2015 में दिया गया शशि थरूर का एक भाषण आज भी सोशल मीडिया पर वायरल क्यों हो रहा है।



क्या आप विश्वास करेंगे कि यह भाषण शशि थरूर ने दिया और वह भी ब्रिटैन में जाकर ? 2015 में दिया गया उनका यह भाषण आज भी सोशल मीडिया पर जमकर वायरल हो रहा है। 

अनुभव यह बताता है कि वस्तुतः ब्रिटिश उपनिवेशवाद के दौरान उपनिवेशों की आर्थिक स्थिति बिगड़ गई थी।
भारत का ही उदाहरण लें तो जब ब्रिटेन भारतीय तट पर पहुंचा तो विश्व अर्थव्यवस्था में भारत का हिस्सा 23 प्रतिशत था, अंग्रेजों के जाने तक यह 4 प्रतिशत से भी कम रह गया था। क्यों? सिर्फ इसलिए क्यों कि ब्रिटेन ने भारत पर शासन स्वयं के लाभ के लिए किया था।
ब्रिटेन के विकास की बुनियाद 200 वर्षों तक भारत में उसके द्वारा की गई लूट-खसोट पर आधारित थी । दूसरे शब्दों में कहें तो ब्रिटेन की औद्योगिक क्रांति भारत के गैर-औद्योगीकरण पर आधारित थी।
उदाहरण के लिए दुनिया भर में प्रसिद्ध भारत के हथकरघा बुनकर, जिनके उत्पादों को दुनिया भर में निर्यात किया जाता था। जिस समय ब्रिटेन भारत पहुंचा उस समय ये बुनकर मलमल के महीन वस्त्र बुना करते थे। ऐसा कहा जाता है कि ब्रिटेन के भारत पहुंचने के बाद उनके अंगूठे तोड़ दिए गए। उनके करघे तोड़ दिए गए, उनके वस्त्रों और उत्पादों पर शुल्क और शुल्क लगाया गया। यह निर्विवाद तथ्य है कि भारत से कच्चा माल लेकर, उससे निर्मित कपड़े को दुनिया के बाजारों में वापस भेजना शुरू कर दिया। देखते ही देखते भारत का कच्चा माल इंग्लैंड में विक्टोरिया की अंधेरी और शैतानी मिलों का उत्पाद बन गया।
भारत के बुनकर भिखारी बन गए और भारत तैयार कपड़े के विश्व प्रसिद्ध निर्यातक से आयातक बन गया, उसका विश्व व्यापार 27 प्रतिशत से घटकर 2 प्रतिशत से भी कम हो गया।

इस बीच, रॉबर्ट क्लाइव जैसे उपनिवेशवादी लुटेरों ने भारत में अपनी लूट की आय के आधार पर इंग्लैंड में अपने सड़े हुए नगरों को बसाया।
तथ्य यह है कि 19वीं शताब्दी के अंत तक, भारत पहले ब्रिटेन की सबसे प्रमुख दुधारू गाय थी। भारत ब्रिटिश वस्तुओं और निर्यातों का दुनिया का सबसे बड़ा खरीददार और ब्रिटिश सिविल सेवकों के लिए उच्च वेतन वाले रोजगार का स्रोत था। हमने सचमुच अपने उत्पीड़न के लिए भुगतान किया, और चतुर ब्रिटिश विक्टोरियन परिवारों ने अपनी गुलाम अर्थव्यवस्था से भरपूर पैसा कमाया। 19 वीं शताब्दी में ब्रिटेन के धनी कुलीन वर्ग का पांचवां हिस्सा 30 लाख अफ्रीकी गुलामों को पानी के जहाज़ों से लाने के लिए होता था। 1833 में जब गुलामी प्रथा को समाप्त कर दिया गया, तब 20 मिलियन पाउंड का मुआवजा उन लोगों को मुआवजे के रूप में नहीं दिया गया, जिन्होंने अपनी जान गंवा दी थी या जो गुलामी से पीड़ित या उत्पीड़ित थे, बल्कि उन लोगों को दिया गया जिन्होंने अपनी संपत्ति खो दी थी। मैं इस तथ्य से चकित था कि आपके महान उदार नायक मिस्टर ग्लैडस्टोन का परिवार भी इस मुआवजे से लाभान्वित होने वालों में से एक था।

