सिकंदर को महान बताना एक घिनौना झूठ।



सिकंदर ने अपने पिता फिलिप द्वारा मेक्डोनिया को एक सामान्य राज्य से महान सैन्य शक्ति में बदलते देखा था। किन्तु असल कहानी शुरू होती है ईसा पूर्व 338 से जब सिकंदर ने अपना पराक्रम दिखाते हुए चेरोनेआ के युद्ध में ग्रीक फॉर्स-थेबन सीक्रेट बैंड को खत्म कर दिया। इस विजय ने `१९ वर्षीय तरुण सिकंदर की महत्वाकांक्षा बेहद बढ़ा दी। मां ओलिम्पिया लगातार आग में घी डालती रहीं।

इतिहासकार प्लूटार्क के अनुसार इसी दौरान फिलिप ने अपने सेनापति अटलुस की भतीजी क्लियोपेट्रा ईरीडिइस से विवाह कर लिया। इस विवाह से सिकंदर की उत्तराधिकारी के रूप में दावेदारी सकंट में आ गई, क्योंकि क्लियोपेट्रा ईरीडीस से उत्पन्न बेटा पूरी तरह से मकदूनियन उत्तराधिकारी होता, जबकि मां एपिरस की राजकुमारी थी अतः सिकंदर केवल आधा मकदूनियन था। विवाह के भोज के दौरान,एक अप्रिय प्रसंग हुआ। क्लियोपेट्रा के चाचा अटलूस ने शराब के नशे में कहा कि अब उसकी भतीजी राज्य के लिए एक वैध उत्तराधिकारी देजी। जिससे चिढ़ कर सिकंदर ने उसके सिर पर शराब का कप उंडेल दिया। अटलुस की बेइज्जती से फिलिप को क्रुध हुआ देखकर सिकंदर अपनी मां के साथ ननिहाल एपिरिस चला गया।

मां बेटे की जुगलबंदी को अवसर मिला ईसा पूर्व 336 में सिकंदर की बहिन और फिलिप की बेटी के विवाह समारोह में। इस समारोह में फिलिप की ह्त्या कर दी गई। यह अलग बात है कि हत्यारा भी मारा गया तथा राज्य में अनेकों स्थान पर विद्रोह भड़क उठा। सिकंदर ने योजनाबद्ध ढंग से पहले पिता के खजाने पर कब्जा जमाया और फिर फिलिप के ही धन को दोनों हाथों से उलीच कर सेना की कमान अपने हाथों में ले ली। सोचा होगा कि सेना साथ रही तो धन तो फिर आ जाएगा।

इसके बाद की कहानी और भी अधिक रक्त रंजित और दिल दहला देने वाली है। इस तथाकथित महान सिकंदर ने अपने सभी सौतेले भाईयों को मरवा डाला। सौतेली मां क्लियोपेट्रा ईरीडिइस और उसकी बेटी यूरोपा को तो जिंदा जला दिया गया । बेशक पराक्रमी था, अतः जल्द ही विद्रोह को कुचल दिया गया उसके बाद बनाई लूट की योजना। आखिर राज्य्कोष खाली जो हो गया था। शरूआत की चिर शत्रु ईरान से। 334 ईसा पूर्व सिकंदर ने फारसी साम्राज्य पर अपना आक्रमण शुरू किया और 330 ईसा पूर्व ईरान की राजधानी, पर्सेपोलिस को लूटने और आग से नष्ट करने के बाद उस पर नियंत्रण कर लिया। वहां के जनप्रिय शासक डेरियस उपाख्य दारा को उसके ही साथियों ने घायल कर एक रथ में सिकंदर का शिकार बनने के लिए छोड़ दिया। ग्रीस इतिहासकारों ने तो लिखा कि वह मृत अवस्था में सिकंदर को मिला, लेकिन यह सच है कौन जाने ? इतिहासकारों ने तो यह भी लिखा कि सिकंदर ने पूरे राजकीय सम्मान के साथ दारा का अंतिम संस्कार उसी स्थान पर करवाया जहाँ ईरानी साम्राज्य के अन्य शासकों का होता आया था। यह अलग बात है कि उसका कोई स्मारक अस्तित्व में नहीं है।

उसकी तथाकथित महानता की पोल खोलने वाली गाथा है उसकी अफगानिस्तान पर चढ़ाई। कन्धारीयों ने उससे जमकर लोहा लिया। उसने मस्सग का दुर्ग घेरा। लम्बे समय तक की घेरेबंदी के बाद राजा को तीर लगा और सिकंदर के पौ बारह हो गए। दुर्ग में खाने पीने की सामग्री खतम हो रही थी तो मौक़ा ताड़कर उसने दुर्ग में उपस्थित सात हजार सैनिकों को सन्देश भेजा - दुर्ग खाली करके निकल जाओ। कोई कुछ नहीं कहेगा। अपने बीबी बच्चों के साथ जब सैनिक निकले तो इन सबको चारों और से घेरे में लेकर आक्रमण कर दिया। वायदा खिलाफी के लिए धिक्कारते हुए एक एक सैनिक बहादुरी से लड़ा, अफगान औरतें भी पीछे नहीं रहीं, उनमें से भी किसी ने आत्म समर्पण नहीं किया। सभी महिला पुरुषों ने वीरगति पाई। इतिहासकार डियोडोरस ने अपनी लेखनी से इन बलिदानियों को अमर कर दिया। प्लूतार्च ने भी लिखा - सिकंदर के जंगी यश पर अपयश का यह गहरा स्याह धब्बा कभी नहीं धूल सकता। वह रे महान सिकंदर। और उनसे भी महान वे भारतीय सत्ताधीश जो न केवल उसे महान मानते हैं, बल्कि पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से उसकी महानता के झूठे किस्से देश की भावी पीढ़ी को भी पढ़ाते हैं ।

