हमारा स्वप्न है महान भारत, लेकिन जरूरी है समस्याओं के कांटे हटाना।



विश्व का कोई भी देश हो, हर देशभक्त की इच्छा होती है कि उसका देश उत्तरोत्तर उन्नति के मार्ग पर अग्रसर हो, प्रगति करे। किन्तु यह होता तब है, जब देशवासी मार्ग में आने वाली वाधाओं पर विजय प्राप्त करें। हमारा प्यारा भारत वर्ष शताब्दियों तक जग सिरमौर रहा, उसे यहाँ के संतों और विचारकों के कारण विश्वगुरू मान्य किया गया। लेकिन अनेक वर्षों की गुलामी के दौरान हुई लूटपाट ने भारत को न केवल आर्थिक रूप से दुर्बल कर दिया, वरन आतताईयों के अत्याचारों ने सामाजिक तानेबाने को भी जीर्णशीर्ण कर दिया। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद से ही हर देशभक्त भारतवासी की इच्छा है कि भारत महान ही नहीं महानतम बने। आज एक बार फिर भारत आगे बढ़ तो रहा है, लेकिन मार्ग कंटकाकीर्ण है। रास्ते के कांटे हटाए बिना आगे बढ़ना कठिन है। आईये इस विषय का गहराई से अध्ययन करें और समाधान क्या हो उस पर विचार करें। 

स्वामी विवेकानंद जी का कथन है -
बीज भूमि में बो दिया जाए, और उसके चारों और मिट्टी, जल और वायु हों तो क्या बीज मिट्टी हो जाता है, अथवा वायु या जल बन जाता है ? नहीं बह तो वृक्ष ही होता है, वह अपनी वृद्धि के नियम से ही बढ़ता है – बायु जल और मिट्टी को अपने में पचाकर | हिन्दुओं की सारी साधना प्रणाली का लक्ष्य है – सतत अध्यवसाय द्वारा पूर्ण बन जाना, दिव्य बन जाना, ईश्वर को प्राप्त करना और उसके दर्शन कर लेना; और ईश्वर को इस प्रकार प्राप्त करना कि उस स्वर्गस्थ पिता के समान पूर्ण हो जाना – यही सत्य सनातन हिन्दू धर्म है |

ईशावास्योपनिषद में कहा गया है -

ॐ पूर्णमद: पूर्णमिदं पूर्णात् , पूर्ण मुदच्यते,
पूर्णस्य पूर्णमादाय, पूर्ण मेवा वशिष्यते।

व्यक्ति और ईश्वर के [पारस्परिक सम्बन्ध की यह सुस्पष्ट सनातन व्याख्या है। यह भी पूर्ण है, वह ही पूर्ण है। पूर्ण में से पूर्ण निकाला जाए या जोड़ा जाए, पूर्ण ही रहता है। आत्मा और परमात्मा के एकत्व की घोषणा है उक्त उपनिषदीय कथन।

अब यहाँ प्रश्न उठता है कि जब जीवन का चरम लक्ष्य ईश्वर को पाना ही है, जब सबमें वही ईश्वर है तब क्यों किसी से संघर्ष करना ? अग्गर कोई हमें क्षति भी पहुँचाने का प्रयास करे, तो उसका प्रतिकार भी क्यों करना ?  

इसे आदर्श तो कहा जा सकता है व्याहारिक नहीं। वास्तव में बह बकरा जिसे बलिवेदी पर शांतिपूर्वक ले जाया जाता है, अप्रतिकार की मूर्ती है | तनिक सा भी विरोध प्रगट न करते हुए वह चुपचाप कसाई के छुरे के नीचे अपना सर रख देता है | कसाई भी एक क्षण को यह अनुभव नहीं करता कि ऐसे अहिंसक जीव को नहीं मारना चाहिए | किन्तु कोई भी व्यक्ति व्याघ्र की बलि देने का साहस नहीं कर सकता –

अश्वं नैव गजं नैव व्याघ्रं नैव च नैव च |
अजा पुत्रं बलिंदध्यात देवो दुर्बल घातकः ||