15-29 मिलियन भारतीय ब्रिटिश प्रेरित अकाल में भूख से मर गये । सबसे प्रमुख उदाहरण है द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान का भीषण बंगाल अकाल, जिसमें 4 मिलियन लोग मारे गए थे। क्यों ? क्योंकि विंस्टन चर्चिल ने जानबूझकर लिखित नीति के रूप में बंगाल में नागरिकों की आवश्यक आपूर्ति को यूरोपीय लोगों के लिए आरक्षित कर दिया था।
उनके लिए अल्पपोषित बंगालियों की भूख मजबूत यूनानियों की तुलना में बहुत कम मायने रखती थी' - याद रखिये यह चर्चिल का स्वयं का प्रमाणित कथन है । और जब त्रस्त ब्रिटिश अधिकारियों ने उन्हें सचेत करते हुए लिखा कि इस फैसले के कारण लोग मर रहे हैं, तो उन्होंने फ़ाइल के हाशिये में लिखा, "गांधी अभी तक क्यों नहीं मरे हैं?"
इसलिए, यह धारणाएं कि ब्रिटिश अपने औपनिवेशिक उद्यम को प्रबुद्ध निरंकुशता से बाहर करने की कोशिश कर रहे थे और सभ्यता के लाभों को वंचितों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहे थे, मिथ्या है । 1943 में चर्चिल का आचरण इस मिथक को तोडने वाले कई उदाहरणों में से एक है। कोई आश्चर्य नहीं कि ब्रिटिश साम्राज्य में सूरज कभी नहीं डूबता था, क्योंकि भगवान भी अंधेरे में अंग्रेजों पर भरोसा नहीं कर सकते थे।

प्रथम विश्व युद्ध के दौरान युद्ध में लड़ने वाली सभी ब्रिटिश सेनाओं में हर छठा सैनिक भारतीय था - वस्तुतः उस युद्ध में 54,000 भारतीयों ने अपनी जान गंवाई, 65,000 घायल हुए और अन्य 4000 लापता हुए या जेल में रहे।
उस समय पैसे में भी भारतीय करदाताओं को 10 करोड़ पाउंड खर्च करने पड़े थे। भारत ने 17 मिलियन राउंड गोला-बारूद, 6,00,000 राइफल और मशीनगनों की आपूर्ति की। 42 मिलियन वस्त्र सिले और आपूर्ति की। इतना ही नहीं तो 13 मिलियन भारतीय कर्मियों ने इस युद्ध में सेवा की। स्वयं मंदी से पीड़ित, गरीबी और भूख से बेहाल भारत को 173,000 जानवरों और 370 मिलियन टन खाद्यान्न की आपूर्ति करनी पड़ी, आज उसका मूल्य 8 अरब पाउंड है । आप प्रमाणीकरण चाहते हैं, तो यह उपलब्ध है।
द्वितीय विश्व युद्ध का हाल तो और भी बुरा था - वर्दी में 2.5 मिलियन भारतीय। यह विश्वास करना कठिन है, लेकिन सचाई है कि 1945 में ब्रिटेन का कुल युद्ध ऋण 3 बिलियन पाउंड का था, यहां तक कि उसे भारत को भी 1.25 बिलियन देना था, जो कभी भुगतान नहीं किया गया।

उपनिवेशवाद ने वस्तुतः स्कॉटलैंड के साथ ब्रिटैन के मिलन को मजबूत किया। स्कॉट्स ने 1707 से पहले उपनिवेश से बाहर होने की कोशिश की, पर असफल रहे। लेकिन उसके बाद उन्हें भारत उपलब्ध हो गया, जहाँ से स्कॉट्स को अनुपातहीन रोजगार मिला। इस औपनिवेशिक उद्यम में सैनिकों के रूप में, व्यापारियों के रूप में, एजेंटों के रूप में, कर्मचारियों के रूप में भारत से उनकी कमाई ने स्कॉटलैंड को समृद्धि दी, यहां तक कि स्कॉटलैंड को गरीबी से बाहर निकाला।
अब जबकि भारत नहीं है, कोई आश्चर्य नहीं कि बंधन ढीले हो रहे हैं। भारत में रेलवे शुरू करना एक उपलब्धि बताया जाता है, लेकिन रेलवे और सड़कें वास्तव में ब्रिटिश हितों की सेवा के लिए बनाई गई थीं, न कि स्थानीय लोगों के लिए। वे भीतरी इलाकों से ब्रिटेन के लिए भेजे जाने वाले कच्चे माल को बंदरगाहों तक ले जाने के लिए डिजाइन की गई थीं।
इसके साथ ही ब्रिटेन द्वारा भारतीय रेलवे के निर्माण ने ब्रिटिश निवेशकों को बड़े पैमाने पर लाभ पहुंचाया, और वह भी भारतीयों द्वारा किये गए करों के भुगतान से। यह जानकर हैरत होती है कि भारतीय रेलवे के एक मील निर्माण की लागत, कनाडा या ऑस्ट्रेलिया की तुलना में दोगुनी थी। क्योंकि यहाँ तो मुख्य उद्देश्य अपने लोगों को लाभ पहुंचाना था, इसलिए उन्हें इतना पैसा फालतू उपहार में दिया जा रहा था।
ब्रिटेन ने सारा मुनाफा कमाया, प्रौद्योगिकी को नियंत्रित किया, सभी उपकरणों की आपूर्ति की और ये सभी लाभ भारतीय सार्वजनिक जोखिम पर ब्रिटिश निजी उद्यम को मिले। यह थी रेलवे की उपलब्धि। 

वस्तुतः अपने 200 वर्षों के औपनिवेशिक शासन के लिए ब्रिटैन को चाहिए कि वह भारत को क्षतिपूर्ति भुगतान करे ।
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