सिकंदर का अगला मोर्चा झेलम के तट पर था। लेकिन दुर्भाग्य भारत का। तक्षशिला नरेश आम्भी कायर निकला। वह तो मुकाबला करने के स्थान पर सिकंदर के सामने सोने के थाल में मोहरें भरकर विनीत मुद्रा में खड़ा हो गया। आप मेरे स्वामी हैं और मैं आपका सेवक। उसने न केवल सिकंदर का स्वागत किया, वरन उसका दूत बनाकर पोरस के पास जा पहुंचा उन्हें मनाने, सिकंदर का सहयोगी बनाने। लेकिन हुआ क्या ? अम्भी बड़ी मुश्किल से अपनी ज़िन्दगी बचा कर वहाँ से भाग पाया।तक्षशिला नरेश कायर आम्भी ने भलेही भारत का प्रवेश द्वार सिकंदर के लिए खोल दिया हो, किन्तु झेलम के पार दोआब क्षेत्र तो पोरस के सुरक्षित नेतृत्व में था। सिकंदर के लिए नदी पार करना मुश्किल हो रहा था। मेगस्थनीज आदि प्राचीन यूनानी लेखकों ने लिखा कि सिकंदर ने पोरस को हरा दिया था, किन्तु उसके बाद उससे मित्रता कर वापस लौट गया। किन्तु विचार कीयिये कि यदि ऐसा होता तो सिकंदर मगध तक पहुंच जाना चाहिए था। जो कभी नहीं हुआ। सचाई यह है कि युद्ध में पोरस का बेटा बलिदान हुआ, क्या उसके बाद पोरस सिकंदर से समझौता कर सकता था ? स्ट्रेबो, श्वानबेक आदि विदेशी विद्वानों ने तो कई स्थानों पर इस बात का उल्लेख किया है कि मेगस्थनीज आदि प्राचीन यूनानी लेखकों के विवरण झूठे हैं। ऐसे विवरणों के कारण ही सिकंदर को महान समझा जाने लगा और पोरस को एक हारा हुआ योद्धा, जबकि सचाई इसके ठीक उलट थी। सिकंदर को हराने के बाद पोरस ने उसे छोड़ दिया था।

अब दूसरी बात प्रसिद्ध इतिहासकार एर्रियन लिखते हैं, जब बैक्ट्रिया के राजा बसूस को बंदी बनाकर लाया गया, तब सिकंदर ने उनको कोड़े लगवाए और उनकी नाक-कान कटवा डाले। इतने पर भी उसे संतोष नहीं हुआ। उसने अंत में उनकी हत्या करवा दी। उसने अपने गुरु अरस्तू के भतीजे कलास्थनीज को मारने में संकोच नहीं किया। एक बार किसी छोटी-सी बात पर उसने अपने निकटतम मित्र क्लीटोस को मार डाला था। अपने पिता के मित्र पर्मीनियन जिनकी गोद में सिकंदर खेला था उसने उनको भी मरवा दिया। सिकंदर की सेना जहां भी जाती, पूरे के पूरे नगर जला दिए जाते, सुन्दर महिलाओं का अपहरण कर लिया जाता और बच्चों को भालों की नोक पर टांगकर नगर में घुमाया जाता था।ऐसा क्रूर सिकंदर क्या सम्राट पोरस के प्रति उदार हो सकता था? यदि पोरस हार जाते तो क्या वे जीवित बचते और क्या उनका साम्राज्य यूनानियों का साम्राज्य नहीं हो जाता?
खैर पोरस जीते या हारे इसे जाने दें। इस बात से तो कोई इंकार करता ही नहीं है कि सिकंदर व्यास नदी कभी पार नहीं कर पाया। मगध साम्राज्य की विशाल शक्ति से डरकर उसके सैनिकों ने लड़ने से साफ़ इंकार कर दिया। घायल और निराश सिकंदर विवश वापस लौटा और महज 32 वर्ष की आयु में बेबीलोन में अंतिम सांस ली।
जो भारत के प्रवेश द्वार से ही मन से हांरकर वापस चला गया उसे हम महान लिखें, कहें अपने नौनिहालों को पढ़ाएं, इससे अधिक शर्मनाक, आत्महीनता की ग्रंथि क्या हो सकती है।
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