नामलिंगानुशासन : अमरकोष की आधुनिक हिंदी व्याख्या डॉ अजय मणि का युगधर्म योगदान - संजय तिवारी



श्रुति, स्मृति, उपनिषद और संस्कृत के शब्दों को समझने को सरल बनाने का सफल प्रयास

आधुनिक परिवेश में नई शब्द व्याख्या और संपादन कर डॉ अजय मणि ने रचा इतिहास


यह कितना सुखद होगा जब श्रुति, स्मृति, उपनिषद और पुराणों में प्रयुक्त संस्कृत शब्दों की सरल हिंदी व्याख्या सामने आ जाय। यह निश्चय ही संस्कृत भाषा से भी ज्यादा हिंदी के लिए एक उपहार जैसा है। आश्चर्य की बात नहीं, क्योकि ऐसा ग्रंथ तैयार हो गया है । यह महती कार्य किया है डॉ अजय कुमार मणि त्रिपाठी ने। इसका प्रकाशन भारतीय विद्या संस्थान , वाराणसी से किया जा रहा है। यह युगानुकूल, युगधर्म स्वरूप भाषा का ऐसा कार्य है जिसकी आवश्यकता पिछली शताब्दी से ही निरंतर महसूस की जा रही थी। मूल संस्कृत ग्रंथों के अध्ययन को अत्यंत सरल बनाने के लिए किए गए इस कार्य को केवल शब्दों में व्यक्त करना कठिन है।

यहां यह समझ लेना बहुत जरूरी है कि यह नामलिंगानुशासन अथवा अमरकोष है क्या, और क्यों यह इतना महत्वपूर्ण है। इसके लिए 22 सौ वर्ष पीछे जाना पड़ेगा और तत्कालीन भारत की शिक्षा पद्धति को समझना होगा।

अमरकोष प्रथम शती विक्रमी के महान् विद्वान् अमर सिंह का संस्कृत के कोशों में प्रसिद्ध और लोकप्रिय कोषग्रंथ है। अन्य संस्कृत कोषों की भाँति अमरकोष भी छंदोबद्ध रचना है। इसका कारण यह है कि भारत के प्राचीन पंडित 'पुस्तकस्था' विद्या को कम महत्व देते थे, उनके लिए कोष का उचित उपयोग वही विद्वान्‌ कर पाता है जिसे वह कंठस्थ हो। श्लोक शीघ्र कंठस्थ हो जाते हैं। इसलिए संस्कृत के सभी मध्यकालीन कोष पद्य में हैं।अमरकोष में उपनिषद के विषय में कहा गया है-

उपनिषद शब्द धर्म के गूढ़ रहस्यों को जानने के लिए प्रयुक्त होता है। इतालीय पंडित पावोलीनी ने सत्तर वर्ष पहले यह सिद्ध किया था कि संस्कृत के ये कोष कवियों के लिए महत्वपूर्ण तथा काम में कम आनेवाले शब्दों के संग्रह हैं। अमरकोष ऐसा ही एक कोष है।

अमरकोष का वास्तविक नाम अमर सिंह के अनुसार नामलिंगानुशासन है, नाम का अर्थ यहाँ संज्ञा शब्द है। अमरकोष में संज्ञा और उसके लिंगभेद का अनुशासन या शिक्षा है। अव्यय भी दिए गए हैं, किंतु धातु नहीं हैं। धातुओं के कोष भिन्न होते थे। हलायुध ने अपना कोष लिखने का प्रयोजन कविकंठविभूषणार्थम्‌ बताया है। धनंजय ने अपने कोष के विषय में लिखा है, "'मैं इसे कवियों के लाभ के लिए लिख रहा हूं'", (कवीनां हितकाम्यया), अमर सिंह इस विषय पर मौन हैं, किंतु उनका उद्देश्य भी यही रहा होगा। अमरकोष में साधारण संस्कृत शब्दों के साथ-साथ असाधारण नामों की भरमार है। आरंभ ही देखिए- देवताओं के नामों में 'लेखा' शब्द का प्रयोग अमरसिंह ने कहाँ देखा, पता नहीं। ऐसे भारी भरकम और नाममात्र के लिए प्रयोग में आए शब्द इस कोश में संगृहीत हैं, जैसे- देवद्र्यंग या विश्वद्र्यंग।


