजमहल की शैया तो अत्यंत सुखकर थी, किन्तु दीपकों के धुंए से मुझे सरदर्द हो रहा है। राजा अचंभित हुए और इसलिए जब व्यापारी ने उन्हें अपने घर आमंत्रित किया तो वे उसका वैभव देखने की अभिलाषा से जब व्यापारी के आवास पर पहुंचे, तो उनकी आँखें आश्चर्य से फटी रह गईं। व्यापारी के भवन में तेल के दीपकों के स्थान पर रत्नों से प्रकाश हो रहा था। उसकी अपार सम्पदा देखकर राजा के विस्मय का ठिकाना नहीं रहा। व्यापारी के आग्रह पर राजा कुछ दिन उसके घर पर ही रुके। इस दौरान व्यापारी नोण की परम सुंदरी पत्नी नरेंद्र प्रभा को देखकर राजा अपनी सुधबुध ही खो गए। कामदेव के वाणों ने उन्हें अत्यंत ही व्यथित कर दिया। राजा अपने महल में वापस तो आये लेकिन अपना मन व्यापारी के यहाँ ही छोड़ आये। राजा विवेकवान भी था, इस कारण उसे अत्यंत दुःख भी हुआ। नातो वह सदाचार भूल पा रहे थे और ना ही नरेंद्र प्रभा की मोहिनी मूर्ती उनके मन से निकल पा रही थी। परिणाम यह हुआ कि राजा अस्वस्थ हो गए। वैद्यों का इलाज भी कोई असर नहीं कर पा रहा था, ऐसा प्रतीत होने लगा कि राजा अब कुछ ही दिनों के मेहमान हैं।
अब चूंकि व्यापारी नोण के घर से आने के बाद राजा अस्वस्थ हुए थे, अतः व्यापारी उनका हालचाल जानने आया। भेंट के दौरान उसे राजा की बीमारी समझ में आ गई और उसके कारण उसे चिंता भी हुई। एक अत्यंत पराक्रमी, योग्य और जन हितैषी राजा की यह अवस्था उससे देखी नहीं गई। उसने एकांत में राजा को समझाईस दी कि प्राणरक्षा के लिए किया गया कोई भी कार्य अधर्म नहीं होता। आपके हित के लिए मेरे प्राण भी प्रस्तुत हैं। मैं अपनी पत्नी को देव मंदिर में देवदासी के रूप में समर्पित किये देता हूँ, वहां से आप उसे सहज ही प्राप्त कर सकते हैं। इसमें आपको कोई दोष भी नहीं देगा।
अंततः उस सज्जन व्यापारी के अत्यंत आग्रह के बाद कामदेव के प्रहारों से विचलित राजा ने यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और नरेंद्र प्रभा राजरानी बन गईं। उन्होंने अपने सद्गुणों, उदारता और दयालुता से अपने इस आंशिक कलंक को जल्द ही धो डाला। नरेंद्र प्रभा ने चार पुत्रों को जन्म दिया जो इतिहास में चन्द्रापीड, तारापीड़, मुक्तापीड़ और अविमुक्तापीड के नाम से जाने गए। पचास वर्ष शासन करने के बाद प्रतापादित्य स्वर्ग सिधारे और उनके बाद बड़े पुत्र चन्द्रापीड ने राज्य भार सम्भाला। राजा चन्द्रापीड कितने गुणवान और नीतिवान थे, इसका एक उदाहरण देखिये -
एक बार राजा के आदेश पर त्रिभुवन स्वामी का मंदिर बन रहा था, किन्तु उसमें एक चर्मकार की झोंपड़ी बाधा बन रही थी। चर्मकार अपनी झोंपड़ी से कोई भी कीमत लेकर हटने को तैयार ही नहीं था। समस्या राजा की जानकारी में आई तो वे स्वयं उस चर्मकार के घर पहुंचे और उससे विनम्रता पूर्वक कहा - आपकी अनुमति के बिना मंदिर निर्माण नहीं होगा। अब यह आपपर है कि यातो उचित मूल्य लेकर यह स्थान दे दो अन्यथा मंदिर निर्माण रोक दिया जाएगा।
चर्मकार ने जबाब दिया - महाराज यह झोंपड़ी ही मेरी जन्मस्थली है। जिस प्रकार आपको अपना राजमहल प्रिय है, उसी प्रकार यह झोंपड़ी मुझे प्यारी है। फिर भी चूंकि आप मेरे द्वार पर आये हैं, तो यह अब बिना मोल आपकी है। राजा ने फिर भी यथोचित धन देकर वह स्थान अधिग्रहित किया और मंदिर निर्माण संपन्न हुआ।
