कृष्ण स्मृति - आचार्य श्री रजनीश "ओशो"




परमात्मा और संसार जैसी दो चीजें नहीं हैं | परमात्मा का जो हिस्सा द्रश्य हो गया है, वह प्रकृति है | और जो अब भी अद्रश्य है, वह परमात्मा है | कहीं भी ऐसी कोई जगह नहीं है, जहां प्रकृति ख़त्म होती है और परमात्मा शुरू होता है | बस प्रकृति ही लीन होते होते परमात्मा बन जाती है | परमात्मा ही प्रगट होते होते प्रकृति बन जाता है | अद्वैत का यही अर्थ है |

नीत्से ने कहा हैकि जिस वृक्ष को आकाश की ऊंचाई छूनी हो, तो उसे अपनी जड़ें पाताल की गहराईयों तक पहुंचानी पड़ती हैं | असल में जितनी ऊंचाई, उतनी ही गहराई में जाना पड़ता है | मनुष्य चाहता है शुभ को बचाना, अशुभ को छोड़ना | स्वर्ग को बचाना, नरक को छोड़ना | अन्धकार शून्य प्रकाश ही प्रकाश | अस्तित्व को दो हिस्सों में तोड़कर एक का चुनाव और दूसरे से इनकार द्वन्द पैदा करता है, यही द्वैत है |

काम की ऊर्जा ही ऊर्ध्वगमन करके ब्रह्मचर्य के उच्चतम शिखरों को छूती है | जीवन में किसी से भागना नहीं है, किसी को छोड़ना नहीं है | जीवन को पूरा ही स्वीकार करके जीना है | उसको जो समग्रता से जीता है, वही कृष्ण की तरह पूर्णता को प्राप्त करता है |

अगर युद्ध के न होने से शांति खंडित हो रही हो, तो फिर एक निर्णायक युद्ध की सामर्थ्य चाहिए | हमारा देश एक हजार साल तक गुलाम रहा, यह हमारी युद्ध क्षमता की क्षीणता का परिणाम था | जो कौम मरने से डर जाए, युद्ध से डर जाए, वह बहुत गहरे में जीने से भी डरती है | न हम जी रहे हैं और न मर रहे हैं | ऐसी स्थिति में कृष्ण को समझना बहुत आवश्यक है | कृष्ण न तो युद्धवादी थे और न शांतिवादी | असल में वाद का मतलब होता है, दो में से एक को चुनना | कृष्ण अ-वादी थे | अगर शान्ति से शुभ फलित होता हो तो उसका स्वागत, और अगर युद्ध से शुभ फलित हो तो उसका भी स्वागत | अगर हमारा देश कृष्ण को ठीक से समझा होता तो हम इस भाँती नपुंसक न हो गए होते | हमारी अहिंसा की बात के पीछे हमारी कायरता छुप कर बैठ गई है | हमारे युद्ध न करने से युद्ध बंद नहीं होता | हम लड़ने न जाए इससे लड़ाई बंद नहीं होती, केवल हम गुलाम बनते हैं | बड़े मजे की बात है | हम नहीं लड़े, कोई हम पर हावी हो गया, हमें गुलाम बना लिया और फिर हम उसकी फ़ौज में शामिल होकर उसकी तरफ से दूसरों से लड़ते रहे | हम गुलाम भी रहे और अपनी गुलामी बचाने के लिए लड़ते रहे | कभी हम मुग़ल की फ़ौज में लड़े तो कभी अंग्रेज की फ़ौज में | नहीं लड़े तो केवल अपनी स्वतंत्रता के लिए | अगर शान्ति बनाए रखना है तो युद्ध की सामर्थ्य भी रखनी होगी | और अगर युद्ध जारी रखना है तो उसके लिए शान्ति में भी तैयारी करनी होगी | ये दो पैर हैं जीवन के | एक को भी काटा तो लंगड़े और पंगु हो जायेंगे | जब हिटलर, मुसोलिनी और स्टालिन युद्ध कर लेते हैं तब रसेल या गांधी की बात अपील करने लगती है | दस बीस साल इनकी बात अपील करती है | लंगडा पैर इससे अधिक नहीं चल पाता | फिर कोई माओ खडा होता है और दूसरे पैर की जरूरत पड जाती है | कृष्ण कहते हैं कि शुभ को भी हाथ में तलवार लेने की हिम्मत रखनी चाहिए | निश्चित ही शुभ जब हाथ में तलवार लेता है, तो किसी का अशुभ नहीं होता | अशुभ न जीत पाए इसलिए लड़ाई है |

