आल्हा ऊदल के सगे मौसा पृथ्वीराज और बौरीगढ़ का युद्ध ।

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जिस प्रकार आल्हा का विवाह हुआ, लगभग बैसे ही मलखान और सुलखान के विवाह संपन्न हुए। मामा माहिल दुष्टता करता रहा, वधु पक्ष को भड़काता रहा, किन्तु...


जिस प्रकार आल्हा का विवाह हुआ, लगभग बैसे ही मलखान और सुलखान के विवाह संपन्न हुए। मामा माहिल दुष्टता करता रहा, वधु पक्ष को भड़काता रहा, किन्तु वनाफरों की तलवार की धार के सम्मुख उसकी हर चाल व्यर्थ हुई। मलखान का विवाह पथरीगढ़ के राजा गजराज की बेटी गजामती से तो सुलखान का विवाह कुमायूं के राजा रतन सिंह की पुत्री रत्नावली से संपन्न हुआ। पथरीगढ़ में भी राजकुमारी गजमती ने बैसे ही सहयोग किया, जैसे आल्हा के विवाह में नैनागढ़ की राजकुमारी सोनवां ने किया था। स्पष्ट ही है कि राजा लोग वनाफरों से सम्बन्ध नहीं रखना चाहते थे, किन्तु राजकुमारियां उनके पराक्रम और पुरुषार्थ के चलते उन पर मुग्ध हो जाती थीं। बार बार एक ही समान कथानक का वर्णन उबाऊ हो सकता है, अतः आज हम राजा परमाल की बेटी चन्द्रावली के प्रसंग का वर्णन करते हैं। अब तक यह वर्णन नहीं हो पाया था कि राजा परमाल की पत्नी रानी मल्हना की एक बहिन अगमा देवी का विवाह स्वयं महाराज पृथ्वीराज से हुआ था। अर्थात राजा परमाल और महाराज पृथ्वीराज रिश्ते में साढ़ू थे। इतना ही नहीं तो चूंकि मल्हना की अन्य दो बहिनें ही आल्हा ऊदल मलखान की माताएं थीं अतः पृथ्वीराज इन वीरों के भी सगे मौसा थे।

आज के कथानक में आप इस रिश्ते की अहमियत को भी जानेंगे, और महाराज पृथ्वीराज के वैशिष्ट्य को भी । हुआ कुछ यूं कि महाराज परमाल की पुत्री चंद्रावली का विवाह बौरीगढ़ के राजकुमार इन्द्रसेन से हुआ था। किन्तु विवाह के बारह वर्ष बीत जाने के बाद भी वह एक बार भी अपने मायके नहीं आई थीं। श्रावण के महीने में महोबा की सभी लड़कियां को अपने अपने ससुराल से अपने पीहर आते देख रानी मल्हना की आँखों में आंसू आ गए। यह दृश्य देखकर ऊदल व्यग्र हो गए और पीछे पड़कर कारण जानकर ही रहे। उसके बाद उन्होंने महाराज परमाल के पास जाकर जिद्द की कि वे रत्नावली की चौथ कराने बौरीगढ़ जाएंगे। महाराज परमाल ने मना किया और कहा कि अकारण का झगड़ा होगा, मत आओ। किन्तु जब ऊदल ने ज्यादा ही हठ किया तो उन्होंने कहा कि ठीक है चले जाओ, किन्तु मार्ग में पहले महाराज पृथ्वीराज से सलाह लेकर जाना। ऊदल ने सहमति देकर और दान दहेज़ की सामग्री लेकर महोबा से प्रस्थान किया।

जैसे ही मक्कार मामा माहिल को उसके प्रस्थान की जानकारी मिली, वह दौड़ा दौड़ा जा पहुंचा महाराज पृथ्वीराज के पास और बोला महाराज गजब हो गया। इन वनाफरों की हिम्मत तो देखो, अब तो ये आपसे भी दो दो हाथ करने पर उतारू हैं। अभी ऊदल आ रहा बौरीगढ़ जाने के बहाने और पीछे से मलखान आएगा। इनकी योजना दिल्ली पर कब्जा करने की है। महाराज पृथ्वीराज अपने इस साले को अच्छी तरह जानते थे। उन्होंने माहिल को तगड़ी फटकार लगाई। शर्मिंदा माहिल अपना सा मुंह लेकर वापस हुआ।

