राम रावण युद्ध के बाद की गाथा



राष्ट्रकवि मैथलीशरण गुप्त ने लिखा है –

पद में सदैव एक मद है, सीमा लांघ जाता है, उमड़ता जो नद है |

पद का अभिमान एक ऐसा महासागर है, जो सारी सीमाएं तोड़ देता है | रावण के साथ भी तो यही हुआ था। सप्तद्वीपपति रावण, आज की भौगोलिक स्थिति के अनुसार कहा जाए तो आस्ट्रेलिया, जावा, सुमात्रा, मेडागास्कर,अफ्रीका आदि द्वीपों पर भी लंकाधिपति का ही शासन चलता था। किन्तु जब अहंकार सर पर छाता है, नाश मनुज का आता है। वनवासी राम की अर्धांगिनी सीता का अपहरण उसी अहंकार का प्रगटीकरण था। जिसकी परिणाम यह निकला कि उत्तर भारत और दक्षिण भारत का अंतर मिट गया, दक्षिणा पथ भी भारत नाम से जाना जाने लगा। रावण की पराजय के बाद उसके अधीन जितने भी क्षेत्र थे, जहाँ रावण के नाम का डंका बजता था, सबमें राम का नाम और यश फ़ैल गया। चंपा कम्बोडिया, थाईलैंड, इंडोनिशिया आदि देशों में आज जो राम नाम के प्रति सम्मान और आदर दिखाई देता है, यह उसी का परिणाम है।

राम रावण युद्ध समाप्त हुआ, विभीषण को सहयोग का पुरष्कार मिला और वह नए लंकेश बने। रावण की पुत्रवधू अर्थात मेघनाद की पत्नी सुलोचना ने अपने पति की चिता पर ही स्वयं को भी दग्ध कर लिया, सती सुलोचना के नाम से अनेक लोकगाथाएँ रामलीला के मंचों पर दर्शकों को अभिभूत करती हैं। जबकि दूसरी ओर रावण की पत्नी मंदोदरी ने विभीषण की भार्या बनना स्वीकार किया और वे राजकाज में विभीषण की मदद करने लगीं, राज महिषी बन गईं। राम तो अयोध्या लौट गए, किन्तु विभीषण को वीरान लंका मिली, कला कौशल, समृद्धि सब कुछ तो दग्ध हो चुकी थी। राक्षसों का समूचा आर्थिक और राजनैतिक ढांचा बिखर चुका था। युद्ध में लगभग सभी महान योद्धा मारे जा चुके थे और विलाप करती हुई उनकी विधवाओं की नजर में विभीषण कुलघाती थे। सहज कल्पना की जा सकती है कि विभीषण को कितना सम्मान मिला होगा। लंका में उनके कितने शुभ चिंतक रहे होंगे। राजा थे अतः उनके जीवनकाल में भले ही उनका मुखर विरोध करने का साहस किसी ने न किया हो, किन्तु उनके बाद उनके वंशजों का प्रताप सूर्य तो नहीं ही चमक सका। सप्त द्वीपों पर शासन करने वाले लंकाधिपति केवल छोटे से लंका द्वीप के ही शासक रह गए।

उधर अयोध्यापति राम ने सम्पूर्ण आर्यावर्त को एक सूत्र में बाँध दिया। मथुरा के शासक लवणासुर ने उनका शासन स्वीकार नहीं किया तो राम की आज्ञा से शत्रुघ्न ने उस पर चढ़ाई की। लवणासुर मारा गया और शत्रुघ्न को ही राम ने मथुरा के राज्य पर अभिषिक्त कर दिया। भरत के मामा युधाजित को मारकर गंधर्वों ने कैकय देश पर अधिकार कर लिया तो राम ने भरत के नेतृत्व में चतुरंगिणी सेना भेजकर गंधर्वराज को उनकी करनी का दंड दिलावाया। राम ने कैकय देश के साथ गंधर्वदेश के सत्ता सूत्र भी भरत को सौंप दिए। बाद में भरत के पुत्र पुष्कर ने अपने नाम से पुष्करावती नगरी बसाकर उसे अपनी राजधानी बनाया। जिसे बाद में तक्षशिला के नाम से जाना गया। राम ने अपने बड़े पुत्र कुश को विंध्य के दक्षिण में और छोटे बेटे लव को श्रावस्तीमें स्थापित किया। इसीप्रकार राम ने अपने भाईयों, पुत्रों, भतीजों को देश के पृथक पृथक राज्य बाँट दिए, किन्तु वे सब थे राजधानी अयोध्या के ही अधीन।

यह वंश गाथा तो लम्बी है, लेकिन चलते चलते लव के प्रपौत्र की रोचक गाथा। लव के पौत्र ध्रुवसिन्धु के दो विवाह हुए, एक कलिंग पति की पुत्री मनोरमा से तो दूसरा उज्जैन के राजा युधाजित की पुत्री लीलावती से। राजा ध्रुवसिन्धु शिकार दौरान स्वयं शेर के शिकार बन गए तो राज्य किसको मिले, इसे लेकर कलिंग और उज्जैन के राजा अपने अपने नाती के पक्ष में भिड़ गए। श्रंगवेरपुर में हुए भीषण युद्ध में कलिंग नरेश मारे गए और उनकी बेटी मनोरमा ने अपने बेटे सुदर्शन के साथ महर्षि भारद्वाज के आश्रम में शरण ली। उज्जैन नरेश युधाजित ने अपने नाती शत्रुजित को राजा बना दिया। उधर भारद्वाज ऋषि के आश्रम में रहकर बड़े हुए सुदर्शन बहुत विद्वान बन गए, उनकी कीर्ति चारों ओर फैलने लगी, तो काशी की राजकुमारी शशिकला ने उन्हें अपना मन समर्पित कर दिया। और जब स्वयम्बर हुआ तो वरमाला सुदर्शन के गले में डाल दी। यह बात स्वयबर में उपस्थित युधाजित और शत्रुजित को पसंद नहीं आई और वे लड़ने पर आमादा हो गए। युद्ध हुआ किन्तु उसमें काशी नरेश के सामने उनकी एक ना चली और वे दोनों मारे गए। शशिकला से विवाह के बाद सुदर्शन श्रावस्ती के नए राजा बने। इनका वंश महाभारत काल के बाद भी चलता रहा। बुद्धकालीन इतिहास प्रशिद्ध अयोध्या नरेश प्रसेनजित इसी वंश में हुए थे।
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