वाल्मीकि रामायण और कालिदास कृत रघुवंश के अनुसार रघुवंश और रघुवंशी




लोकाभिरामं रण रंग धीरं, राजीव नेत्रं रघुवंश नाथम,

कारुण्य रूपं करुणा करन्तम श्री रामचन्द्रं शरणं प्रपद्ये।

भगवान श्री राम को रघुवंश शिरोमणि कहा जाता रहा है। आज भी यादवों के ही समान रघुवंशी समाज भी भारत में विद्यमान है। यादव साम्राज्य को लेकर तो कान्तिदूत पर अनेक वीडियो प्रसारित हुए, अनेक मित्रों का आग्रह था कि रघुवंशी समाज को लेकर भी वीडियो बनाया जाए। तो आज के इस वीडियो का प्रारंभ भगवान श्री राम के पावन स्मरण से ही करते हैं।

लोकनिंदा से आहत प्रभु श्री राम द्वारा परित्यक्त माता सीता ने जिस दिन महर्षि वाल्मीकि के आश्रम में लव और कुश को जन्म दिया, उसी दिन रामानुज शत्रुघ्न जी ने बड़े भाई की आज्ञानुसार लवणासुर को मारकर ऋषियों को उसके आतंक से मुक्ति दिलाई। जिस स्थान पर उन्होंने इस राक्षस का संहार किया,वहीँ यमुना तट पर उन्होंने मथुरा नगरी बसाई जो कालान्तर में भगवान श्री कृष्ण की जन्म भूमि बनी । उस नगरी का राज्य अपने पुत्रों शत्रुघाती और सुबाहु को सौंपकर वे अयोध्या लौटे। पंडित गौरी शंकर ओझा के निबंधों में वर्णन मिलता है कि मथुरा के आसपास ऐसे सिक्के मिले हैं, जिन पर ब्राह्मी लिपि में राजन्य जनपदस्य अंकित है, अतः माना जा सकता है कि इस क्षेत्र का नाम पूर्व में राजन्य रहा हो तथा यहाँ क्षत्रियों का शासन रहा हो। 

जैसा कि सर्व विदित ही है कि माता जानकी के पृथ्वी की गोद में समा जाने के बाद भगवान श्री राम ने लव और कुश को अपने साथ ही रखकर दुखी ह्रदय से राजकाज की व्यवस्था की। उन्होंने भरत को सिंधुदेश का राज्य दिया, जहाँ भरत ने तक्षशिला नामक नगरी बसाकर उसका राजा अपने पुत्र तक्ष को बनाया। अपने दूसरे पुत्र पुष्कल के लिए भी उन्होंने पुष्कलावती नामक राजधानी बनाई।

इसी प्रकार लक्ष्मण जी के पुत्र अंगद और चंद्रकेतु भी कारापथ नामक देश में अंगदपुरी और चंद्रकांता नामक राजधानियों में रहकर राज्य करने लगे। तीनों माताओं कौशल्या, कैकई और सुमित्रा ने भी जब अपना शरीर चक्र पूर्ण कर पतिलोक को गमन किया, उसके पश्चात वाल्मीकि रामायण के अनुसार स्वयं काल मुनि वेश में प्रभु राम से मिलने पधारे व एकांत में बात करने का आग्रह किया। साथ ही शर्त रखी कि जिस समय यह एकांत चर्चा हो, उस समय कोई मिलने न आये और अगर आये तो राम उस्का परित्याग करें। भगवान की लीला कि उसी समय दुर्वासा ऋषि पधारे व लक्ष्मण जी को विवश होकर उस एकांत चर्चा ें जाना पड़ा और सीता माता के ही समान वे भी राम द्वारा परित्यक्त हुए और योग द्वारा सरयूतट पर जीवन यात्रा पूर्ण की। लगातार अपनों से बिछुड़ने का दुःख अपने मन में समेटे करुणा वरुणालय जगदाधार राम ने इसके बाद भी अपने कर्तव्य का पालन करते हुए अपने बड़े पुत्र कुश को कुशावती (पुराणों में इसका नाम कुशस्थली मिलता है, जो बिंध्या पर्वत के मध्य में बसी हुई थी) और छोटे पुत्र लव को शरावती नामक नगरी का राज सौंपा। पुराणों में शरावती के स्थान पर श्रावस्ती नाम मिलता है। तत्पश्चात भगवान श्री राम ने सरयू तट पर ही भरत और शत्रुघ्न के साथ साकेत धाम को प्रस्थान किया। उनके विरह में अयोध्यावासियों ने भी सरयू को ही स्वर्ग की सीढ़ी बना लिया। अयोध्या उजाड़ हो गई।

राम के बड़े पुत्र कुश ने कालान्तर में अयोध्या को पुनः बसाया। कालिदास के महाकाव्य रघुवंश के अनुसार कुश के बाद उनके पुत्र अतिथि, अतिथि के बाद उनके पुत्र निषध, उनके बाद नल, उनके बाद नल पुत्र नभ, उनके बाद क्रमशः पुण्डरीक, क्षेमधन्वा, देवानीक, अहीनगु, पारियात्र, शिल, उन्नाव, बज्रनाभ, शङ्कन, ब्यूशिताश्व, विश्वसह, हिरण्यनाभ, कौशल्य, ब्रह्मिष्ठ, पुत्र, पुष्य, ध्रुवसन्धि राजा बने। शिकार के दौरान उनके असामयिक निधन के कारण शिशु अवस्था में ही उनके पुत्र सुदर्शन को सिंहासन पर आसीन किया गया। सुदर्शन के बाद राजा बने उनके पुत्र अग्निवर्ण अपने कुल का गौरव भूलकर भोग विलास में आकंठ डूब गए और क्षयरोग से ग्रस्त होकर काल कवलित हुआ। मंत्रियों ने उसके बाद उसकी गर्भवती पत्नी को सिंहासन पर बैठाया। रानी ने भी बड़ी कुशलता से राजकाज का संचालन किया। इस कुल के अंतिम राजा सुमित्र को ईसा पूर्व 411 में महापद्म नन्द ने परास्त कर यहाँ नन्द वंश का शासन स्थापित कर दिया। 

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