किन्तु दुर्भाग्य देखिये के ऐसे गुणवान राजा के विरुद्ध उनके ही भाई तारापीड़ ने षडयंत्र रचे और वे असमय मृत्यु के ग्रास बने। कल्हण के अनुसार एक मांत्रिक ने अभिचार द्वारा यह दुष्कृत्य किया। उनके बाद दुष्ट प्रकृति का तारपीड़ शासक तो बना, किन्तु केवल चार वर्ष चौबीस दिन बाद ही उसके विरुद्ध भी स्थानीय ब्राहाणों ने वही अभिचार क्रिया संपन्न की, जिसके माधयम से उसने राज्य पाया था और वह भी यमपुरी पहुँच गया।
तारापीड़ के बाद उसके छोटे भाई ललितादित्य सिंहासनारूढ़ हुए। जिस समय उन्होंने शासन सूत्र संभाले उस समय वे केवल एक मांडलिक राजा थे, किन्तु अपने पराक्रम से वे सार्वभौम राजा बने। सम्पूर्ण भारत पर उनकी विजय ध्वजा फहराई। वह कहानी अगले अंक में।

दिग्विजयी सम्राट

सूर्य के समान तेजस्वी ललितादित्य की सम्पूर्ण तरुणाई दिग्विजय करते ही बीत गई। यहाँ तक कि कन्नौज के इतिहास प्रसिद्ध पराक्रमी नरेश यशोवर्मा को भी ललितादित्य ने बुरी तरह पराजित किया। उसका भी एक विचित्र प्रसंग है। यद्यपि यशोवर्मा युद्ध नहीं चाहते थे, अतः उन्होंने ललितादित्य से संधि का प्रस्ताव किया। ललितादित्य भी सहमत हुए, किन्तु जब यशोवर्मा की ओर से भेजे गए संधि पत्र में मित्रशर्मा ने यह पढ़ा कि यह संधि पत्र यशोवर्मा और ललितादित्य की सहमति से लिखा गया है, तब उसमें पहले यशोवर्मा का नाम लिखा देखकर मंत्रियों ने इसे अपनी अवहेलना माना और परिणाम हुआ यशोवर्मा की युद्ध में पराजय। भवभूति जैसे महाकवि जिस यशोवर्मा के दरवार में उनका स्तुतिपाठ करते थे, उन्हीं यशोवर्मा को ललितादित्य के दरवार ललितादित्य का स्तुतिपाठ करना पड़ा। यमुना नदी के उत्तरी किनारे से लेकर कालिका नदी के तीर तक का सम्पूर्ण कान्यकुब्ज देश ललितादित्य के अधीन हो गया और उनकी सीमाएं पूर्वी समुद्र तट तक पहुँच गईं।
कलिंग, दक्षिणापथ के कर्नाटक, पश्चिम में द्वारका और कोंकण, मध्य में उज्जयिनी, उत्तर में भूटान आदि सभी राज्यों में ललितादित्य की विजय दुंदुभी गूंजी। लगभग समूछे भारत में जो भी स्थान ललितादित्य ने विजय लिए, वहां स्मृति स्वरुप मंदिरों का भी निर्माण करवाया। इस पृथ्वी पर ऐसा कोई नगर ग्राम या द्वीप नहीं बचा था,जहाँ उसने मंदिरों का निर्माण नहीं करवाया हो। दिग्विजय के पश्चात ललितादित्य ने अहंकार के साथ दर्पपुर नामक नगर बसाकर वहां केशवदेव की स्थापना की। कल्हण ने किसी स्त्री राज्य में ललितादित्य के द्वारा बनवाये गए एक ऐसे विलक्षण नृसिंह मंदिर का उल्लेख किया है, जहाँ भगवान की मूर्ती चुम्बकीय प्रभाव से निराधार बीच में स्थित रहती थी। उसके द्वारा निर्मित पांच प्रमुख मंदिरों परिहास केशव, मुक्ता केशव, महा वराह, गोवर्धन धर और भगवान बुद्ध के मदिरों में समान धन व्यय हुआ।
जिस प्रकार हाथियों को मारकर सिंह गज मुक्ताओं को अपने नख में लिए अपनी गुफा में प्रवेश करता है, उसी प्रकार शत्रु राज्यों की अपार संपत्ति के साथ ललितादित्य ने कश्मीर मंडल में प्रवेश किया। ललितादित्य ने अनेक जन हितैषी कार्य भी किये। चक्रधर नामक स्थान पर रेंहट की मदद से बितस्ता का पानी ऊँचे गाँवों में पहुँचाने का प्रबंध किया। पौराणिक आख्यानों के समान कल्हण ने अपनी राजतरंगिणी में ललितादित्य को लेकर कुछ दैवीय चमत्कारों का भी उल्लेख किया है। जैसे कि उनका यह वर्णन कि देवता भी उनका आदेश मानते थे। एक बार जब राजा पूर्वी समुद्र तट पर ठहरे हुए थे, तब उन्होंने अपना प्रिय कपित्थ फल खाने की इच्छा प्रगट की। किंरु वह उस प्रदेश में होता ही नहीं था। सेवक बेहद परेशान थे, किन्तु तभी एक दिव्य पुरुष वह फल लेकर