अंग्रजों को ललकारने वाली ग्वालियर की दो राजमाताएँ - बैजाबाई और तारादेवी सिंधिया ।



1774 से 1781 तक लगातार छः वर्ष मराठाओं का अंग्रेजों से युद्ध हुआ। किन्तु 31 दिसम्बर 1802 को हुई बसई संधि के बाद पेशवा बाजीराव द्वितीय ने तो पूरीतरह पराजय स्वीकार कर ली और महाराष्ट्र छोड़कर बिठूर अर्थात आज के कानपुर जा बसे। इस प्रकार उन्होंने अंग्रेजों का आश्रय और अधीनता स्वीकार कर ली। लेकिन दौलतराव सिंधिया इसके बाद भी संघर्ष करते रहे। दौलत राव सिंधिया की प्रमुख ताकत उनका तोपखाना था। वह किसी भी स्तर पर अंग्रेजों से कमतर नहीं था, क्योंकि उसे अंग्रेज और फ्रेंच दोनों ने मिलकर तैयार किया था। पेशवा की पराजय के ठीक एक वर्ष बाद अर्थात 31 दिसंबर 1803 को विश्वासघात के कारण वे भी पराजित हो गए। उनका प्रमुख सेना नायक मूसा पीरू अंग्रेजों से जा मिला और विवश सिंधिया को अंग्रेजों से संधि करनी पड़ी। इस संधि को सुर्जी अर्जन गाँव संधि के नाम से जाना जाता है। इसमें सिंधिया के अधिपत्य के बड़े भूभाग पर अँगरेजों का अधिपत्य हो गया तथा एक अंग्रेज रेजीडेंट को अपने यहाँ रखने को सहमत होना पड़ा। एक बात उल्लेखनीय है कि जब सिंधिया लड़ रहे थे, तब होल्कर तटस्थ होकर दूर से तमाशा देख रहे थे, उसके बाद जब होल्कर लड़े और कहा जाए तो सबसे देर तक लड़े, तब सिंधिया अंग्रेजों से संधि कर चुके थे और वे युद्ध से पृथक रहे।

आईये अब एक नजर बैजाबाई के व्यक्तित्व पर भी डालते हैं। बैजा बाई का जन्म 1784 में महाराष्ट्र प्रान्त के कागल, कोल्हापुर में हुआ था। उनके पिता सखाराम घाटगे कोल्हापुर के भोंसले शासकों के अधीन कागल के देशमुख थे। फरवरी 1798 में पूना में, 14 साल की आयु में, उनका विवाह ग्वालियर के महाराजा दौलत राव सिंधिया से हुआ । विवाह के बाद उन्हें एक भीषण मानसिक वेदना का भी सामना करना पड़ा। हुआ कुछ यूं कि उसके पिता, सखाराम घाटगे, महाराजा के दरबारी तो बन गए, किन्तु वे कट्टर ब्रिटिश विरोधी थे। उनकी राष्ट्रीयता की भावना अत्यधिक प्रबल थी। ब्रिटिश भी उन्हें इसी कारण बेहद नापसंद करते थे। इतना अधिक कि जब पराजित होने के बाद महाराजा दौलतराव सिंधिया को अंग्रेजों से संधि को विवश होना पड़ा तो 1805 की उस संधि में एक शर्त यह भी थी कि उन्हें अपने ससुर को प्रभाव के पदों से हटाना होगा। 
एक बार फिर वही पुरानी कहानी दोहराई गई। जिस प्रकार पेशवा बाजीराव द्वितीय की अंग्रेजों से संधि हो जाने के बाद भी सिंधिया और होल्कर ने अंग्रेजों से संघर्ष लम्बे समय तक जारी रखा था, उसी प्रकार बुजुर्ग सखाराम घाटगे भी सिंधिया ईस्ट इण्डिया कंपनी की संधि के बाद भी प्रतिकार करते रहे। यहाँ तक कि 1809 में महाराजा को उनकी नजरबंदी का आदेश देना पड़ा। लेकिन बुजुर्ग घाटगे  ने भीषण प्रतिरोध किया और जीवित हाथ नहीं आये। उन्होंने सशस्त्र संघर्ष करते हुए अपनी आत्माहुति दी। महारानी बेजा बाई उस समय गर्भवती थीं। उनकी मानसिक वेदना की सहज कल्पना की जा सकती है। कुछ समय बाद उन्होंने एक पुत्र को जन्म दिया जो अल्पजीवी रहा। 
21 मार्च 1827 को दौलतराव सिंधिया का निःसंन्तान ही स्वर्गवास हुआ। उनके बाद महारानी बैजाबाई ने राज्य को अंग्रेजों के हत्थे चढ़ने से बचाने के लिए 17 जून 1827 को एक दूर के रिश्तेदार के पुत्र मगत राव को गोद लेकर उनके नाम से शासन सूत्र संभाले । बाद में मगत राव को जनकोजी द्वितीय के रूप में जाना गया । उनका सोलह वर्षीय शासनकाल भी संघर्ष पूर्ण ही रहा व उनके तत्कालीन अंग्रेज रीजेन्ट के साथ लंबे समय तक तनावपूर्ण संबंध रहे ।