राजा परमाल के निर्देशानुसार ऊदल दिल्ली पहुंचे और महाराज पृथ्वीराज से मिलकर सब बात बताई। महाराज पृथ्वीराज और रानी अगमा ने भी उन्हें अपनी ओर से बौरीगढ़ में देने हेतु चीरा कलंगी और कीमत्ती लहर पटोरे दिए। ऊदल उनकी आज्ञा लेकर बौरीगढ़ जा पहुंचे। जब राजा वीरशाह को ज्ञात हुआ कि राजा परमाल ही नहीं तो महाराज पृथ्वीराज ने भी उनके लिए चौथ की भेंट भेजी हैं, तो वह अत्यंत प्रसन्नता से चन्द्रावली की भेजने हेतु सहमत हो गए। लेकिन सब कुछ इतनी सहजता से हो जाए तो मामा माहिल का जीवन ही व्यर्थ है। उसने आकर वीरशाह को पट्टी पढ़ाई - महाराज क्या गजब कर रहे हो। आल्हा ऊदल को तो महाराज परमाल ने महोबा से निष्कासित कर दिया है। अब ये दुष्ट लोग चंदावली को विदा कराकर ले जायेंगे और दासी बनाकर रखेंगे। राजा परमाल और आप को भी नीचा दिखाने के लिए इन लोगों ने यह योजना बनाई है।

राजा को भरोसा हो गया और होता भी क्यों ना ? आखिर राजा परमाल के साले जो ठहरे माहिल। उन्होंने ऊदल की जान लेने के लिए भोजन में जहर मिला दिया। लेकिन बहिन चन्द्रावली जो अपने मामा को भी जानती थी और अपने भाई ऊदल को भी, उसने समय पर इशारा कर दिया। समझदार ऊदल ने तुरंत अपने बहनोई इन्द्रसेन से भोजन का थाल बदल दिया। इन्द्रसेन ने टोका, ऐसा क्यूँ कर रहे हो, तो ऊदल ने जबाब दिया, हमाए यहाँ की तो यही रीत है। भेद खुल गया जानकर बौरीगढ़ के योद्धा निहत्थे ऊदल पर टूट पड़े। भीमसेन के अवतार कहे जाने वाले ऊदल ने जमकर संघर्ष किया, बहिन चन्द्रावली ने उन्हें निहत्था देखकर एक तलवार देनी चाहि तो उसे अस्वीकार कर दिया। लेकिन कहाँ एक अकेले ऊदल और दूसरी तरफ बौरीगढ़ के असंख्य योद्धा। वे पकड़कर एक कुए में डाल दिए गए।

लेकिन जल्द ही सचाई सामने आ गई। चन्द्रावली ने अपने पालतू तोते के माध्यम से अपनी मां को सब सन्देश पहुंचा दिए। आल्हा, मलखान, ब्रह्मानंद, ढेवा पंडित आदि के साथ महोबा की सेना रवाना हो गई। दिल्ली मार्ग में ही थी। महाराज पृथ्वीराज ने भी अपने बेटे सूरज और सेनापति चामुंड राय के साथ अपनी सेना भी भेज दी। यह सैन्य दल बौरीगढ़ पहुँच तो गया, लेकिन समस्या जटिल थी। ऊदल अभी भी वहां कैद थे। हमला किया गया तो उनकी जान पर खतरा हो सकता है, अतः आल्हा, ब्रह्मानंद, मलखान और ढेवा पंडित ने जोगियों का वेश बनाकर दुर्ग में प्रवेश किया। उनके मनोहर स्वरुप और सुमधुर गायन से प्रभावित होकर रानी ने महल में बुला लिया और फिर वहां रत्नावली ने पहचान कर उन्हें बता दिया कि किस खंदक में ऊदल डाले गए हैं। उसके बाद रातों रात सुरंग खोदकर ऊदल मुक्त कराये गए। उसके बाद हुआ युद्ध जिसमें महोबा वाले जीतने ही थे और पराजित होने के बाद जब परमाल के बेटे ब्रह्मा सामने आये तो राजा वीरशाह ने सर पकड़कर कहा -

माहिल तेरो बुरो व्हे जाए। और सब भेद खुल गया। चन्द्रावली की हँसी ख़ुशी विदा हुई।

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आल्हा ऊदल के सगे मौसा पृथ्वीराज और बौरीगढ़ का युद्ध ।
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