वहां उपस्थित हुआ। किन्तु एकांत में उस आगंतुक ने राजा ललितादित्य से कहा कि आप अपने किसी पूर्व जन्म में अपने धनाढ्य मालिक के खेत में हल चला रहे थे। आपको भूख और प्यास दोनों ही लग रहे थे, तभी खेत के मालिक का सेवक आपके लिए सुराही में जला और पोटली में रोटियां लेकर वहां पहुंचा। जब आप भोजन करने ही जा रहे थे, तभी एक बुजुर्ग ब्राह्मण ने आकर भोजन और पानी की याचना की। उसकी दयनीय दशा देखकर आपने अपने हिस्से का आधा भोजन और जल उसे प्रदान कर दिया। आपकी इस उदारता को देखकर देवताओं ने तय किया कि सामान्य जन के लिए असंभव आपकी सौ इच्छाओं की पूर्ति की जाएगी। यहाँ तक कि मरुथल में भी अगर आप जल चाहेंगे तो वहां भी जलधारा उत्पन्न हो जाएगी। लेकिन वह सौ की गिनती अब पूरी होने को है, अतः उचित होगा कि आप ऐसी कोई इच्छा न करें जो सामान्य जन पूर्ण न कर सके। ये फल कश्मीर में भी केवल वर्षा काल में मिलते हैं, यहाँ समुद्र तट पर तो इनका मिलना असंभव ही है। किन्तु आपकी इच्छा पूरी करने के लिए इन्हें देवराज इंद्र के नंदन वन से लाया गया है। यह गाथा कितनी वात्साविक है या कितनी कल्पित, किन्तु इससे दान की महिमा अवश्य प्रगट होती। भूखे को भोजन और प्यासे को पानी देना कई गुना फल देता है, इसमें यही भाव निहित है। ऐसी कई विलक्षण घटनाओं का वर्णन राज तरंगिणी में किया गया है।
छत्तीस वर्ष सात माह ग्यारह दिन पृथ्वी को प्रसन्नता देकर ललितादित्य नामक यह चन्द्रमा अस्त हो गया। उनके अंत के विषय में इतिहासकारों के अलग अलग मत हैं। कुछ के अनुसार राजा आर्याणक देश में अत्याधिक वर्फ गिरने से मृत्यु को प्राप्त हुए। कुछ इतिहासज्ञ मानते हैं कि पांडवों के समान उत्तरापथ के दुर्गम पथ में राजा सेना सहित लुप्त हो गए। तो कुछ का मानना है कि यशस्वी जीवन के बाद आसन्न संकट की कल्पना से उन्होंने आत्मदाह कर लिया। सचाई जो भी हो, किन्तु उन्होंने स्वर्गवास के पूर्व अपने अधीनस्थों व परिजनों को जो अंतिम सन्देश दिया, वह भारत की आज की परिस्थितियों में समझने योग्य है।
अपने उद्गम से निकलकर अंत में महासागर में विलीन होने वाली नदी के समान ही लगातार विजय पथ पर अग्रसर वीरों को भी परमात्मा में विलीन होना पड़ता है। मेरे बाद मेरे वंशजों के लिए मेरा सन्देश है कि इस राज्य को सुशासित और व्यवस्थित बनाये रखने के लिए भीतरी फूट किंवा अंतर्घात से सजग रहना चाहिए, क्योंकि जिस प्रकार चार्वाक मत को मानने वालों को मृत्यु का भय नहीं होता, उसी प्रकार राज कर्ताओं को परकीयों का कोई विशेष भय नहीं होता। मैं अपने पुत्र और पौत्रों में सर्वाधिक अपने सबसे छोटे पौत्र जयापीड़ नामक बालक को सबसे योग्य मानता हूँ, उसे अपने दादा के समान बनने का उपदेश देते रहें।
राजा की भविष्य दृष्टि सत्य सिद्ध हुई और उनके बड़े बेटे कुवलयादित्य मात्र एक वर्ष सात माह शासन करने के बाद विरक्त सन्यासी हो गए। उनके बाद ललितादित्य के छोटे बेटे बज्रादित्य राजा तो बना किन्तु सात वर्ष शासन करने के बाद अपनी विलासिता के चलते क्षय रोग का शिकार हो गया। उसके बाद दुष्ट स्वभाव का उसका बड़ा बेटा पृथ्वी पीड़ गद्दी पर बैठा, किन्तु जन आक्रोश के चलते चार वर्ष एक माह बाद ही राजीच्युत कर दिया गया। उसका छोटा भाई संग्राम पीड़ भी केवल सात दिन राज्य कर सका और उसके बाद अंततः इतिहास प्रसिद्ध जयपीड़ कश्मीर नरेश बने। उनका कथानक अगले अंक में।
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