महाभारत के बाद देश में बहुत अच्छे अच्छे आदमी हुए | बुद्ध और महावीर की अच्छाई की कोई सीमा ही नहीं | अच्छे आदमियों की लम्बी क़तार ने मुल्क के मन को सिकोड़ दिया | और उस सिकुड़े हुए चित्त पर सारी दुनिया के आक्रामक टूट पड़े | आक्रमण करने ही हम नहीं जाते, आक्रमण को बुलाते भी हमीं हैं | हमारा आमंत्रण मानकर बहुत लोग आये, हमें वर्षों तक गुलाम रखा, दबाया परेशान किया और फिर अपनी मौज से चले भी गए | पर हमारी मनोदशा अब भी संकोच की ही है | हम फिर किसी को बुला सकते हैं | लेनिन ने बहुत वर्षों पहले एक भविष्यवाणी की थी कि मास्को से कम्यूनिज्म पेकिंग और कलकत्ता हुआ इंग्लेंड पहुंचेगा | पेकिंग पहुँच गया, कलकत्ता में उसकी आहट सुनाई देने लगी | कलकत्ते से प्रवेश में कोई कठिनाई भी नहीं है, क्योंकि भारत का मन सिकुड़ा हुआ है | वह आ जाएगा और उसे स्वीकार कर देश और दब जाएगा | इसीलिए कृष्ण को स्मरण करने की आवश्यकता है |

यह अलग बात है कि युद्ध का तभी तक कोई अर्थ है, जब कोई जीते, कोई हारे | अब जो युद्ध होगा उसमें न कोई जीतेगा न कोई हारेगा | उसमें दोनों एक साथ मर जायेंगे | अगर मैं बाएं और दायें हाथ को लडाऊँ तो न बायाँ जीतेगा न दायाँ, मगर मैं हार जाऊंगा | दोनों हाथ लड़ेंगे और मैं नष्ट हो जाऊंगा |

स्वतंत्रता रहे तो असमानता धीरे धीरे कम हो सकती है, किन्तु यदि समानता जबरदस्ती थोप दी जाए तो स्वतंत्रता कम होती चली जायेगी | जबरदस्ती थोपी हुई कोई भी चीज परतंत्रता का ही पर्याय है |

एक फकीर ने अपनी प्रार्थना में कहीं कहा है कि हे परमात्मा मुझे तू तो स्वीकार है किन्तु तेरी दुनिया नहीं | नास्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार है तू नहीं | आस्तिक कहता है, तेरी दुनिया तो स्वीकार नहीं, तू स्वीकार है | ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं | किन्तु कृष्ण की आस्तिकता अद्भुत है, वे कहते हैं तू भी स्वीकार है, तेरी दुनिया भी स्वीकार है | असल में तेरी दुनिया भी तेरा फैला हुआ हाथ है, और तू ही तेरी दुनिया का छुपा हुआ अंतर्मन है |