एक श्रेष्ठ जैन साधू ने अहिंसा का महत्व बताते हुए कहा – ‘यदि तुम्हें नष्ट करने पर उतारू किसी पाशविक शक्ति से तुम्हारा सामना हो और अहिंसा के नाम पर तुम अपने संरक्षण का प्रयत्न ना करो, तो तुमने उस पाशविक शक्ति को हिंसा में प्रवृत्त होने के लिए प्रोत्साहित किया है | इस प्रकार तुम उस अपराध के प्रोत्साहन कर्ता बन गए हो | प्रोत्साहक भी अपराध का उतना ही दोषी है, जितना वास्तविक अपराधी |

डाकुओं को अपना घर लूटने से रोकने में असमर्थ होने पर यदि कोई “वसुधैव कुटुम्बकम” का नारा लगाए, तो लोग उसे ढोंगी और कायर ही कहेंगे | हमारे देश का वायुमंडल इसी प्रकार की भ्रांतियों और सदुक्तियों से भरा हुआ है | प्रत्येक राष्ट्रीय अपमान को ‘शान्ति’ के आवरण में ढँक दिया जाता है | महाभारत में कहा गया है कि जो व्यक्ति अपमान निगल जाता है, वह न पुरुष है, न स्त्री है |

एतावानेव पुरुषो यदमर्शी यदक्षमी |
क्षमावान निरमर्षश्च नैव स्त्री न पुनः पुमान ||

(वही पुरुष है, जो न सहन करता है और न क्षमा करता है | क्षमा करने वाला तथा सहन करने वाला न तो स्त्री है और ना ही पुरुष |)

हमारा प्रमुख मार्गदर्शक ग्रन्थ श्रीमद्भागवत गीता में धर्मयुद्ध हेतु प्रवृत होने का ही पाठ है ! धर्म युद्ध से विमुख हो, पलायन कर रहे अर्जुन को फिर से युद्ध की और प्रेरित कर उसे विजयश्री दिलाने वाला यही गीता ज्ञान है !

धर्मयुद्ध में प्रवृत होने का गीता का पाठ, न्याय एवं स्वाधिकार प्राप्त करने के लिए है, न कि दुसरे के अधिकार में हस्तक्षेप करने के लिए और इस अर्थ में यह कुरआन के जिहाद वाले सिद्धांत से बिलकुल भिन्न है, जो अरब साम्राज्य को फैलाने, दारुल-हर्ब को दारुल-इस्लाम बनाने या ‘काफिर’ की संज्ञा देकर गैर-मुसलमानों की ह्त्या करने की प्रेरणा देता है !

दुर्भाग्य से आज भी हमारे धर्माचार्यों का सारा बल आत्मा-परमात्मा अथवा आत्म चिंतन पर ही केन्द्रित है ! शायद ही वे कभी अपने शिष्यों और श्रोताओं को अपने समाज, राष्ट्र के प्रति, अपने अपने कर्तव्य पालन की शिक्षा देते है ! आज हिन्दू भारत को गांडीवधारी योद्धा अर्जुनों की आवश्यकता है, न कि ढोल मंजीरा लेकर नाचने गाने वाले वृहन्नलाओं की ! हिन्दू बुद्धिजीवियों को अकर्मण्यता छोड़, कर्मठता की राह पर आना परमावश्यक है !

श्रीमदभागवत गीता का अंतिम श्लोक है –

“यत्र योगेश्वरो कृष्णः यत्र पार्थो धनुर्धरः |
तत्र श्रीर्विजयो भूतिर्ध्रुवा नीतिर्मतिर्मम || (१८ : ७८)

अर्थात, जहाँ योगिराज श्री कृष्ण और गांडीवधारी अर्जुन है, वहीँ कल्याण है, विजय है ! यही नीति कहती है कि विजयी होने के लिए, सिद्धांत के साथ शक्ति का समन्वय आवश्यक है !

