स्वतंत्र भारत में गौ रक्षा आंदोलन के सूत्रधार - तेजस्वी सन्यासी करपात्री जी महाराज


हम हर धार्मिक आयोजन में जयघोष करते हैं - धर्म की जय हो, अधर्म का नाश हो, प्राणियों में सद्भावना हो, विश्व का कल्याण हो। सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करने के बाद तेजस्वी सन्यासी करपात्री जी महाराज ने सन १९४० में सनातन धर्म के पुनरुत्थान हेतु धर्मसंघ की स्थापना की थी, यह नारे उसी समय से लगाए जा रहे हैं। ध्यान दीजिये - हम अधर्मी या पापी के नाश की नहीं, अधर्म और पाप के नाश की बात करते हैं। हर अधर्मी का ह्रदय परिवर्तन हो वह धर्म परायण बने, यही अभिलाषा इन नारों में छुपी हुई है। यही तो है सनातन संस्कृति की सुंदरता और विशेषता। करपात्री जी की धर्मपरायणता और विद्वत्ता को देखते हुए उनसे शंकराचार्य पद स्वीकार करने के लिए आग्रह किया गया, किन्तु उन्होंने अपना जीवन लक्ष्य कुछ भिन्न बताकर विनम्रता पूर्वक इंकार कर दिया। यह अलग बात है कि आज तीन पूज्यपाद शंकराचार्य उनके ही शिष्य हैं।

सत्य के पूजार्री कहे जाने वाले महात्मा गांधी जी ने घोषणा की थी कि भारत का विभाजन मेरी लाश पर से होगा, लेकिन उनका यह कथन कोरा शिगूफा या जुमला सिद्ध हुआ कोरा वाग्विलास प्रमाणित हुआ। इससे क्षुब्ध होकर स्वामी करपात्री जी ने भारत अखंड रखने की आवाज बुलंद की तो दिल्ली की तिहाड़ जेल और उसके बाद लाहौर जेल में बंद कर दिए गए। जेल से छूटने के बाद कांग्रेस के मिथ्याचार से क्षुब्ध होकर उन्होंने १९४८ में रामराज्य परिषद नामक दल बनाया, जिसने १९५२ के पहले आम चुनाव में तीन लोकसभा सीटें जीतीं। राजस्थान विधानसभा में भी इस दल के लगभग २५ सदस्य चुने गए।

संभवतः आज की युवा पीढी को 6 नवम्बर, 1966 के उस काले दिन की जानकारी भी नहीं होगी, जिस दिन आजाद भारत में असंख्य गो-प्रेमियों और साधू संतों का दिल्ली की सडकों पर क्रूर नरसंहार किया गया था। उस घटना की चर्चा के पूर्व आईये पहले करपात्री जी की जीवन वृत्त पर एक नजर डालते हैं -

विक्रमी संवत् 1964 सन् 1907 ईस्वी श्रावण मास, शुक्ल पक्ष, द्वितीया को ग्राम भटनी, ज़िला प्रतापगढ़ उत्तर प्रदेश में एक सनातन धर्मी सरयूपारीण ब्राह्मण श्री रामनिधि ओझा व श्रीमती शिवरानी के पुत्र रूप में करपात्री जी का आविर्भाव हुआ । नाम रखा गया हरिनारायण ओझा | होनहार बिरवान के होत चीकने पात के अनुसार बचपन से ही उनका रुझान भगवद्भक्ति की ओर था। 9 वर्ष की अल्पायु में ही उनका महादेवी जी के साथ विवाह संपन्न हो गया, किन्तु दुनियादारी से विरक्त हरिनारायण जी सत्रह वर्ष की आयु में ही घर छोड़कर जा पहुंचे बनारस। वहां उनकी नजर एक दिव्य सन्यासी पर पड़ी, जो गंगा किनारे एक बट वृक्ष के नीचे मात्र टाट लपेटे ध्यानस्थ बैठे थे। उन्होंने सन्यासी को प्रणाम कर प्रार्थना की स्वयं को शिष्य बनाने की। लेकिन वह गुरू ही क्या  शिष्य के सर्वांगीण विकास की चिंता न करे। सन्यासी ने उन्हें सलाह दी कि पहले नरवर जाकर लौकिक ज्ञान प्राप्त करो, उसके बाद ही आध्यात्मिक जगत में प्रवेश की सोचना। गुरू आज्ञा शिरोधार्य कर हरिनारायण जा पहुंचे नरवर और वहां पंडित श्री जीवन दत्त महाराज, पंजाबी बाबा श्री अच्युत मुनि जी महाराज तथा षड्दर्शनाचार्य पंडित स्वामी श्री विश्वेश्वराश्रम जी महाराज से व्याकरण शास्त्र, दर्शन शास्त्र, भागवत, न्यायशास्त्र, वेदांत आदि का ज्ञान प्राप्त किया ।  वहां से लौटने पर गुरू ने उन्हें नैष्ठिक ब्रह्मचारी की दीक्षा दी और वे हरि नारायण से ' हरिहर चैतन्य ' बन गए । उनके गुरू और कोई नहीं स्वामी ब्रह्मानंद सरस्वती जी महाराज थे,  कालान्तर में ज्योतिर्मठ पीठ के शंकराचार्य  बने। 

