सुलगता सवाल - इतिहास में राजा सुहैलदेव का पराक्रम अचर्चित क्यों ?


सोमनाथ विध्वंश के बाद का जागृत भारत बनाम आज की परीस्थितियाँ

विगत दिनों भारत में दो महत्वपूर्ण घटनाएं घटीं। एक तो महाराष्ट्र में सत्ता परिवर्तन और दूसरी राजस्थान के उदयपुर में हुआ कन्हैयालाल का नृशंस क़त्ल। राज्यों में सत्ता परिवर्तन तो होते रहते हैं, लेकिन महाराष्ट्र का सत्ता परिवर्तन इसलिए ख़ास है, क्योंकि यह खालिस हिंदुत्व के मुद्दे पर हुआ। इसी प्रकार कन्हैयालाल की नृशंसता से गला काटकर हुई ह्त्या के बाद हुई तीखी प्रतिक्रिया ने मुस्लिम नेताओं और मुल्ला मौलवियों को भी घटना की निंदा करने के लिए विवश कर दिया। क्योंकि सवाल उठाया गया -

क्यूँ मुस्लिम नेता नही करते घटना की मजम्मत भारी,
क्या हत्यारों की गेंग बन चुकी है कौम सारी ???

यह दोनों घटनाएं देश में हिन्दू चेतना जागरण का स्पष्ट संकेत हैं। आज से लगभग तरह चौदह सौ वर्ष पूर्व हुए सोमनाथ मंदिर के विध्वंश के बाद भी हिन्दू चेतना जागी थी और लूटपाट कर भाग रहा महमूद गजनवी भारत के जिस भाग से भी गुजरा, उसे भारी विरोध और प्रतिरोध का सामना करना पड़ा था । पूरा भारत गुस्से से उबल जो रहा था। यहाँ तक कि महमूद की तीन चौथाई सेना भारत में ही दफ़न हो गई और अपने जीवनकाल में उसकी हिम्मत दुबारा भारत की तरफ आँख उठाने की नहीं हुई।

लेकिन १०३० में उसकी मौत के बाद उसका बहनोई सालार साहू और उसका सोलह वर्षीय बेटा सालार मसूद मई 1031 में भारत पर हमला करने विशाल सेना के साथ निकले। लेकिन इस बार इन लोगों का मकसद महज लूटमार करना नहीं था। ये लोग भारत पर इस्लामी परचम लहराना चाहते थे। मसूद का धार्मिक शिक्षक, सैयद इब्राहिम मशहदी भी उसके साथ था । मिरात-ए-मसूदी के अनुसार, सैयद इब्राहिम एक कट्टरपंथी कमांडर था ! उसके मार्ग में आने वाला कोई भी गैर-मुस्लिम उसकी तलवार से बच नहीं सकता था, जब तक कि वह इस्लाम स्वीकार न कर ले । यह ग्रन्थ बादशाह जहांगीर के समय किसी अब्दुल रहमान चिश्ती नामक शख्स ने लिखा था।

