खण्डेलवालों का उद्गम स्थल खंडेला और मोहन देव जी के सिपहसालार सुजान सिंह शेखावत

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शेखावाटी राजस्थान के सीकर जिले का एक नगर है खंडेला। खंडेलवाल वैश्य समाज ने अपने इस उद्भव स्थल को तीर्थ स्थल के रूप में माना है व पलसाना रो...



शेखावाटी राजस्थान के सीकर जिले का एक नगर है खंडेला। खंडेलवाल वैश्य समाज ने अपने इस उद्भव स्थल को तीर्थ स्थल के रूप में माना है व पलसाना रोड पर अपनी 37 कुल देवियों एवं गणेशजी को समर्पित खंडेलवाल वैश्य धाम उपाख्य खंडेला धाम का निर्माण कराया है। खंडेला के नामकरण को लेकर दो मान्यताएं है। एक तो यह कि इला का अर्थ होता है पृथ्वी। यहाँ महाभारत काल में खंड नामक राजा का राज्य था, उसकी भूमि अर्थात खंड धन इला खंड राजा की पृथ्वी खंडेला इस प्रकार नाम हुआ।

दूसरी मान्यता यह है कि नगर के बीच में बहती एक नदी के कारण इसकी भूमि दो भागों में विभाजित होती है। कदाचित इसी कारण खंडेला नामकरण हुआ होगा। जब देश स्वतंत्र नहीं हुआ था, तब यहां दो राजाओं का राज था। एक को छोटा पाना और दूसरे को बड़ा पाना कहा जाता था।

यूं तो यह मंदिरों की ही नगरी है, किन्तु आज हम गाने जा रहे हैं उन दो देवलियों का इतिहास जो खंडेला के बाहर उसकी सीमा पर बानी हुई हैं। यह गाथा है उस दूल्हे की जिसने अपनी पत्नी का मुंह देखने के पहले ही औरंगजेब की क्रूर सेना से भगवान मोहन देव जी के मंदिर की रक्षा के लिए अपना बलिदान दिया। इतिहासकारों को कहाँ फुर्सत रखी है इन बलिदानों को स्मरण रखने की, लेकिन स्थानीय समाज नहीं भूलता। किसी न किसी रूप में उनका स्मरण करता ही रहता है। याद रखता है अपने शूरमाओं को, उनकी बलिदानी गाथाओं को। किन्तु शेष भारत को भी तो ज्ञात होना चाहिए, इसी उद्देश्य से हम क्रांतिदूत पर सतत प्रयत्न करते रहते हैं।

आईये कल्पना के पंखों पर सवार होकर उस नराधम औरंगजेब के काल की यात्रा करें। और अंत में राजस्थान की वीर प्रसूता भूमि को प्रणाम करें। विवाह के मांगलिक कार्य पूर्ण हो चुके हैं और 7 मार्च 1679 को छापोली के ठाकुर सुजान सिंह जी शेखावत अपनी नव विवाहिता पत्नी के साथ वापस छापोली की दिशा मे बढ़ रहे हैं। बाईस वर्षीय तेजोमय चेहरे से युक्त दुल्हे वाली बारात जिसमें अस्सी नब्बे सजीले ऊँट घोड़ों पर सवार बाराती। गांव मात्र पांच छः कोस ही रह गया है, सायंकाल गौधूली की बेला है गाय चराने वाले ग्वाले अपनी गायों को वापस ले जाते समय रुंधे कंठ से गुहार लगाते हैं।

झिरमिर-झिरमिर मेघा बरसै !

मौर्या छतरी ताणी रै !

कुल मं है तो जाण सुजाणां !

फौज देवरां आई रै !!

सुजानसिंह के कान खड़े हो गए। राजपूत का किसने आह्वान किया है ? किसकी फौज और किस देवरे पर आई है ? तभी डोली के साथ चल रहे बुजुर्ग घुड़सवार ने ग्वालों को डपट कर दूर भगाया। भागो यहाँ से ,हल्ला मत करो यहाँ , जाओ यहाँ से और उनकी ओर लपका ! ग्वाले दूर तो जाने लगे पर उनका रुहांसा स्वर नहीं रुका -

झिरमिर-झिरमिर मेवा बरसै,

मोरां छतरी छाई रै !