कठिन, दुर्लभ और विचित्र शब्द ढूँढ़-ढूँढ़कर रखना कोषकारों का एक कर्तव्य माना जाता था। नमस्या (नमाज या प्रार्थना) ऋग्वेद का शब्द है। द्विवचन में नासत्या, ऐसा ही शब्द है। मध्यकाल के इन कोषों में, उस समय प्राकृत शब्द भी संस्कृत समझकर रख दिए गए हैं। मध्यकाल के इन कोषों में, उस समय प्राकृत शब्दों के अत्यधिक प्रयोग के कारण, कई प्राकृत शब्द संस्कृत माने गए हैं; जैसे-छुरिक, ढक्का, गर्गरी, डुलि, आदि। बौद्ध-विकृत-संस्कृत का प्रभाव भी स्पष्ट है जैसे- बुद्ध का एक नामपर्याय अर्कबंधु। बौद्ध-विकृत-संस्कृत में बताया गया है कि अर्कबंधु नाम भी कोष में दे दिया। बुद्ध के 'सुगत' आदि अन्य नामपर्याय ऐसे ही हैं। इस कोश में प्राय: दस हजार नाम हैं, जहाँ मेदिनी में केवल साढ़े चार हजार और हलायुध में आठ हजार हैं। इसी कारण पंडितों ने इसका आदर किया और इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई।

अब डॉ अजय कुमार मणि त्रिपाठी की व्यख्या और उनके द्वारा संपादित अमरकोष प्रकाश में आ रहा है। यह निश्चित रूप से इस सदी में भाषा और शब्द की दुनिया की यह अबतक की सबसे बड़ी घटना है। व्यख्यासुधा, रामाश्रमी, राजराजेश्वरी विभूषित नामलिंगानुशासन अमरकोष का यह प्रकाशन प्राचीन भारतीय साहित्य को पढ़ने, समझने और उसकी व्याख्या प्रस्तुत करने में एक सामान्य हिंदी भाषी व्यक्ति के लिए भी सबकुछ सरल बना देगा। संपूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी, श्री काशी विश्वनाथ न्यास परिषद के विद्वानों के साथ ही काशी एवं भारत के अन्य अनेक विद्वानों के सहयोग और दिशानिर्देशन में तैयार किये गए इस ग्रंथ के कुल 892 पृष्ठ भारत की भाषिक क्षमता और संप्रेषणीय मनोभाव को विश्वपटल पर प्रस्तुत करने के लिए तैयार हैं।

इस ग्रंथ के पुरोवाक में संपादक और व्याख्याकार ने स्पष्ट भी कर दिया है कि साहित्य में कोषों का प्राकट्य उतना ही प्राचीन है जितने प्राचीन उनसे संबंधित वांग्मय हैं। विश्व के सभी वांगमयों में सर्वाधिक प्राचीन संस्कृत है जिसका आरंभिक स्वरूप वेद अर्थात श्रुति स्वरूप उद्घाटित होता है। ऐसे वांगमयों को सभी लोग जिस संसाधन से समझ सकें और यह सरसुगम बने, इसके लिए इनकी टीकाओं और भाष्यों की रचना समय समय पर होती रही है। वांगमयों का सर्वजन वेद्य होना सुगमतापूर्वक उनके अर्थावबोध पर निर्भर करता है। इसके लिए ऐसे शास्त्र की आवश्यकता होती है जो कि उनमें गुम्फित शब्दों के अर्थ को सरलता से सुलभ करा सके। डॉ अजय कुमार मणि त्रिपाठी का यह ग्रंथ यही कर रहा है।


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