लेकिन उसके बाद जो हुआ, वह भारतीय इतिहास का स्वर्णिम पृष्ठ है, वह इन विदेशी आक्रमणकारियों के दांत खट्टे करने और वीरता पूर्ण प्रतिरोध का इतिहास है। यद्यपि भारत बंटा हुआ था, अलग अलग क्षेत्रों के अलग अलग राजा थे, लेकिन विदेशी आक्रमणकारियों को फिर भी कदम कदम पर लड़ना पड़ा। मुल्तान जीतने के बाद भी दिल्ली पहुँचने में इन लोगों को पूरे डेढ़ वर्ष लगे। दिल्ली के राजा महिपाल तोमर और राय हरगोपाल ने इनका वीरता से मुकावला किया, किन्तु गजनी से और मदद आ जाने के कारण वह इस लडाई को हारते हारते जीत गया । राजा महिपाल के दांत तोड़ने और आँखें निकालने के बाद उन्हें बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया। मसूद की बेरहमी के किस्से चारों और फ़ैल गए। नतीजा यह हुआ कि जब आक्रांता मेरठ पहुंचे तो वहां के शासक हरिदत्त ने मुकाबला करने के स्थान पर उसके समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया, इतना ही नहीं स्वयं भी इस्लाम स्वीकार कर लिया । यही कहानी कन्नौज में भी दोहराई गई, जहाँ के गुर्जर-प्रतिहार राजा ने भी अपने बेटे के साथ इस्लाम स्वीकार कर लिया । मसूद ने यहीं अपना डेरा जमाया जबकि उसका पिता सालार साहू सतरिख की तरफ बढ़ा, जिसे आज बाराबंकी के नाम से जाना जाता है। सतरिख में ४ अक्टूबर १०३२ को सैयद सालार साहू की मौत हो गई । इसके बाद अभियान की कमान अपने हाथों में लेकर उसके बेटे सालार मसूद ने नृशंसता और क्रूरता की पराकाष्ठा कर दी। ह्त्या लूट बलात्कार मंदिरों का विध्वंश यही अब उसका लक्ष्य था। अबुल फजल लिखित आईना ए अकबरी और अमीर खुसरो की किताब एजाज ए खुसरबी में इस महायुद्ध का वर्णन मिलता है।

भारतीय राजा रात के समय युद्ध करना अनुचित मानते थे, अतः मसूद की रणनीति उन पर रात को ही आक्रमण करने की रहती और वे बेचारे उनींदे ही मार खा जाते। इतना ही नहीं तो वह लड़ाई में गायों को अपनी सेना के आगे खड़ी कर देता, जिससे हिन्दू सैनिक तीरों की बौछार न कर सकें, आखिर गौ को वे पूज्य जो मानते थे। गौ ह्त्या का पाप सर लेने के स्थान पर वे लोग मर जाना बेहतर मानते। मसूद एक पत्थर दिल क्रूर हत्यारा था। जो भी पराजित हिन्दू राजा इस्लाम स्वीकार नहीं करता, उसे वह क्रूरता पूर्वक मार डालता। युद्ध में मारे गए हिन्दू योद्धाओं के सर की गेंद बनाकर सार्वजनिक रूप से उनसे खेलता, ताकि उसका आतंक वहां के आम लोगों पर कायम हो जाए। एक बार राजा मुसलमान हो जाता, उसके बाद निरूपाय जनता बेचारी स्वतः इस्लाम स्वीकार करने को विवश हो जाती। आज उस क्षेत्र में जो मुस्लिम आबादी दिखाई देती है, उसी खौफनाक मंजर के चलते है। दुरभाग्य से आजादी के बाद भी उन्हें यह याद दिलाने का कोई प्रयास ही नहीं हुआ कि उनके पूर्वज भी हिन्दू थे, जिन्हें अत्याचार पूर्वक मुस्लिम बनाया गया था। अतः आज वे मुसलमान भले ही रहें, किन्तु अपने पूर्वजों के धर्म हिन्दू को शत्रु तो न मानें। काफिर तो कतई नहीं।

इस दौरान श्रावस्ती के राजा सुहेलदेव थे ! वे मंगल ध्वज के बेटे और बालक ऋषि के शिष्य थे, जिनका आश्रम बहराइच में स्थित था । लोक संस्कृति में उन्हें पासी राजा के रूप में भी जाना जाता है, लेकिन साथ ही कई अन्य जातियों के द्वारा भी उनपर दावा जताया जाता है ! उन्हें नागवंशी क्षत्रिय भी माना जाता है, तो कुछ उन्हें बैस क्षत्रिय मानते हैं । इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है, उनकी लोकप्रियता, इसमें मुख्य कारण है । और उससे भी अधिक मुख्य है उनका शौर्य !