1843 में महज पच्चीस वर्ष की आयु में, महाराज जनको जी राव के देहांत के समय उन्हें मरणासन्न देखकर अंग्रेज कूटनीति को समझने वाले सरदार आंग्रे ने त्वरित निर्णय लिया और रियासत बचाने के लिए मराठा सरदार हनुमंत राव के बेटे भागीरथ राव को महाराज जनकोजी राव ने मृत्युशैया पर ही गोद लिया। महाराज की मृत्यु के बाद उन्हें जयाजीराव के नाम से नया महाराज घोषित कर दिया गया |

लेकिन तत्कालीन लार्ड एडिनबरा ने नए महाराज को मान्यता नहीं दी और प्रशासक के रूप में अपने एक बफादार दिनकर राव राजबाड़े को नियुक्त कर दिया | महारानी तारादेवी ने इसे न केवल अपना, बल्कि सम्पूर्ण ग्वालियर का, अपने पूर्वज महादजी सिंधिया तथा छत्रपति शिवाजी महाराज की हिन्दू पद्पादशाही वाली विरासत का भी अपमान माना और लार्ड एडिनबरा के उस बेमेल पुर्जे को अपने शासन तंत्र से उखाड़ फेंका। लार्ड एडिनबरा ने रुष्ट होकर ग्वलियर की रियासती सेना में कटौती करने का फरमान भेजा, तो महारानी ने उसे भी अस्वीकार कर दिया। वे कमजोर होने को कतई तैयार नहीं थीं। नतीजा यह निकला कि अंग्रेज फौजें पनिहार तक आ पहुंचीं। युद्ध के बाजे बज उठे। अंग्रेजों को आशा ही नहीं थी कि अल्प बयस्क महाराज के होते कोई सशस्त्र प्रतिरोध होगा। किन्तु उन्हें ग्वालियर की राजमाता की आत्म शक्ति का अनुमान नहीं था। जो यथाशक्ति अपने अधिकारों के लिए जूझने को तत्पर थीं। और फिर तारादेवी की आज्ञानुसार ग्वालियर की सेना ने अंग्रेज फौजों का मुकाबला शुरूकर दिया। विकट युद्ध हुआ और एक बारगी तो अंग्रेज फौजों को पीछे हटने को भी विवश होना पड़ा। किन्तु अंततः विजय प्रशिक्षित और व्यवस्थित अंग्रेज सेना की ही हुई।

जो भी हो महाराजपुरा पनिहार में अंग्रेजों से हुआ यह संघर्ष प्रतीक है राजमाता तारादेवी के स्वाभिमान का, उनके स्वतंत्रता प्रेम का, उनके साहस का। उन्हें गर्व था महादजी सिंधिया की अपनी गौरवपूर्ण विरासत पर। वे सच्चमुच ऋषि गालव की तपोभूमि ग्वालियर के क्षितिज पर प्रकाशित हुईं ध्रुव तारा थीं।
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