आईये उक्त मार्गदर्शक सिद्धांतों के आधार पर देश की दो जटिल समस्याओं पर दृष्टिपात करें, उसके समाधान विषयक चिंतन करें। 

हमारे देश की मूल समस्या है हिन्दू मुस्लिम वैमनस्य। इसका मुख्य कारण है मानसिकता। आज भी मुस्तिम दृष्टिकोण यह है कि अंग्रेजी राज्य से पहले लगभग ८०० वर्षों का तुर्की, मुग़ल अथवा अफगानी राज्य उनका अपना ही स्वर्ण युग था ! जबकि हिन्दू इन्ही ८०० वर्षों को अपना सबसे अधिक त्रासपूर्ण कालखंड मानते है ! यही वह काल था, जब उन पर हिन्दू-धर्मी होने के कारण, जजिया नामक धार्मिक कर लगाया जाता था, उनके तीर्थ स्थानों पर जाने का कर, उनके व्यापारिक सामग्री पर दुगनी-तिगुनी चुंगी और उत्पादन कर लगाया जाता था ! इनके अलावा हिन्दुओं को अपमानित करने के और भी राजकीय प्रावधान थे ! धर्म-पंथ ही नहीं बल्कि यह ऐतिहासिक तथ्य ही हिन्दू-मुस्लिम विवाद की जड़ है ! यही अलगाववादी अवधारणा थी, जिसके कारण, विभाजन से पूर्व मुसलमानों ने पाकिस्तान की मांग उठाई ! यदि धर्म-पंथ ही विवाद की जड़ होते, तो सबसे पहले हिन्दू-ईसाई, हिन्दू-पारसी, हिन्दू-यहूदी आदि झगडे हुए होते ! पर ऐसा नहीं हुआ !

भारत सरकार के प्रचार विभाग की पुस्तिका “रैस्टोर इंडियाज ग्लोरी विथ स्ट्रेंग्थ” ( No. 1/24/88. pp-3) के अनुसार १५ अगस्त सन १९८८ को दिल्ली के लाल किले से भाषण देते हुए राजीव गांधी ने भारत के प्रधानमंत्री के रूप में घोषणा कि ; “हमारा प्रयत्न होना चाहिए कि हम इस देश को उस ऊंचाई तक ले जाएँ जहाँ यह २५०-३०० वर्ष पूर्व था, जिसके पूर्व विश्व के लोग, (अंग्रेज, फ्रांसीसी, पुर्तगाली आदि) भारत को ढूँढने निकले !” इतिहास के विद्यार्थी जानते है कि २५०-३०० वर्ष पूर्व भारत में मुगलवंश के क्रूर शासक ओरंगजेब का शासनकाल था !

वस्तुतः कांग्रेस व अन्य तथाकथित सेक्यूलरों की धर्म निरपेक्षता का अर्थ केवल तुष्टीकरण ही है। आजादी के पूर्व से ही महात्मा गांधी ने इसकी आधारशिला रख दी थी। उन्होंने सोचा कि हिंदुओं का संख्याबल और मुसलमानों की इस्लामी तलवार मिलकर ब्रिटिश साम्राज्य को ध्वस्त कर देंगे ! इसी विचार से गांधीजी ने सन 1922 में खिलाफत आंदोलन छेड़ा, किंतु उसका यह प्रयोग उल्टा पड़ा ! उसके कुछ ही समय बाद मुसलमानों ने अंग्रेजों से हाथ मिला लिया और हिंदुओं की हत्याएं करने लगे ! इस त्रासदी का मर्मान्तक वर्णन स्वातन्त्र वीर सावरकर ने अपनी पुस्तक मोपला में किया है। खिलाफत आंदोलन भारत विभाजन की राह में पहला महान कदम थी !

दुर्भाग्य से स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद मुस्लिम मानसिकता में परिवर्तन लाने की दिशा में कोई सार्थक प्रयास किया ही नहीं गया। केवल उनका पक्ष समर्थन कर उनकी मानसिकता यथावत रखी गई। उन्हें यह बताने का कोई प्रयत्न ही नहीं हुआ कि उनके और बहुसंख्यक हिन्दू समाज के पूर्वज एक ही हैं। क्रूर धर्मांध आक्रमणकारियों ने बलात तलवार के जोर पर उनका धर्म परिवर्तन कराया था। अतः उन विदेशी आक्रांताओं के प्रति उनके भी मन में वही भाव होने चाहिए, जो आम हिन्दू समाज के हैं।