सालार मसूद द्वारा किये गए आक्रमण का प्रतिकार करने के लिए लखीमपुर, सीतापुर, लखनऊ, बाराबंकी, उन्नाव, फैजाबाद, बहराइच, श्रावस्ती, गोंडा आदि के राजाओं ने राजा सुहेलदेव के नेतृत्व में कमर कस ली ! हिन्दू समाज जागने लगा। सबको समझ में आ गया था कि अकेले लड़े तो सब हारेंगे और सबको इस्लाम स्वीकार करना पड़ेगा या मौत को गले लगाना हुआ। इस संगठन का नतीजा भी सामने आया।

सतरिख में अपना केम्प बनाने के बाद उसने अपने गुरू और अभिभावक सैयद इब्राहीम बारह हजारी को धुंधगढ़ को रवाना किया, जहां के किले में मसूद के एक विश्वस्त साथी मोहमद को राजा दीनदयाल और अजयपाल ने बंदी बना लिया था। इब्राहीम को जीत तो मिली किन्तु वह स्वयं राजा दीनदयाल के भाई रामकरण के हाथों मारा गया। सवाल यह उठता है कि आखिर मसूद स्वयं इस युद्ध में क्यों नहीं गया ? दरअसल वह जोहरा बीबी नामक एक स्थानीय महिला के प्यार में अँधा हो गया था और सतरिख छोड़ना नहीं चाहता था।

इसी दौरान काड़ा के राजा देव नारायण और मानिकपुर के राजा भोजपत्र ने एक नाई को योजना पूर्वक मसूद के पास भेजा। उसके जहर बुझे उस्तरे से मसूद तो इलाज के बाद बच गया किन्तु नाखून कटबाने के चक्कर में उसकी मां मारी गई। योजना की असफलता के बाद इन दोनों राजाओं ने एक सन्देश बहराइच भेजा कि आप एक और से हमला करो, हम दूसरी तरफ से आते हैं। घेर कर मारेंगे इन विदेशी आक्रांताओं को। लेकिन दुर्भाग्य से सन्देश वाहक मसूद के हत्थे चढ़ गए और उसने बिना देरी किये काड़ा और माणिकपुर पर चढ़ाई कर दी। दोनों राजा बहादुरी से लडे, पर अंततः पराजित होकर बंदी बना लिए।

जैसे ही इस घटना की जानकारी बहराइच के राजा को मिली, उन्होंने नजदीक ही पड़ाव डाले पड़े एक इस्लामिक कमांडर शैफुद्दीन को घेर लिया। उसे बचाने मसूद भी बहराइच पहुँच गया। भाकला और ताप्ती नदी के मुहाने पर पहली लड़ाई हुई। अपनी हार नजदीक देख मसूद ने अपनी पुरानी रणनीति फिर अपनाई और युद्ध की दूसरी रात के समय अकस्मात हमला कर दिया। नतीजा सालार मसूद के मनमाफिक निकला। बड़ी तादाद में हिन्दू सेनानी मारे गए। इस विजय ने जहां मुसलमान सेना के उत्साह को बढ़ाया, वहीं कई हिन्दू राजा हतोत्साहित हुए और मसूद्द की शरण में पहुँच गए। मसूद ने भी दोनों हाथ फैलाकर उनका स्वागत किया।

लेकिन उसके बाद मसूद ने बहराइच के प्रसिद्ध सूर्य मंदिर और सूर्य कुंड के चारों ओर स्थित सभी बृक्षों को कटवा डाला। वह सूर्य पूजा की परम्परा को जड़ से समाप्त करना चाहता था। केवल सूर्य मंदिर के ठीक सामने स्थित एक महुआ का पेड़ छोड़ा गया, जिसके नीचे एक प्लेटफार्म बनाकर मसूद ने अपना डेरा जमाया। इस पराजय का समाचार पाकर हमारे कथा नायक बहराइच के युवराज सुहैलदेव जो प्रथम युद्ध के दौरान सुजौली में थे अविलम्ब बहराइच आ पहुंचे। हिंदुत्व को खतरे में देखकर उनके नेतृत्व में २१ राजाओं का संगठन बना, और बनी सठे साठयम समाचरेत की रणनीति। जैसे को तैसा। दो महीने की तैयारी के बाद हिन्दू बदला लेने को सन्नद्ध थे।

