इसके पूर्व कि हम विषय पर आगे बढ़ें, एक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है, अन्यथा अकारण का वाद विवाद उत्पन्न होगा। भगवान श्री राम के पूर्वज महाराज...
इसके पूर्व कि हम विषय पर आगे बढ़ें, एक तथ्य का उल्लेख आवश्यक है, अन्यथा अकारण का वाद विवाद उत्पन्न होगा। भगवान श्री राम के पूर्वज महाराज अम्बरीष का नाम अनजाना नहीं है। किन्तु कम ही लोगों को ज्ञात होगा कि उनके वंशज विरूप, पृषदश्व और रथीतर प्रसिद्ध ऋषि हुए हैं। इसका अर्थ मनीषियों ने यह निकाला कि उस समय की परंपरा के अनुसार वे प्रायेण ब्राहण हो गए, उनका क्षत्रियत्व समाप्त हो गया अर्थात वे राज्यच्युत हो गए। इन तीनों को आंगिरस कहा गया। ऋग्वेद में इन ऋषियों की ऋचाएं भी हैं। जबकि हम सभी जानते हैं कि आगे जाकर इसी कुल में महाराज दशरथ भी हुए और भगवान श्री राम का भी जन्म हुआ।
यह उल्लेख इसलिए आवश्यक है क्योंकि रामपुत्र कुश के वंशज होने का दावा जयपुर का राज घराना सहित कछवाह उपाख्य कुशवाह क्षत्रिय समाज भी करता है, तो कृषि कार्य व बागवानी करने वाले कुशवाह भी। इसी प्रकार मध्य क्षेत्र में आबाद रघुवंशी भी स्वयं को कुश का वंषज मानते हैं। संभव है कि इन सभी समाजों की मान्यताएं सत्य हों? ध्यान देने योग्य है कि इन सभी समाजों के गोत्र अयोध्या के नजदीकी क्षेत्र के नाम पर हैं। जब कुल के अंतिम राजा सुमित्र को महापद्म नन्द ने परास्त कर जब नन्द वंश का शासन स्थापित कर दिया, तब वहां से विस्थापित राज परिवार देश के अलग अलग भागों में आबाद होकर अलग अलग काम करने को विवश हुआ हो। ध्यान देने योग्य तथ्य यह भी है कि लव कुश के बाद सुमित्र तक लगभग सौ से अधिक राजाओं ने दस हजार वर्ष तक राज्य किया था। सुमित्र से आज तक भी ढाई हजार से अधिक वर्ष हो चुके हैं।
लव के वंशज गहलोत महाराणा प्रताप थे, लक्ष्मण के वंशज प्रतिहार राजपूत हैं, भरत के वंशज गौड़ राजपूत है और शत्रुघ्न के वंशज राठौड़ राजपूत है। ये सभी विस्थापित होने के बाद देश के विभिन्न भागों में पहुंचे। इनमें से जो अधिक भाग्यशाली व पराक्रमी थे, उन्होंने राज्य स्थापित कर लिए, जबकि कुछ उदर पोषण के लिए कृषि या अन्य कार्य करने को विवश हुए। राजा सौमित्र के वंशजों में से ही कुछ अयोध्या से चलकर मध्य प्रदेश के नरवर, ग्वालियर, भिंड मुरैना आदि क्षेत्रों में भी आये और यहां छोटी बड़ी रियासतें स्थापित की। कालान्तर में कुछने आमेर को अपनी राजधानी बनाया। राजस्थान में कुशवाहा को कछवाहा भी कहा जाता है। जो कुशवाहा अयोध्या और मध्य प्रदेश में रह गए वह कृषि कार्य करने लगे। वही कुशवाहा आज पिछड़ी जाति में आते हैं और जिन कुशवाहो ने अपनी रियासतें स्थापित कर ली और शासन करते रहे उन्हें राजपूत कहा गया। ऐसी ही समाज की एक शाखा ने कलिंजर और महोबा के नजदीक बाँधोगढ को अपनी रियासत बनाया। ये लोग उस समय रघुवंशी राजपूत कहलाए।