सुख का उल्टा दुःख होता है, प्रेम का उल्टा घृणा है, बंधन का उलटा मुक्ति है, किन्तु आनंद का उल्टा क्या ? स्वर्ग का उल्टा नरक, किन्तु मोक्ष का उलटा क्या ? जिस आनंद को आप स्वीकार करते हैं, उसे सुख कहते हैं, और जिसे स्वीकार नहीं करते वही दुःख है | एक व्यक्ति के पास एक करोड़ रुपये थे, उसके पचास लाख खो गए, जबकि एक के पास कुछ नहीं था, उसे पचास लाख मिल गए | अब दोनों के पास पचास लाख रुपये हैं, किन्तु एक छाती पीट पीट कर रो रहा है, जबकि दूसरा खुशी के कारण पागल हुआ जा रहा है | आनंद का मतलब यह नहीं है कि अब दुख नहीं आयेंगे, आनंद का मतलब है, अब आप ऐसी व्याख्याएं नहीं करेंगे जो उन्हें दुःख बना दें | आनंद का मतलब यह भी नहीं है कि अब सुख ही सुख आयेंगे, आनंद का मतलब यही है कि आप उनकी वे व्याख्याएं छोड़ देंगे जो उन्हें सुख बनाती हैं | अब चीजें जैसी होंगीं, होंगीं | धुप धुप होगी और छाया छाया | कभी धुप होगी कभी छाया होगी | आप उनसे प्रभावित होना बंद हो जायेंगे | आप जान जायेंगे कि चीजें आती हैं और चली जाती हैं | यही कृष्ण चेतना है |

जो व्यक्ति भी शून्य हो जाता है, पूर्ण हो जाता है | अगर ठीक से कहें तो शून्य ही एकमात्र पूर्ण है | शून्य को आधा नहीं किया जा सकता | शून्य कटता नहीं बटता नहीं, विभाजन नहीं होता |

कृष्ण जब कहते हैं “स्वधर्मे निधनं श्रेयः” तो उनका अर्थ है, अपने ढंग से मर जाना भी श्रेयस्कर है, दूसरे के ढंग से जीना भी श्रेयस्कर नहीं | अगर मैं अपने ढंग से मर सकता हूँ, मरने में भी निजता रख सकता हूँ, तो मौत भी प्रामाणिक हो जायेगी | लेकिन हम तो जिन्दगी भी उधार की जी रहे हैं | प्रामाणिक होने का एक ही अर्थ है, निजता की रक्षा | इस मुल्क ने निजताओं को चार बड़े विभागों में बांटा है, वर्णों में | कोई है जो सेवा किये बिना रस नहीं पा सकेगा | ऐसा नहीं है कि वह नीचा हो गया | उससे उसकी सेवा छीन ली जाए तो वह आनंदरिक्त हो जाएगा | कोई है जो ज्ञान के लिए घर द्वार छोड़ सकता है, भूखा मर सकता है, भीख मांग सकता है, जहर को अपनी जीभ पर रख सकता है, यह जानने के लिए कि आदमी इससे मर जाता है | इस प्रकार मर जाने में भी वह तृप्ति का अनुभव करेगा | कोई है जो युद्ध के क्षण में अपनी चमक को पा लेगा | उसकी पूरी चमक युद्ध के क्षण में ही निखरती है | कोई रोक्फेलर कोई मॉर्गन – मॉर्गन से एक बार उसके सेक्रेटरी ने कहा कि जब मैं आपको नहीं जानता था, तब मॉर्गन होने के सपने देखता था | लेकिन जब आपके निकट आया, आपका निजी सेक्रेटरी बना, तो भगवान से मांगता हूँ कि मुझे मॉर्गन कभी न बनाए | मॉर्गन से तो मॉर्गन का सेक्रेटरी ही ठीक है | मॉर्गन ने कहा, क्यों तुम्हें मुझमें ऐसी क्या तकलीफ दिखाई दी ? सेक्रेटरी ने कहा, आपके दफ्तर के चापरासी साढ़े नौ बजे दफ्तर आते हैं, दस बजे क्लर्क और साढ़े दस बजे सेक्रेटरी आते हैं | बारह बजे डायरेक्टर्स आकर तीन बजे चले जाते हैं | चार बजे सेक्रेटरीज, पांच बजे क्लर्क और साढ़े पांच बजे चपरासी चले जाते हैं | किन्तु आप दफ्तर सुबह सात बजे आकर शाम को सात बजे जाते हैं | आपसे तो आपका चपरासी बेहतर है, आप यह क्या कर रहे हैं | मॉर्गन को वह आदमी नहीं समझ सकेगा | मॉर्गन के पास वैश्य चित है | मॉर्गन हंसा, बोला – चपरासी होकर साढ़े नौ बजे आने में वह आनंद कहाँ जो मालिक होकर सात बजे आने में है | इस मुल्क ने हजारों लाखों लोगों का हजारों साल अध्ययन करने के बाद तय किया कि आदमी को मोटे तौर पर चार विभागों में बांटा जा सकता है | इस विभाजन में कोई नीचे ऊपर न था | किन्तु जो नहीं जानते थे उन्होंने तय कर दिया कि कौन ऊंचा कौन नींचा | वर्ण की अपनी वैज्ञानिकता थी, किन्तु वर्ण व्यवस्था का अपना दंश है | वर्ण को व्यवस्था बनाने की आवश्यकता नहीं | वह तो एक अंतर्द्रष्टि है |