हमारे इतिहास कारों ने उन तथ्यों को चर्चित नहीं किया जो इस भ्रान्ति को दूर कर सकते थे। इतिहास की पाठ्य पुस्तकों में नहीं पढ़ाया गया कि भारत में पहला इस्लामी राज्य (अल्पकाल के लिए) सन 712 में एक अरब आक्रांता मोहम्मद बिन कासिम ने सिंध के हिंदू राजा दाहिर को परास्त कर के स्थापित किया था ! उससे पहले राजा दाहिर 13 बार अरब आक्रमणकारियों को हराकर खदेड़ चुका था ! 14 वीं बार जब राजा दाहिर हारा तो वीरता, रणकौशल या हथियारों की कमी नहीं बल्कि अपने ही कुछ विश्वस्त व्यक्तियों के विश्वासघात से हारा ! 50 वर्षों के भीतर ही पड़ोस के ही हिंदू राजाओं जैसे चालुक्य, प्रतिहार और करकोटा ने इस अरब राज्य को उखाड़ फेंका !

चौदहवीं शताब्दी के आरंभ में दिल्ली के सुल्तान अलाउद्दीन खिलजी की मृत्यु के बाद उसके ही एक सेनापति खुसरो खान ने खिलजी के पुत्र की हत्या कर दी और वह स्वयं गद्दी पर बैठ गया ! उसे गुजरात आक्रमण के दौरान खिलजी अपना गुलाम बनाकर ले आया था और बलात धर्म परिवर्तन द्वारा मुसलमान बना दिया था, किन्तु उसमें अब भी अपने पुराने हिंदू धर्म का आवेग भरा था ! उसने फिर से हिंदू राज स्थापित करने का प्रयत्न किया ! 6 महीने तक उसने, बिना पुनः हिंदू धर्म में दीक्षित हुए, एक हिंदू राजा के समान राज किया, किंतु उसे ना किसी हिंदू राजघराने से सहायता या समर्थन मिला, ना हिंदू धर्माचार्यों से ! इस बीच, मुस्लिम उलेमाओं के निर्देशन में सभी मुसलमान नवाब और तालुकेदार संगठित हो गए ! उन्होंने एक साथ खुसरो खान पर हमला बोल दिया भीषण युद्ध में घेर कर उसकी हत्या कर दी गयी !

हमारी दूसरी अहम समस्या है आधुनिकता के नाम पर बढ़ती विलासिता। प्रथम विश्व युद्ध के समय मित्र राष्ट्रों की सेना ने दृढ निश्चय के साथ जर्मनी सैन्य बल का मुकावला किया तथा युद्ध में विजय प्राप्त की | उन्होंने जर्मनी का एक बड़ा भूभाग भी अपने कब्जे में ले लिया | परन्तु विजय के पश्चात फ्रांसीसी लोग इन्द्रियलोलुपता तथा सुखोपभोग के शिकार हो गए | वे मद्यपान तथा नाचगाने में लिप्त हो गए, जिसके कारण अपने विशाल सैनिक बल तथा अपनी भीषण “मीजोन रेखा” के होते हुए भी द्वितीय विश्वयुद्ध में जर्मन आक्रमण के १५ दिवस के अन्दर फ्रांस का पतन हो गया | युद्ध के पश्चात वृद्ध फ्रांसीसी जनरल मार्शल पेतां ने कहा – “फ्रांस की पराजय युद्ध क्षेत्र में नहीं, बल्कि पेरिस के नृत्य गृहों में हुई |”

हमारे देश में भी परिस्थिति भिन्न नहीं है | हमारे दैनंदिन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आधुनिकता का अर्थ हो गया है स्वच्छंदता, स्त्रैणता, इन्द्रियलोलुपता | यौन हमारे आधुनिक साहित्य का सर्वव्यापी विषय बन गया है | राष्ट्रीय जीवन का यह आतंरिक चित्र खतरे का संकेत है, जिसके प्रति हम दुर्लक्ष्य नहीं कर सकते |

उक्त दोनों ही जटिल और बड़ी समस्याओं का समाधान एक ही है सनातन आध्यात्म का व्यावहारिक ज्ञान। उसके लिए आवश्यक है राष्ट्रीयता से ओतप्रोत निर्दोष शिक्षा नीति। देश के नौनिहालों को सही इतिहास पढ़ाया जाए, उन्हें नैतिक संस्कार दिए जाएँ, यह समय की मांग है। 

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