आल्हा का विवाह



उत्तर प्रदेश के मिर्जापुर जिले में स्थित है चुनारगढ़। महाराज विक्रमादित्य द्वारा बनवाया गया यह दुर्ग कितना मजबूत है, इसका प्रमाण है कि बाबर अपनी बारूदी तोपों की दम पर भी इस किले को शेरशाह सूरी के कब्जे से नहीं ले पाया था। आल्हखंड में इसी चुनार दुर्ग को नैनागढ़ के नाम से वर्णित किया गया है। किले में आज भी आल्हा का विवाह मंडप है, जिसे देखने हजारों दर्शक हर वर्ष जाते हैं। यह तो हुआ आल्हा की ससुराल के भूगोल का वर्णन, अब हम आते हैं तात्कालिक घटना क्रम पर। उस समय नैनागढ़ पर एक प्रतापी राजा नेपाली का शासन था। राजा के जोगा भोगा और विजयी नामक तीन पुत्र और सोनवां नामक एक अत्यंत सुन्दर और गुणवती कन्या थी। सोनवां जब विवाह योग्य हुई, तब अनेकों राजकुमारों ने उससे विवाह की इच्छा जताई। राजा ने भी कन्या के विवाह की शर्त रखी कि जो युद्ध कर नैनागढ़ जीत लेगा, उससे ही सोनवां का विवाह किया जाएगा। यह शर्त सुनते ही सब राजाओं राजकुमारों के कसबल ढीले हो गए। सभी जानते थे कि नैनागढ़ अभेद्य है।

राजा नेपाली ने अपने राज्य की सीमा पर एक धौंसा रखबा दिया व उसके चारों ओर दस हजार रक्षक नियुक्त कर दिए और घोषणा की कि विवाह का इच्छुक व्यक्ति आकर इस धोंसे को बजा दे। उस समय तक अपने पिता की ह्त्या का बदला लेकर व सिरसा को पृथ्वीराज से वापस लेकर आल्हा ऊदल मलखान काफी प्रसिद्धि पा चुके थे, सोनवां भी बहुत प्रभावित हुई। उसने एक पत्र वाहक द्वारा आल्हा से विवाह की इच्छा व्यक्त करते हुए, उन्हें आमंत्रित किया। आल्ह खंड में इसे तोते द्वारा सन्देश भेजना वर्णित किया गया है। जो भी हो, वनाफर सेना सजाकर चल पड़े नैनागढ़ की ओर। राजा नेपाली को जब उनके प्रस्थान की जानकारी मिली, तो वह बहुत क्रुद्ध हुआ। क्योंकि वह इन वीरों को अपने से हीन मानता था।

लेकिन महोबा के तीनों वीर भाई आल्हा ऊदल मलखान, राजा परमाल के बेटे ब्रहा, ढेवा पंडित व अन्य योद्धा तो सात दिन चलकर नैनागढ़ के नजदीक डेरा जमा चुके थे। पूरी सेना तो अपनी यात्रा की थकान मिटा रही थी, किन्तु ऊदल को चैन कहाँ। वह अकेला ही अपनी बेंदुला घोड़ी पर सवार होकर जा पहुंचा उस स्थान पर जहाँ धौंसा रखा हुआ था। जब तक धोंसे के चारों ओर उसकी रक्षा में तैनात दस हजार रक्षक कुछ समझ पाते, तब तक तो उसने धौंसा बजा ही दिया। ऊदल आंधी की तरह आया और तूफ़ान की तरह वापस भी हो गया। यह समाचार पाकर क्रोधित राजा नेपाली ने अपने तीनों बेटों जोगा भोगा व विजयी के नेतृत्व में अपनी सेना को आक्रमण का आदेश दे दिया। लेकिन नतीजा क्या निकला -