जाग सकै तो जाग सुजाणां !

फौज देवरां आई रै !

लेकिन अब सुजान सिंह को कहाँ चैन पड़ना था। डोली से नीचे उतर पड़े और आवाज लगाकर ग्वालों को बुलाया तो बच्चों के साथ कुछ गूजर और अहीर भी साथ आ गए और पूछने पर बताया कि खण्डेले के मोहनजी का मन्दिर तोड़ने के लिए पातशाह औरंगजेब की फौज आई है। उन्होंने सौ डेढ़ सौ गायें भी पकड़ ली हैं और उनकी भी मंदिर तोड़ने के बाद ह्त्या करेंगे। राजा बहादुरसिंह ने आम जनता को खंडेला छोड़ने की मुनादी करवा दी और खुद सेना सहित कोटसकराय के गिरी दुर्ग में चले गए हैं। 

बारात के साथ आये बुजुर्ग ने सुजान सिंह से कहा हुकुम आपके तो अभी काँकण-डोरे भी नहीं खुले हैं, आप इनकी मत सुनों, इस झंझट में मत उलझो, घर चलो पहले !

सुजान सिंह गरज उठे - कंकण-डोरडे अब श्रीमोहनजी के ही श्रीचरणों में खुलेंगे बाबा ! सुजाणसिंह के जीते जी किसी तुर्क की छाया भी मन्दिर पर नहीं पड़ सकती ! अरे बाबा ! भूमि निर्बीज नहीं हुई अभी ! धरती माता की पवित्र गोद से हमारा क्षत्रियत्व कभी-भी निःशेष नहीं हो सकता ! यदि गौ, ब्राह्मण और मन्दिरों की रक्षा के लिए यह शरीर काम आ जाये तो इससे बढ़कर परम सौभाग्य ही क्या होगा ? जिन्हें साथ आना हो आएं, नहीं तो अकेले ही जाऊंगा।

और देखते ही देखते बरात में शामिल पचास नौजवान घुड़सवार हर हर महादेव का निनाद कर उनके साथ चलने को तत्पर हो गए। सुजाणसिंह ने घोड़े पर सवार होते हुए डोली की ओर देखा। मेहन्दी लगा हुआ सुकुमार हाथ पर्दे से बाहर निकल कर मानो सन्देश दे रहा हो - विदा प्रियतम फिर मिलेंगे, इस जनम में नहीं तो अगले जनम में।

और ये पचास योद्धा चल पाए खंडेला की ओर मुग़ल सेनापति दाराब खां का मुकाबला करने, जो ब्रज भुमि के बड़े मंदिरों को तोड़ने के बाद अब इस छोटे से कस्बे के मंदिर को तोड़ने चला आया था। उसे आशा ही नहीं थी कि यहाँ कोई प्रतिकार होगा। गुलाबी रंग का पायजामा, केसरिया बाना, केसरिया पगड़ी और तुर्रा-कलंगी लगाए हुए इस दूल्हे को मंदिर की रक्षा के लिए जाते देखकर रास्ते में पड़ने वाले हर गाँव के नौजवानों का भी खून जोश मारने लगा। जिस समय अर्ध रात्रि को ये लोग मोहन देव जी के मंदिर पहुंचे इनके साथ तीन सौ लोग हो चुके थे।

दूल्हे ने घोड़े से उतर-कर भगवान की मोहिनी मूर्ति को साष्टांग प्रणाम किया और पुजारीजी मोती बाबा से पूछा - तुर्क कब आ रहे हैं ?"

