हिटलर से भी आँख मिलाकर बात करने वाले क्रांतिकारी- चम्पक रमन पिल्लई
बात उन दिनों की है जब
हिटलर का सितारा बुलंदियों पर था। भारतीय क्रांतिकारी भी उसकी मदद से भारत को
स्वतंत्र कराने की चेष्टा में थे। लेकिन चम्पक रमन पिल्लई को यह जानकर दुःख हुआ कि
हिटलर के मन में काले भारतीयों के लिए कोई सहानुभूति नहीं थी। इसी परिप्रेक्ष में उनका
हिटलर से हुआ संवाद ऐतिहासिक है। पिल्लई ने कहा था -
मैंने कल्पना भी नहीं की
थी कि आप जैसा महान नेता के विचार इतने ओछे भी हो सकते हैं। आर्य रक्त हममें भी है
और आप में भी। लेकिन आप रक्त को महत्व न देते हुए चमड़ी के रंग को महत्व दे रहे
हैं। हम लोगों का रंग भले काला हो, लेकिन दिल काला नहीं है।
हिटलर तिलमिला उठा और
बोला - क्या आपका आशय यह है कि हम लोग दिल के काले हैं ?
पिल्लई ने तुर्की
बतुर्की जबाब दिया, आप जो भी समझें, हम भारतीय मृत्यु के भय से झूठ नहीं बोलते। सत्य बोलने से नहीं डरते।
आखिर कौन थे ये चम्पक रमन
पिल्लई ?
केरल के त्रिवेंद्रम नगर
में १५ सितम्बर १८९१ को जन्मे होनहार छात्र चम्पक रमन पिल्लई की योग्यता से
प्रभावित होकर जंतु विज्ञान विशेषज्ञ अंग्रेज स्कर्टलैंड ने उनकी योरोप में शिक्षा
के लिए भारत सरकार से सिफारिश की थी। परिणाम स्वरुप १७ वर्ष की आयु में पिल्लई
सितम्बर १९०८ में उच्च शिक्षा हेतु इटली पहुंचे। इटली के नेपल्स नगर में रहते हुए
उन्होंने बारह भाषाओं पर अच्छा अधिकार कर लिया। उसके बाद जर्मनी पहुंचकर बर्लिन
में उन्होंने इंजीनियरिंग राजनीति विज्ञान और अर्थ शास्त्र में पी एच डी की । एक
इंजीनियर के रूप में उनकी ख्याति इतनी बढ़ी कि बड़े बड़े जर्मन उद्योगपति भी उनसे
परामर्श लेने लगे।
जर्मनी में ही उनका
संपर्क लाला हरदयाल, तारकनाथ दास, वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय, सी के चतुर्वेदी, राजा महेंद्र प्रताप जैसे भारतीय स्वतंत्रता
सेनानियों से हुआ और फिर १९१४ में आधार शिला रखी गई भारतीय राष्ट्रीय दल की।
भारतीय क्रांतिकारियों के इस दल ने जर्मन सरकार को भारत की स्वतंत्रता में सहयोग
हेतु आग्रह किया। डॉ. चम्पक रमन पिल्लई ने जर्मन नाविक बेड़े में सम्मिलित होकर
समुद्री युद्ध में दक्षता प्राप्त का ली। यहाँ तक कि उन्हें यूरोप में आतंक का
पर्याय बन चुकी जर्मन पनडुब्बी एडमन का द्वितीय कमांडर नियुक्त कर दिया गया। इस
दौरान उन्होंने अनेकों यूरोपीय जहाज़ों को तबाह किया। एक बार तो वे अंडमान निकोबार
तक जा पहुंचे। किन्तु दुर्भाग्य से ११ नवम्बर १९१४ को यह पनडुब्बी नष्ट कर दी गई।