तीन लाख ते जोगा आयो, रहि गए डेढ़ लाख असवार,

भगे सिपाही नैनागढ़ के, अपने डार डार हथियार।

कोऊ रोवत है लडकन को, कोऊ पुरखन को चिल्लाय,

कोऊ रोवे घरवाली को, औ रण दुलहा चले बराय।

सारी सेना तितर बितर हो गई। आल्हखंड लेखक कवी ने इसके आगे रहा के पास एक चमत्कारिक अमर ढोल का वर्णन किया है, जिसे बजाने से मृत व्यक्ति भी जीवित हो उठता था। अब युद्ध का पांसा ही पलट गया। नैनागढ़ के सिपाही बार बार मरते और फिर ज़िंदा हो जाते। विवश महोबा की सेना संध्या को बिना युद्ध जीते ही अपने डेरे पर वापस लौटी। रात को ऊदल ने गुप्त रूप से नैनागढ़ पहुंचकर राजकुमारी सोनवां से भेंट की और फिर दोनों ने समस्या का समाधान कैसे ही, इसकी योजना बनाई। प्रातः काल सोनवां ने अपने माता पिता से अमर ढोल लेकर देवी पूजन को जाने की इच्छा जताई। पिता ने विरोध किया तो पेट में छुरी मारकर जान देने की धमकी दी। इकलौती बेटी की जिद्द के आगे मां बाप को झुकना ही पड़ा और आगे का अनुमान तो आप लगा ही सकते हो, ऊदल देवी मंदिर पर माली वेश में पहले से मौजूद थे, उन्होंने अमर ढोल लिया और रफू चक्कर हो गए। स्वाभाविक ही दूसरे दिन का युद्ध निर्णायक हुआ। जोगा भोगा विजयी और उनकी मदद को आये पाटलीपुत्र नरेश पूर्ण अत्यंत वीरता से लड़े, किन्तु महोबियाओं के आगे उनकी एक न चली और चारों बंदी बना लिए गए। कुटिल मामा माहिल दूर से ही घटनाओं पर नजर जमाये हुए था। जैसे ही उसे लगा कि अरे ये तो वनाफर जीत रहे है, वह जा पहुंचा नैनागढ़ नरेश नेपाली के पास उन्हें पट्टी पढ़ाने।

माहिल बोले तब राजा ते, हमते कछू कही ना जाए,

जाति बनाफर की ओछी है, तिनसे व्याव मुनासिब नायं।

करि आरधानीः तुम आल्हा ते, लावो अपने संग लिवाय,

क्षत्री बैठारो कोठरिन में, सबके शीश लेउ कटवाय।

नेपाली को बात जम गई और आल्हा के पास पहुंचकर चिकनी चुपड़ी बातें करके शादी की सहमति जताई। महोबा बालों ने नेपाली के तीनों बेटे और राजा पूर्ण को छोड़ दिया । आल्हा ऊदल मलखान सुलखान, सैयद ताल्हन मन्ना गूजर, रूपा बारी आदि सजधज कर विवाह के लिए राजा के साथ महल में जा पहुंचे। किन्तु जैसे ही मड़वे में भांवरें शुरू हुईं राजा के तीनों पुत्र तलवार खींच कर आल्हा पर टूट पड़े। किन्तु साथ आये ऊदल मलखान आदि वीरों ने ढाल अड़ाकर उनके प्रहार विफल कर दिए। भाँवरें पूरी होते ही सोनवां ने तुरंत विदा की इच्छा जताई। दरवाजे पर पालकी लग गई। किन्तु तभी नैनागढ़ के दो हजार योद्धा इन लोगों पर टूट पड़े। जैसे ही इस शोर शराबे की आवाज बाहर महोबा की सेना ने सुनी, वह भी गढ़ का द्वार तोड़कर अंदर आ पहुंची। तलवारों की खनखनाहट, घायलों की चीत्कार भीषण कोहराम, आँगन में खून का तालाब, ऐसे हुई सोनवां की विदाई। तीनों भाई जोगा भोगा और विजयी एक बार फिर गिरफ्तार कर लिए गए। अब जाकर राजा नेपाली की आँखें खुली और उन्होंने इन वीरों का यथोचित मान सम्मान किया। शायद लोकनिंदा का भय इसके पीछे मूल कारण रहा होगा। जो भी हो अपार दान दहेज़ इत्यादि देकर उन्होंने अपनी बेटी को विदा किया। महोबा पहुंचने पर बड़ा महोत्सव हुआ। देवल देवी, तिलका और मल्हना सोनवां को देखकर बहुत प्रसन्न हुईं।
एक टिप्पणी भेजें

एक टिप्पणी भेजें