कल प्रातः आकर मन्दिर तोड़ने की सूचना है।"

अब मन्दिर नहीं टूटने पाएगा ! नगर में सूचना कर दो ! कि छापोली का सुजाणसिंह शेखावत आ गया है ; और उसके जीते जी मन्दिर की ओर कोई आँख उठाकर भी नहीं देख सकता ! डरने-घबराने की कोई बात नहीं है !"

बात की बात में नगर में यह बात फैल गई और लोगों की वहाँ भीड़ लग गई। उन्हें लगा कि इनके रूप में स्वयं भगवान मोहनजी ही तुकों से लड़ने के लिए आए हैं। मंदिर के पुजारी मोती बाबा मोहन देव जी के मन्दिर मे नारायण कवच का जाप कर रहे थे, तो भजन मण्डलियाँ भी आ गई_ और भजन-कीर्तन प्रारम्भ हो गया। पूरी रात-भर वहाँ जागरण होता रहा |

प्रात:काल होते-होते सुजान सिंह ने दूर आकाश मे उड़ती धूल देखी तो समझ गये म्लेच्छ सेना आ पहुँची है ! उन्होंने अपने साथियों को सम्बोधित किया "मेरे शूरवीर शेखावतो, हम सुर्यवंशी भगवान श्री राम के वंशज आज इस म्लेच्छ सेना से लड़ते हुये मोक्ष के मार्ग पर बढ़ेंगे ! भगवान श्री राम और लक्ष्मण ने जैसे खर दुषण सहित चौदह हजार राक्षसों को अकेले ही मार गिराया था, वैसे ही हमे इन म्लेच्छों को मारना है,आख़िर हमारी रगो मे भी तो उन्हीं का खून दोड रहा है ! जिन क्षत्राणियों माताओं का दूध पिया है उनके दूध की लाज रखनी है सरदारों"।

आकाश हर हर महादेव के नारों से गूँज उठा, सभी के हाथ तलवारों ओर भालों की मूंठ पर कस गये, रणबाँकुरो की भुजाएँ युद्द उन्माद मे फड़कने लगी, मृत्यु के देवता यम भी असमंजस मे थे ! यमराज ने सोचा मेरा यहाँ क्या काम ये सब तो पहले से ही बैकुंठ वासी हो गये है, सब नारायण के पार्षद है, धन्य है ये !

तुर्कों की फौज ने आकर मोहनजी के मन्दिर को घेर लिया। सुजाणसिंह पहले से ही अपने साथियों सहित आकर मन्दिर के मुख्य द्वार के आगे घोड़े पर चढ़कर खड़े हो गये थे। सिपहसालार ने एक नवयुवक को दूल्हा वेश में देख कर अधिकारपूर्ण ढंग से कहा - भाग जाओ यहाँ से, जानते नहीं, मैं बादशाही फौज का सिपहसालार हूँ !"

हंसकर तुर्की बतुर्की जबाब दिया सुजानसिंह ने - तुम भी नहीं जानते कि मैं सिपहसालारों का भी सिपहसालार हूँ।""मैं श्रीमोहनदेव जी का सिपहसालार हूँ !"

कुछ हैरत कुछ गुस्से से मुग़ल बोला, तुम्हें मालूम भी है कि तुम किसके सामने खड़े हो ?" “शहंशाह आलमगीर ने मुझे बुतपरस्तों को सजा देने_ और इस मन्दिर के बुत को तोड़ने के लिए भेजा है। शहंशाह आलमगीर की हुक्म-उदूली का नतीजा क्या होगा ? यह तुम्हें अभी मालूम नहीं है ! तुम्हारी छोटी उम्र देखकर मुझे रहम आता है ; लिहाजा मैं तुम्हें एक बार फिर हुक्म देता हूँ_कि यहाँ से दूर हट जाओ !"