तब तक एक घटना और हुई। सूर्य मंदिर के पुजारी बाल ऋषि पूरे हिन्दू समाज में आदर और श्रद्धा के पात्र थे। उनकी पुत्री अनारकली को देखकर विलासी मसूद की नियत खराब हो गई। अपनी इज्जत बचाने के लिए अनारकली ने पास ही स्थित एक झील में कूदकर आत्महत्या कर ली। उस झील को आज अनारकली झील के नाम से ही जाना जाता है। इस घटना ने तो मानो समूचे समाज की आत्मा को झकझोर दिया। न केवल सेना, बल्कि आम नागरिक भी गुस्से की आग में जलने लगे। स्थानीय लोहारों की मदद से सुहेलदेव ने दो प्रकार के तीर बनवाये। एक तो बिना धार वाले, दूसरे धारदार और तीक्ष्ण जहर से बुझे हुए, जिनकी एक खरोंच भर भी हाथी जैसे विशाल जीव को भी मौत के आगोश में पहुंचाने को पर्याप्त थी। बिना धार वाले तीर उन गायों के लिए, जिनकी आड़ लेकर कायर शत्रु चढ़ाई करता था। इतना ही नहीं तो युद्ध भूमि में भी जहर बुझी कीले फैला दी गईं। ताकि शत्रुओं के घोड़े मारे जाएँ। इतने पर ही बस नहीं हुई, सुहेलदेव ने सबसे पहले उस नन्द महार पर धावा बोला, जिसने मसूद को युद्ध भूमि में आगे खड़ी करने को गायें उपलब्ध कराई थीं। नन्द को मारकर उसकी सारी गायें सुहैलदेव ने अपने कजे में ले लीं।

इसके बाद हुए निर्णायक युद्ध में चित्तौरा झील के पास 13 जून 1033 को इस्लामी कमांडर मीर नसरुल्लाह की मौत ने मसूद की कमर तोड़ दी ! मीर नसरुल्लाह की कबर बहराईच से 12 कि.मी.उत्तर में बसे एक गाँव डिकोली खुर्द में स्थित है। जल्द ही सालार मसूद का एक करीबी रिश्तेदार सालार मिया रज्जब भी मारा गया । उसकी कब्र, शाहपुर जोट यूसुफ गांव में स्थित है और हैरत की बात यह कि उसे हठीला पीर के नाम से पूजा जाता है । अपनी पराजय सामने देखकर मसूद ने एक और चाल चली। उसने अपनी सेना के मृत सैनिकों की लाशों को नजदीक के सभी कुओं बाबड़ियों में फिंकवा दिया, ताकि हिन्दू सेना को पेयजल न मिले, सारा पानी प्रदूषित हो जाए। योजना सफल हुई और खून से लाल पानी पीने के स्थान पर जीती हुई हिन्दू सेना ने अपने कदम वापस खींच लिए। आखिर जून की प्रचंड गरमी में बिना पानी कैसे रहा जा सकता था। मसूद को जीवन दान मिल गया और वह बहां से जान बचाकर पलायन करने में सफल रहा।

लेकिन जल्द ही अपनी बची हुई सेना को सगठित कर मसूद तीसरी लड़ाई के लिए वापस लौटा। उसने लूटा हुआ अपना सारा पैसा अपने सैनिकों में बाँट दिया और उनसे इस्लाम के नाम पर कुर्बान होने का आव्हान किया। हिन्दू सेना भी उसे मुंहतोड़ जबाब देने को तैयार थी। महाभारत के बाद यह उत्तर पूर्वी भारत का प्रथम सबसे बड़ा धर्मयुद्ध था। इस आक्रमण में सालार मसूद ने सबसे पहला काम किया सूर्य मंदिर को पूरी तरह नष्ट करने का। हिन्दू समाज के गुस्से की आग में इसने और ईंधन डाल दिया। और सभी क्रूर इस्लामी आतंकियों को सबक सिखाने को छटपटाने लगे।