पिल्लई किसी तरह जान बचाकर एक नाव द्वारा भारत के तट पर लगे और एक मछुआरे के यहाँ
शरण ली ।
अंग्रेज जासूसों की आँख
में धुल झोंकते हुए पिल्लई अफगानिस्तान पहुँच गए, जहाँ राजा महेंद्र प्रताप द्वारा
स्थापित आजाद हिन्द सरकार में उन्हें विदेश मंत्री नियुक्त किया गया। यह प्रयोग
विफल हो जाने के बाद पिल्लई एक बार फिर जर्मनी पहुंचे, जहाँ उनका पहले से भी अधिक
स्वागत हुआ। यहाँ तक कि उन्हें जर्मन राष्ट्रवादी दल की सदस्यता भी प्रदान कर दी
गई। इस दल के वे एकमात्र भारतीय थे। जर्मनी आने वाले हर भारतीय नेता से पिल्लई
भेंट करते व देश की स्वाधीनता हेतु चर्चा करते। मोतीलाल नेहरू, बिट्ठलभाई पटेल के
अतिरिक्त सन १९३३ में तो विएना में उनकी मुलाक़ात नेताजी सुभाष चंद्र बोस से भी
हुई।
किन्तु तभी हिटलर से हुए
उनके विवाद के बाद उन्हें नाजियों का कोपभाजन बनना पड़ा। उन पर हमले हुए, और गभीर घायल स्थिति में
ही उन्हें जहर दे दिया गया। यहाँ तक कि उन्हें कोई इलाज भी मुहैया नहीं करवाया गया
और उनकी विवश पत्नी लक्ष्मी देवी उन्हें लेकर प्रशिया पहुंची, जहाँ २३ मई १९३४ को भारत
का यह महान सपूत चिरनिद्रा में सो गया।
उनकी अंतिम इच्छा थी कि
उनकी अस्थियां भारत की स्वाधीनता के बाद उनके गृह नगर त्रिवेंद्रम में विसर्जित की
जाएँ। इतना भरोसा था उन्हें अपने देश की स्वतंत्रता पर। १७ सितबर १९६६ को तत्कालीन
नौसेनाध्यक्ष एम नंदा जब भारत के प्रथम युद्ध पोत आई एन एस दिल्ली में उनका
अस्थिकलश लेकर कोचीन पहुंचे तब हजारों लोगों ने उसका पुष्पवर्षा कर स्वागत किया।
वहां से यह अस्थिकलश त्रिवेंद्रम ले जाय गया, जहाँ विधिवत उनका जलप्रवाह किया
गया।
बात उन दिनों की है जब हिटलर का सितारा बुलंदियों पर था। भारतीय क्रांतिकारी भी उसकी मदद से भारत को स्वतंत्र कराने की चेष्टा में थे। लेकिन चम्पक रमन पिल्लई को यह जानकर दुःख हुआ कि हिटलर के मन में काले भारतीयों के लिए कोई सहानुभूति नहीं थी। इसी परिप्रेक्ष में उनका हिटलर से हुआ संवाद ऐतिहासिक है। पिल्लई ने कहा था -
मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि आप जैसा महान नेता के विचार इतने ओछे भी हो सकते हैं। आर्य रक्त हममें भी है और आप में भी। लेकिन आप रक्त को महत्व न देते हुए चमड़ी के रंग को महत्व दे रहे हैं। हम लोगों का रंग भले काला हो, लेकिन दिल काला नहीं है।
हिटलर तिलमिला उठा और बोला - क्या आपका आशय यह है कि हम लोग दिल के काले हैं ?
पिल्लई ने तुर्की बतुर्की जबाब दिया, आप जो भी समझें, हम भारतीय मृत्यु के भय से झूठ नहीं बोलते। सत्य बोलने से नहीं डरते।
आखिर कौन थे ये चम्पक रमन पिल्लई ?