उसके बाद काशी से हिमालय की गिरि कंदराओं में पहुंचकर  साधना रत रहे, तदुपरांत काशी धाम में शिखासूत्र का परित्याग कर विधिवत संन्यास की दीक्षा ली । ढाई गज़ कपड़ा एवं दो लंगोटी मात्र उनके वस्त्र रह गए, जिसमें शीतकाल, ग्रीष्म ऋतू और वर्षा को सहन करना उनका स्वभाव बन गया । उनकी बुद्धि इतनी तीव्र थी कि एक बार जो पढ़ते, उसे आजीवन भूलते नहीं थे । गंगातट पर फूंस की झोंपड़ी में एकाकी निवास, तथा घरों से भिक्षाग्रहण कर, चौबीस घंटों में एक बार भोजन करना, और वह भी हाथ की अंजुली में जितना समाये, उतना भर, इसी वृत्त के कारण उनका नाम करपात्री प्रसिद्ध हो गया । भूमिशयन, निरावरण चरण पद यात्रा और एक टांग पर खड़े होकर तपस्या की कठोर साधना उनकी दिनचर्या बन गई। वे प्रतिदिन रात्रि डेढ़ बजे ही निद्रा त्यागकर ध्यान करतें तदुपरांत दस किलोमीटर पैदल चलते। इस भ्रमण काल में भी वे श्री सूत्र का पाठ करते रहते। स्नान उपरांत ढाई घंटे शीर्षासन लगाकर सम्पूर्ण दुर्गा सप्तशती का सम्पुट सहित पाठ करते। धर्मशास्त्रों में इनकी अद्वितीय एवं अतुलनीय विद्वता को देखते हुए इन्हें ‘धर्मसम्राट’ की उपाधि प्रदान की गई।

आजादी के बाद से ही हिंदुओं में गौ वंश की हत्या पर रोक लगाने और देश के सभी बूचड़ खानों को बंद कराने की मांग जोर पकड़ने लगी थी | सन 1966 आते आते यह मांग एक प्रबल आंदोलन के रूप में बदल गयी | कहने को तो उस आंदोलन में अनेक हिन्दू संगठन और नेता शामिल थे , परन्तु अपनी निर्भीकता और ओजस्वी भाषणों के कारण संत “ करपात्री ” जी महाराज उनमें अग्रणी थे |

तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी ने जब संतों द्वारा की गई गौ वंश की हत्या पर पाबन्दी लगाने की मांग को ठुकरा दिया, तो संतों ने 7 नवम्बर 1966 को संसद भवन के सामने धरना शुरू कर दिया। भारत साधु समाज, सनातन धर्म, जैन धर्म आदि सभी भारतीय धार्मिक समुदायों ने इस धरने में बढ़-चढ़कर भाग लिया। इस आन्दोलन में चारों शंकराचार्य तथा स्वामी करपात्री जी भी जुटे थे। जैन मुनि सुशील कुमार तथा सार्वदेशिक सभा के प्रधान लाला रामगोपाल शालवाले और हिन्दू महासभा के प्रधान प्रो॰ रामसिंह जी भी बहुत सक्रिय थे। श्री संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी तथा पुरी के जगद्‍गुरु शंकराचार्य श्री स्वामी निरंजनदेव तीर्थ तथा महात्मा रामचन्द्र वीर के आमरण अनशन ने आन्दोलन में प्राण फूंक दिये थे।

हिंदू पुलिस बल साधू संतों पर कठोरता बरतने में ढिलाई कर सकता है, यह मानकर इस आंदोलन से निबटने के लिए श्रीमती इंदिरा गांधी ने विशेष रूप से कश्मीर पुलिस बल के जवान बुलबाये थे। प्रदर्शनकारी पूर्णतः शांतिपूर्ण थे और उनके साथ भारी संख्या में महिलायें और बच्चे भी मौजूद थे। अचानक कुछ शरारती तत्वों ने ट्रांसपोर्ट भवन के पास कुछ वाहनों को आग लगा दी। यह घटना देखते ही तुरन्त संसद के दरवाजे बंद कर दिए गए और धमाकों की आवाज आने लगी। इसके बाद तो चारों तरफ धुंआ उठने लगा। निहत्थे और शांत संतों पर पुलिस के द्वारा गोली चलवा दी गई ,जिससे लगभग १२०० साधु और गौभक्त मारे गए । इस ह्त्या कांड से क्षुब्ध होकर तत्कालीन गृहमंत्री ” गुलजारी लाल नंदा ” ने अपना त्याग पत्र दे दिया | माना जाता है कि संतों पर गोली चलाने का आदेश दिए जाने से वे अत्यंत ही क्षुब्ध हो गए थे |

करपात्री जी महाराज व अनेक गौभक्त गिरफ्तार कर दिल्ली की तिहाड़ जेल में डाल दिए गए। इतना ही नहीं तो जेल में करपात्री जी की हत्या के उद्देश्य से फांसी की सजा पाए कुख्यात अपराधियों से हमला भी करवाया गया, किन्तु उनके शिष्यों ने सारे निर्मम प्रहार अपने ऊपर लेकर उनकी प्राणरक्षा की। इसके बाद भी लोहे की किसी नुकीली कील से करपात्री जी की आँख फोड़ने का प्रयास हुआ, आँख तो नहीं फूटी, पर घाव अवश्य हो गया। उधर संत राम चन्द्र शर्मा वीर आमरण अनशन पर डटे रहे। अंततः 166 दिनों के बाद उनकी मृत्यु के साथ ही उनका सत्याग्रह पूर्ण हुआ । गौरक्षा के लिए अपने प्राण होम करने वाले संत ” राम चन्द्र वीर ” के 166 दिवसीय अनशन ने "गौ रक्षा" का विषय न केवल भारतीय जन मानस में गहराई तक पहुँचाया, बल्कि सम्पूर्ण विश्व का ध्यान आकृष्ट किया |

आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और निष्पक्ष प्रेस की बहुत बातें की जाती हैं, लेकिन उस समय के किसी भी अखबार ने इंदिरा गांधी द्वारा साधुओं पर गोली चलवाने की खबर छापने की हिम्मत नहीं दिखायी | सिर्फ मासिक पत्रिका “आर्यावर्त ” और “केसरी ” ने इस खबर को छापा था | और कुछ दिन बाद गोरखपुर से छपने वाली मासिक पत्रिका “ कल्याण ” ने अपने विशेषांक ” गौ अंक में विस्तार सहित यह घटना प्रकाशित की थी | कल्याण के उसी अंक में इंदिरा को सम्बोधित करके स्वामी करपात्री जी ने श्राप दिया था - “तूने निर्दोष साधुओं की हत्या करवाई है . फिर भी मुझे इसका दुःख नही है | लेकिन तूने गौ हत्यारों को गायों की हत्या करने की छूट देकर जो पाप किया है वह क्षमा के योग्य नहीं है | इसलिये मैं आज तुझे श्राप देता हूँ।