तुरंत जबाब भी मिला - मुझे भी शहंशाहों के शहंशाह श्रीमोहनदेव जी ने तुकों को सजा देने के लिए ही यहाँ भेजा है ; अपनी जान की सलामती चाहो तो भाग जाओ यहाँ से।

इसके बाद तो अल्लाहो अकबर और हरहर महादेव के नारों से आसमान गूंजने लगा।

खटखट तेगा बोल रहा था, बोली छपक छपक तलवार,

रजपूती शूरों के हाथों, होने लगा म्लेच्छ संहार।

पलभर में सुजान के हाथों, गए जहन्नुम बत्तीस पठान,

बड़बोला सरदार मुग़ल का, पीछे छुपा बचाकर जान,

लेकिन युद्ध असमान था, कहाँ कई हजार, कहाँ महज तीन सौ राजपूत।  सभी तीन सौ शेखावत सरदार हजारों म्लेच्छों को मारकर मोक्ष की राह पर चले गये थे पर ठाकुर सुजान सिंह की तलवार अभी भी मुगलो पर क़हर बरपा रही थी, मंदिर तोड़ने आये मुगल खुद की जान बचाने के रास्ते तलाशते दिखे ! ग्रामीणों ने ऐसा द्रश्य कभी न देखा न सूना, एक अकेला घुड़सवार ओर सेंकडो की फ़ौज ! सुजान सिंह की तलवार की गति इतनी तेज़ थी कि आँखो से तलवार दिखाई ही न दे ! अचानक किसी मुगल ने एक लम्बी शमशीर से वार किया ! अब जो द्रश्य सबके सामने था उसकी कल्पना भी मुगलो ने नहीं की थी !

मंदिर के चबूतरे पर खड़े मोती बाबा बोल पड़े - ये सुजान सिंह नही हमारे ईष्ट देव लड़ रहे है।

ग्रामीणों ने जयकारा लगाया "झुझार जी महाराज की जय"

ठाकुर सुजान सिंह शेखावत का सिर उनके धड़ पर नही था पर तलवार चलने की गति मे कोइ फ़र्क़ नही पड़ा था, मुगल सेना मे भगदड़ मच गयी, सब जान बचाने को इधर भाग रहे थे ! 

उधर छापोली की और जाती दुल्हन ने अपनी डोली रूकवा दी थी, और कहा बिना दुल्हे के दुल्हन ससुराल कैसे जाएगी ! हम खण्डेला जायेंगे ! सतीत्व से दमकते क्षत्राणी के चेहरे का तेज देखकर किसी ने ना कहने की हिम्मत ही नहीं की और डोली खण्डेला की और मोड़ दी गयी !

खण्डेला जब एक कोस रह गया, तब वृक्षों की झुरमुट में से एक घोड़ी आती हुई दिखाई दी। घोड़ी के दोनों ओर तथा पीछे दौड़ते हुए ग्रामीणों का हुजूम।

दुल्हिन ने उन्हें ध्यान से देखा। क्षण-भर में उसके मुख-मण्डल पर एक अद्भुत भाव-भंगिमा छा गई, और वह सबके सामने रथ से कूदकर मार्ग के बीच में जा खड़ी हुई।

हे नाथ ! आप कितने भोले हो ! कोई अपना सिर भी इस प्रकार रणभूमि में भूलकर आता है ?’’ यह कहते हुए उसने आगे बढ़कर_ अपने मेंहदी लगे हाथ से कबंध ले जाती हुई घोड़ी की लगाम पकड़ ली ; और आज उसी स्थान पर खण्डेला से उत्तर में भग्नावस्था में छत्री खड़ी हुई है, जिसकी देवली पर सती और झुंझार की दो मूर्तियाँ अंकित हैं। वह उधर से आते-जाते पथिकों को आज भी अपनी मूक वाणी में यह कहानी सुनाती है_ और न मालूम भविष्य में भी कब तक सुनाती रहेगी ! मआसीरे आलमगिरी पृष्ठ 107 पर लिखा है कि “ऐसे 300 योद्धा थे जो सभी के सभी मर गए पर उन्होंने पीठ नहीं दिखाई। हमारे इतिहासकार यह वीरगाथा सुनाएँ न सुनाएँ, आप और हम तो सुनते सुनाते रहेंगे।

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