कुटिल मसूद ने भूरेचा दुर्ग पर हमला कर सुहैल देव की बहिन अम्बे को अपने कब्जे में लेकर उन्हें सन्देश भेजा कि या तो मेरी शरण में आओ, समझौता करो, अन्यथा मैं बलपूर्वक तुम्हारी बहिन से निकाह कर लूंगा। इस घटना के बाद सुहैल देव ने अपनी सेना के बीच एक जबरदस्त भाषण दिया और कहा, मेरी बहिन का क्या होगा मुझे इसकी चिंता नहीं है, मुझे सम्पूर्ण हिन्दू समाज की बहिन बेटियों के सम्मान की चिंता है। मैं अपने धर्म पथ से नहीं हटूंगा। किसी कीमत पर समझौता नहीं करूंगा। बस फिर क्या था। वातावरण हर हर महादेव के नारों से गूंजने लगा और जिसके हाथ में जो हथियार आया उसे लेकर सारी सेना युद्ध भूमि की ओर दौड़ पडी।

सुहैलदेव की सेना का एक बड़ा दल, मुस्लिम सेना के केंद्र में प्रवेश कर गया। धनुष वाण और तलवार धारी घोड़े पर सवार सुहेलदेव किसी अवतार पुरुष के समान प्रतीत हो रहे थे। विदेशी आक्रमण कारियों के खिलाफ जागृत हिन्दू चेतना की यह प्रतिध्वनि थी। इस युद्ध में सालार मसूद की पूरी सेना काल के गाल में समा गई। भयभीत मसूद सूर्यकुंड के पास एक महुआ के पेड़ के नीचे एक गाय की ओट में छुपा बैठा था। उसे देखते ही सुहैल देव ने पहला बिना धार वाला तीर गाय को मारकर उसे भगाया। उसके बाद छोड़े गए उनके तीर ने सालार मसूद की गर्दन ही धड़ से अलग कर दी।

इस जीत के बाद राजा सुहेलदेव ने जीत के उपलक्ष में कई तालाबों और बावडियों का निर्माण करवाया । उसके बाद लगभग डेढ़ सौ वर्षों तक किसी विदेशी आक्रांता की हिम्मत नहीं हुई भारत की तरफ आँख टेढ़ी करने की। अब आप ही बताईये कि भारत के इतिहास में सुहेलदेव को सम्मानजनक स्थान मिलना चाहिए या नहीं ?

यह भी दुर्भाग्य पूर्ण हकीकत है कि बाद में फीरोज तुगलक द्वारा बनवाई गई उसी हिन्दुओं के हत्यारे, हिंदू औरतों के बलात्कारी, मूर्ती भंजक दानव सालार की मजार को हिंदू समाज ही एक देवता की तरह पूजता है। सालार मसूद हिन्दुओं का गाजी बाबा हो गया है । अब गाजी की मजार पूजने वाले, ऐसे हिन्दुओं को मूर्ख न कहे तो क्या कहें । आज वहा बहराइच में उसकी मजार पर हर साल उर्स लगता है और उस हिन्दुओ के हत्यारे की मजार पर सबसे ज्यादा हिन्दू ही जाते हैं ! लेकिन समय बदल रहा है अब प्रतिवर्ष बसंत पंचमी को पूरे उत्तर प्रदेश के हर स्कूल कालेज व शहीदों के स्मारकों पर महाराजा सुहैल देव जयन्ती भी मनाई जाने लगी है। गाठ वर्ष तो स्वयं प्रधान मंत्री श्री नरेंद्र मोदी ने बहराइच में आयोजित कार्यक्रम और महाराजा सुहैल देव की मूर्ती के अनावरण कार्यक्रम में वर्चुअली सहभागिता की। कहने की आवश्यकता नहीं कि मुख्य मंत्री श्री योगी आदित्यनाथ तो वहां उपस्थित थे ही।

विषय की यूट्यूब लिंक - https://youtu.be/QiuLQSFf2E8


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