12 वी सदी में एक महत्वपूर्ण घटना घटी। उस समय कलिंजर और महोबा पर चंदेल राजा परमार्दि देव उपाख्य राजा परमाल का शासन था। जैसा कि हम आल्हा ऊदल वाली श्रंखला में वर्णन कर चुके हैं, जहाँ एक ओर आल्हा उदल मलखान जैसे प्रबल पराक्रमी योद्धा राजा परमाल के पोषित सहयोगी थे, वहीं दिल्ली के अधियति पृथ्वीराज से उनका विवाद था। कतिपय कारणों से कुछ समय के लिए आल्हा ऊदल महोबा से रुष्ट होकर चले गए। उस घटना चक्र की लिंक आप वीडियो के अंत में भी देख सकते हैं, और इस समय आपकी स्क्रीन पर भी ऊपर दिखाई दे रही है। उसी दौरान परमाल देव की पुत्री चंद्रावती श्रावण पर बेतवा नदी के किनारे आयोजित होने वाले भुजरियां पर्व में शामिल होने पहुंची। आल्हा ऊदल की अनुपस्थिति का लाभ उठाकर पृथ्वीराज चौहान ने चंद्रावली का डोला लुटने के लिये अपने पुत्र ताहिर को सेना सहित भेजा। बांधोगढ़ के रघुवंशी राजा वीरसिंह के पुत्र बुधराजदेव भी उस समय वहीँ थे। अपने मुट्ठीभर सैनिकों के साथ उन्होंने चंद्रावली की रक्षा की और पृथ्वीराज चौहान की सेना का प्रतिकार किया । जब तक सूचना पाकर ऊदल भी वहाँ पुहुँच गये और पृथ्वीराज चौहान की योजना असफल हो गई । यद्यपि आल्ह खंड में राजा वीरसिंह को यादव नरेश वर्णित किया गया है, किन्तु जिस प्रकार रघुवंशी समाज उन्हें अपना आदि पुरुष मानता है, और घटनाचक्र भी बताता है, यही प्रतीत होता है कि वे रघुवंशी ही रहे होंगे। परमालदेव ने प्रसन्न होकर युवराज बुधराजदेव के साथअपनी पुत्री चंद्रावली का विबाह कर दिया तथा दहेज में गढ़मरफा का राज दिया। गढ़मरफा रियासत वर्तमान में बरौंधा रियासत के नाम से जानी जाती है। जो मध्यप्रदेश की एकमात्र रघुवंशी रियासत है। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व तक इस रियासत के प्रमुख को नौ तोपों की सलामी का अधिकार था।
सन 1233 में गुजरात से आये सोलंकी राजपूत राजा व्याघ्रदेव ने बांधोगढ़ के रघुवंशी राजा जैतकर्ण व गढ़मरफा के रघुवंशी राजा मंडीहदेव को हराकर इस क्षेत्र पर अधिकार कर लिया था। तब राजा जैतकर्ण के पुत्र के नेतृत्व में रघुवंशी ठाकुर अपनी जागीरों को छोड़कर चंदेरीराज (शिवपुरी, अशोकनगर) में बस गये। चंदेरी रियासत की सेना में रघुवंशी सेनापति भी रहे तो अनेक कृषि, वाणिज्य व अन्य कार्यों में प्रवर्त हुए।
मुगल बादशाह बाबर ने जब दिल्ली सल्तनत के सुल्तान सिकन्दर लोधी को हराकर दिल्ली पर अधिकार किया और राणा सांगा को भी पराजित करने के बाद चंदेरी पर आक्रमण किया, उस समय चंदेरी के राजा मेदनीराय के साथ मुगल बादशाह बाबर का भयानक युद्ध हुआथा। इस युद्ध में मेदनीराय की ओर से कई रघुवंशी योद्धा भी लड़े थे।
अयोध्या के रघुवंशी आज भी अपने बैबाहिक संबंध राजपूतों में करते है, और रघुवंशी राजपूत नाम से जाने जाते है। किन्तु इस अंचल में अब रघुवंशियों में बैवाहिक संबंध केवल रघुवंशियों में ही होते हैं। इतना अवश्य हुआ कि इन्होने अपना गोत्र कश्यप के स्थान पर जो रघुवंशी अयोध्या की जिस जागीर से आये है उनका गोत्र उसी के नाम पर रखना प्रारम्भ कर दिया। १६वी सदी में शाडोरा में हुई धर्मसंसद में उक्त निर्णय लिया गया, उसके पीछे रक्तशुद्धता को बचाने व वर्णशंकरता से बचने का मुख्य कारण बताया गया। तब से वे राजपूतों से अलग होकर पृथक रघुवंशी समाज के रुप में स्थापित हो गए।
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