जो भी हो करपात्री जी महाराज की विलक्षण प्रतिभा व वक्तृत्व कला का वर्णन करते हुए उनके शिष्य और जगन्नाथ पुरी स्थित गोवर्धन पीठ के वर्तमान शंकराचार्य पूज्य्पाद स्वामी निश्चलानंद सरस्वती जी अपने प्रवचनों में करपात्री जी महाराज का एक रोचक संस्मरण भी सुनाते हैं। जिन दिनों पूज्य करपात्री जी काशी में चातुर्मास कर रहे थे, उन्हीं दिनों काशी हिन्दू विश्व विद्यालय में सभी धर्म, संप्रदाय, मत मतान्तरों की एक संगोष्ठी आयोजित हुई। स्व. प्रद्यानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की प्रेरणा से सनातन धर्म की व्याख्या हेतु पूज्य करपात्री जी महाराज से निवेदन किया गया। चूंकि विश्वविद्यालय काशी की सीमा से बाहर स्थित है और सन्यासी चातुर्मास में सीमा उल्लंघन नहीं करते अतः उनका प्रवचन रिकॉर्ड किया गया। बाद में वह संगोष्ठी का सबसे उत्तम प्रवचन मान्य किया गया। इतना ही नहीं तो इंदिरा जी ने भी प्रतिक्रिया दी - सनातन धर्म के सर्वश्रेष्ठ प्रवक्ता सर्वश्रेष्ठ उद्घोषक करपात्री जी। बाद में जब करपात्री जी को यह प्रसंग बताया गया तो उन्होंने विरक्त भाव से कहा कि यदि मुझे पहले बता दिया जाता कि इस सबके पीछे इंदिराजी हैं, तो मैं प्रवचन देता ही नहीं।

भारत विभाजन का विरोध करने के कारण लाहौर जेल में, तथा गौवध पर प्रतिबन्ध की मांग के कारण दिल्ली की तिहाड़ जेल में रहे स्वामी करपात्री जी द्वारा लिखित अद्भुत ग्रन्थ :- वेदार्थ पारिजात, रामायण मीमांसा, विचार पीयूष, मार्क्सवाद और रामराज्य, परमार्थ सार संस्कृत ग्रन्थ व उसका हिंदी अनुवाद आदि से उनकी विद्वत्ता का बोध होता है ।

२९ जनवरी १९८२ को यह अद्भुत तेजस्वी सन्यासी "परमहंस परिब्राजकाचार्य 1008 श्री स्वामी हरिहरानंद सरस्वती श्री करपात्री जी महाराज"इस असार संसार से विदा लेकर प्रभु चरणों में विलीन हो गए | उनकी मृत्यु का कारण दिल्ली की तिहाड़ जेल में आँख पर आया वही घाव था, जो हिंसाचारियों के प्रहार से हुआ था। एलोपेथिक दवा न लेने के व्रत के चलते उन्होंने उसका उपचार कराया नहीं और आँख में जीवन भर पीड़ा सहते रहे। कहा जा सकता है कि गौरक्षा हेतु ही करपात्री जी ने भी अपना जीवन उत्सर्ग किया। उनके निर्देशानुसार उनके नश्वर पार्थिव शरीर को केदारघाट स्थित श्री गंगा महारानी की पावन गोद में जल समाधी दी गई।

दुर्भाग्य यह है कि गो-वध को रोकने के लिए पुरानी पीढ़ी ने जो कुर्बानी दी, उसकी जानकारी भी आज की पीढी को नहीं है । दुःख की बात यह है कि आज भी न तो पशुवधशालाओं की संख्या घट रही और ना ही गौशालाओं की संख्या बढाने की ओर किसी का ध्यान है!

२०१४ के लोकसभा चुनाव के पूर्व मांस की गुलाबी क्रान्ति के स्थान पर दूध की धवल क्रान्ति का दिखाया गया सपना पता नहीं कब तक सपना ही रहेगा ।

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