केरल के त्रिवेंद्रम नगर में १५ सितम्बर १८९१ को जन्मे होनहार छात्र चम्पक रमन पिल्लई की योग्यता से प्रभावित होकर जंतु विज्ञान विशेषज्ञ अंग्रेज स्कर्टलैंड ने उनकी योरोप में शिक्षा के लिए भारत सरकार से सिफारिश की थी। परिणाम स्वरुप १७ वर्ष की आयु में पिल्लई सितम्बर १९०८ में उच्च शिक्षा हेतु इटली पहुंचे। इटली के नेपल्स नगर में रहते हुए उन्होंने बारह भाषाओं पर अच्छा अधिकार कर लिया। उसके बाद जर्मनी पहुंचकर बर्लिन में उन्होंने इंजीनियरिंग राजनीति विज्ञान और अर्थ शास्त्र में पी एच डी की । एक इंजीनियर के रूप में उनकी ख्याति इतनी बढ़ी कि बड़े बड़े जर्मन उद्योगपति भी उनसे परामर्श लेने लगे।
जर्मनी में ही उनका संपर्क लाला हरदयाल, तारकनाथ दास, वीरेंद्र नाथ चट्टोपाध्याय, सी के चतुर्वेदी, राजा महेंद्र प्रताप जैसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों से हुआ और फिर १९१४ में आधार शिला रखी गई भारतीय राष्ट्रीय दल की। भारतीय क्रांतिकारियों के इस दल ने जर्मन सरकार को भारत की स्वतंत्रता में सहयोग हेतु आग्रह किया। डॉ. चम्पक रमन पिल्लई ने जर्मन नाविक बेड़े में सम्मिलित होकर समुद्री युद्ध में दक्षता प्राप्त का ली। यहाँ तक कि उन्हें यूरोप में आतंक का पर्याय बन चुकी जर्मन पनडुब्बी एडमन का द्वितीय कमांडर नियुक्त कर दिया गया। इस दौरान उन्होंने अनेकों यूरोपीय जहाज़ों को तबाह किया। एक बार तो वे अंडमान निकोबार तक जा पहुंचे। किन्तु दुर्भाग्य से ११ नवम्बर १९१४ को यह पनडुब्बी नष्ट कर दी गई। पिल्लई किसी तरह जान बचाकर एक नाव द्वारा भारत के तट पर लगे और एक मछुआरे के यहाँ शरण ली ।
अंग्रेज जासूसों की आँख में धुल झोंकते हुए पिल्लई अफगानिस्तान पहुँच गए, जहाँ राजा महेंद्र प्रताप द्वारा स्थापित आजाद हिन्द सरकार में उन्हें विदेश मंत्री नियुक्त किया गया। यह प्रयोग विफल हो जाने के बाद पिल्लई एक बार फिर जर्मनी पहुंचे, जहाँ उनका पहले से भी अधिक स्वागत हुआ। यहाँ तक कि उन्हें जर्मन राष्ट्रवादी दल की सदस्यता भी प्रदान कर दी गई। इस दल के वे एकमात्र भारतीय थे। जर्मनी आने वाले हर भारतीय नेता से पिल्लई भेंट करते व देश की स्वाधीनता हेतु चर्चा करते। मोतीलाल नेहरू, बिट्ठलभाई पटेल के अतिरिक्त सन १९३३ में तो विएना में उनकी मुलाक़ात नेताजी सुभाष चंद्र बोस से भी हुई।
किन्तु तभी हिटलर से हुए उनके विवाद के बाद उन्हें नाजियों का कोपभाजन बनना पड़ा। उन पर हमले हुए, और गभीर घायल स्थिति में ही उन्हें जहर दे दिया गया। यहाँ तक कि उन्हें कोई इलाज भी मुहैया नहीं करवाया गया और उनकी विवश पत्नी लक्ष्मी देवी उन्हें लेकर प्रशिया पहुंची, जहाँ २३ मई १९३४ को भारत का यह महान सपूत चिरनिद्रा में सो गया।
उनकी अंतिम इच्छा थी कि उनकी अस्थियां भारत की स्वाधीनता के बाद उनके गृह नगर त्रिवेंद्रम में विसर्जित की जाएँ। इतना भरोसा था उन्हें अपने देश की स्वतंत्रता पर। १७ सितबर १९६६ को तत्कालीन नौसेनाध्यक्ष एम नंदा जब भारत के प्रथम युद्ध पोत आई एन एस दिल्ली में उनका अस्थिकलश लेकर कोचीन पहुंचे तब हजारों लोगों ने उसका पुष्पवर्षा कर स्वागत किया। वहां से यह अस्थिकलश त्रिवेंद्रम ले जाय गया, जहाँ विधिवत उनका जलप्रवाह किया गया।
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