देवकीनंदन खत्री का अमर कथानक चंद्रकांता संतति - कौन देवकीनंदन कौन चंद्रकांता ?



देवकीनंदन खत्री के उपन्यासों ने तत्कालीन साहित्यिक जगत में क्रान्ति ला दी थी। सारी विधाओं के चूल हिल गए। स्थापितों ने चौंक कर देखा - अरे यह कैसा तूफ़ान आ गया। हालत यह हो गई थी कि खत्री जी को पढ़ने के लिए अनेक अहिन्दी भाषियों ने भी हिंदी सीखी। आईये उनकी अमर कृति चंद्रकांता संतति में प्रवेश करने के पूर्व खत्री जी के विषय में कुछ जानें। 18 जून 1861 को मुजफ्फर नगर में जन्मे खत्री जी के पिताजी जरी, चांदी के हौदे एवं राजदरवार के सामान का व्यापार करते थे, अतः स्वाभाविक ही राजाओं नबाबों से सम्पर्क रहता था। देवकीनंदन खत्री जी की मित्र मंडली में कई रियासतों के जागीरदार, अनेक फकीर और औलिआ शामिल थे। वही सब उनके तिलिस्मी कथानकों में भी देखने को मिलता है। 1857 की क्रांति की आग ठंडी पड़ चुकी थी, सभी प्रभावशाली लोग अंग्रेजों के सम्मुख शरणागत थे, अतः खत्री जी के कथानकों में अंग्रेज दिखाई ही नहीं देते, हाँ मुसलमान अवश्य है, तत्कालीन हिन्दू मुस्लिम तानेबाने का आभाष भी मिलता है। देवकीनंदन खत्री जी युवावस्था में प्रवेश करते करते ही काशी नरेश ईश्वरी नारायण सिंह के कृपापात्र हो गए, व उन्हें चकिया व नौगढ़ के जंगलों का ठेका मिल गया। नौगढ़ अर्थात आज का सिद्धार्थ नगर। जंगलों और खंडहरों में घूमते घूमते ही शायद उनकी कल्पनाशीलता ने तिलिस्मी दुनिया की सृष्टि कर दी और उन्हें प्रसिद्धि के शीर्ष पर पहुंचा दिया। अब नौगढ़ के जंगलों में घूम रहे थे तो कथा क्षेत्र भी यही बना।

नौगढ़ के राजा सुरेंद्र सिंह के पुत्र राजकुमार वीरेंद्र सिंह कथानक के नायक हैं, तो विजयगढ़ के राजा जयसिंह की पुत्री राजकुमारी चंद्रकांता नायिका। अगर दोनों का सहज मिलन हो जाता, विवाह हो जाता तो उपन्यास कैसे बनता, तो खल नायक भी उपस्थित हैं। खलनायक है, विजयगढ़ के दीवान का बेटा क्रूर सिंह, जो स्वयं राजकुमारी चंद्रकांता से विवाह कर विजयगढ़ की सत्ता हथियाना चाहता है। सहनायक और सह खलनायक दोनों ऐयार हैं, आज की भाषा में कहें तो जासूस, गुप्तचर या जेम्स बांड जैसे सीक्रेट एजेंट। जो रूप बदलने में माहिर होते हैं, विरोधियों को बेहोश करते हैं, बेहोश हुए अपनों को लखलखा सुंघाकर होश में लाते हैं, विरोधियों को जाल में फंसाकर किसी तिलिस्म में कैद कर देते हैं। तिलिस्म अर्थात ऐसा स्थान, जिसमें जाना तो संभव है, किन्तु निकलना कठिन। चक्रव्यूह की तरह।

तिलिस्म या आश्चर्यलोक का वर्णन कोई खत्री जी ने ही पहली बार किया हो, ऐसा भी नहीं है। रामायण और महाभारत में भी ऐसे ही वर्णन मिलते हैं। सीता जी की खोज में भटकते हुए थके मांदे वानर एक कंदरा में तपस्यारत साध्वी से मदद की प्रार्थना करते हैं तो वह उन्हें गुफा के अंदर जाने का निर्देश देती हैं। उन्हें गुफा के अंदर एक भव्य महल और बाग़ मिलता है। इंसान कोई नहीं, सुविधाएं समस्त। भर पेट भोजन व विश्राम के बाद जब बाहर निकलने की बारी आई तो रास्ता ही नहीं। खत्री जी के तिलिस्म में भी प्रवेश तो संभव है, निकलना तभी संभव है, जब तिलिस्म टूटे। जब टूटता है, तब पलक झपकते सब हो जाता है जैसे वानरों के साथ हुआ।

नयन मूँद पुनि देखहिं वीरा, ठाड़े सकल सिंधु के तीरा।

रामायण में ही नहीं महाभारत में भी मय दानव ने तिलिस्म ही तो तैयार किया था, जिसमें दुर्योधन ने सूखे को पानी और पानी को सूखा समझ लिया था, और द्रोपदी के उपहास का पात्र बने।

अपने लेखन का उद्देश्य खत्री जी ने चंद्रकांता संतति के अंतिम पृष्ठ पर कुछ इस प्रकार वर्णन किया है -

मैंने अपने उन विचारों को, जिनको मैं अभी तक प्रकाश में नहीं ला पाया, फैलाने के लिए, इस पुस्तक को और सरल भाषा में उन्हीं मामूली बातों को लिखा, जिससे मैं उस होनहार मंडली का प्रियपात्र बन जाऊं, जिनके हाथों में भारत का भविष्य सौंपकर हमें इस असार संसार से विदा होना है।

स्पष्ट ही उनका लक्ष्य एक ही है - समाज में नैतिक मूल्यों की स्थापना, अधर्म अनाचार का विरोध, धर्म की विजय।

अब इस भूमिका लेखन से मित्रों को यह तो समझ में आ ही गया होगा कि अनेक कठिनाईयों के बाद अंततः नायक वीरेंद्र सिंह और नायिका चंद्रकांता का मिलन होगा। कथानक का नाम चंद्रकांता संतति है, तो उनकी संतानें भी होंगी, उनके जीवन भी उथल पुथल से परिपूर्ण होंगे, रहस्य रोमांच से भरपूर। खत्री जी ने पूरा कथानक 28 पुस्तकों में वर्णित किया है उसके बाद उनके द्वारा भूतनाथ को लिखना प्रारंभ किया गया था किन्तु बीच में ही जीवन यात्रा पूर्ण हो गई। भूतनाथ के अधूरे कथानक को उनके पुत्र दुर्गा प्रसाद खत्री ने पूर्ण किया।

तो यह पर्याप्त लंबा कथानक है, इसे आज के समय में कौन सुनना पसंद करेगा ? क्या आप पसंद करेंगे ? अगर हाँ तो आगे बढ़ेंगे, अन्यथा यहीं विराम देंगे।
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