महाभारत में कृष्ण स्वयं युद्ध नहीं करते, उनका एक नाम रणछोड़दास भी है, जिसका सीध अर्थ होता है, युद्ध से भागने वाले | और कितने मजे की बात है कि स्वयं युद्ध न करने वाले, युद्ध से भागने वाले कृष्ण अर्जुन को युद्ध करने के लिए प्रेरित कर पाए | महाभारत का युद्ध भी अजीब है | शाम होते ही बिगुल बजता है और युद्ध बंद हो जाता है | सब एक दूसरे के खेमों में गपशप करने चले जाते हैं | संवेदना और सहानुभूति का दौर शुरू हो जाता है | मानो अभी तक एक नाटक का रिहर्शल कर रहे हों | मरते हुए कौरव पक्ष के भीष्म से विरोधी पांडवों द्वारा शान्ति का पाठ लिया जा रहा है, धर्म का राज समझा जा रहा है |

गाँव के एक ज्योतिषी की बड़ी ख्याति थी कि उनकी कही बात हमेशा सही निकलती थी | कुछ नौजवानों ने उसे गलत सिद्ध करने की ठानी | वे एक ओवरकोट पहिनकर उस ज्योतिषी के पास पहुंचे | वे युवक ओवर कोट के अन्दर एक कबूतर लेकर गए थे | उन्होंने सोचा था कि ज्योतिषी से पूछेंगे कि कबूतर जिन्दा है या मृत | अगर वह ज़िंदा बतायेगा तो अन्दर ही गर्दन मरोड़ देंगे और मुर्दा कबूतर बाहर निकालेंगे | अगर ज्योतिषी कबूतर को मृत बताएगा तो उसे ज़िंदा ही बाहर निकाल लेंगे | योजनानुसार उन्होंने ज्योतिषी के पास जाकर वही सवाल पूछा | उस बूढ़े ज्योतिषी में उन्हें ऊपर से नीचे देखा और कहा “इट इज इन योर हेंड” | उसने कहा यह तुम्हारे हाथ में है, तुम्हारी जैसी मर्जी हो | उसी प्रकार जिन्दगी हमारे हाथों में है | उसे आनंद से बिताएं याकि ग़मों में डूब जाएँ |

ब्रह्मा, विष्णू व महेश व्यक्तियों के नहीं शक्तियों के नाम हैं | सृजन की आवश्यकता होती है केवल प्रारम्भ में तथा विध्वंस भी एक बार ही होता है | लेकिन सृजन व विध्वंस के बीच जो जीवनी शक्ति है, ऊर्जा है, वही विष्णु है | इसीलिए इस देश के सभी अवतार केवल विष्णू के ही हैं |
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